कहानी संग्रह >> यानी कि एक बात थी यानी कि एक बात थीमृणाल पाण्डे
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दो दशकों में लिखी गयी कहानियों का पहला खंड...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कुछ ही दिन पहले मेरी दो कहानियाँ पढ़कर दो पाठकों के क्रोध-भरे पत्र आए।
एक ने लिखा था कि ‘अपने लेखों और अन्य कार्यक्रमों में मैं
स्त्री-मुक्ति और आत्मनिर्भरता की बात करती हूँ, जबकि इस कहानी की नायिका
की घुटनभरी-दब्बू ज़िंदगी हमें कोई ऐसा ‘संदेश’ नहीं
देती।’ दूसरे पाठक ने भी घुमा-फिराकर यही पूछा था कि
‘ठीक
है’ पात्रों की निजी दुनिया के दबावों और उनके सुख-दुख से कहानी
हमारा साक्षात्कार तो कराती है, पर यह अंत में आकर हमें
‘सिखाती’ क्या है ?’
मुझे लगता है कि एक बोझिल हितोपदेशी पाठ्यक्रम की किताबों से ‘साहित्य’ पढ़कर निकले ऐसे पाठक रचनात्मक साहित्य की आत्मा से अपरिचित ही रह आए हैं। मुझे खेद है, मेरी कहानियाँ इनकी थोथी उपदेश-तृष्णा नहीं बुझा सकतीं।
हर कहानी या उपन्यास घटनाओं-पात्रों के जरिए सत्य से एक आंशिक और कुतूहलभरा साक्षात्कार होता है। साहित्य हमें जीवन जीना सिखाने की बजाए टुकड़ा-टुकड़ा ‘दिखाता’ है,
वे तमाम नर्क-स्वर्ग, वे राग-विराग वे सारे उदारता और संकीर्णता-भरे मोड़, जिनका सम्मिलित नाम मानव-जीवन है। जो साहित्य उघाड़ता है, वह अन्तिम सत्य या सार्वभौम आदर्श नहीं, बहुस्तरीय यथार्थ होता है। यदि जीवन में आदर्श या सत्य अनुपस्थित या अवहेलित हैं, तो उस विडंबना को भी वह जताता जाता है।
मेरी तहत साहित्य को रचना, परोक्ष रूप से सत्य से आंशिक साक्षात्कारों की ऐसी ही एक श्रृंखला पाठकों के लिए तैयार करना होता है, जिसके सहारे एक सह्रदय व्यक्ति अपनी चेतना, अपनी संवेदना और अभिव्यक्ति-क्षमता का सहज ही कुछ और विस्तार होता पाए। चिंतनपरक लेख और रचनात्मक लेखन के बीच का फासला तर्कसंगत ज्ञान और संवेदनात्मक समझ के बीच का फासला हैं।
मुझे लगता है कि एक बोझिल हितोपदेशी पाठ्यक्रम की किताबों से ‘साहित्य’ पढ़कर निकले ऐसे पाठक रचनात्मक साहित्य की आत्मा से अपरिचित ही रह आए हैं। मुझे खेद है, मेरी कहानियाँ इनकी थोथी उपदेश-तृष्णा नहीं बुझा सकतीं।
हर कहानी या उपन्यास घटनाओं-पात्रों के जरिए सत्य से एक आंशिक और कुतूहलभरा साक्षात्कार होता है। साहित्य हमें जीवन जीना सिखाने की बजाए टुकड़ा-टुकड़ा ‘दिखाता’ है,
वे तमाम नर्क-स्वर्ग, वे राग-विराग वे सारे उदारता और संकीर्णता-भरे मोड़, जिनका सम्मिलित नाम मानव-जीवन है। जो साहित्य उघाड़ता है, वह अन्तिम सत्य या सार्वभौम आदर्श नहीं, बहुस्तरीय यथार्थ होता है। यदि जीवन में आदर्श या सत्य अनुपस्थित या अवहेलित हैं, तो उस विडंबना को भी वह जताता जाता है।
मेरी तहत साहित्य को रचना, परोक्ष रूप से सत्य से आंशिक साक्षात्कारों की ऐसी ही एक श्रृंखला पाठकों के लिए तैयार करना होता है, जिसके सहारे एक सह्रदय व्यक्ति अपनी चेतना, अपनी संवेदना और अभिव्यक्ति-क्षमता का सहज ही कुछ और विस्तार होता पाए। चिंतनपरक लेख और रचनात्मक लेखन के बीच का फासला तर्कसंगत ज्ञान और संवेदनात्मक समझ के बीच का फासला हैं।
मृणाल पांडे
प्रस्तावना
‘‘तुम क्यों लिखते/लिखती हो ?’’
