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जनवासा

रवीन्द्र भारती

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3788
आईएसबीएन :81-7119-983-6

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एक तीखा एवं विचारोत्तेजक नाटक है ‘जनवासा’।

Janvasa

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

जनवासा की प्रस्तुति देखकर भूदान के भ्रष्टाचार स्वयंसेवियों की स्वयं की सेवा और क्रान्तिकारी धारा की पतनशीलता की समकालीनता का दर्शन हुआ। समय के सच पर भारती की अद्भुत पकड़ है।
सच कहा जाए तो जनवासा मानवीय संवेदनाओं का एक ऐसा कोलॉज है जिसका हर रंग सामाजिक सरोकार के ताने-बाने में समाया है। नाटक नक्सलवादी विचार-धाराओं के टकराव, भूदान आंदोलन, वर्णव्यवस्था की बढ़ती खाई, अंधविश्वास से मुक्ति के द्वार की खोज और अशिक्षा के बीच संभ्रांत वर्गों की स्वार्थलोलुपता के छद्म रूपों को नग्न करता है। बल्कि समाज की अंधी सुरंग में रोशनी भी दिखाता है, जैसे अब भी बहुत कुछ समाप्त नहीं हुआ है।

-दैनिक जागरण,पटना

मेहनतकश भारतीय जनमानस में उपजे अनेक प्रश्नों की पृष्ठभूमि में आज की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का आइना है ‘जनवासा’। इस नाटक में सुधारवादी एवं तथाकथित क्रान्तिकारी दोनों ही अपनी सूरत पहचान सकते हैं।
-कामरेड डी.प्रकाश

‘जनवासा’ में क्रान्ति और कल्याण की दूकानदारी करनेवालों के असली स्वरूप को उजागर किया गया है। सत्य के पक्ष में खड़ा होने पर कौन मित्र बनेंगे, कौन दुश्मन-इसकी परवाह किए बगैर रवीन्द्र भारती ने साहित्यिक ईमानदारी का परिचय दिया है।

-सुरेश भट्ट,एक्टिविस्ट

एक तीखा एवं विचारोत्तेजक नाटक है ‘जनवासा’। भाषा,शिल्प,संगीत एवं कथन,उपकथन ह्रदयग्राही है। बेहद रोचक यह नाटक सिर्फ राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों की सच्चाई का न सिर्फ दर्शन कराता है बल्कि भारतीय लोक परम्परा के बहुरंग को भी उजागर करता है। बहुत दिनों के बाद एक बढ़िया प्ले देखने को मिला।
-डॉ.खालिक चौधरी

जनवासा

‘जनवासा’ की 12 व 13 अगस्त, 2004 को थियटर यूनिट, पटना द्वारा की गई प्रस्तुति (निर्देशनः राजीव रंजन श्रीवास्तव) में इन कलाकारों ने भाग लिय़ा

मंच पर


भागदेई :  सुरुचि वर्मा
पल्ला : राजेश राजा
भूदानी भाई : राजेश कुमार सिन्हा
रामफल : सुनील कुमार
मीठू : राजीव कुमार
सिस्टर सुयेटा / नटी : राधा मिश्रा
ईश्वर भाई : विनय राज
डी. के. प्रकाश : प्रकाश बंधु
बैंड मास्टर : कुमार भीम
कार्यकर्ता-1 जगरनाथ
पहला आदमी : आशीत कुमार
नट/हीरा डाकिया
चलित्तर महतो/ग्रामीण-1 : रविशंकर
दूसरा आदमी कार्यकर्ता-2 : अमित राज
खालिदा / कलाकंद/कार्यकर्ता -3 : कुमार संजय
हरिहर /कार्यकर्ता-4 : कुमार कर्ण
रमापति भाई : राजीव रंजन श्रीवास्तव

