नारी विमर्श >> हरबर्ट हरबर्टनवारूण भट्टाचार्य
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘हरबर्ट’ मेरे मन-मस्तिष्क में लंबे समय से था। मूल
विषय-वस्तु सुनिश्चित थी और कभी लगातार तो कभी उमड़ती-घुमड़ती-सी तो कभी
तीव्रता से मुझे उद्वेलित करती आ रही थी। इसका रूप मेरे जेहन में आकार ले
चुका था। फिर भी कवि मित्र और प्रभा के संपादक सुरजित घोष यदि जोर न डालते
तो शायद कभी लिखा न जाता। और, जब लिखने बैठा तो एक अजीब काहिली थी मेरे
भीतर।
लेकिन विषय के प्रति इतना जबरदस्त खिंचाव और उसका दबाव था कि लगातार लिखता चला गया। किस अध्याय में क्या होगा, सब जैसे पहले से तय था और होता चला गया, पर आखिरी अध्याय के वक्त एक बारगी मैं थम गया फिर कुछ लिखा जो मुझे खुद ही नहीं जँचा और काफी खराब बना। नया कुछ सूझ भी नहीं रहा था। आखिर मैंने इसके बारे में दो-चार दिन के लिए सोचना बिलकुल बंद कर दिया। फिर एक दिन अचानक बात बन गई और मैं लिख बैठा। इससे पहले मैंने कभी कोई बड़ा आख्यान नहीं लिखा। यह मेरा पहला उपन्यास है। उपन्यास लेखन की दृष्टि से नया अनुभव। विषय वस्तु के प्रति जिस खिंचाव और उसके दबाव की बात मैंने कही है। दरअसल उसका इन्वाल्वमेंट मुझे हरबर्ट के साथ ऐसी मनःस्थिति में ले गया था जो यातनापूर्ण ही कही जा सकती है। ऐसा प्रकाशन के लिए पांडुलिपि देते समय बहुत खराब लग रहा था।
ऐसा होना ठीक नहीं है। बाद में एक व्यक्ति के आब्सेस्ड चरित्र को लेकर न लिखे की सलाब दी। बात तो सोचने लायक है, लेकिन किया क्या जा सकता है ?
मैं एक हरबर्ट को जानता था। वह एक जमाने में मशहूर गुंडा था। और उससे जब मेरी मुलाकात हुई तब तक पक्का अफीमची बन चुका था। यह नाम उसी से लिया गया है। इस तरह भाँति-भाँति के हरबर्टों से मेरा साबका पड़ा है। उनके साथ मेरा काफी समय गुजरा है। उन्हीं से मुझे इस छूटे-छिटके, मड्ड समय का स्वर और मुखरता मिली। और जहाँ तक संरचना, ढाँचों और आकार का प्रश्न है, इस बारे में मैं हमेशा सचेत रहता हूँ। किसी समय मैंने तत्त्व विज्ञान का अध्ययन किया था। विज्ञान का छात्र रहा हूँ। सिमिट्री को लेकर मेरे भीतर एक आब्सेशन है। प्रकृति के भीतर कैसी सिमिट्री है। स्फटिक की निर्मिति मुझे विस्मित और अभिभूत करती है। दूसरे नाटक, और रंगमंच के लिए भी स्ट्रक्चर और सिमिट्री का महत्त्व देखा जा सकता है। सिमिट्री का महत्त्व संगीत में भी है।
लिखते समय मैं इस सिमिट्री या स्वर संगीत और स्ट्रक्टर या संरचना को लेकर सुनिश्चित हो लेना चाहता हूँ। यह उपन्यास लिखते वक्त दुनिया में वामपंथ की दशा-दिशा चिंताजनक हो चुकी थी। एक वामपंक्षी व्यक्ति और लेखक के बतौर यह दुसमय मेरे लिए बहुत ही पीड़ा-जनक और आघात पहुँचाने वाला रहा है। देखते ही देखते समाजवाद इतिहास हो जाएगा, व्यर्थ और हास्यास्पद बताते हुए इसका परित्याग किया जाएगा और अमेरिका में जो डेमो रिपब्लिकन फासीवाद चल रहा है। उसकी वकालत करने वाले कुछ बुद्धिजीवी इतिहास और विचारधारा आदि सबकुछ के खत्म हो जाने का फतला देंगे-यह स्वीकार कर पाना मेरे लिए संभव नहीं हो सकता था। हरबर्ट एक तरह से मेरा राजनीतिक प्रतिवाद है। कभी न कभी विस्फोट होगा ही। इसे कंप्यूटर, फैक्स, सेलुलर फोन कर्मचारी, पुलिस अथवा सबकुछ को खरीद फरोख्त का बाजार बनाकर भी रोका नहीं जा सकता। इसकी अनुगूँज इस उपन्यास में मिलेगी।
