कहानी संग्रह >> एक दुनिया : समानान्तर एक दुनिया : समानान्तरराजेन्द्र यादव
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स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी-कहानी का बेजोड़ संकलन
ek duniya smanantar
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आधुनिक हिन्दी साहित्य की सबसे अधिक सशक्त, जीवन्त और महत्त्वपूर्ण साहित्य विधा-कहानी को लेकर इधर जो विवाद, हलचलें प्रश्न जिज्ञासाएँ और गोष्ठियाँ हुई हैं, उन सभी में कला-साहित्य के नये-पुराने सवालों को बार-बार उठाया गया है। कथाकार राजेन्द्र यादव ने पहली बार कहानी के मूलभूत और सामयिक प्रश्नों को साहस और व्यापक अन्तर्दृष्टि के साथ खुलकर सामने रखा हैं, देशी-विदेशी कहानियों के परिप्रेक्ष्य में उन पर विचार और उनका निर्भीक विवेचन किया है। बहुतों की अप्रसन्नता और समर्थन की चिन्ता से मुक्त, यह गम्भीर विश्लेषण जितना तीखा है उतना ही महत्त्वपूर्ण भी।
लेकिन उन कहानियों के बिना यह सारा विश्लेषण अधूरा रहता जिनका जिक्र समीक्षक, लेखक, सम्पादक, पाठक बार-बार करते रहते हैं, और जिनसे आज की कहानी का धरातल बना है।
निर्विवाद रूप से यह स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी-कहानी का बेजोड़ संकलन और प्रामाणिक हैण्ड-बुक है। यह सिर्फ कुछ कहानियों का ढेर या बण्डल नहीं है बल्कि इनके चुनाव के पीछे एक विशेष जागरूक दृष्टि और कलात्मक आग्रह है।
इसीलिए आज की सम्पूर्ण रचनात्मक चेतना को समझने के लिए एक दुनिया समानान्तर अपरिहार्य और अनुपेक्षणीय संकलन है, ऐतिहासिक और समकालीन लेखन का प्रतिनिधि सन्दर्भ ग्रन्थ....
एक दुनियाः समानान्तर की भूमिका ने कथा-समीक्षा में भीषण उथल-पुथल मचायी है, मूल्यांकन को नये धरातल दिये हैं। यह समीक्षा अपने आप में हिन्दी के विचार-साहित्य की एक उपलब्धि है।
लेकिन उन कहानियों के बिना यह सारा विश्लेषण अधूरा रहता जिनका जिक्र समीक्षक, लेखक, सम्पादक, पाठक बार-बार करते रहते हैं, और जिनसे आज की कहानी का धरातल बना है।
निर्विवाद रूप से यह स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी-कहानी का बेजोड़ संकलन और प्रामाणिक हैण्ड-बुक है। यह सिर्फ कुछ कहानियों का ढेर या बण्डल नहीं है बल्कि इनके चुनाव के पीछे एक विशेष जागरूक दृष्टि और कलात्मक आग्रह है।
इसीलिए आज की सम्पूर्ण रचनात्मक चेतना को समझने के लिए एक दुनिया समानान्तर अपरिहार्य और अनुपेक्षणीय संकलन है, ऐतिहासिक और समकालीन लेखन का प्रतिनिधि सन्दर्भ ग्रन्थ....
