कहानी संग्रह >> नेम प्लेट नेम प्लेटक्षमा शर्मा
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क्षमा शर्मा का अपूर्व कहानी संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
क्षमा शर्मा की 28 कहानियों का यह संग्रह स्त्री की दुनिया के जितने
आयामों को खोलता है, उसके जितने सम्भवतम रूपों को दिखाता है, स्त्री के
बारे में जितने मिथों और धारणाओं को तोड़ता है, ऐसा कम ही कहानीकारों के
कहानी-संग्रहों में देखने को मिलता है। क्षमा शर्मा हिन्दी लेखकों की आम
आदत के विपरीत अपेक्ष्या छोटी कहानियाँ लिखती हैं जो अपनेआप में सुखद है।
उनकी लगभग हर कहानी स्त्री-पात्र के आसपास घूमती जरूर है मगर क्षमा शर्मा
उस किस्म के स्त्रीवाद का शिकार नहीं हैं जिसमें स्त्री की समस्याओं के
सारे हल सरलता पूर्वक पुरुष को गाली देकर ढूंढ़ लिए जाते हैं।
इसका मतलब यह नहीं है कि वह पुरुषों या पुरुष वर्चस्ववाद को बख्शती हैं, उसकी मलामत वे जरूर करती हैं और खूब करती हैं मगर उनकी तमाम कहानियों से यह स्पष्ट है कि उनके एजेंडे में स्त्री की तकलीफें, उसके संघर्ष और हिम्मत से स्थितियों का मुकाबला करने की उसकी ताकत को उभारना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। वह इस मिथ को तोड़ती हैं कि सौतेली माँ, असली माँ से हर हालत में कम होती है या एक विधुर बूढ़े के साथ एक युवा स्त्री के सम्बन्धों में वह प्यार और चिन्ता नहीं हो सकती, जो कि समान वय के पुरुष के साथ होती है वह देह पर स्त्री के अधिकार की वकालत करती हैं और किसी विशेष परिस्थिति में उसे बेचकर कमाने के विरुद्ध कोई नैतिकतावादी रवैया नहीं अपनातीं।
उनकी कहानियों में लड़कियाँ हैं तो बूढ़ी औरते भी हैं, दमन की शिकार वे औरते हैं जो एक दिन चुपचाप मर जाती हैं तो वे भी हैं जो कि लगातार संघर्ष करती हैं लेकिन स्त्री की दुनिया के अनेक रूपों को हमारे सामने रखनेवाली ये कहानियाँ किसी और दुनिया की कहानियाँ नहीं लगतीं, हमारी अपनी इसी दुनिया की लगती हैं बल्कि लगती ही नहीं, हैं भी।
इनके पात्र हमारे आस-पास, हमारे अपने घरों में मिलते हैं। बस हमारी कठिनाई यह है कि हम उन्हें इस तरह देखना नहीं चाहते, देख नहीं पाते, जिस प्रकार क्षमा शर्मा हमें दिखाती हैं और एक बार जब हम उन्हें इस तरह देखना सीख जाते हैं तो फिर वे एक अलग व्यक्ति, एक अलग शख्सियत नजर आती हैं और हम स्त्री के बारे में सामान्य किस्म की उन सरल अवधारणाओं से जूझने लगते हैं जिन्हें हमने बचपन से अब तक प्रयत्नपूर्वक पाला है, संस्कारित किया है। क्षमा शर्मा की कहानियों की यह सबसे बड़ी ताकत है, उनकी भाषा और शैली की पुख़्तगी के अलावा।
इसका मतलब यह नहीं है कि वह पुरुषों या पुरुष वर्चस्ववाद को बख्शती हैं, उसकी मलामत वे जरूर करती हैं और खूब करती हैं मगर उनकी तमाम कहानियों से यह स्पष्ट है कि उनके एजेंडे में स्त्री की तकलीफें, उसके संघर्ष और हिम्मत से स्थितियों का मुकाबला करने की उसकी ताकत को उभारना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। वह इस मिथ को तोड़ती हैं कि सौतेली माँ, असली माँ से हर हालत में कम होती है या एक विधुर बूढ़े के साथ एक युवा स्त्री के सम्बन्धों में वह प्यार और चिन्ता नहीं हो सकती, जो कि समान वय के पुरुष के साथ होती है वह देह पर स्त्री के अधिकार की वकालत करती हैं और किसी विशेष परिस्थिति में उसे बेचकर कमाने के विरुद्ध कोई नैतिकतावादी रवैया नहीं अपनातीं।
उनकी कहानियों में लड़कियाँ हैं तो बूढ़ी औरते भी हैं, दमन की शिकार वे औरते हैं जो एक दिन चुपचाप मर जाती हैं तो वे भी हैं जो कि लगातार संघर्ष करती हैं लेकिन स्त्री की दुनिया के अनेक रूपों को हमारे सामने रखनेवाली ये कहानियाँ किसी और दुनिया की कहानियाँ नहीं लगतीं, हमारी अपनी इसी दुनिया की लगती हैं बल्कि लगती ही नहीं, हैं भी।
इनके पात्र हमारे आस-पास, हमारे अपने घरों में मिलते हैं। बस हमारी कठिनाई यह है कि हम उन्हें इस तरह देखना नहीं चाहते, देख नहीं पाते, जिस प्रकार क्षमा शर्मा हमें दिखाती हैं और एक बार जब हम उन्हें इस तरह देखना सीख जाते हैं तो फिर वे एक अलग व्यक्ति, एक अलग शख्सियत नजर आती हैं और हम स्त्री के बारे में सामान्य किस्म की उन सरल अवधारणाओं से जूझने लगते हैं जिन्हें हमने बचपन से अब तक प्रयत्नपूर्वक पाला है, संस्कारित किया है। क्षमा शर्मा की कहानियों की यह सबसे बड़ी ताकत है, उनकी भाषा और शैली की पुख़्तगी के अलावा।
दादी माँ का बटुआ
नीला सक्रीन उभरता है। एक अर्धचन्द्राकार मेज़ जिसके नीचे लिखा
है-‘‘ दादी माँ का बटुआ।’’ बीच
में एक फूलदान रखा
है। सामने दर्शक (स्त्री और पुरुष) बैठे हैं। कैमरा उन्हें क्रास करता है
तो वे हाथ हिलाते हैं। टाइटिल म्यूजिक बजता है। इन दिनों पश्चिम में
प्रचलित काले रंग के टाइट और लो कट टाप पहने, गहरी लिपस्टिक लगाए वी जे
माइक हाथ में पकड़कर बोलने लगती है-
‘यों तो हर रोज आपके लिए हम नए-नए प्रोग्राम लेकर आते रहते हैं। भाइयों, बहनों, ग्रांड पा, पेरेंट्स एंड चिल्ड्रन, हम आप सबको बता देना चाहते हैं कि हर रोज़ हमें आपके ढेरों खत मिलते हैं। सच पूछिए तो उन्हीं से हम जान पाते हैं कि आपको हमारा प्रोग्राम कैसा लगा ? एंड टु टैल यू द ट्रुथ हमारी हमेशा कोशिश रहती है कि हम कोई न कोई ऐसा प्रोग्राम आपको दिखाएँ जो आज, कल, परसों नहीं पूरे जीवन भर आपके काम आए।’
क्यों ग्रांड माँ आपका भी तो हमेशा ही यही कहना रहा है। और क्यों न हो आप हम सबकी चहेती जो हैं। भारत भर की दादियों के बीच हमारा यह प्रोग्राम-‘‘बहुत पसन्द किया जाता है। इसलिए चलिए शुरु करते हैं आपका मनपसंद प्रोग्राम-‘‘दादी माँ का बटुआ।’’