‘हरबर्ट’ में कलकत्ता शहर का भी इतिहास है और मनुष्य का भी। बेशक उतना ही, जितना कि मैंने देखा जाना है। एक तरह से उपन्यास के चरित्र हरबर्ट की असहायता मैंने भी भोगी है। इसी असहायता को एक आकार देने की कोशिश है यह उपन्यास।
लेकिन विषय के प्रति इतना जबरदस्त खिंचाव और उसका दबाव था कि लगातार लिखता चला गया। किस अध्याय में क्या होगा, सब जैसे पहले से तय था और होता चला गया, पर आखिरी अध्याय के वक्त एक बारगी मैं थम गया फिर कुछ लिखा जो मुझे खुद ही नहीं जँचा और काफी खराब बना। नया कुछ सूझ भी नहीं रहा था। आखिर मैंने इसके बारे में दो-चार दिन के लिए सोचना बिलकुल बंद कर दिया। फिर एक दिन अचानक बात बन गई और मैं लिख बैठा। इससे पहले मैंने कभी कोई बड़ा आख्यान नहीं लिखा। यह मेरा पहला उपन्यास है। उपन्यास लेखन की दृष्टि से नया अनुभव। विषय वस्तु के प्रति जिस खिंचाव और उसके दबाव की बात मैंने कही है। दरअसल उसका इन्वाल्वमेंट मुझे हरबर्ट के साथ ऐसी मनःस्थिति में ले गया था जो यातनापूर्ण ही कही जा सकती है। ऐसा प्रकाशन के लिए पांडुलिपि देते समय बहुत खराब लग रहा था।
ऐसा होना ठीक नहीं है। बाद में एक व्यक्ति के आब्सेस्ड चरित्र को लेकर न लिखे की सलाब दी। बात तो सोचने लायक है, लेकिन किया क्या जा सकता है ?
मैं एक हरबर्ट को जानता था। वह एक जमाने में मशहूर गुंडा था। और उससे जब मेरी मुलाकात हुई तब तक पक्का अफीमची बन चुका था। यह नाम उसी से लिया गया है। इस तरह भाँति-भाँति के हरबर्टों से मेरा साबका पड़ा है। उनके साथ मेरा काफी समय गुजरा है। उन्हीं से मुझे इस छूटे-छिटके, मड्ड समय का स्वर और मुखरता मिली। और जहाँ तक संरचना, ढाँचों और आकार का प्रश्न है, इस बारे में मैं हमेशा सचेत रहता हूँ। किसी समय मैंने तत्त्व विज्ञान का अध्ययन किया था। विज्ञान का छात्र रहा हूँ। सिमिट्री को लेकर मेरे भीतर एक आब्सेशन है। प्रकृति के भीतर कैसी सिमिट्री है। स्फटिक की निर्मिति मुझे विस्मित और अभिभूत करती है। दूसरे नाटक, और रंगमंच के लिए भी स्ट्रक्चर और सिमिट्री का महत्त्व देखा जा सकता है। सिमिट्री का महत्त्व संगीत में भी है।
लिखते समय मैं इस सिमिट्री या स्वर संगीत और स्ट्रक्टर या संरचना को लेकर सुनिश्चित हो लेना चाहता हूँ। यह उपन्यास लिखते वक्त दुनिया में वामपंथ की दशा-दिशा चिंताजनक हो चुकी थी। एक वामपंक्षी व्यक्ति और लेखक के बतौर यह दुसमय मेरे लिए बहुत ही पीड़ा-जनक और आघात पहुँचाने वाला रहा है। देखते ही देखते समाजवाद इतिहास हो जाएगा, व्यर्थ और हास्यास्पद बताते हुए इसका परित्याग किया जाएगा और अमेरिका में जो डेमो रिपब्लिकन फासीवाद चल रहा है। उसकी वकालत करने वाले कुछ बुद्धिजीवी इतिहास और विचारधारा आदि सबकुछ के खत्म हो जाने का फतला देंगे-यह स्वीकार कर पाना मेरे लिए संभव नहीं हो सकता था। हरबर्ट एक तरह से मेरा राजनीतिक प्रतिवाद है। कभी न कभी विस्फोट होगा ही। इसे कंप्यूटर, फैक्स, सेलुलर फोन कर्मचारी, पुलिस अथवा सबकुछ को खरीद फरोख्त का बाजार बनाकर भी रोका नहीं जा सकता। इसकी अनुगूँज इस उपन्यास में मिलेगी।