एक दुनियाः समानान्तर की भूमिका ने कथा-समीक्षा में भीषण उथल-पुथल मचायी है, मूल्यांकन को नये धरातल दिये हैं। यह समीक्षा अपने आप में हिन्दी के विचार-साहित्य की एक उपलब्धि है।
यह संकलन
इस कथा-संकलन का एक विशिष्ट प्रयोजन है, इसलिए यह परमपरागत संकलनों से कुछ अलग हो गया है।
संकलनों की कई दृष्टियां होती हैं।
संकलन किसी साहित्य-विधा के इतिहास-खण्ड को पूरा करने के लिए किये जाते हैं और प्रयत्न होता है कि निश्चित अवधि की सम्पूर्ण रचनात्मक प्रतिभा उनके माध्यम से अभिव्यक्ति पाये। एक विशेष अवधि में जो भी सम्पूर्ण रचनात्मक प्रतिभा उनके माध्यम से अभिव्यक्ति पाये। एक विशेष अवधि में जो भी महत्त्वपूर्ण लिखा गया है, उसे शामिल करके विधा की सतरंजी बुनी जाती है। श्री वाचस्पति पाठक की ‘इक्कीस कहानियाँ’ इस प्रकार का एक निर्दोष संकलन है और श्री विनोदशंकर व्यास ने ‘मधुकरी’ के जचार खण्डों में कहानी के क्रमबद्ध इतिहास को देने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। किसी वर्ष विशेष या दशक को केन्द्र बनाकर भी इतिहास की कड़ी प्रस्तुत की जाती है। ‘मुक्त’ द्वारा संपादित ‘कहानियां 55’ और सत्येंन्द्र शरत् का ‘नये पत्ते’ तथा काल-खण्डों में निकलने वाले संकलन इस दृष्टि से आज की कहानी को पीछे की परम्परा से जोड़ने में अत्यधिक सहायक हैं।
पाठ्यक्रमों के अनुसार किये गये संकलनों को मैं जान-बूझकर छोड़े दे रहा हूँ; क्योंकि वहां न संकलनकार का कोई व्यक्तित्व होता है, न विधा-विशेष के प्रति उसका लगाव। कोर्स में लगवा ले जाने की क्षमता ही संकलन कर्ता का एक मात्र गुण माना जाता है। इसी प्रकार में प्रकाशक की सामर्त्य भी मिली होती है। इसी वर्ग में संकलन का एक और क्रम आया है और किसी अन्य उपयुक्त नाम के अभाव में इसे ‘शवयात्रा’ संकलन नाम दिया जा सकता है। इस प्रकार के संकलनों के नाम होते हैं, ‘भारत की श्रेष्ठ कहानियाँ, ‘विश्व की कहानियाँ’ या ‘ब्रह्माण्ड की कालजयी कहानियाँ’—इसमें आप देखेंगे कि चेखव, टाल्सटाय, हैमिंग्वे इत्यादि के बीच संकलनकर्ता श्री छज्जूलाल जी की भी कहानी फिट है। वस्तुतः यह माहन नामों के कन्धों पर अपनी सवारी निकालने की सद्भावना किये जाते हैं।
विधा की महत्त्वपूर्ण कला-उपलब्धियों को स्वयं लेखक या सम्पादकीय रुचि और विवेक से चुनकर एक जगह संकलित करना दूसरा प्रकार है। ‘मेरी श्रेष्ठ कहानियाँ’ ‘स्वतन्त्रता के बाद की हिन्दी कहानियाँ’ या ‘मेरी चुनी हुई कहानियाँ’, ‘पाँच लम्बी कहानियाँ’ (राकेश) या मेरी ‘नये कहानीकार’ पुस्तक-माला इसी दृष्टि से किये गये संकलन हैं।
प्रथम पुरुष में, पत्रों या डायरी के शिल्प में लिखी गयी कहानियों का संकलन रूप पर बल देते हैं, तो हिन्दी लेखिकाओं की प्रतिनिधि कहानियाँ’ जैसे संकलन लेखकों के वर्गीकरण पर।
जब प्रेम सम्बन्धी, जासूसी, हास्य-प्रधान, ऐतिहासिक आंचलिक या शहरी महानगर बोध, जैसी कहानियों को आधार बनाकर संकलन तैयार किये जाते हैं तो ऐसी किसी विषय की विविधता में प्रस्तुत करने का आग्रह रहता है।