आज हम चारों ओर नई तकनीक, कम्प्यूटर क्रान्ति, सैटेलाइट, माइक्रोवेव, मोबाइल, ई-मेल, इंटरनेट, आइक्रोसर्जरी, जीन इंजीनियरिंग और न जाने क्या-क्या सुन रहे हैं। लेकिन अच्छी बात तो वह है जिसमें हमारा खर्च भी कम और काम भी हो जाए। तभी हम अपनी प्राचीन परम्पराओं को जीवित रख सकते हैं परम्पराएँ बचेंगी तभी हम बचेंगे। यू, नो, नो वन इज रूटलैस, आखिर कोई पेड़ बिना जड़ों के जीवित नहीं रह सकता, इसीलिए आज हमने अपने बीच खरखूशटी देवी को बुलाया है। इनकी विशेषता यह है कि यह अपना उदाहरण आप ही हैं जिस काम में इन्हें महारत हासिल है उसका प्रशिक्षण इन्होंने कहीं से नहीं लिया। बेचारी बहुत गरीबी में रहीं। बहुत कम उम्र में विधवा हो गईं, पैसा पास नहीं था। क्या करतीं ? तभी इन्हें ईश्वर की कृपा से लगा कि कोई ऐसा काम करें जिससें सिर्फ इनका ही नहीं, इनके परिवार और समाज का भला हो सके।
सॉरी, सॉरी आप सोचेंगे बहुत लम्बा भाषण हो गया। अब मैं अपने मेहमान का असली परिचय दे दूँ- खरखूशटी देवी जी को यों तो अपने काम के लिए कोई बड़ा सम्मान नहीं मिला। लेकिन यह इनाम की हकदार हैं। दरअसल आजकल इनामों में इतनी राजनीति है कि सही काम करनेवाले को इनाम नहीं मिल पाता। इनका काम है-माताओं को अनचाहे गर्भ खासतौर से मादा भ्रूण से मुक्ति दिलाना। (तालियाँ)
खरखूशटी देवी आती हैं। एक बड़ी मेज़ के पीछे पड़ी कुर्सी पर बैठ जाती हैं। आमन्त्रित महिलाएँ और पुरुष तालियाँ बजाते हैं। वी जे माइक लेकर इठलाती हुई कहती हैं-
मेरा यहाँ उपस्थित दर्शक वर्ग से अनुरोध है कि वे इनके सामने अपनी समस्याएँ रखें। प्रोग्राम के बाद मैं आपसे एक इनामी सवाल पूछूँगी। इस सवाल का सबसे अच्छा उत्तर देनेवाले को मिलेगा-लंदन जाने-आने का टिकट और ढेर सारे गिफ्ट हैम्पर्स। तो खरखूशटी देवी जी आपसे पहला सवाल-
-आखिर आपके मन में इस काम को रोकने का विचार कैसे आया ?
-प्रेरणा तो जी मुझे आप जैसे लोगों के प्रोग्राम देखकर ही मिली। आप ही लोग बताते थे कि देश की जनसंख्या बढ़ती जा रही है। एक दिन ऐसा आएगा कि जन्संख्या के कारण चलना-फिरना तक दूभर हो जाएगा। लोगों को न खाने को मिलेगा न पीने को पानी, न साफ हवा, पढ़ाई-लिखाई की बात कौन करे ? तो मैंने सोचा कि फिर इस काम से बड़ा काम कौन-सा है। देश की बढ़ती जनसंख्या भी कम होगी। वी जे कुछ सोचती हुई पूछती है- लेकिन जनसंख्या कम होना तो ठीक, आपने लड़कियों से ही छुटकारा दिलाने की क्यों सोची ?
इसलिए कि कौन-सी माँ है जो लड़कियाँ ही लड़कियाँ जनना चाहे, जब से ‘कम्पलीट फैमिली’ वाली बात चली है तब से तो जिनकी पहली छोरी है वो दूसरा छोरा ही चाहे है। मैंने सोचा कि जब छोरियों को कोई चाहे ही नहीं तो वे धरती पर आएँ ही क्यों ? बडे़ होकर कोई दहेज के लिए मार दे, या इज्जत लूटकर कत्ल कर दे, तो बेहतर है, पैदा होने से पहले ही मारना।
एक दर्शक पूछती है-लेकिन आपको ये पता कैसे चलता है कि पेट में लडका है या लड़की।
-आप तो पढ़ी-लिखी हो जब से अल्ट्रासाउंड वाली मशीन आई है तब से सब आसान हो गया। पहले वाली मशीन तो महँगी थी। अब तो परेशान औरतों को थोड़े-से पैसे खर्च करने पर ही पता चल जाता है है कि का है, वैसे आगे लाखों खर्च करो और छोरी खुश न रहे ता ते तो जेइ अच्छा।
खुशी के मारे वी जे का चेहरा दमक रहा है, वह इधर-उधर देखती हुई कहती हैं-दर्शकों, जैसा कि आपको खरखूशटी देवी के उत्तर से पता चल गया होगा यह तकनीक का इस्तेमाल तो करती हैं जैसे कि अल्ट्रासाउंड। लेकिन महँगी तकनीकि का नहीं जैसे कि अमीनो-सेंटेसिस। जिसे हम आम भाषा में सेक्स डिटेक्शन टैस्ट भी कहते हैं। तकनीकि लाभकारी वही हो सकती है जो सस्ती हो जिसका आम आदमी भी लाभ उठा सके। अच्छा, उधर कोने में बैठी मैडम इनसें कोई सवाल करना चाहती हैं। करिए मैडम सवाल !
धनुषाकार भौंहों वाली जेवरों से लदी मोटी औरत पूछती है-
-मेरा सवाल यह है कि हमारा पाँच हजार साल पुराना देश है इसकी इतनी महान परम्पराएँ हैं। अतीत में हम वज्र और पुष्पक बना चुके हैं। कहते तो यह भी हैं कि ब्रह्मास्त्र आज का अणुबम था तो क्या हमारे यहाँ एक भी देसी पद्धति मौजूद नहीं है जिससे महिलाओं को अनचाही लड़कियों से मुक्ति मिल सके। विदेशी अल्ट्रासाउंड क्यों ?
वी जे बीच में बोलती है- खरखूशटी देवी जी इन बहन ने जो सवाल किया आप क्या कहना चाहेंगी ?
-अजी देशी इलाज क्यों न है। पर जब नल लगा हो तो कुएँ से पानी खींचने कौन जावे ? ट्यूबबैल के जमाने में रहट को कौन पूछे ? अब अल्ट्रासाउंड तो गाम-गाम में मिल जाते हैं। फिर का देसी का विदेसी असली मकसद तो काम हो जाने का है। (दर्शक तालियाँ बजाते हैं)। वी जे कहती है, वाह क्या जवाब दिया है। एक बार और तालियाँ। दोबारा तालियाँ बजती हैं।
लेकिन वी जे सावधान करती हैं- हम शायद ट्रैक से बाहर जा रहे हैं। मेरी गुजारिश है कि वे ही सवाल पूछें जो विषय से सम्बन्धित हैं। हमारा एक-एक मिनट कीमती है, करोड़ों दर्शक हमें देख रहे हैं। हाँ तो आप पीछे की मैडम कुछ पूछना चाहती हैं। पूछिए।
कुछ सकुचाती-सी पैंट-टी शर्ट पहने लड़की खड़ी हो जाती है-
-मैं यह नहीं कह रही कि अल्ट्रासाउंड का इस्तेमाल गलत है या सही। लेकिन पूछना चाहती हूँ कि जब अल्ट्रासाउंड नहीं था तब यह कैसे पता चलता था कि पेट में लड़की है....
खरखूशटी देवी अज्ञानी के सवाल पर इस अदा से मुस्कराती हैं- अरे यह भी नहीं पता तब थोड़ी मुश्किल होती थी। पर पहले बच्चे के सिर को देखकर पता चल जाता था कि अगला बच्चा छोरा होगा या छोरी ?