मंच पार्श्व


संगीत : राजू मिश्रा, वृजबिहारी मिश्रा, विवेकान्द मिश्रा
सहयोग : विजय कुमार (वायलिन) कुश (बाँसुरी) मारकण्डेय पांडेय (साइड इफेक्ट्स)
नृत्य संयोजन : ओम प्रकाश
सेट्स/वस्त्र विन्यास : उमेश कुमार शर्मा
सहयोग : प्रेमचंद महतो /प्रमोद कुमार
प्रकाश- परिकल्पना : राकेश रंजन
सहयोग : राज कुमार
ध्वनि : संजय वर्णमाला
रूप सज्जा : विनय राज / रेखा राज
मंच सामग्री : कु. भीम, आशीत, अमित
प्रचार : पंकज करपरने
फोटोग्राफी/विडियोग्राफी : राजीव रंजन लाल ‘मधुप्रिया’
कोष-प्रभार : अमित राज /आशीत कुमार/कुमार भीम
मुद्रण : वैष्णवी कम्यूटर, संजय बुक बाइंडिंग हाउस
कार्ड/टिकट/पोस्टर/ब्रोसर : प्रकाश बंधु
पूर्वाभ्यास प्रभारी : कुमार भीम
प्रस्तुति नियंत्रक : राजेश राजा
प्रस्तुति संयोजक : राजेश कुमार सिंहा
मंच उद्घोषणा : ज्योति सिन्हा
नाटककार : रवीन्द्र भारती
परिकल्पना एवं निदेशन : राजीव रंजन  श्रीवास्तव
हिमालय सांस्कृतिक शोध संस्थान नाट्य अकादमी एवं रंगमंडल सत्तोहल, मंडी (हि.प्र.) द्वारा 18 व 20 जून, 2004 को दी गई प्रस्तुति (निर्देशन : संजय उपाध्याय) के कलाकार

मंच पर


भागदेई : दीपिका ठाकुर
भूदानी : सचिन शर्मा
ताना : ऋषिराज सिंह बैस ‘राज’
पल्ला : उपेन्द्र सिंह चौहान
राम फल : विकास तिवारी
मीठू : राकेश राणा ‘कांगड़ी’
अम्मा : दक्षा शर्मा
ईश्वर भाई : विशाल भाटिया
डी. के. : शुभ दीप राहा
डाकिया : अरविन्द कमार वर्मा
सिस्टर सुयेटा : दक्षा शर्मा
जगन्नाथ : आयुष्मान कथुरिया
खालिद भाई : ऋषिपाल
रमा पति भाई : आयुष्मान कथुरिया
कार्यकर्ता : अरविन्द कुमार वर्मा, वेद कुमार चौहान,
           विशाल भटिया राकेश राणा ‘कांगडी’
ग्रामीण : वेद कुमार चौहान, अरविन्द कुमार वर्मा, 
         विशाल भाटिया, राकेश राणा

मंच पार्श्व


प्रस्तुत प्रबंधक : गलैडविन जॉन
सहायक मंच व्यवस्थापक : ऋषिराज सिंह बैस ‘राज’/ऋषिपाल
मंच सज्जा : ग्लैडविन जॉन
सहायक मंच सज्जा : ऋषिराज सिंह बैस ‘राज’ ऋषिपाल
वस्त्र विन्यास : शुभ दीप राहा/राकेश राणा ‘कांकड़ी’/आयुष्मान कथुरिया
प्रकाश परिकल्पना : ऋषिपाल
सहायक प्रकाश व्यवस्था : वेद कुमार चौहान/अरविन्द कुमार वर्मा
रूप सज्जा : ग्लैडविन जॉन/उपेन्द्र सिंह चौहान/विशाल भाटिया
संगीत परिकल्पना : श्री संजय उपाध्याय
संगीत संयोजन : अनिल मिश्रा
लेखक : श्री रवीन्द्र भारती
परिकल्पना एवं निर्देशन : श्री संजय उपाध्याय
सह- निर्देशन : अरविन्द कुमार वर्मा
गायक : अनिल मिश्रा/सीमा शर्मा/ अंजना पुरी एवं                                                     कोरस (सभी छात्र)
मंच सामग्री : कुँवर नरेश पाल सिंह चौहान/विकाश
तिवारी/आयुष्मान कथुरिया
ब्रोशर : ऋषिराज सिंह ‘राज’/ऋषिपाल
प्रचार एवं प्रसार  : कुँवर नरेश पाल सिंह चौहान
विशेष सहयोग : श्रीमती अंजना पुरी (रंग विदूषक, भोपाल) श्रीमती सीमा, पोइ-तिन (सिंगापुर नाट्य अकादमी)
प्रस्तुति नियंत्रण : श्रीमती सीमा शर्मा
विशेष आभार : श्री सुरेश शर्मा-अध्यक्ष
हि.सा. शो. सं. रंगमंडल एवं नाट्य
अकादमी –सत्तोहल, मंडी (हिमाचल प्रदेश)