मुक्ति-आंदोलन, क्रान्ति और बलिदान, नारी-जागरण, समाज-सुधार जैसे आन्दोलनों या समस्याओं को केन्द्र बनाकर भी कहानी-संकलन किये गये हैं और युद्ध, विप्लव और बंगाल का अकाल, देश-विभाजन, विदेशी आक्रमण जैसी ‘घटनाओं’ की कहानी-प्रतिक्रियाओं को भी पुस्तकाकार एकत्र किया गया है। विचारधाराओं के आधार पर प्रगतिशील और कला-धर्मी कहानियों का संकलन भी उपल्ब्ध है।
दृष्टियाँ और भी होंगी; लेकिन यह संकलन किसी वर्ग में नहीं आता।
नयी परिस्थितियों में किस प्रकार कथाकार का जीवन-बोध बदलता है, उसके राग-बोध से महत्त्वपूर्ण संस्कार घटित हुए हैं- यही दृष्टि इस कथा-संकलन की प्रेरणा है। जीवन के माध्यम से कहानी और कहानी के माध्यम से जीवन को खोजने-समझने की दृष्टि भी इसे कह सकते हैं। कला, कला के लिए हो या जीवन के लिए; इस उलझन में पड़े बिना मैं यह समझता हूँ कि कला का मूल्यांकन कला के अपने मानदण्डों द्वारा हो ही नहीं सकता। यह ऐसी ही होगा जैसे चोर या सज्जन (वाह) को उसके कार्यों और परिणामों से (ऐविडैन्शियल सरकम्स्टान्सेज में) नहीं, उसके कहे हुए शब्दों (केवल बयान) से—या कृत्यों की जीवन के प्रभावों के परिप्रेक्ष्य से काटकर, देखा जाये। कला के मानदण्ड कहीं-न-कहीं जीवन के सन्दर्भों से जुड़े होते हैं। इसीलिए समय-समय पर इन्हें जीवन के समानान्र रखकर देख लेना दोनों को समझने में सहायक होता है। कला को अभिव्यक्ति देने का माध्यम कलाकार है और यह सबकुछ होते हुए भी समय और समाज के प्रभावों को नकार नहीं सकता। उन्हीं के कारण उसकी अभिव्यक्ति और दृष्टि में परिवर्तन और प्रयोग होते हैं।
कहते है कहानीकार समाज की संवेदनशील आत्मा है। आज की स्थितियाँ किस तरह और किन स्तरों पर उसे छूती या प्रभावित करती हैं, इसका आकलन वस्तुतः समाज के ही नैतिक और आध्यात्मिक इतिवृत्त को पहचानना है- समय आकलन वस्तुतः समाज के ही नैतिक और आध्यात्मिक इतिवृत्त पहचानना है- समय विशेष में मनुष्य को टूटते और बनते देखना है यही जिज्ञासा इस संकलन की भूमि है। यों कहानियों के चुनाव में स्वतन्त्रता के बाद आने वाले कहानीकार और कहानियों के अपने कला-स्तर की न्यूनतम अपेक्षाएँ भी हैं ही। कहानीकार का तीव्र जीवन-बोध, उसके सन्दर्भ में कला-प्रयोग और परिष्कार ही एकमात्र कसौटी मेरे सामने रही हैं। इस प्रक्रिया में मैंने अनिवार्यतः पाया है कि जिनका जीवन-बोध पारम्परिक है, उन्होंने प्रायः कहानी के शिल्प और रूप में भी परिवर्तन नहीं किये हैं। इस विषय का विस्तार में विवेचन अलग है; लेकिन यहाँ कहानियों के चुनाव-सम्बन्धी अपनी दो-एक कठिनाइयों को सामने रखने का प्रयत्न करूँगा।
क्यों एक रचना अपनी ओर सहसा ही ध्यान खींच लेती है और क्योंकि दूसरी अनेक आयोजित परिचर्चाओं और प्रेरित समीक्षाओं के बावजूद वहीं-की-वहीं रह जाती है ?’ शायद जीवन को कुछ अलग तरह देखने-समझने की आकुलता, और परिणामस्वरूप कृति में आये दृष्टि और रूपगत परिवर्तन ही हमारा ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। कोई भी महत्त्वपूर्ण कृति उठा लीजिए, वह कहीं-न-कहीं परम्परागत जीवन-दृष्टि की जड़ता और कला रूप के रुँधाव को तोड़ती है। तो यह तोड़ना ही उसे महत्त्वपूर्ण बना देता है और वहीं से कहानीकार की वास्तविक ‘यात्रा’ शुरू होती है। अपनी हर अगली कृति द्वारा वह प्रमाणित करता है कि उसकी वह विशिष्ट कृति सचमुच किसी संवेदनशील जीवन संचेतना का ही परिणाम थी, या सिर्फ एक तुक्का (फ्लुक) !