कैसे –पैंट-टी शर्ट वाली बहस पर उतर आती है।
-देखो अगर बच्चे के सिर पर भौंरा हो यानी कि पीछे से बाल सीधे हाथ की तरफ घूमें तो अगला बच्चा छोरा। उलटे हाथ की तरफ घूमें हो तो भौंरी यानी की छोरी। यह तो कोई टाइम टैस्टेड बात नहीं हुई। मेडिकल साइंस भी इसे प्रूव नहीं कर सकती। कभी गलती भी हो जाती होगी।
-हाँ हो तो जावे थी। मगर अक्सर तो सही होता था और मेडिकल साइंस का क्या ! वो तो अपनी ही बात पर क़ायम नहीं रहते। पहले कहते थे बच्चे को पैदा होते ही पानी पिलाओ। अब कहते है तीन महीने तक पानी मत दो।
वी जे पैंट-शर्ट वाली को पीछे धकेलती अपनी महत्त्व और भूमिका साबित करती हैं।
-देवी जी एक सवाल मैं आपसे और करना चाहती हूँ। मान लिया कि मादा भ्रूणों को मारने में आप सिद्धहस्त हैं। लेकिन ऐसे भी तो माता-पिता आपके पास आते होंगे जिनकी लड़कियाँ पैदा हो चुकी हैं, लेकिन वे उनसे निजात पाना चाहते हैं।
-हाँ, अभी परसों ही एक बाबू जी की दूसरी लड़की को मैंने बूटी पिला दी। (देर तक तालियाँ) चहकती हुई वी जे अपने लो कट टाप को लम्बें नीले पालिश लगे नाखून गड़ाते बोलती है- ओह ग्रेट, तो दर्शकों, नोट कीजिए यदि आपके यहाँ लड़कियाँ जरूरत से ज्यादा हैं, आप सिर्फ लड़के ही लड़के चाहते हैं तो अपनी लड़कियों को बूटी भी पिला सकते हैं। खरखूशटी जी इस बूटी का नाम क्या है ? यह कहाँ मिलती है ?
(हँसी) अब अगर मैं सारी बातें यहीं बता दूँगी तो मेरे पास कौन आएगा ? मैं तो भूखी ही मर जाउँगी।
-मैं देख रही हूँ कि बीच में कुर्सी पर बैठी हमारी बहन बहुत देर से कुछ पूछना चाह रही हैं। पूछिए, मगर छोटे-से एक ब्रेक के बाद !
-आप अपने उनको शादी के बीस वर्ष बाद भी अपनी तरफ देखने को मजबूर कर सकती हैं। पेट के जरिए। नूडल्स खिलाकर, टू मिनट नूडल्स। कट....
-स्पीड किल्स बट थ्रिल्स। यू कैन बाई वन सुपर सोनिक कार, योर बैडरूम। यू नो व्हाट इज द मीनिंग ऑफ स्पीड !
-एज ऑफ द लिबरेटेड वुमैन। नो लुकिंग बैक, अगर व्हिस्पर हो कट.....
-गोइंग टू द नैक्स्ट मिलेनियम-विदाउट माला डी. कट....
-टुगैदरनैस इज नाट ए क्राइम बट विद सहेली।
इंजाय योर पार्टनर...कट...
-नीले स्क्रीन के बाद वी जे का मुस्कराता चेहरा उभरता है। हाँ, तो एक बार फिर अपनी बातचीत शुरू करने से पहले हम आपको बता दें कि खरखूशटी देवी जी ने लड़कियों को मारने के लिए जिस बूटी का जिक्र किया है वह हमारी इजाद की हुई, भारतीय है।, मैं भारत सरकार से रिक्वेस्ट करूँगी कि जितनी जल्दी हो सके इस बूटी को पेटेंट करा लिया जाए। कहीं ऐसा न हो कि हल्दी, जामुन, बासमती, नीम, करेले आदि की तरह इसे भी पहले ही अमरीकियों ने पेटेंट कर लिया हो।
हाँ तो ब्रेक से पहले जो बहन अपना सवाल पूछना चाहती थीं पूछें। माँग में सिन्दूर भरे, बड़ी बिन्दी लगाए महिला लगभग चीखती है-
-पिछले दिनों जब जयललिता जी की सरकार थी तो उन्होंने कहा था कि जो माता-पिता अपनी-अपनी लड़कियों को नहीं पालना चाहते वे उन्हें सरकार को दे दें। क्या सच है ? सरकार लड़कियाँ पाल सकती है ? खरखूशटी देवी मुस्कराती हैं—अजी राम का नाम जिसकी आफत वही जाने। सरकार पै सड़क तो बनती नहीं, बिजली तो आती नहीं, लोगों को नौकरी तो मिलती नहीं। ऊपर से लड़कियाँ पैदा करो और सरकार को दे दो। और अनाथालयों में उनके साथ क्या होता है, इससे पैदा ही क्यों करो ? फिर आजकल की सरकारें तो दिखावे के लिए भी बहुत कुछ कह देती हैं और जो कहती हैं उसे पूरा नहीं करतीं। सरकार पिछले पचास साल से दहेज खत्म कर रही है। हो गया दहेज खत्म, बलात्कार करने वाले को मिलती है कोई सजा। सरकार लड़कियों को शिक्षा दिलवाना चाहती है, हो गई क्या शिक्षित लड़कियाँ। एक इन्दिरा गांधी के हो जाने से क्या सब लड़कियाँ प्रधानमन्त्री बन जाती हैं। इसलिए मेरा तो बहनों को यही सुझाव है कि वे सरकार के भरोसे न रहें। अपनी आफतों से आप ही निबटे।
एक आदमी पीछे से हाथ उठाता है। लम्बी टाँगे दिखती वी जे माइक लेकर उसके पास पहुँचती है।
-बताइए आपका सवाल क्या है ?
-जैसा बूटी के बारे में कहा गया, हमने सुना है पंजाब में खौलते दूध में डालकर या चारपाई के नीचे दबाकर लड़कियों को मार देते थे। क्या इसका इस्तेमाल अब भी किया जाता है ?
खरखूशटी देवी जम्हुआई लेती कहती हैं- क्यों नहीं ? यह भी कोई पूछने की बात है। दूध भी सबके घर आता है। उसे खौलाया भी जाता है और लड़कियाँ भी सबके घर पैदा होती हैं। गरीबों के घर ! दूध चाहे उनके यहाँ न आता हो मगर चारपाइयाँ हर एक के घर में होती हैं। (ठहाका) वैसे ही बात यह है कि भारत इतना बड़ा देश है यहाँ हर जाति, हर धर्म के लोग मिल-जुलकर रहते हैं। मगर सब–जाति सब धर्म अपनी-अपनी तरह से लड़कियों से छुटकारा पाना चाहते हैं। हर जगह के रीति रिवाज परम्पराएँ अगल-अलग होती हैं। अब जो जैसा चाहते है वैसा करे। वी जे अपनी यादों में खो जाती है–
-मेरी दादी बताती थीं कि उनकी तीन बड़ी बहनों को घरवालों ने जमीन में जिन्दा दफन कर दिया था। उनके पड़ौस में पैदा होते ही लड़की की नाक या गरदन दबा दी जाती थी। आज हमें लगता है कि ये तरीके ज्यादा आसान हैं। इनमें कोर्ट, कचहरी पुलिस का चक्कर भी नहीं रहता। लड़की ही तो थी मर गई तो क्या हुआ ?