हिंदुस्तान में एक लेखक से जितनी बार यह सवाल पूछा जाता है, शायद ही विश्व में कहीं और पूछा जाता हो ?
यह सवाल मुझे हमेशा तनिक विस्मय में डाल देता है, क्योंकि इसके भीतर मानव-स्वभाव और लेखन-प्रक्रिया दोनों ही के प्रति एक किस्म का अज्ञान छिपा है। लेखन समेत सारी कलाएँ अभिव्यक्ति से जुड़ी हैं, और अभिव्यक्ति की इच्छा ही है, जो अंततः हर कलाकार को रचनाकर्म में प्रवृत्त करती है, भले ही वह कर्म उसके लिए परितोष-भरा हो या पीड़ाकारक।
बहुदा उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में मँजे हुए कुछ कलाकार जो उत्तर देते हैं,
वे हमें ऊपरी तौर पर चाहे बड़े दार्शनिक, बड़े आदर्शवादी प्रतीत हों, गौर से देखने पर वे मात्र शाब्दिक आडंबर या अहंकारमय आत्मस्फीति के आगे नहीं जाते दीखते। शायद इसी से डी.एच.लारेंस ने कहा था, कि कहानी पर यकीन करो, लेखक पर नहीं। कारण की माँग करने पर लेखक उत्सुक पाठक की जिज्ञासा संतुष्ट करने को अनेक आदर्श वाक्यों या जटिल फतवों की कीवों से अपनी चंचल रचना को तो स्थिर कर देगा, लेकिन अगर वह सशक्त होगी तो जल्द ही पाठक पायेगा कि रचना उन तमाम कीलों को लिए दिये उठ खड़ी हो गयी है, और खुद अपनी अभीप्सित दिशा को चल पड़ी है।
अतः वे सुधी पाठक जो प्रस्तावना में मैं-क्यों-लिखती-हूँ, ऐसा कुछ ढूँढ़ने बैठे हों मुझे क्षमा करें।
मेरा यह मानना है, कि गद्य हो अथवा पद्य, हर रचना अपने आपमें अपने लेखक द्वारा अंतिम रूप दे दिए जाने के बाद एक ऐसी संपूर्ण इकाई बन जाती हैं जिसकी व्याख्या या रसास्वादन उसी के दायरे में हो सकता है, तथा जिसे किसी और माध्यम में, किसी और तरह की भाषा में, दोबारा उसकी मूल समग्रता में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। यह सच है,
कि एक जमाने में कविता पढ़कर बनायी गयी पेंटिंग या संगीत सुनकर लिखी गयी कविता और पेटिंग्स के आधार पर बनी नृत्य संरचनाओं वगैरा का काफी चलन बँधा था, लेकिन बड़े-से बड़े कलाकार भी दूसरे की कलाकृति को अपने माध्यम में पकड़ने के लिहाज से खुद अपनी स्वाधीनता के पुराने मानदंडों पर खरी उतर सकने वाली स्मरणीय और स्वतः संपूर्ण कलाकृतियाँ हमें नहीं दे पाये।
इसलिए लेखक और पाठक दोनों के ही मन में रचनाकृति की स्वयंसिद्धि स्वायत्तता के बारे में एक सहज विनम्र समझ तथा आदर भाव जरूरी है। यह श्रद्धाभाव खरी कला से मात्र एक भावुक आवे या मूर्खतावश की गयी छेड़छाड़ से हमें विरक्त तो करता ही है, उस कला-कृति को अपने अनूठे अकेलेपन से ग्रहण कर अनेक कारणों से उसका रसास्वादन करना भी सिखाता है। अपने पूर्वजों ने कलाकृति का जो देवप्रतिभा की तरह एकल-पवित्र माना है,
मेरी समझ से इसकी वजह यही रही होगी।
अच्छी या बुरी, प्रस्तुत संकलन में मेरी जो भी कहानियाँ हैं, उन्हें मैं अपने आपमें संपूर्ण और पुनर्रचना के लिए अनुपयुक्त मानती हूँ। शायद इसी वजह से टी.वी. सीरियल या मंचन के लिए उनसे माँगे जाने पर मैं किसी खास हर्ष या उत्सुकता का अनुभव नहीं कर पाती। हो सकता है, कई लोग मुझसे इस बिंदु पर असहमत हों। कई लोगों को मेरे टी.वी.से कभी-कभी आ जुड़ने के बाद भी स्वयं अपनी कहानियों के दूरदर्शनीकरण के प्रति वैराग्य बड़ा खला भी है, पर मैंने अपने मन की बात ईमानदारी से कह दी।
बाकी रही बात रचना-प्रक्रिया की, सो वह इतनी जटिल और अनेकस्तरीय प्रक्रिया है, और इतनी लंबी अवधि तक चेतन से प्रकट कर पाना मुझे सदा असंभव प्रतीत हुआ है। सभी इंद्रियों के माध्यम से दिन-रात, जागते-सोते सलाखों शब्द बिंब और विचार लेखक के अंतर्मन में प्रवेश करते रहते हैं,
उनमें से कौन स्मृति की चलनी में रुक रहेगी, और क्यों ? किस कण से कब बँधकर भ्रूण रूप में रचना-जीवन से तरगित होने लगेगी ? पूर्ण आकार लेने पर चिकेगी भी कि नहीं ? किस-किस तत्त्व से वह रचना जीवनीशक्ति ग्रहण करेगी और फिर ठोस शब्दों के रूप में निषसृत होने लगेगी, यह एक ऐसी रोचक रहस्यमय प्रक्रिया है जिस पर मैं कभी मुग्ध होती हूँ, और कभी उसका दुर्दमनीय संभावनाओं से आतंकित भी, लेकिन उसका बयान मैं कभी नहीं कर पाती....ज्यों गूँगा मीठे गुड़ को स्वाद अंतर्मन पावै !