चूँकि समीक्षाओं, परिचर्चाओं और गोष्ठियों में अक्सर उन्हीं कहानियों की जिक्र होता है जिन्होंने पहली बार अपनी जी जीवन-संचेतना और रूप-प्रयोग के कारण हमारा ध्यान कहानीकार की ओर आकर्षित किया जाता था, इसलिए संकलकार के सामने एक बहुत ही सुविधाजनक प्रलोभन रहता हैः क्यों न उन्हीं विशिष्ट और ‘ऐतिहासिक’ दृष्टि से महत्त्वपूर्ण’ कहानियों का ही एक संकलन कर दिया जाये जो पाठकों, समीक्षकों और प्राध्यापकों के लिए सन्दर्भ-ग्रन्थ की तरह उपयोगी हो ? मानता हूँ, ऐसे संकलन का महत्त्व और उपयोग कम नहीं है; किन्तु साथ ही प्रश्न उठता है कि वह ‘विशिष्ट कृति’ तो केवल एक ब्रेक-या अलगाव-थी जहाँ से किसी कथाकार की रचनात्मक प्रतिभा एक नई दिशा लेती है-जीवन्त और संवेदनशील कथाकार के राग-बोध और दृष्टि को समझने के लिए क्या यह अधिक अच्छा नहीं है कि कथाकार की पौढ़तर कृति ही ली जाये और उस कृति का मोह छोड़ दिया जाये जो उसकी ‘यात्रा का आरम्भ’ थी ? यों, यहाँ मैं कलासृजन का प्रौढ़ होना ही नहीं होता और कभी-कभी कला-पौढ़ता और आयु-वार्धक्य दो विरोधी बातें भी हो जाती हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि किसी जीवन्त कथाकार कि किसी जीवन्त कथाकार की हर अगली रचना उसका विकास ही बताये। और इस बात का मैंने ध्यान रखा है।
बहरहाल, इसी दृष्टि से जो रचनाएँ समय के परिप्रेक्ष्य में कथाकार की जीवन-संचेतना को अधिक सार्थकता से व्यक्त करती थीं, मैंने उन्हें चुनना बेहतर समझा है कुछ कहानियाँ तो इसी वर्ष की है।
लेकिन इस दृष्टि से भी एक और कठिनाई सामने आती है और यह कठिनाई, लक्ष्मीनारायण लाल की कहानियाँ मनोहरश्याम जोशी की ‘एक दुर्लभ व्यक्तित्व’; हरि प्रकाश की वापसी’; मनहर चौहान की ‘घरघुलरा’; दूधनाथनाथसिंह ‘विस्तर श्रीमती विजय चौहान की ‘अफ़सर की बेटी’ या ‘एक बुतकिशन का जन्म’; शरद देवड़ा की ‘अनकहा’ और इसी तरह रवीन्द्र कालिया, ज्ञानारंजन, महेन्द्र भल्ला की अनेक कहानियों को लेकर मेरे सामने आयी है। अपनी ही कसौटी में ऐसी बहुत-सी कहानियाँ मुझे किसी भी प्रतिनिधि संकलन के लिए आवश्यक लगती हैं; फिर भी मैं इन्हें नहीं ले पा रहा हूँ। कारण; संकलन की स्थान-सीमा है और उस हालत में कुछ को छोड़कर ही कुछ को लिया जा सकता है