उम्मीद है हमारे दर्शकों को यह प्रोग्राम पसंद आया होगा। खरखूशटी देवी जी हम आपका धन्यवाद करते हैं। गिव हर ए बिग हैंड।
अब हमारे दर्शकों के लिए इनामी सवाल। आज बताई गई लड़की मारने की पद्धतियों में से अपने घर में आप क्या अपनाते हैं, या अपनाना चाहेंगे । यदि कोई नई पद्धति आप जानते हैं तो तुरन्त लिख भेजिए। लड़की मारने की सबसे अच्छी प्रविधि बतानेवाले को मिलेगा लन्दन का एक महीने का ट्रिप। ज्यूलर्स की तरफ से डायमंड सेट तथा और भी बहुत कुछ। यहाँ मैं आपको यह बता दूँ कि हमारे प्रोग्राम हिट हो रहे हैं। हमारी टी आर पी रेटिंग लगातर बढ़ रही है।
अब हमारे प्रोग्राम का वक्त सामाप्त होता है। अगले हफ्ते हम ऐसी ही कोई उपयोगी जानकारी लेकर हाजिर होंगे तब तक के लिए नमस्कार, सलाम और बाय, टा-टा करती वी जे स्क्रीन पर से गायब हो जाती है।
खेल
जैसे–जैसे रात बढ़ती है छोटे रेलवे स्टेशन तक ऊँघने लगते हैं। सुनसान और वीरान। एक-आध कोई गाड़ी आती है तो वे गहरी नींद से जाग जाते हैं। अन्यथा तो तेज़ गति वाली गाड़ियाँ उनकी उपेक्षा करती दौड़ी चली जाती हैं। गाड़ी चले जाने की लय दूर तक गूँजती रहती है।
लेकिन बड़े स्टेशनों पर ऐसा नहीं होता। वहाँ हर समय आपा-धापी मची रहती है। लोगों का समुद्र अचानक राजस्थान के समुद्र की तरह वाष्पित हो जाता है फिर एक नया समुद्र उग आता है। पल-पल सब कुछ बदलता हुआ। बदलने में करोड़ों वर्ष नहीं लगते। ‘गति से उपजी दिक्कतें, शोर, प्रदूषण, भीड़ सब कुछ-फिर भी लोग बढ़े चले जाते हैं,-जीवन की गति में शामिल होने के लिए। एक सोया समाज जब गति में शामिल होता है तो वहाँ तेजी से कितना कुछ बदल जाता है।
‘तो तुम कैसे जाओगे ? गाड़ी दो घंटे लेट है। कितनी देर हो जाएगी ? बस मिल जाएगी ? मैंने विभु से कहा।
‘हाँ-हाँ रातभर बसें चलती हैं। और मैं कोई छोटा बच्चा भी नहीं हूँ।’ वह बोले। ‘न हो तो ऑटो कर लेना। आधी रात तो यहीं बीत जाएगी। बस के चक्कर में पड़ोगे तो कब तक पहुँचोगे ? कब सोओगे ?’
‘ओफ यार तुम तो बस...ठीक है मैं देख लूँगा। लेकिन तुम पहुँचते ही फोन कर देना। मैं पूरे दिन घर में ही रहूँगा।’
‘मेरे फोन के इन्तजार में। दिखा तो ऐसे रहे हो जैसे अभी-अभी ब्याह कर लाए हो।’ मैंने कहा फिर हम दोनों जोर से हँसे। वहाँ के शोर में किसी तक हमारी आवाज़ नहीं पहुँची। जोर से हँसना असभ्यता की निशानी ठहरी।
हँसी में भी कितने बिन्दू बस यों ही मिल जाते हैं। गपशप और इधर-उधर की बातें निकलते समय का अहसास ही नहीं होने देतीं।
गाड़ी आ गयी थी। सामान के नाम पर एक थैला ही था मेरे पास। मैंने थैला नीचे रखा और खिड़की के पास आकर बैठ गई। गाड़ी ने पहली साटी दी तो वह नीचे उतर गए।
‘इतवार की शाम चलोगी न वहाँ से।’
‘हाँ, सेमिनार वैसे तो पाँच बजे तक का है। लेकिन कुछ देर पहले निकलूँगी।’ एक दिन के लिए कहीं जाना दुश्वार है। ऐसा लगता है जैसे युगों बाद लौटना होगा। जो जाता है, लेकिन जो पीछे छूट जाता है वह लगातार नए व्याक्ति के बारे में आशंका से घिरा रहता है। पता नहीं वह ठीक-ठाक लौट पाएगा या नहीं। कहीं रास्ते में ही तो कुछ नहीं हो जाएगा। कोई बुरी खबर तो नहीं मिलेगी। विभु के चेहरे पर प्रायः ऐसी आशंकाएँ लिख जाती हैं।
गाड़ी आगे खिसकने लगी तो मैंने कहा-‘तुम जाओ ! मगर मुझे पता था कि गाड़ी जब तक आँखों से ओझल नहीं हो जाएगी वह खड़े रहेंगे। मैंने खिड़की से पीछे मुड़कर देखने की कोशिश की मगर कुछ भी नजर नहीं आ रहा था सिवाय प्लेटफार्म की तेज़ी से पीछे हटती रोशनियों के। कहीं जाते वक्त न जाने मन में क्या होने लगता है। घर एक बिछड़े हुए साथी की तरह याद आता है। तब और भी अधिक जबकि घर में सिवाय दो जनों के कोई और न हो।
रात के समय गाड़ी की यात्रा बेहद डरावनी लगती है। बाहर का सबकुछ कितना एकसार लगता है। बिल्कुल भयानक। जहाँ कोई गति स्पन्दन ही न हो। एक अंधा कुआँ। दिन में जो चीजें बेहद आकर्षक लगती हैं, वे रात के वक्त एकाएक क्योंकर गतिहीन और डरावनी लगने लगती हैं।
मेरे सामने एक और सज्जन थे अखबार में डूबे हुए। एक मुसीबत, कोई स्त्री होती तो उससे बात की जा सकती थी....परिचय के सूत्र ऐसे ही मिल जाते हैं।
गाड़ी में खूब चहल पहल थी। शोर की ऐसी मद्धिम आवाज़ें जो किसी खामोश स्कूल के बीच में से जब तब आती हैं। यात्रा की खुशी में लोगों के चेहरे बेहद तरोताजा और खूबसूरत दिखाई देते हैं। यात्रा के लिए साथ लाए खाने के गन्ध यात्रियों के सामान में रच-बस गई थी। गाड़ी में खाने का ऑर्डर लेने वाला आ पहुँचा था। मैंने मना किया। एक अखबार पढ़ने वाले सज्जन ने अखबार हटाया और खाने के लिए ऑर्डर दिया।
छोटी आँखे, कुछ उठी हुई नाक, घुँघराले बाल...मैंने देखा और आँखे बन्द कर लीं। गाड़ी में कभी नींद भी नहीं आती ठीक से। पता नहीं वह कैसे गये होंगे-बस या आटो में। अब तक घर भी पहुँचे होंगे या नहीं।
अखबार पढ़नेवाले सज्ज्न फिर से अखबार में डूब गए थे हालाँकि रोशनी बहुत कम थी।
‘तुम निर्मल हो।’ मुझे किसी की आवाज सुनाई दी। आवाज़ फिर आई-‘निर्मल हो न !’