1967 में मेरी पहली कहानी, कोहरा और मछलियाँ, जो मेरी लिखी पहली कहानी भी थी, धर्मयुग, में छपी थी, तब से लेकर अब तक जो कहानी के रूप में मेरी दृष्टि में सार्थक आकार ले पाया, इन दो खंडों (यानी कि एक बात थी तथा बचुली चौकीदारिन की कढ़ी) के रूप में आगे प्रस्तुत हैं
हिंदुस्तान में एक लेखक से जितनी बार यह सवाल पूछा जाता है, शायद ही विश्व में कहीं और पूछा जाता हो ?
यह सवाल मुझे हमेशा तनिक विस्मय में डाल देता है, क्योंकि इसके भीतर मानव-स्वभाव और लेखन-प्रक्रिया दोनों ही के प्रति एक किस्म का अज्ञान छिपा है। लेखन समेत सारी कलाएँ अभिव्यक्ति से जुड़ी हैं, और अभिव्यक्ति की इच्छा ही है, जो अंततः हर कलाकार को रचनाकर्म में प्रवृत्त करती है, भले ही वह कर्म उसके लिए परितोष-भरा हो या पीड़ाकारक।
बहुदा उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में मँजे हुए कुछ कलाकार जो उत्तर देते हैं,
वे हमें ऊपरी तौर पर चाहे बड़े दार्शनिक, बड़े आदर्शवादी प्रतीत हों, गौर से देखने पर वे मात्र शाब्दिक आडंबर या अहंकारमय आत्मस्फीति के आगे नहीं जाते दीखते। शायद इसी से डी.एच.लारेंस ने कहा था, कि कहानी पर यकीन करो, लेखक पर नहीं। कारण की माँग करने पर लेखक उत्सुक पाठक की जिज्ञासा संतुष्ट करने को अनेक आदर्श वाक्यों या जटिल फतवों की कीवों से अपनी चंचल रचना को तो स्थिर कर देगा, लेकिन अगर वह सशक्त होगी तो जल्द ही पाठक पायेगा कि रचना उन तमाम कीलों को लिए दिये उठ खड़ी हो गयी है, और खुद अपनी अभीप्सित दिशा को चल पड़ी है।
अतः वे सुधी पाठक जो प्रस्तावना में मैं-क्यों-लिखती-हूँ, ऐसा कुछ ढूँढ़ने बैठे हों मुझे क्षमा करें।
मेरा यह मानना है, कि गद्य हो अथवा पद्य, हर रचना अपने आपमें अपने लेखक द्वारा अंतिम रूप दे दिए जाने के बाद एक ऐसी संपूर्ण इकाई बन जाती हैं जिसकी व्याख्या या रसास्वादन उसी के दायरे में हो सकता है, तथा जिसे किसी और माध्यम में, किसी और तरह की भाषा में, दोबारा उसकी मूल समग्रता में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। यह सच है,
कि एक जमाने में कविता पढ़कर बनायी गयी पेंटिंग या संगीत सुनकर लिखी गयी कविता और पेटिंग्स के आधार पर बनी नृत्य संरचनाओं वगैरा का काफी चलन बँधा था, लेकिन बड़े-से बड़े कलाकार भी दूसरे की कलाकृति को अपने माध्यम में पकड़ने के लिहाज से खुद अपनी स्वाधीनता के पुराने मानदंडों पर खरी उतर सकने वाली स्मरणीय और स्वतः संपूर्ण कलाकृतियाँ हमें नहीं दे पाये।
इसलिए लेखक और पाठक दोनों के ही मन में रचनाकृति की स्वयंसिद्धि स्वायत्तता के बारे में एक सहज विनम्र समझ तथा आदर भाव जरूरी है। यह श्रद्धाभाव खरी कला से मात्र एक भावुक आवे या मूर्खतावश की गयी छेड़छाड़ से हमें विरक्त तो करता ही है, उस कला-कृति को अपने अनूठे अकेलेपन से ग्रहण कर अनेक कारणों से उसका रसास्वादन करना भी सिखाता है। अपने पूर्वजों ने कलाकृति का जो देवप्रतिभा की तरह एकल-पवित्र माना है,
मेरी समझ से इसकी वजह यही रही होगी।