पात्र


             भूदानी भाई
           पल्ला
ताना
भागदेई
अम्मा
मीठू
राम फल
सिस्टर सुयेटा
ईश्वर भाई
डाकिया बैडंमास्टर
ग्रामीण, कार्यकर्ता, लड़कियाँ
खालिदा
जगन्नाथ
डी. के.
रमापति भाई

।। पूर्वरंग ।।


(परदा खुलता है, मद्धिम रोशनी में नट-नटी मंच पूजा
करते दिखाई पड़ते हैं, धीरे-धीरे रोशनी तेज होती है, संगीत उठता है।)

तिन-तिन जोड़ गिरह लगाओ
काँपत है परछाईं
आग जिगर का जुगा राखो गुइयाँ
कथा अभी है तताई.....
तरई, चिरई, तिरिया मोरे भीतर
सबद पड़त सुनाई
आग जिगर का जुगा राखो गुइयाँ कथा अभी है  तताई

(नेपथ्य से किसी स्त्री के सिसकने की आवाज आती है। नट-नटी उधर देखते हैं। आवाज थम जाती है। )

नट : पड़ोस का रमझल्ला है। पड़ोस का चूल्हा जला कि नहीं, अपन को इससे क्या मतलब ! हम अपना खाना क्यों खराब करें ?
छोड़ो पुराना ख्यालात। पड़ोस में रोवना-पीटना पड़ा है, तो पड़ा है कोई औरत पिट रही है, तो पिट रही है। तो तू नहीं पिट रही है न ? हो गई बात खत्म। पड़ोसी को तो माधवन जी और कपूर साहब की तरह। अगल-बगल कोई मतलब नहीं। उन्हें कल तक नहीं मालूम था कि उसके बगल में कौन रहा है। अम्बिका ठाकुर से जब हमने उनका परिचय कराया तब उन्हें मालूम हुआ कि हम पड़ोसी हैं और तीस साल से एक ही जगह रह रहे हैं। अम्बिका ठाकुर जितने शरीफ, उतने ही माधवन और कपूर साहब भी हैं। सुसंस्कृत हैं सब। ऐसे शिष्टों को कौन नहीं किराएदार रखना चाहेगा !
नटी : इसी को कहते हैं नगर संस्कृति इस संस्कृति में रहना होगा तो इसी अपरिचित भाव से रहना होगा नहीं तो मिसफिट।
नट : इतने दर्शक आए भए हैं, तो चल मिलकर ऐसा कुछ राँधते हैं कि जब जो जेंवें तो उन्हें मजा मिले और जो न जेंवें, वे सुनकर मजा लें।
नटी : चिरई की जिउ जाय, लड़िका का खिलौना, तुम्हें मजा मिल रहा है !
नट : जान दे दें ? नटी : मैं जान देने को कह रही हूँ ? महसूस करो, अपने आस-पास को महसूस करो। मनुष्य अपनी संवेदना से पहचाना जाता है।
नटी : अगर तुम्हारी बात पर चलें तो हो गई छुट्टी। एक दिन से बस दो दिन। मलूम हुआ कि बेल्लला हो गए,  कोऊ न रोवनहारा।
नट : बघारने को बघारते हो बड़ी-बड़ी बात। सच जब अकेला पड़ता है तो जाते हो झूठ के साथ। तिरिया को जानो हो ? रहत तो हो तिरिया के साथ  !
नट : ऊ का है संस्कृत श्लोक ! हाँ, जत्र स्त्री पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवता...
नटी : पाँव की जूती नहीं !
नट : मजाक जनि करो। कभी ऐसी बात हमरे मुहँ से निकल सकत है भला !
नटी : कुछ लोग बिना मुंह से कुछ कहे, बहुत कुछ कह देते हैं, ऐसी परिस्थिति क्रियेट कर देते हैं कि सारा दोष किसी और के मत्थे चला जाता है।
नट : और मारी जाती है स्त्री। यही न कहना चाहती हो !
नटी : व्यंग्य  मत करो, तिरिया होना नहीं है आसान। घर में दो दिन तिरिया होकर रहोगे, तब बुझाएगा कितने चावल में कितने धान।
नट : कौन तिरिया !
नटी : जिस तिरिया की बात मैं कर रहीं हूँ, उसे समझ रहे हो तुम।
नट : समझा बहुरा गोढ़िन। पूरा तिरिया चरित्तर। सोलहों कला में पिंगल ।
नटी : ( बीच में) बस, बस...बहुरा कोढ़िन का किस्सा बाद में
नट तो तुम्हीं बताओ, का भागदेई का किस्सा सुनावें ?
नटी : भागदेई कौन ?
नट : पल्ला की बहन, भूदानी भाई, ताना, रामफल, मीठू.... जहाँ रहत हैं। अब आगे न पूछना, न टोकना। जो दिखावें सो  देखना, जो सुनाएँ सो सुनना।
नटी : हमारे समझने से क्या होगा  ? ये जो आइन हैं, इन्हें न समझाओ।
नटी : तो समझाओ।
नट न, न, दिखाओ।
नटी : ठीक है, ठीक है। अब देर मत करो। यह देखनहार लोग, रसज्ञ लोग आए भए हैं। खेल शुरू करो।
नट : तो शुरू करो।
नटी : शुरू करो।
नट : हाँ, हुई न यह बात।