‘हरबर्ट’ में कलकत्ता शहर का भी इतिहास है और मनुष्य का भी। बेशक उतना ही, जितना कि मैंने देखा जाना है। एक तरह से उपन्यास के चरित्र हरबर्ट की असहायता मैंने भी भोगी है। इसी असहायता को एक आकार देने की कोशिश है यह उपन्यास।
-नवारुण भट्टाचार्य
एक
न बंधन कोई पैरों में, न स्पंदन है प्राण में
जागता निर्वाण में, रहता स्थिर चेतना में।
जागता निर्वाण में, रहता स्थिर चेतना में।
-विजयचंद्र मजुमदार
अच्छी तरह सो लेने दें, सोने से ही सब ठीक हो जाएगा।’
25 मई, 1992। ‘मृतात्मा से बातचीत’ के ऑफिस यानी हरबर्ट के घर से काफी रात बीते घर लौटते समय जी मिचलाने की हालत में गली या रास्ते के मकान के आसपास किसी जगह पर बड़का ने यह बात कही थी। उस रात शराब की अड्डेबाजी के बाद घर लौटने का प्रसंग कोटन, सोमनाथ, कोका डॉक्टर बड़का आदि को जिस रूप में याद है, वह बहुत स्पष्ट नहीं है। चाँद पर धुँधलाहट, रास्ते की बत्तियों के पास झाग-झाग सी रोशनी की धूल। गरमी के मारे सब कुछ जैसे सरकता जा रहा हो। पेट की अँतड़ी से चाप, चना, व्हिस्की रम बर्फ पानी-सब कुछ फबक कर बाहर आ रहा है। नाली की झंझरी से चिलचट्टे भरभराकर बाहर निकल रहे हैं और रास्ते की रोशनी को निशाना बनाकर उड़े जा रहे हैं। कोका दत्त घर के गेट के सामने उल्टी कर रहा था, गरम, खट्टी, फिसलन भरी उलटी की तीखी महक कोका आज तक नहीं भूल पाया। डॉक्टर और कोटन उस वक्त एक दूसरे के पेशाब की धार से काटाकूटी खेल रहे थे। टाट की तरह बादल के एक टुकड़े ने चाँद को ढक दिया। ग्वालों की बस्ती के सामने सरकारी नल।
वहाँ चिथड़ों में लिपटी पगली बुढ़िया पैर पसारे पानी पी रही थी। उल्लू की करक्क-करक्क बोली सुनकर रास्ते के सड़ियल कुत्ते नींद में ही रह-रहकर गुर्रा रहे थे। हरबर्ट सरकार की छत पर स्टार टी.वी. का कटोरी एंटिना टूटे तारे पकड़ने के लिए टकटकी लगाए हुए था। डॉक्टर काटाकूटी का खेल खत्म करके गेट पकड़कर खड़े कोका से कह रहा था, पीने से भी उलटी न पीने से भी उलटी। सच इसीलिए तुम लोगों के साथ दारू पीने का मन नहीं करता। ऊँघाई बवाल ! नशा बवाल ! थाली बवाल ही बवाल करोगे।’’
कोटन ने चिल्लाकर कहा, हरबर्ट दा बवाल। हरबर्ट दा जहन्नुम में।
कोका सोचने की कोशिश कर रहा था कि वह जिंदगी में फिर कभी दारू नहीं पिएगा। लेकिन वह भी उलटी की धारनुमा लार टपकाते हुए भागने लगा क्योंकि सोमनाथ जोर-जोर से चीख रहा था, लँगड़ा रवि आ रहा है, तुम लोगों की मछली खिलाने के लिए लँगड़ा रवि आ रहा है।’
पानी में डूबकर बहुत पहले मर चुका लँगड़ा रवि आ ही सकता है। हरबर्ट दा के बुलावे पर तो आएगा ही। उस रात ऐसा ही कुछ इंतजाम था। इसे कहते हैं भयानक या खतरनाक गुगली। अकसर नशे में ही ये रातें बीत जाती हैं। इसके साथ मुर्दा हवा भी रहती है।