अच्छी या बुरी, प्रस्तुत संकलन में मेरी जो भी कहानियाँ हैं, उन्हें मैं अपने आपमें संपूर्ण और पुनर्रचना के लिए अनुपयुक्त मानती हूँ। शायद इसी वजह से टी.वी. सीरियल या मंचन के लिए उनसे माँगे जाने पर मैं किसी खास हर्ष या उत्सुकता का अनुभव नहीं कर पाती। हो सकता है, कई लोग मुझसे इस बिंदु पर असहमत हों। कई लोगों को मेरे टी.वी.से कभी-कभी आ जुड़ने के बाद भी स्वयं अपनी कहानियों के दूरदर्शनीकरण के प्रति वैराग्य बड़ा खला भी है, पर मैंने अपने मन की बात ईमानदारी से कह दी।
बाकी रही बात रचना-प्रक्रिया की, सो वह इतनी जटिल और अनेकस्तरीय प्रक्रिया है, और इतनी लंबी अवधि तक चेतन से प्रकट कर पाना मुझे सदा असंभव प्रतीत हुआ है। सभी इंद्रियों के माध्यम से दिन-रात, जागते-सोते सलाखों शब्द बिंब और विचार लेखक के अंतर्मन में प्रवेश करते रहते हैं,
उनमें से कौन स्मृति की चलनी में रुक रहेगी, और क्यों ? किस कण से कब बँधकर भ्रूण रूप में रचना-जीवन से तरगित होने लगेगी ? पूर्ण आकार लेने पर चिकेगी भी कि नहीं ? किस-किस तत्त्व से वह रचना जीवनीशक्ति ग्रहण करेगी और फिर ठोस शब्दों के रूप में निषसृत होने लगेगी, यह एक ऐसी रोचक रहस्यमय प्रक्रिया है जिस पर मैं कभी मुग्ध होती हूँ, और कभी उसका दुर्दमनीय संभावनाओं से आतंकित भी, लेकिन उसका बयान मैं कभी नहीं कर पाती....ज्यों गूँगा मीठे गुड़ को स्वाद अंतर्मन पावै !
1967 में मेरी पहली कहानी, कोहरा और मछलियाँ, जो मेरी लिखी पहली कहानी भी थी, धर्मयुग, में छपी थी, तब से लेकर अब तक जो कहानी के रूप में मेरी दृष्टि में सार्थक आकार ले पाया, इन दो खंडों (यानी कि एक बात थी तथा बचुली चौकीदारिन की कढ़ी) के रूप में आगे प्रस्तुत हैं
-मृणाल पाण्डे
कोहरा और मछलियाँ
ताल के मासूम तल को तोड़ती मछली फिर उछली...छुलुक्। क्षण-भर को एक
चमकती-तड़पती रजत रेख, और फिर वही हौले-हौले काँपता धरातल और चंद बुलबुले।
पानी, पानी और बस पानी और उसके ऊपर उमड़ता हुआ सर्वग्रासी कोहरा। रति ने
सिर को एक झटका दिया।
उसकी पलकों पर कोहरे की हल्की स्निग्धता, गालों पर एक कोमल गीला स्वर्श छोड़ गयी। रति ने सिर घुमाकर देखा, ममी अभी भी बात कर रही थीं—उसी...उसी लंबी-पतली उंगलियों और उबली पड़ती आँखों वाले बंगाली लेखक से। शब्दों को न सुन पाने पर भी रति उनका अनुमान लगा सकती है,
ममी की बड़ी-बड़ी आँखों और छोटे नाजुक हाथों की गति से। जरूर अपने नये उपन्यास की चर्चा कर रही होंगी....‘‘तो मैंने लंदन में अपने पति के पब्लिशर्स को ‘केबल’ भेजा कि मुझे उनकी शर्तें मान्य नहीं हैं। आखिर आर्ट और आर्टिस्ट...’’ बेचारी ममी...हर श्रोता तक सदा की भाँति अपने पति की लेखन गरिमा का बोध....। रति के कान ममी के प्रति शर्म से जलने लगे। उसने सिर घुमा लिया।
...कोहरे के दैत्य ने अपनी सशक्त कलाई से आधे ताल पर एक अभेद्य चादर तान दी थी। इक्के-दुक्के सैलानी, जो बड़े जोशोखरोश से नौका-विहार करने के इरादे से निकले होंगे, जल्दी-जल्दी पतवार चलाकर किनारे पहुँचने की चेष्टा कर रहे थे। एक नवविवाहित जोड़ा काफी घबरा रहा था शायद। पत्नी कभी अपनी नयी बनारसी साड़ी को देह से बचाने का हास्यास्पद उपक्रम करती, कभी साड़ी से देह को ! पति कैमरे को छाती से चिपकाये नाववाले की ओर झुककर कुछ कह रहा था और नाववाला बार-बार तट की ओर इंगित करता शायद उसे ढाढ़स बँधा रहा था।