(नट-नटी दोनों युगल स्वर में गाते हैं।)

तरई, चिरई तरिया मोर भीतर
सबद पड़त सुनाई
आग जिगर का जुगा राखो गोइयाँ
कथा अभी है तताई...........

(धीरे-धीरे रोशनी विलुप्त होती है।)

अध्याय :1  
दृश्य : 1


(रोशनी आती है। एक चबूतरा दीखता है जिस पर ढ़ेर सारे कागज के रथ और मउर रखे हुए हैं। कुछ बाँस की डंडी में टँगे हुए हैं। पास में बैठी भागदेई रथ में फुलना लगा रही है और उसकी सहेली कलपी कैंची से रंगीन कागज काट रही है। चबूतरे से सटा है भागदेई के घर का दरवाजा। दरवाजे पर चट का परदा झूल रहा है। किसी बात पर भागदेई और कलपी हँस रही हैं कि इसी बीच भूदानी भाई और उनके साथ ईश्वर भाई आते हैं। हँसी थम जाती है, कलपी घर के अन्दर चली जाती है। भागदेई भूदानी भाई को प्रणाम करती है और स्टूल पर बैठने के लिए इशारा करती है। दोनों बैठते हैं।)

भूदानी भाई : तू कैसी है ? भागदेई दुकान चल रही है न ठीक-ठाक ?  
 भागदेई : टुकधुम-टुकधुम।
भूदानी भाई : हाँ, पहलेवाली बात कहाँ रही। भाव कहाँ है ? जब भाव नहीं तो आस्था कहाँ और जब आस्था नहीं तो भक्ति कहां ? भक्ति रहेगी जिसके पास, वही न समझेगा रथ का महातम...दिन-पर-दिन भगत लोग कम होते जा रहे हैं। लगन के सीजन में मउर जितने बिकते होगें, हमारे खयाल से साल भर में उतने रथ नहीं बिकते होंगे न ?
भागदेई : सो तो है।
भूदानी भाई : खैर... पल्ला कहाँ है ?
भागदेई : भइया कहीं निकसा है।
भूदानी भाई : अरे, हाँ इनका परिचय कराना भूल ही गया। ये हैं ईश्वर भाई। इनका बड़ा एन. जी . ओ. है। बहुत काम कर रहे हैं। दिल्ली में रहते हैं। एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का भी अपना बिजनेस है। हमारे साथ भूदान के साथी सरजू भाई के लड़के हैं। विद्वान के साथ-साथ बड़े साबिकावाले लोगों में आप हैं।
भागदेई : इपोट-उपोट का होत है ?
ईश्वर भाई : एक्सपोर्ट, इम्पोर्ट...नो लोट-पोट।
भूदानी भाई : हुआ, हुआ। अभी इनके बीच जन-जागृति का बहुत काम करना है। कुछ दिनों पूर्व आयरलैंड के पैट्रिक नोलन आई थीं। दक्षिण भारत के किसी एन. जी. ओ. ने उन्हें बुलाया था। पारस भाई ने मिलवाया हमें। अहोभाग्य ! उन्हें ग्रामीण क्षेत्र में घुमाने का मुझे अवसर मिला। उन्हें जब मैंने लोक संस्कृति का अनुपम उपहार रथ और मउर भेंट किया तो वे चमत्कृत रह गईं। उन्होंने कहा भारत की लोक संस्कृति दुनिया में सबसे ज्यादा सम्पन्न है। पल्ला और भागदेई का उन्होंने इन्टरव्यू लिया। फोटोग्राफ भी लिया। याद है न-भागदेई ?