दूसरी मंजिल के बरामदे की बड़ी घड़ी में एक का घंटा बजा। साल के पत्ते की थाली में चाप का एक टुकड़ा चुक्के के नीचे गुजराती दुकान की चना-दाल का रसा करीब आठ-दस तिलचट्टे उस पर टूटे पड़े थे। उनमें से किसी एक को पकड़ने के लिए बाहर की दीवार से मोटी छिपकली अंदर आकर दीवार से सरकती हुई नीचे उतरी, फिर चौकी के पाये से होकर ऊपर आई, थोड़ा ठहरकर उसने भाँप लिया कि हरबर्ट सो रहा है या नहीं। उसने पाया कि हरबर्टनिथर पड़ा है। तब हरबर्ट की छाती पर से होकर उसके बाएँ हाथ के बराबर उतरकर उसने पाया कि वह हाथ खून की महक से भरे ठंडे पानी में डूबा हुआ है। अपनी हरी आँखों की मदद से अँधेरे में बालटी के किनारे पर पहुंची; वहाँ से होती हुई नीचे आकर किसी तिलचट्टे को पकड़ेगी, यह सोच ही रही थी कि इस आश्चर्यजनक नीली रोशनी से सबकी आँखें चौंधिया गईं।
छिपकली और तिलचट्टों ने देखा था वह आश्चर्यजनक दृश्य। बाहरी दीवार में गली की ओर जो काँच की बंद खिड़की थी, उसकी धूल को मुँह साफ करके, डैने चलाकर, एक परी कमरे में घुसकर हरबर्ट के पास आने की कोशिश कर रही है। उसकी नीले चेहरे की आभा काँच पर पड़ रही है, उसके आँसुओं से धूल धुली जा रही है। उस समय हरबर्ट की आँखें अधखुली थीं हालाँकि बाद में उन्हें बंद कर दिया गया था। उस रात ऐसा ही इंतजाम था।
इसके बाद अंतिम पहर से चीटियों का आना शुरू हो गया। चींटियाँ लड़ाई-झगड़ा किए बिना आपस में बँटवारा कर लेना जानती हैं। काली चींटियाँ अन्न के दाने, दांतों के बीच फँसे या वहाँ से कुरेदकर निकाले गए दाल या खाने के टुकड़े और सूखे खाने की तरह चली गईं। लाल और बड़ी चींटियाँ सीधे मृत व्यक्ति की नाक के भीतर का श्लेष्मा, आँख, थूक के जरिए होंठों की किनारी, जीभ की नोक, कमजोर मसू़ढ़े आदि अधिक पसंद करती हैं। इतने सारे मांसाहारी कीड़ों- मकोडों की भीड़ में आए हुए कुछेक झींगुर जरूर अकिंचन मात्र थे। क्योंकि युगों-युगों से वे सुख में दुख में न सभ्यता का और न असभ्यता का जयगान गाते चले आ रहे हैं। चाहे उसे कोई सुने या न सुने।
25 मई, 1992। ‘मृतात्मा से बातचीत’ के ऑफिस यानी हरबर्ट के घर से काफी रात बीते घर लौटते समय जी मिचलाने की हालत में गली या रास्ते के मकान के आसपास किसी जगह पर बड़का ने यह बात कही थी। उस रात शराब की अड्डेबाजी के बाद घर लौटने का प्रसंग कोटन, सोमनाथ, कोका डॉक्टर बड़का आदि को जिस रूप में याद है, वह बहुत स्पष्ट नहीं है। चाँद पर धुँधलाहट, रास्ते की बत्तियों के पास झाग-झाग सी रोशनी की धूल। गरमी के मारे सब कुछ जैसे सरकता जा रहा हो। पेट की अँतड़ी से चाप, चना, व्हिस्की रम बर्फ पानी-सब कुछ फबक कर बाहर आ रहा है। नाली की झंझरी से चिलचट्टे भरभराकर बाहर निकल रहे हैं और रास्ते की रोशनी को निशाना बनाकर उड़े जा रहे हैं। कोका दत्त घर के गेट के सामने उल्टी कर रहा था, गरम, खट्टी, फिसलन भरी उलटी की तीखी महक कोका आज तक नहीं भूल पाया। डॉक्टर और कोटन उस वक्त एक दूसरे के पेशाब की धार से काटाकूटी खेल रहे थे। टाट की तरह बादल के एक टुकड़े ने चाँद को ढक दिया। ग्वालों की बस्ती के सामने सरकारी नल।