फिर कोहरे की एक लपेट ने उन्हें भी आँखों से ओझल कर दिया। रति पानी को पथरायी निगाह से देखती रही...दूर नावों के यात्रियों को बोट हाउस क्लब की खिड़की के बीच एक छोटा-सा झुका हुआ सिर दीखता होगा, लापरवाही से सँवारे गये उड़ते हुए आस्कन्ध केश और चलते-चलते लगा ली गयी एक आकारहीन बिंदी बाली लिपिस्टिक होंठों की दरारों में सिमट आयी है, चप्पल का एक फीता भी टूटा हुआ है,
पर उनकी स्वामिनी सबके प्रति ऐसी उदासीन है, जैसे वहाँ है ही नहीं।
...छुलुक्....एक मछली फिर उछली, रति को याद आया, बचपन में बानो और वह ताल के किनारे खड़े होकर यूँ ही पत्थर फेंकते थे...छुलुक् ! बेबी, घर चलो, मेम साब गुस्सा होंगी हामारे पर, तेमाम फराक में हाथ में मिट्टी लगा लिया।’’....‘बस, आया, एक पत्थर और...।’’ छुलुक्....! रति की आँखें भर आयीं। बानो होती, तो उसकी भावुकता को हँसी में उड़ा देती, ‘सच रति, तू फिल्मस्टार बन जा, तो डायरेक्टर का ग्लिरसरीन का खर्चा बच जायेगा एकदम।’ पर बानो यहाँ कहाँ ?
कई मील दूर कैलीफोर्निया में किसी सुपर मार्केट में खरीदारी कर रही होगी या नींद में दूसरे दिन के खाने का ‘मीनू’ तैयार कर रही होगी। ‘सच बानो, यहाँ आकर पाती हूँ, कितना कुछ नहीं देखा था—तू भी क्यूँ नहीं आ जाती ?’ उसने पहली चिट्ठी में लिखी, फिर दूसरी में, फिर तीसरी में....ममी ने भी कहा—‘‘डार्लिंग, क्यों नहीं चली जाती ?
मैं न्यूयॉर्क में अपने मित्र...।’’ ‘‘नहीं !’’ रति ने लगभग चीखकर कहा। ‘‘वैल !’’ ममी ने अपने विशिष्ट अदा से अपने सुडौल कंधे उचकाये—‘‘तुम जानो।’’ उन्हें शाम को एक कॉन्फ्रेंस की रिपार्ट तैयार करनी थी, क्या रति कृपया अपने कमरे में जाकर आराम करेगी ? हाँ, अपना निर्णय सोचकर उन्हें बता दे। सिर हिलाकर उन्होंने रति को जाने का इशारा किया। रति चली आयी।
कमरे में पहुँचते ही उसका सारा आक्रोश सदा की भाँति अपने पर उमड पड़ा। क्यों नहीं वह ममी को चीख-चीखकर जतला देती कि ममी, मैं नहीं जाऊँगी-नहीं जाऊँगी ! बानो को वहाँ अच्छा लगता है, तो क्या ? बानो तो हमेशा ही कहती थी कि रति ‘‘एनीथिंग जस्ट टू गेट अवे फ्रॉम ममीज स्टैग्नेण्ट जेन’’ (ममी की इस दूषित माँद से बच कर भागने को मैं कुछ भी कर सकती हूँ।) उसे याद है उस दिन का माहौल, घर में डिनर-पार्टी थी। दोनों बहनें जान-बूझकर शान को बाहर चली गयीं—या भाग निकली थीं।
सिनेमा भी देखा, शो-विडो भी देखे, फुहारे के किनारे भी खड़े हुए, पर घर पहुँचते ही पार्टी चल रही थी। ‘‘डैम ! रति, तू पीछे जा मैं, आगे से निकल जाऊँगी। तेरा उधर जाना ठीक नहीं।’’ रति कमरे में पहुँचकर बैठी रही और बोली करीब पंद्रह मिनट बाद आयी। तमतमाया चेहरा, आँखों में आँसू। पैर के स्टिलेटो झटके से उतार फेंके और धम्म से बिस्तरे पर ! ‘‘क्या हुआ, बानो ?’’ कुछ देर तक बानो उसे देखती रही, फिर —‘‘रति, मालूम, उस कमीने ने मुझसे क्या कहा ?’’