भागदेई : फोटो मढ़वाकर भइया के घर में लटकाया है।
ईश्वर भाई : महीने में कितने रथ-मउर बना लेती हो ?
भागदेई कोनो ठीक नहीं है।
भूदानी भाई : यूँ समझिए कोई खाली हाथ नहीं लौटता।
ईश्वर भाई : भेरी गुड, भेरी गुड।
भूदानी भाई :लोक संस्कृति, लोक गाथाओं में रथ-मउर की बड़ी महिमा है। इस धरोहर को अक्षुण्ण रखने की जरूरत है। इन्हीं से जन्मी हैं लोक कथाएँ और जन्में हैं हजारों लोकगीत।
ईश्वर भाई : यानी यह काम की चीज है !
 भूदानी भाई : यह तो समझने पर है।
ईश्वर भाई : ( भागदेई के मुखातिब होकर) यानी दोनों पूजनीय हैं, रथ भी मउर भी।
भूदानी भाई : क्यों भागदेई ?
भागदेई : भगवान रथ पर बइठ के भक्त जन की विनती सुनत हैं। रथ यानी झाँपा-झाँपी यानी गहवर। इसका भी एक किस्सा। ज्योति पंजियार को एक दिन अकासबानी सुनाई पड़ी। धर्मराज की आकासबानी, कहां-बाँस की किरची से कागद की दीवाल खड़ा करना धरम का गहवर बनाना, पूजा करना, हम दरसन देंगे। पंजियार ने कहा- हम दुसाधिन का दूध पीये हैं, हम जात नापाक हैं। धरमराज बोला दूध कहीं होता है नापाक ? यह बोलकर धरमराज मुलगैन हो गया। पंजियार भगत का नाम उजागिर हो गया चहुँओर। होने लगा जै-जैकार। कहा कहते हैं कि भगतई में कुछ चूक हो गई। कोढ़ फूट गया। जिस पंजियार के गोड़ छूने के लिए इतनी भीड़ जुटती थी देखकर लोग भागने लगे। आदमी-तो-आदमी गाछ-बिरिछ ने भी साथ छोड़ दिया। तालाब के पास पंजियार गया तो तालाब सूख गया। गाछ की छाया में गया तो गाछ सूख गया। पंजियार व्याकुल हो गया। अन्त में कदली बन गया। वहां पहुँचा तो कोयल मिली। कोयल से उसने कहा-हमें पानी पियावा। पियास से जान जा रही है। कोयल ने पूछा-पानी कहां मिलेगा यहाँ ? पंजियार जवाब दिया कि जहाँ गाय है वहाँ जाकर देखो, पानी मिल जाएगा। इतना कहना था कि गायवार पानी लेकर सामने हाजिर। पंजियार को उसने पानी पिलाया। पंजियार ने पूछा-अहाँ के छी ? केकर गाय छय ? गायवार बोला-छोड़ू इ सब। सवेर से शाम तक पानी पियावै छी। तुमको भूख लगी है ? पंजियार ने कहा-हाँ, गायवार तब बोला- अछिमतपुर यहां से नजदीक है। वहां का राजा बड़ा दयालू है, जाओ वहां, भूख-प्यास सब मिट जाएगी।   

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