‘हाँ, हाँ मगर आप...’ वाक्य पूरा नहीं हुआ। मेरी नजरें उस चेहरे पर टिक गईं। दोबारा पहचानने में देर लगती है। बीस वर्ष। एक के बाद एक ढेर सी पर्तें।
‘इतनी देर से अखबार के पीछे से मैं तुम्हें ही पहचानने की कोशिश कर रहा था। जब ठीक से पहचान लिया तभी पूछा।’ वह हँसा-‘इतने दिनों में तुम अधिक नहीं बदली हो।’ आदमियों का चिर-परिचित वाक्य-‘अरे तुम हो बिलकुल पहले जैसी हो।’ एक छल जिसे स्त्री अक्सर समझ नहीं पातीं।
उसके दाँतों में एक दरार दिखी। उम्र भी मनुष्य को कैसे-कैसे छकाती है। उस जमाने का वह घुँघराले बालों वाला नवयुवक, एक प्रौढ़, उड़े हुए बाल और कुछ झुकी हुई कमर में बदल गया था। मैं भी बदल गई हूँ। उसे वैसे ही बदली हुई दिखती होऊँगी। लेकिन उसने कहा कुछ और है। इसलिए अतीत को हमेशा स्मृतियों में जिन्दा रहने देना चाहिए। वहाँ वह सुरक्षित रहता है। जब मन आए उसे निकाल कर जस का तस देखा जा सकता है, फिर वापस रख देने के लिए। लेकिन गुजरे जमाने से दो-चार होना। वहाँ कितनी बदसूरती, बेडोल पजैसिवनैस और खुरदुरापन छिपा रहता है...एक कष्टप्रद यात्रा। पीछे की ओर जहाँ कभी लौटा नहीं जा सकता, उसकी कामना। अतीत में लौटना...वक्त के पर्दे में कुछ छेद जिसने बीते हुए कल की आधी-अधूरी तस्वीरें ही देखी जा सकती हैं। रंगहीन, बेआवाज। उन्हें कभी पकड़ा नहीं जा सकता। लेकिन यों एकाएक पहचानना क्यों ? मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया तो वह बड़े नाटकीय अंदाज में बोला-‘यह तो सोचा ही नहीं था कि तुम अचानक ऐसे ही मिल जाओगी।’
‘अगर सोचते तो ?...’ मैंने हँसते हुए कहा। उसे अंदाजा नहीं था कि बढ़ती उम्र में भी कोई इस तरह खिलंदड़ा बना रह सकता है। वक्त की मार क्या कोई भी इनोसेंस बचने देती है।
मुझे हँसते देख उसके चेहरे पर बेतरतीब उग आई तनाव की रेखाएँ गायब हो गईं। उसने मुस्कराने की कोशिश की-‘इतने दिनों से, दिनों से क्या सालों से बस सोचता ही तो रहा हूँ कि एक दिन तुम बस यों ही मिल जाओगी।’
‘मिलने पर क्या करना था, अब जब मिल ही गई तो।’ मुझे अपनी आवाज़ बेहद तेज़ और कठोर लगी।
‘काश ! कि तुम सचमुच मिल जातीं, उसके चेहरे पर एक बदसूरत मुस्कुराहट फैल गई। वे बातें जो मुझे कभी बहुत अच्छी लग सकती थीं, उन्हें सुनकर अब कुछ झुरझुरी-सी हुई।
‘वन कैन नॉट फारगेट द पास्ट।’ वह आगे कहता तभी खाना आ गया था। उसने कहा तुम नहीं खाओगी।’
‘नहीं।’
‘थोड़ा-सा शेयर कर लेती मेरे साथ।’
‘मेरे साथ’ यानी कि फिर वही पजैसिवनैस जबकि उस जमाने की मामूली-सी कोमल भावनाएँ भी अब मेरे लिए जिन्दा नहीं थीं।
‘नहीं।’ मैंने दृढ़ता से कहा।
‘चलो तुम नहीं खाती तो मैं भी नहीं खाऊँगा।’ उसके दरार वाले दाँत फिर से दिखे।
समझ में नहीं आ रहा था कि इस आदमी की अतिरिक्त केयर का जवाब कैसे दूँ ?
‘यों तो हर रोज आपके लिए हम नए-नए प्रोग्राम लेकर आते रहते हैं। भाइयों, बहनों, ग्रांड पा, पेरेंट्स एंड चिल्ड्रन, हम आप सबको बता देना चाहते हैं कि हर रोज़ हमें आपके ढेरों खत मिलते हैं। सच पूछिए तो उन्हीं से हम जान पाते हैं कि आपको हमारा प्रोग्राम कैसा लगा ? एंड टु टैल यू द ट्रुथ हमारी हमेशा कोशिश रहती है कि हम कोई न कोई ऐसा प्रोग्राम आपको दिखाएँ जो आज, कल, परसों नहीं पूरे जीवन भर आपके काम आए।’
क्यों ग्रांड माँ आपका भी तो हमेशा ही यही कहना रहा है। और क्यों न हो आप हम सबकी चहेती जो हैं। भारत भर की दादियों के बीच हमारा यह प्रोग्राम-‘‘बहुत पसन्द किया जाता है। इसलिए चलिए शुरु करते हैं आपका मनपसंद प्रोग्राम-‘‘दादी माँ का बटुआ।’’
आज हम चारों ओर नई तकनीक, कम्प्यूटर क्रान्ति, सैटेलाइट, माइक्रोवेव, मोबाइल, ई-मेल, इंटरनेट, आइक्रोसर्जरी, जीन इंजीनियरिंग और न जाने क्या-क्या सुन रहे हैं। लेकिन अच्छी बात तो वह है जिसमें हमारा खर्च भी कम और काम भी हो जाए। तभी हम अपनी प्राचीन परम्पराओं को जीवित रख सकते हैं परम्पराएँ बचेंगी तभी हम बचेंगे। यू, नो, नो वन इज रूटलैस, आखिर कोई पेड़ बिना जड़ों के जीवित नहीं रह सकता, इसीलिए आज हमने अपने बीच खरखूशटी देवी को बुलाया है। इनकी विशेषता यह है कि यह अपना उदाहरण आप ही हैं जिस काम में इन्हें महारत हासिल है उसका प्रशिक्षण इन्होंने कहीं से नहीं लिया। बेचारी बहुत गरीबी में रहीं। बहुत कम उम्र में विधवा हो गईं, पैसा पास नहीं था। क्या करतीं ? तभी इन्हें ईश्वर की कृपा से लगा कि कोई ऐसा काम करें जिससें सिर्फ इनका ही नहीं, इनके परिवार और समाज का भला हो सके।
सॉरी, सॉरी आप सोचेंगे बहुत लम्बा भाषण हो गया। अब मैं अपने मेहमान का असली परिचय दे दूँ- खरखूशटी देवी जी को यों तो अपने काम के लिए कोई बड़ा सम्मान नहीं मिला। लेकिन यह इनाम की हकदार हैं। दरअसल आजकल इनामों में इतनी राजनीति है कि सही काम करनेवाले को इनाम नहीं मिल पाता। इनका काम है-माताओं को अनचाहे गर्भ खासतौर से मादा भ्रूण से मुक्ति दिलाना। (तालियाँ)
खरखूशटी देवी आती हैं। एक बड़ी मेज़ के पीछे पड़ी कुर्सी पर बैठ जाती हैं। आमन्त्रित महिलाएँ और पुरुष तालियाँ बजाते हैं। वी जे माइक लेकर इठलाती हुई कहती हैं-
मेरा यहाँ उपस्थित दर्शक वर्ग से अनुरोध है कि वे इनके सामने अपनी समस्याएँ रखें। प्रोग्राम के बाद मैं आपसे एक इनामी सवाल पूछूँगी। इस सवाल का सबसे अच्छा उत्तर देनेवाले को मिलेगा-लंदन जाने-आने का टिकट और ढेर सारे गिफ्ट हैम्पर्स। तो खरखूशटी देवी जी आपसे पहला सवाल-
-आखिर आपके मन में इस काम को रोकने का विचार कैसे आया ?
-प्रेरणा तो जी मुझे आप जैसे लोगों के प्रोग्राम देखकर ही मिली। आप ही लोग बताते थे कि देश की जनसंख्या बढ़ती जा रही है। एक दिन ऐसा आएगा कि जन्संख्या के कारण चलना-फिरना तक दूभर हो जाएगा। लोगों को न खाने को मिलेगा न पीने को पानी, न साफ हवा, पढ़ाई-लिखाई की बात कौन करे ? तो मैंने सोचा कि फिर इस काम से बड़ा काम कौन-सा है। देश की बढ़ती जनसंख्या भी कम होगी। वी जे कुछ सोचती हुई पूछती है- लेकिन जनसंख्या कम होना तो ठीक, आपने लड़कियों से ही छुटकारा दिलाने की क्यों सोची ?