‘‘किसने ?’’ रति से पूछा।
‘‘अंकल भूपी ने, और किसने ? मालूम, एकदम नशे में धुत था सूअर। वह पैसेज में लौट रहा था और मैं चुपचाप ऊपर चढ़ रही थी कि मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘बाई जोव, बानो, तुमने अपनी माँ का हुस्न पाया है। मैंने बच्चू को धक्का दिया कि अब तक पीठ सहला रहा होगा। मेरे आफिस में सारे लोग ममी को और उसको लेकर मजाक उड़ाते हैं और ममी...’’
‘‘पर ममी कहाँ थीं ?’’
‘‘अरे, होंगी कहीं। अपने पुराने फिल्मी अतीत के किस्से सुना रही होंगी उसी किनारे से यूनानी प्रिंस को....मालूम’’—बानो क्षणभर में आँसू भूलकर फिक् से हँस उठी—‘‘शंकरन् बता रहा था, सुना है ये जनाब...ही...ही....ही....’’ ‘‘बता न क्या ?’’...‘‘ही.....बी...बस, यही समझ ले, जनाब पर ममी बेकार इतना ‘चार्म’ वेस्ट कर रही हैं।’’ ‘‘माने क्या...क्या....? ‘‘हाँ....हाँ....ये जनाब साहब ‘होमो’ हैं।’’....‘‘हूँ ? अच्छा।’’ ‘‘खैर’’—बानो अपनी आदत के मुताबिक बकती जा रही थी—‘‘भूषण अंकल से तो अच्छा ही है।
वैसे बगैर नशे के भूषण अंकल भी काफी ‘सेफ’ हैं। शिवाय ममी के किसी का पीछा नहीं करते। देखूँ, मेरी शादी में क्या प्रजेंट देते हैं। मैंने बाते-ही-बातों में जता तो दिया है कि बंकूमल के यहाँ एक कमाल का पंचवड़ा शो-केस में है’’...रति को लग रहा था जैसे वह अपनी माँ के शब्दों का रिकार्ड बानों के मुख से सुन रही है।
ममी से चिढ़ने के बावजूद बानों की उम्र हर वर्ष उसे ममी के और पास ले जा रहा थी। रूप भी वही था, जिस पर पागल होकर पापा ममी के सारे कॉन्ट्रैक्ट कैंसिल करा कर बंबई से ले आये थे।...बेचारे पापा...पता नहीं अब्दुल ने उन्हें सूप दिया भी कि नहीं। रति को पापा का ख्याल आया, तो कसमसा उठी, बानो का अनर्गल प्रवाह जारी थी, रति की अँगुलियाँ चादर का छोर मरोड़ती रहीं।.....
रति की आँखों के क्षितिज में सहसा कोहरे से बत्तखों का एक झुंड तिर आया। करीने से सधी पाँतें, लहरों के हिचकोलों पर हौले-हौले उतराती उनकी लयबद्धता सी देहें...छुलुक्...रति को याद आया, मदर उन लोगों को लेकर जब घुमाने निकलती थीं तो बत्तखों का उदाहरण देकर प्रताड़ना देती थीं—‘‘एक ये मूक जानवर है !