.जिन कुछ को छोड़ा जा सकता है उनके पक्ष में एक-तर्ज मेरे सामने है। जीवन संचेतन के अन्वेषण और अभिव्यक्ति के प्रयत्न में ‘उसने कहा था’ का इतिहास बार-बार नहीं दुहाराया जाता; जहाँ कोई एक कहानी ही किसी के ‘अमरत्व’ के लिए पर्याप्त हो। प्रतिभा अपने विस्फोट से नहीं, नैरन्तर्य से अपने-आपको प्रमाणित करती है और कहानीकार का स्थान एक कहानी से नहीं, अनेक कहानियों में विकसित होती उसकी जीवन –दृष्टि से निर्धारित होता है, अपनी विधा के प्रति आत्मीय लगाव से निश्चित होता है। ऊपर वाली कहानियों के लेखकों में कुछ ने इस नैरन्तर्य को प्रमाणित करना आवश्यक नहीं समझा जाता है तो कुछ लेखक ऐसे भी हैं जिनकी सम्भावनानाओं और उपलब्धियों के प्रति समस्त सम्मान का भाव रखते हुए भी मुझे लगता है कि उनकी वास्तविक दिशा का निर्धारण अभी होना है, अभी तो उनकी हर रचना उनके लेखक-व्यक्तित्व की मूल रेखाएँ उकेर रही है। अवधानारायण सिंह, दूधनाथ सिंह, प्रबोध कुमार विजय चौहान नीलकान्त सिंह, श्रीकान्त वर्मा, गिरिराज किशोर नरेश मेहता, रवीन्द्र भल्ला इत्यादि अनेक नाम हैं जो भविष्य के प्रति आशवस्त करते हैं; इनके कृतित्व के साथ न्याय करने के लिए स्वतन्त्र संकलन की अपेक्षा है।
अब प्रस्तुत है कहानियाँ
बदलती परिस्थितियों में व्यक्ति-सम्पर्कों के भावात्मक परिवर्तन स्पष्ट करने के लिए पहले इन कहानियों को दूसरे क्रम में रखा गया था। तब इन कहानियों के चार वर्ग थे और वे इन प्रकार विभाजित थीं।
1. गुजरते साये-अथवा पितृ-वर्ग वर्तमान पीढ़ी की बदलती हुई दृष्टि। इस वर्ग में जो कहानियाँ थीं उनमें परम्परा या प्राचीनों के प्रति श्रद्धा की भावना धीरे-धीरे दया में बदलती दिखायी देती है, दया उदासीनता और फिर उपहास में :
1. हंसा जाई अकेला मार्कण्डेय
2. गुलरा के बाबा ,,
3. देवा की माँ कमलेशवर
4. किसके लिए ,,
5. दुनिया बहुत ब़ड़ी है ,,
6. आर्द्रा मोहन राकेश
7. कर्मनाशा की हार शिवप्रसाद सिंह
8. गँदले जल का रिश्ता शानी
9. अकेली मन्नू भण्डारी
10 चीफ़ की दावत भीष्म साहनी
11. तलवार पंच-हजारी राजेन्द्र यादव
12. बिरादरी-बाहर ,,
13. एक दुर्लभ व्यक्तित्व मनोहरश्याम जोशी
2. प्रणव और परिणय-वर्ग में नारी और पुरुष के आपसी सम्बन्धों के दबें-घुटे बदलते स्वर मुखरित करने वाली कहानियाँ थीं। इनमें हल्के-से मधुर-भाव से लेकर एक-दूसरे के प्रति बाकायदा विरक्ति और उदासीनता तक प्रकट होती है। इसी वर्ग की कहानियों की संख्या सबसे अधिक थीः
1. अपरिचित मोहन राकेश
2. फौलाद का आकाश ,,
3. अँधेरे में निर्मला वर्मा
4 लवर्स ’’
5 अन्तर ’’
6.तीसरी कसम फणीश्वर रेणु
7. तीन बिन्दियाँ ,,
8. अच्छे आदमी ,,
9. यही सच है ,,
13. कोसी का घटवार शेखर जोशी
14. पक्षाघात मार्कण्डेय
15 सूर्या ,,
16. मोहबन्ध उषा प्रियवदा
17 एक कोई दूसरा ,,
18 सागर पार का संगीत ,,