इसलिए कि कौन-सी माँ है जो लड़कियाँ ही लड़कियाँ जनना चाहे, जब से ‘कम्पलीट फैमिली’ वाली बात चली है तब से तो जिनकी पहली छोरी है वो दूसरा छोरा ही चाहे है। मैंने सोचा कि जब छोरियों को कोई चाहे ही नहीं तो वे धरती पर आएँ ही क्यों ? बडे़ होकर कोई दहेज के लिए मार दे, या इज्जत लूटकर कत्ल कर दे, तो बेहतर है, पैदा होने से पहले ही मारना।
एक दर्शक पूछती है-लेकिन आपको ये पता कैसे चलता है कि पेट में लडका है या लड़की।
-आप तो पढ़ी-लिखी हो जब से अल्ट्रासाउंड वाली मशीन आई है तब से सब आसान हो गया। पहले वाली मशीन तो महँगी थी। अब तो परेशान औरतों को थोड़े-से पैसे खर्च करने पर ही पता चल जाता है है कि का है, वैसे आगे लाखों खर्च करो और छोरी खुश न रहे ता ते तो जेइ अच्छा।
खुशी के मारे वी जे का चेहरा दमक रहा है, वह इधर-उधर देखती हुई कहती हैं-दर्शकों, जैसा कि आपको खरखूशटी देवी के उत्तर से पता चल गया होगा यह तकनीक का इस्तेमाल तो करती हैं जैसे कि अल्ट्रासाउंड। लेकिन महँगी तकनीकि का नहीं जैसे कि अमीनो-सेंटेसिस। जिसे हम आम भाषा में सेक्स डिटेक्शन टैस्ट भी कहते हैं। तकनीकि लाभकारी वही हो सकती है जो सस्ती हो जिसका आम आदमी भी लाभ उठा सके। अच्छा, उधर कोने में बैठी मैडम इनसें कोई सवाल करना चाहती हैं। करिए मैडम सवाल !
धनुषाकार भौंहों वाली जेवरों से लदी मोटी औरत पूछती है-
-मेरा सवाल यह है कि हमारा पाँच हजार साल पुराना देश है इसकी इतनी महान परम्पराएँ हैं। अतीत में हम वज्र और पुष्पक बना चुके हैं। कहते तो यह भी हैं कि ब्रह्मास्त्र आज का अणुबम था तो क्या हमारे यहाँ एक भी देसी पद्धति मौजूद नहीं है जिससे महिलाओं को अनचाही लड़कियों से मुक्ति मिल सके। विदेशी अल्ट्रासाउंड क्यों ?
वी जे बीच में बोलती है- खरखूशटी देवी जी इन बहन ने जो सवाल किया आप क्या कहना चाहेंगी ?
-अजी देशी इलाज क्यों न है। पर जब नल लगा हो तो कुएँ से पानी खींचने कौन जावे ? ट्यूबबैल के जमाने में रहट को कौन पूछे ? अब अल्ट्रासाउंड तो गाम-गाम में मिल जाते हैं। फिर का देसी का विदेसी असली मकसद तो काम हो जाने का है। (दर्शक तालियाँ बजाते हैं)। वी जे कहती है, वाह क्या जवाब दिया है। एक बार और तालियाँ। दोबारा तालियाँ बजती हैं।
लेकिन वी जे सावधान करती हैं- हम शायद ट्रैक से बाहर जा रहे हैं। मेरी गुजारिश है कि वे ही सवाल पूछें जो विषय से सम्बन्धित हैं। हमारा एक-एक मिनट कीमती है, करोड़ों दर्शक हमें देख रहे हैं। हाँ तो आप पीछे की मैडम कुछ पूछना चाहती हैं। पूछिए।
कुछ सकुचाती-सी पैंट-टी शर्ट पहने लड़की खड़ी हो जाती है-
-मैं यह नहीं कह रही कि अल्ट्रासाउंड का इस्तेमाल गलत है या सही। लेकिन पूछना चाहती हूँ कि जब अल्ट्रासाउंड नहीं था तब यह कैसे पता चलता था कि पेट में लड़की है....
खरखूशटी देवी अज्ञानी के सवाल पर इस अदा से मुस्कराती हैं- अरे यह भी नहीं पता तब थोड़ी मुश्किल होती थी। पर पहले बच्चे के सिर को देखकर पता चल जाता था कि अगला बच्चा छोरा होगा या छोरी ?
कैसे –पैंट-टी शर्ट वाली बहस पर उतर आती है।
-देखो अगर बच्चे के सिर पर भौंरा हो यानी कि पीछे से बाल सीधे हाथ की तरफ घूमें तो अगला बच्चा छोरा। उलटे हाथ की तरफ घूमें हो तो भौंरी यानी की छोरी। यह तो कोई टाइम टैस्टेड बात नहीं हुई। मेडिकल साइंस भी इसे प्रूव नहीं कर सकती। कभी गलती भी हो जाती होगी।
-हाँ हो तो जावे थी। मगर अक्सर तो सही होता था और मेडिकल साइंस का क्या ! वो तो अपनी ही बात पर क़ायम नहीं रहते। पहले कहते थे बच्चे को पैदा होते ही पानी पिलाओ। अब कहते है तीन महीने तक पानी मत दो।
वी जे पैंट-शर्ट वाली को पीछे धकेलती अपनी महत्त्व और भूमिका साबित करती हैं।
-देवी जी एक सवाल मैं आपसे और करना चाहती हूँ। मान लिया कि मादा भ्रूणों को मारने में आप सिद्धहस्त हैं। लेकिन ऐसे भी तो माता-पिता आपके पास आते होंगे जिनकी लड़कियाँ पैदा हो चुकी हैं, लेकिन वे उनसे निजात पाना चाहते हैं।
-हाँ, अभी परसों ही एक बाबू जी की दूसरी लड़की को मैंने बूटी पिला दी। (देर तक तालियाँ) चहकती हुई वी जे अपने लो कट टाप को लम्बें नीले पालिश लगे नाखून गड़ाते बोलती है- ओह ग्रेट, तो दर्शकों, नोट कीजिए यदि आपके यहाँ लड़कियाँ जरूरत से ज्यादा हैं, आप सिर्फ लड़के ही लड़के चाहते हैं तो अपनी लड़कियों को बूटी भी पिला सकते हैं। खरखूशटी जी इस बूटी का नाम क्या है ? यह कहाँ मिलती है ?
(हँसी) अब अगर मैं सारी बातें यहीं बता दूँगी तो मेरे पास कौन आएगा ? मैं तो भूखी ही मर जाउँगी।
-मैं देख रही हूँ कि बीच में कुर्सी पर बैठी हमारी बहन बहुत देर से कुछ पूछना चाह रही हैं। पूछिए, मगर छोटे-से एक ब्रेक के बाद !
-आप अपने उनको शादी के बीस वर्ष बाद भी अपनी तरफ देखने को मजबूर कर सकती हैं। पेट के जरिए। नूडल्स खिलाकर, टू मिनट नूडल्स। कट....
-स्पीड किल्स बट थ्रिल्स। यू कैन बाई वन सुपर सोनिक कार, योर बैडरूम। यू नो व्हाट इज द मीनिंग ऑफ स्पीड !
-एज ऑफ द लिबरेटेड वुमैन। नो लुकिंग बैक, अगर व्हिस्पर हो कट.....
-गोइंग टू द नैक्स्ट मिलेनियम-विदाउट माला डी. कट....
-टुगैदरनैस इज नाट ए क्राइम बट विद सहेली।
इंजाय योर पार्टनर...कट...