कैसे करीने-से कतार बाँधकर तैरते हैं। एक तुम समझदार सढ़ने वाली लड़कियाँ हो कि लाइन इधर, तुम लोगों के पैर उधर ! डिग्रेसफुल ?’’....रति ने फिर ममी की ओर देखा, किसी मजाक पर हँसी से दुहरी होती ममी भूषी अंकल पर लदी जा रही थीं । बातों मेंमशगूल ममी का अ....रति ने फिर ममी की ओर देखा, किसी मजाक पर हँसी से दुहरी होती ममी भूषी अंकल पर लदी जा रही थीं । बातों मेंमशगूल ममी का अभी से उठने का कोई इरादा न था,
उसकी पलकों पर कोहरे की हल्की स्निग्धता, गालों पर एक कोमल गीला स्वर्श छोड़ गयी। रति ने सिर घुमाकर देखा, ममी अभी भी बात कर रही थीं—उसी...उसी लंबी-पतली उंगलियों और उबली पड़ती आँखों वाले बंगाली लेखक से। शब्दों को न सुन पाने पर भी रति उनका अनुमान लगा सकती है,
ममी की बड़ी-बड़ी आँखों और छोटे नाजुक हाथों की गति से। जरूर अपने नये उपन्यास की चर्चा कर रही होंगी....‘‘तो मैंने लंदन में अपने पति के पब्लिशर्स को ‘केबल’ भेजा कि मुझे उनकी शर्तें मान्य नहीं हैं। आखिर आर्ट और आर्टिस्ट...’’ बेचारी ममी...हर श्रोता तक सदा की भाँति अपने पति की लेखन गरिमा का बोध....। रति के कान ममी के प्रति शर्म से जलने लगे। उसने सिर घुमा लिया।
...कोहरे के दैत्य ने अपनी सशक्त कलाई से आधे ताल पर एक अभेद्य चादर तान दी थी। इक्के-दुक्के सैलानी, जो बड़े जोशोखरोश से नौका-विहार करने के इरादे से निकले होंगे, जल्दी-जल्दी पतवार चलाकर किनारे पहुँचने की चेष्टा कर रहे थे। एक नवविवाहित जोड़ा काफी घबरा रहा था शायद। पत्नी कभी अपनी नयी बनारसी साड़ी को देह से बचाने का हास्यास्पद उपक्रम करती, कभी साड़ी से देह को ! पति कैमरे को छाती से चिपकाये नाववाले की ओर झुककर कुछ कह रहा था और नाववाला बार-बार तट की ओर इंगित करता शायद उसे ढाढ़स बँधा रहा था।
फिर कोहरे की एक लपेट ने उन्हें भी आँखों से ओझल कर दिया। रति पानी को पथरायी निगाह से देखती रही...दूर नावों के यात्रियों को बोट हाउस क्लब की खिड़की के बीच एक छोटा-सा झुका हुआ सिर दीखता होगा, लापरवाही से सँवारे गये उड़ते हुए आस्कन्ध केश और चलते-चलते लगा ली गयी एक आकारहीन बिंदी बाली लिपिस्टिक होंठों की दरारों में सिमट आयी है, चप्पल का एक फीता भी टूटा हुआ है,
पर उनकी स्वामिनी सबके प्रति ऐसी उदासीन है, जैसे वहाँ है ही नहीं।
...छुलुक्....एक मछली फिर उछली, रति को याद आया, बचपन में बानो और वह ताल के किनारे खड़े होकर यूँ ही पत्थर फेंकते थे...छुलुक् ! बेबी, घर चलो, मेम साब गुस्सा होंगी हामारे पर, तेमाम फराक में हाथ में मिट्टी लगा लिया।’’....‘बस, आया, एक पत्थर और...।’’ छुलुक्....! रति की आँखें भर आयीं। बानो होती, तो उसकी भावुकता को हँसी में उड़ा देती, ‘सच रति, तू फिल्मस्टार बन जा, तो डायरेक्टर का ग्लिरसरीन का खर्चा बच जायेगा एकदम।’ पर बानो यहाँ कहाँ ?
कई मील दूर कैलीफोर्निया में किसी सुपर मार्केट में खरीदारी कर रही होगी या नींद में दूसरे दिन के खाने का ‘मीनू’ तैयार कर रही होगी। ‘सच बानो, यहाँ आकर पाती हूँ, कितना कुछ नहीं देखा था—तू भी क्यूँ नहीं आ जाती ?’ उसने पहली चिट्ठी में लिखी, फिर दूसरी में, फिर तीसरी में....ममी ने भी कहा—‘‘डार्लिंग, क्यों नहीं चली जाती ?
मैं न्यूयॉर्क में अपने मित्र...।’’ ‘‘नहीं !’’ रति ने लगभग चीखकर कहा। ‘‘वैल !’’ ममी ने अपने विशिष्ट अदा से अपने सुडौल कंधे उचकाये—‘‘तुम जानो।’’ उन्हें शाम को एक कॉन्फ्रेंस की रिपार्ट तैयार करनी थी, क्या रति कृपया अपने कमरे में जाकर आराम करेगी ? हाँ, अपना निर्णय सोचकर उन्हें बता दे। सिर हिलाकर उन्होंने रति को जाने का इशारा किया। रति चली आयी।
कमरे में पहुँचते ही उसका सारा आक्रोश सदा की भाँति अपने पर उमड पड़ा। क्यों नहीं वह ममी को चीख-चीखकर जतला देती कि ममी, मैं नहीं जाऊँगी-नहीं जाऊँगी ! बानो को वहाँ अच्छा लगता है, तो क्या ? बानो तो हमेशा ही कहती थी कि रति ‘‘एनीथिंग जस्ट टू गेट अवे फ्रॉम ममीज स्टैग्नेण्ट जेन’’ (ममी की इस दूषित माँद से बच कर भागने को मैं कुछ भी कर सकती हूँ।) उसे याद है उस दिन का माहौल, घर में डिनर-पार्टी थी। दोनों बहनें जान-बूझकर शान को बाहर चली गयीं—या भाग निकली थीं।
सिनेमा भी देखा, शो-विडो भी देखे, फुहारे के किनारे भी खड़े हुए, पर घर पहुँचते ही पार्टी चल रही थी। ‘‘डैम ! रति, तू पीछे जा मैं, आगे से निकल जाऊँगी। तेरा उधर जाना ठीक नहीं।’’ रति कमरे में पहुँचकर बैठी रही और बोली करीब पंद्रह मिनट बाद आयी। तमतमाया चेहरा, आँखों में आँसू। पैर के स्टिलेटो झटके से उतार फेंके और धम्म से बिस्तरे पर ! ‘‘क्या हुआ, बानो ?’’ कुछ देर तक बानो उसे देखती रही, फिर —‘‘रति, मालूम, उस कमीने ने मुझसे क्या कहा ?’’