वहाँ चिथड़ों में लिपटी पगली बुढ़िया पैर पसारे पानी पी रही थी। उल्लू की करक्क-करक्क बोली सुनकर रास्ते के सड़ियल कुत्ते नींद में ही रह-रहकर गुर्रा रहे थे। हरबर्ट सरकार की छत पर स्टार टी.वी. का कटोरी एंटिना टूटे तारे पकड़ने के लिए टकटकी लगाए हुए था। डॉक्टर काटाकूटी का खेल खत्म करके गेट पकड़कर खड़े कोका से कह रहा था, पीने से भी उलटी न पीने से भी उलटी। सच इसीलिए तुम लोगों के साथ दारू पीने का मन नहीं करता। ऊँघाई बवाल ! नशा बवाल ! थाली बवाल ही बवाल करोगे।’’
कोटन ने चिल्लाकर कहा, हरबर्ट दा बवाल। हरबर्ट दा जहन्नुम में।
कोका सोचने की कोशिश कर रहा था कि वह जिंदगी में फिर कभी दारू नहीं पिएगा। लेकिन वह भी उलटी की धारनुमा लार टपकाते हुए भागने लगा क्योंकि सोमनाथ जोर-जोर से चीख रहा था, लँगड़ा रवि आ रहा है, तुम लोगों की मछली खिलाने के लिए लँगड़ा रवि आ रहा है।’
पानी में डूबकर बहुत पहले मर चुका लँगड़ा रवि आ ही सकता है। हरबर्ट दा के बुलावे पर तो आएगा ही। उस रात ऐसा ही कुछ इंतजाम था। इसे कहते हैं भयानक या खतरनाक गुगली। अकसर नशे में ही ये रातें बीत जाती हैं। इसके साथ मुर्दा हवा भी रहती है।
दूसरी मंजिल के बरामदे की बड़ी घड़ी में एक का घंटा बजा। साल के पत्ते की थाली में चाप का एक टुकड़ा चुक्के के नीचे गुजराती दुकान की चना-दाल का रसा करीब आठ-दस तिलचट्टे उस पर टूटे पड़े थे। उनमें से किसी एक को पकड़ने के लिए बाहर की दीवार से मोटी छिपकली अंदर आकर दीवार से सरकती हुई नीचे उतरी, फिर चौकी के पाये से होकर ऊपर आई, थोड़ा ठहरकर उसने भाँप लिया कि हरबर्ट सो रहा है या नहीं। उसने पाया कि हरबर्टनिथर पड़ा है। तब हरबर्ट की छाती पर से होकर उसके बाएँ हाथ के बराबर उतरकर उसने पाया कि वह हाथ खून की महक से भरे ठंडे पानी में डूबा हुआ है। अपनी हरी आँखों की मदद से अँधेरे में बालटी के किनारे पर पहुंची; वहाँ से होती हुई नीचे आकर किसी तिलचट्टे को पकड़ेगी, यह सोच ही रही थी कि इस आश्चर्यजनक नीली रोशनी से सबकी आँखें चौंधिया गईं।
छिपकली और तिलचट्टों ने देखा था वह आश्चर्यजनक दृश्य। बाहरी दीवार में गली की ओर जो काँच की बंद खिड़की थी, उसकी धूल को मुँह साफ करके, डैने चलाकर, एक परी कमरे में घुसकर हरबर्ट के पास आने की कोशिश कर रही है। उसकी नीले चेहरे की आभा काँच पर पड़ रही है, उसके आँसुओं से धूल धुली जा रही है। उस समय हरबर्ट की आँखें अधखुली थीं हालाँकि बाद में उन्हें बंद कर दिया गया था। उस रात ऐसा ही इंतजाम था।
इसके बाद अंतिम पहर से चीटियों का आना शुरू हो गया। चींटियाँ लड़ाई-झगड़ा किए बिना आपस में बँटवारा कर लेना जानती हैं। काली चींटियाँ अन्न के दाने, दांतों के बीच फँसे या वहाँ से कुरेदकर निकाले गए दाल या खाने के टुकड़े और सूखे खाने की तरह चली गईं। लाल और बड़ी चींटियाँ सीधे मृत व्यक्ति की नाक के भीतर का श्लेष्मा, आँख, थूक के जरिए होंठों की किनारी, जीभ की नोक, कमजोर मसू़ढ़े आदि अधिक पसंद करती हैं। इतने सारे मांसाहारी कीड़ों- मकोडों की भीड़ में आए हुए कुछेक झींगुर जरूर अकिंचन मात्र थे। क्योंकि युगों-युगों से वे सुख में दुख में न सभ्यता का और न असभ्यता का जयगान गाते चले आ रहे हैं। चाहे उसे कोई सुने या न सुने।
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