-नीले स्क्रीन के बाद वी जे का मुस्कराता चेहरा उभरता है। हाँ, तो एक बार फिर अपनी बातचीत शुरू करने से पहले हम आपको बता दें कि खरखूशटी देवी जी ने लड़कियों को मारने के लिए जिस बूटी का जिक्र किया है वह हमारी इजाद की हुई, भारतीय है।, मैं भारत सरकार से रिक्वेस्ट करूँगी कि जितनी जल्दी हो सके इस बूटी को पेटेंट करा लिया जाए। कहीं ऐसा न हो कि हल्दी, जामुन, बासमती, नीम, करेले आदि की तरह इसे भी पहले ही अमरीकियों ने पेटेंट कर लिया हो।
हाँ तो ब्रेक से पहले जो बहन अपना सवाल पूछना चाहती थीं पूछें। माँग में सिन्दूर भरे, बड़ी बिन्दी लगाए महिला लगभग चीखती है-
-पिछले दिनों जब जयललिता जी की सरकार थी तो उन्होंने कहा था कि जो माता-पिता अपनी-अपनी लड़कियों को नहीं पालना चाहते वे उन्हें सरकार को दे दें। क्या सच है ? सरकार लड़कियाँ पाल सकती है ? खरखूशटी देवी मुस्कराती हैं—अजी राम का नाम जिसकी आफत वही जाने। सरकार पै सड़क तो बनती नहीं, बिजली तो आती नहीं, लोगों को नौकरी तो मिलती नहीं। ऊपर से लड़कियाँ पैदा करो और सरकार को दे दो। और अनाथालयों में उनके साथ क्या होता है, इससे पैदा ही क्यों करो ? फिर आजकल की सरकारें तो दिखावे के लिए भी बहुत कुछ कह देती हैं और जो कहती हैं उसे पूरा नहीं करतीं। सरकार पिछले पचास साल से दहेज खत्म कर रही है। हो गया दहेज खत्म, बलात्कार करने वाले को मिलती है कोई सजा। सरकार लड़कियों को शिक्षा दिलवाना चाहती है, हो गई क्या शिक्षित लड़कियाँ। एक इन्दिरा गांधी के हो जाने से क्या सब लड़कियाँ प्रधानमन्त्री बन जाती हैं। इसलिए मेरा तो बहनों को यही सुझाव है कि वे सरकार के भरोसे न रहें। अपनी आफतों से आप ही निबटे।
एक आदमी पीछे से हाथ उठाता है। लम्बी टाँगे दिखती वी जे माइक लेकर उसके पास पहुँचती है।
-बताइए आपका सवाल क्या है ?
-जैसा बूटी के बारे में कहा गया, हमने सुना है पंजाब में खौलते दूध में डालकर या चारपाई के नीचे दबाकर लड़कियों को मार देते थे। क्या इसका इस्तेमाल अब भी किया जाता है ?
खरखूशटी देवी जम्हुआई लेती कहती हैं- क्यों नहीं ? यह भी कोई पूछने की बात है। दूध भी सबके घर आता है। उसे खौलाया भी जाता है और लड़कियाँ भी सबके घर पैदा होती हैं। गरीबों के घर ! दूध चाहे उनके यहाँ न आता हो मगर चारपाइयाँ हर एक के घर में होती हैं। (ठहाका) वैसे ही बात यह है कि भारत इतना बड़ा देश है यहाँ हर जाति, हर धर्म के लोग मिल-जुलकर रहते हैं। मगर सब–जाति सब धर्म अपनी-अपनी तरह से लड़कियों से छुटकारा पाना चाहते हैं। हर जगह के रीति रिवाज परम्पराएँ अगल-अलग होती हैं। अब जो जैसा चाहते है वैसा करे। वी जे अपनी यादों में खो जाती है–
-मेरी दादी बताती थीं कि उनकी तीन बड़ी बहनों को घरवालों ने जमीन में जिन्दा दफन कर दिया था। उनके पड़ौस में पैदा होते ही लड़की की नाक या गरदन दबा दी जाती थी। आज हमें लगता है कि ये तरीके ज्यादा आसान हैं। इनमें कोर्ट, कचहरी पुलिस का चक्कर भी नहीं रहता। लड़की ही तो थी मर गई तो क्या हुआ ?
उम्मीद है हमारे दर्शकों को यह प्रोग्राम पसंद आया होगा। खरखूशटी देवी जी हम आपका धन्यवाद करते हैं। गिव हर ए बिग हैंड।
अब हमारे दर्शकों के लिए इनामी सवाल। आज बताई गई लड़की मारने की पद्धतियों में से अपने घर में आप क्या अपनाते हैं, या अपनाना चाहेंगे । यदि कोई नई पद्धति आप जानते हैं तो तुरन्त लिख भेजिए। लड़की मारने की सबसे अच्छी प्रविधि बतानेवाले को मिलेगा लन्दन का एक महीने का ट्रिप। ज्यूलर्स की तरफ से डायमंड सेट तथा और भी बहुत कुछ। यहाँ मैं आपको यह बता दूँ कि हमारे प्रोग्राम हिट हो रहे हैं। हमारी टी आर पी रेटिंग लगातर बढ़ रही है।
अब हमारे प्रोग्राम का वक्त सामाप्त होता है। अगले हफ्ते हम ऐसी ही कोई उपयोगी जानकारी लेकर हाजिर होंगे तब तक के लिए नमस्कार, सलाम और बाय, टा-टा करती वी जे स्क्रीन पर से गायब हो जाती है।
खेल
जैसे–जैसे रात बढ़ती है छोटे रेलवे स्टेशन तक ऊँघने लगते हैं। सुनसान और वीरान। एक-आध कोई गाड़ी आती है तो वे गहरी नींद से जाग जाते हैं। अन्यथा तो तेज़ गति वाली गाड़ियाँ उनकी उपेक्षा करती दौड़ी चली जाती हैं। गाड़ी चले जाने की लय दूर तक गूँजती रहती है।
लेकिन बड़े स्टेशनों पर ऐसा नहीं होता। वहाँ हर समय आपा-धापी मची रहती है। लोगों का समुद्र अचानक राजस्थान के समुद्र की तरह वाष्पित हो जाता है फिर एक नया समुद्र उग आता है। पल-पल सब कुछ बदलता हुआ। बदलने में करोड़ों वर्ष नहीं लगते। ‘गति से उपजी दिक्कतें, शोर, प्रदूषण, भीड़ सब कुछ-फिर भी लोग बढ़े चले जाते हैं,-जीवन की गति में शामिल होने के लिए। एक सोया समाज जब गति में शामिल होता है तो वहाँ तेजी से कितना कुछ बदल जाता है।
‘तो तुम कैसे जाओगे ? गाड़ी दो घंटे लेट है। कितनी देर हो जाएगी ? बस मिल जाएगी ? मैंने विभु से कहा।
‘हाँ-हाँ रातभर बसें चलती हैं। और मैं कोई छोटा बच्चा भी नहीं हूँ।’ वह बोले। ‘न हो तो ऑटो कर लेना। आधी रात तो यहीं बीत जाएगी। बस के चक्कर में पड़ोगे तो कब तक पहुँचोगे ? कब सोओगे ?’