‘‘किसने ?’’ रति से पूछा।
‘‘अंकल भूपी ने, और किसने ? मालूम, एकदम नशे में धुत था सूअर। वह पैसेज में लौट रहा था और मैं चुपचाप ऊपर चढ़ रही थी कि मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘बाई जोव, बानो, तुमने अपनी माँ का हुस्न पाया है। मैंने बच्चू को धक्का दिया कि अब तक पीठ सहला रहा होगा। मेरे आफिस में सारे लोग ममी को और उसको लेकर मजाक उड़ाते हैं और ममी...’’
‘‘पर ममी कहाँ थीं ?’’
‘‘अरे, होंगी कहीं। अपने पुराने फिल्मी अतीत के किस्से सुना रही होंगी उसी किनारे से यूनानी प्रिंस को....मालूम’’—बानो क्षणभर में आँसू भूलकर फिक् से हँस उठी—‘‘शंकरन् बता रहा था, सुना है ये जनाब...ही...ही....ही....’’ ‘‘बता न क्या ?’’...‘‘ही.....बी...बस, यही समझ ले, जनाब पर ममी बेकार इतना ‘चार्म’ वेस्ट कर रही हैं।’’ ‘‘माने क्या...क्या....? ‘‘हाँ....हाँ....ये जनाब साहब ‘होमो’ हैं।’’....‘‘हूँ ? अच्छा।’’ ‘‘खैर’’—बानो अपनी आदत के मुताबिक बकती जा रही थी—‘‘भूषण अंकल से तो अच्छा ही है।
वैसे बगैर नशे के भूषण अंकल भी काफी ‘सेफ’ हैं। शिवाय ममी के किसी का पीछा नहीं करते। देखूँ, मेरी शादी में क्या प्रजेंट देते हैं। मैंने बाते-ही-बातों में जता तो दिया है कि बंकूमल के यहाँ एक कमाल का पंचवड़ा शो-केस में है’’...रति को लग रहा था जैसे वह अपनी माँ के शब्दों का रिकार्ड बानों के मुख से सुन रही है।
ममी से चिढ़ने के बावजूद बानों की उम्र हर वर्ष उसे ममी के और पास ले जा रहा थी। रूप भी वही था, जिस पर पागल होकर पापा ममी के सारे कॉन्ट्रैक्ट कैंसिल करा कर बंबई से ले आये थे।...बेचारे पापा...पता नहीं अब्दुल ने उन्हें सूप दिया भी कि नहीं। रति को पापा का ख्याल आया, तो कसमसा उठी, बानो का अनर्गल प्रवाह जारी थी, रति की अँगुलियाँ चादर का छोर मरोड़ती रहीं।.....
रति की आँखों के क्षितिज में सहसा कोहरे से बत्तखों का एक झुंड तिर आया। करीने से सधी पाँतें, लहरों के हिचकोलों पर हौले-हौले उतराती उनकी लयबद्धता सी देहें...छुलुक्...रति को याद आया, मदर उन लोगों को लेकर जब घुमाने निकलती थीं तो बत्तखों का उदाहरण देकर प्रताड़ना देती थीं—‘‘एक ये मूक जानवर है !
कैसे करीने-से कतार बाँधकर तैरते हैं। एक तुम समझदार सढ़ने वाली लड़कियाँ हो कि लाइन इधर, तुम लोगों के पैर उधर ! डिग्रेसफुल ?’’....रति ने फिर ममी की ओर देखा, किसी मजाक पर हँसी से दुहरी होती ममी भूषी अंकल पर लदी जा रही थीं । बातों मेंमशगूल ममी का अ....रति ने फिर ममी की ओर देखा, किसी मजाक पर हँसी से दुहरी होती ममी भूषी अंकल पर लदी जा रही थीं । बातों मेंमशगूल ममी का अभी से उठने का कोई इरादा न था,
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