‘ओफ यार तुम तो बस...ठीक है मैं देख लूँगा। लेकिन तुम पहुँचते ही फोन कर देना। मैं पूरे दिन घर में ही रहूँगा।’
‘मेरे फोन के इन्तजार में। दिखा तो ऐसे रहे हो जैसे अभी-अभी ब्याह कर लाए हो।’ मैंने कहा फिर हम दोनों जोर से हँसे। वहाँ के शोर में किसी तक हमारी आवाज़ नहीं पहुँची। जोर से हँसना असभ्यता की निशानी ठहरी।
हँसी में भी कितने बिन्दू बस यों ही मिल जाते हैं। गपशप और इधर-उधर की बातें निकलते समय का अहसास ही नहीं होने देतीं।
गाड़ी आ गयी थी। सामान के नाम पर एक थैला ही था मेरे पास। मैंने थैला नीचे रखा और खिड़की के पास आकर बैठ गई। गाड़ी ने पहली साटी दी तो वह नीचे उतर गए।
‘इतवार की शाम चलोगी न वहाँ से।’
‘हाँ, सेमिनार वैसे तो पाँच बजे तक का है। लेकिन कुछ देर पहले निकलूँगी।’ एक दिन के लिए कहीं जाना दुश्वार है। ऐसा लगता है जैसे युगों बाद लौटना होगा। जो जाता है, लेकिन जो पीछे छूट जाता है वह लगातार नए व्याक्ति के बारे में आशंका से घिरा रहता है। पता नहीं वह ठीक-ठाक लौट पाएगा या नहीं। कहीं रास्ते में ही तो कुछ नहीं हो जाएगा। कोई बुरी खबर तो नहीं मिलेगी। विभु के चेहरे पर प्रायः ऐसी आशंकाएँ लिख जाती हैं।
गाड़ी आगे खिसकने लगी तो मैंने कहा-‘तुम जाओ ! मगर मुझे पता था कि गाड़ी जब तक आँखों से ओझल नहीं हो जाएगी वह खड़े रहेंगे। मैंने खिड़की से पीछे मुड़कर देखने की कोशिश की मगर कुछ भी नजर नहीं आ रहा था सिवाय प्लेटफार्म की तेज़ी से पीछे हटती रोशनियों के। कहीं जाते वक्त न जाने मन में क्या होने लगता है। घर एक बिछड़े हुए साथी की तरह याद आता है। तब और भी अधिक जबकि घर में सिवाय दो जनों के कोई और न हो।
रात के समय गाड़ी की यात्रा बेहद डरावनी लगती है। बाहर का सबकुछ कितना एकसार लगता है। बिल्कुल भयानक। जहाँ कोई गति स्पन्दन ही न हो। एक अंधा कुआँ। दिन में जो चीजें बेहद आकर्षक लगती हैं, वे रात के वक्त एकाएक क्योंकर गतिहीन और डरावनी लगने लगती हैं।
मेरे सामने एक और सज्जन थे अखबार में डूबे हुए। एक मुसीबत, कोई स्त्री होती तो उससे बात की जा सकती थी....परिचय के सूत्र ऐसे ही मिल जाते हैं।
गाड़ी में खूब चहल पहल थी। शोर की ऐसी मद्धिम आवाज़ें जो किसी खामोश स्कूल के बीच में से जब तब आती हैं। यात्रा की खुशी में लोगों के चेहरे बेहद तरोताजा और खूबसूरत दिखाई देते हैं। यात्रा के लिए साथ लाए खाने के गन्ध यात्रियों के सामान में रच-बस गई थी। गाड़ी में खाने का ऑर्डर लेने वाला आ पहुँचा था। मैंने मना किया। एक अखबार पढ़ने वाले सज्जन ने अखबार हटाया और खाने के लिए ऑर्डर दिया।
छोटी आँखे, कुछ उठी हुई नाक, घुँघराले बाल...मैंने देखा और आँखे बन्द कर लीं। गाड़ी में कभी नींद भी नहीं आती ठीक से। पता नहीं वह कैसे गये होंगे-बस या आटो में। अब तक घर भी पहुँचे होंगे या नहीं।
अखबार पढ़नेवाले सज्ज्न फिर से अखबार में डूब गए थे हालाँकि रोशनी बहुत कम थी।
‘तुम निर्मल हो।’ मुझे किसी की आवाज सुनाई दी। आवाज़ फिर आई-‘निर्मल हो न !’
‘हाँ, हाँ मगर आप...’ वाक्य पूरा नहीं हुआ। मेरी नजरें उस चेहरे पर टिक गईं। दोबारा पहचानने में देर लगती है। बीस वर्ष। एक के बाद एक ढेर सी पर्तें।
‘इतनी देर से अखबार के पीछे से मैं तुम्हें ही पहचानने की कोशिश कर रहा था। जब ठीक से पहचान लिया तभी पूछा।’ वह हँसा-‘इतने दिनों में तुम अधिक नहीं बदली हो।’ आदमियों का चिर-परिचित वाक्य-‘अरे तुम हो बिलकुल पहले जैसी हो।’ एक छल जिसे स्त्री अक्सर समझ नहीं पातीं।
उसके दाँतों में एक दरार दिखी। उम्र भी मनुष्य को कैसे-कैसे छकाती है। उस जमाने का वह घुँघराले बालों वाला नवयुवक, एक प्रौढ़, उड़े हुए बाल और कुछ झुकी हुई कमर में बदल गया था। मैं भी बदल गई हूँ। उसे वैसे ही बदली हुई दिखती होऊँगी। लेकिन उसने कहा कुछ और है। इसलिए अतीत को हमेशा स्मृतियों में जिन्दा रहने देना चाहिए। वहाँ वह सुरक्षित रहता है। जब मन आए उसे निकाल कर जस का तस देखा जा सकता है, फिर वापस रख देने के लिए। लेकिन गुजरे जमाने से दो-चार होना। वहाँ कितनी बदसूरती, बेडोल पजैसिवनैस और खुरदुरापन छिपा रहता है...एक कष्टप्रद यात्रा। पीछे की ओर जहाँ कभी लौटा नहीं जा सकता, उसकी कामना। अतीत में लौटना...वक्त के पर्दे में कुछ छेद जिसने बीते हुए कल की आधी-अधूरी तस्वीरें ही देखी जा सकती हैं। रंगहीन, बेआवाज। उन्हें कभी पकड़ा नहीं जा सकता। लेकिन यों एकाएक पहचानना क्यों ? मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया तो वह बड़े नाटकीय अंदाज में बोला-‘यह तो सोचा ही नहीं था कि तुम अचानक ऐसे ही मिल जाओगी।’
‘अगर सोचते तो ?...’ मैंने हँसते हुए कहा। उसे अंदाजा नहीं था कि बढ़ती उम्र में भी कोई इस तरह खिलंदड़ा बना रह सकता है। वक्त की मार क्या कोई भी इनोसेंस बचने देती है।
मुझे हँसते देख उसके चेहरे पर बेतरतीब उग आई तनाव की रेखाएँ गायब हो गईं। उसने मुस्कराने की कोशिश की-‘इतने दिनों से, दिनों से क्या सालों से बस सोचता ही तो रहा हूँ कि एक दिन तुम बस यों ही मिल जाओगी।’
‘मिलने पर क्या करना था, अब जब मिल ही गई तो।’ मुझे अपनी आवाज़ बेहद तेज़ और कठोर लगी।
‘काश ! कि तुम सचमुच मिल जातीं, उसके चेहरे पर एक बदसूरत मुस्कुराहट फैल गई। वे बातें जो मुझे कभी बहुत अच्छी लग सकती थीं, उन्हें सुनकर अब कुछ झुरझुरी-सी हुई।
‘वन कैन नॉट फारगेट द पास्ट।’ वह आगे कहता तभी खाना आ गया था। उसने कहा तुम नहीं खाओगी।’
‘नहीं।’
‘थोड़ा-सा शेयर कर लेती मेरे साथ।’
‘मेरे साथ’ यानी कि फिर वही पजैसिवनैस जबकि उस जमाने की मामूली-सी कोमल भावनाएँ भी अब मेरे लिए जिन्दा नहीं थीं।
‘नहीं।’ मैंने दृढ़ता से कहा।
‘चलो तुम नहीं खाती तो मैं भी नहीं खाऊँगा।’ उसके दरार वाले दाँत फिर से दिखे।
समझ में नहीं आ रहा था कि इस आदमी की अतिरिक्त केयर का जवाब कैसे दूँ ?
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