19. रेवा राजकुमार
20 शबरी रमेश बक्षी
21. बिस्तर दूधनाथ सिंह
22. बातें प्रयाग शुक्ल
23. राजा निरबंसिया कमलेश्वर
24 नीली झील ,,
25 जो लिखा नहीं जाता कमलेश्वर
26. एक कमजोर लड़की की कहानी राजेन्द्र यादव
27. छोटे-छेटे ताजमहल ,,
28 टूटना ,,
29 पुराने नाले पर नया फ्लैट ,,
30 सावित्री नम्बर दो धर्मवीर भारती
31. एक पति के नोट्स महेन्द्र भल्ला
टूटे हुए पुरुष वर्ग में दुनिया की भाग-दौड़ में खोये हुए से लेकर अपने प्रारब्ध के प्रति समर्पित आदमी भी थाः
1. सितम्बर की एक शाम निर्मल वर्मा
2. सिमेट्री राजकुमार
3. सेलर ,,
4 एक चेहरा ,,
5 अन्धकूप शिवप्रसाद सिंह
6 नये-नये आने वाले राजेन्द्र यादव
7. खुशबू ,,
8. कोसी का घटवार शेखर जोशी
9. एक ज़िन्दगी मोहन राकेश
10, मलबे का मालिक ,,
11. पाँचवें माले का फ्लैट ,,
12 ज़ख़्म ,,
13. डिप्टी कलक्टरी अमरकान्त
14ज़िन्दगी और जोंक ,,
15 छिपकली ,,
16 बेकार आदमी कमलेश्वर
17 दिल्ली में एक मौत ,,
18 खोई हुई दिशाएँ ,,
19 दुखों के रास्ते ,,
20 आइसबर्ग दूधनाथ सिंह
21. घरघुसरा मनहर चौहान
22. भोलाराम का जीव हरिशंकर परसाई
23. सज़ा मन्नू भण्डारी
24, प्रयागनारायण शुक्ल और रामनारायण शुक्ल की अनेक कहानियाँ।
4. बिखरी हुई नारी-में सम्पर्कों के लिए ललकती और सम्पर्कों से कटी नारी की कहानियाँ थीं:
1. बादलों के घेरे में कृष्ण सोबती
2. गुलटी बन्नो धर्मवीर भारती
3. क्षय मन्नू भण्डारी
4. छुट्टी का दिन उषा प्रियंवदा
6. खोज ,,
7, सिर का सदका भीष्म साहनी
8. खले पंख, टूटे डैने राजेन्द्र यादव
9. प्रतीक्षा ,,
10. मिस पाल मोहन राकेश
11. सुहागिने ,,
12 जानवर और जानवर ,,
13 टेबुल फणीश्वर नाथ रेणु
14 नन्हों शिवप्रसाद सिंह
15 एक संधि और शानी
भाई श्री जयरतमन का तो अभी आग्रह है कि संकलन में कहानियों का यही विभाजन देना चाहिए, क्योंकि यह बिल्कुल नया प्रकार होगा। किंतु इनमें भी कुछ दिक़्कतें मेरे सामने हैं ऊपर गिनायी कहानियों में से छँटाई करने के बाद भी निर्धारित संख्या से बहुत बढ़ जायेंगी; दूसरे, प्रायः सभी लेखक चारों वर्गों में बार-बार आयेंगे। संशयात्मा मित्रों को अपना कोई मन्यव्य खोज निकालने का सन्तोष दे सकने लायक साहस मुझसे नहीं है। वस्तुतः इन या ऐसे ही वर्गों के आधार पर चार स्वतन्त्र संकलन कर देना अधिक उपयोगी होगा। मैंने ऊपर केवल उन्हीं कहानियों के नाम दिये हैं जो प्रायः सुपरिचित हैं और सहज ही याद आ गयी हैं, हो सकता है इनमें अच्छी कुछ और भी कहानियाँ बन गई हों।
इस भूमिका और साथ के निबन्ध के विषय में भी एक शब्द यों कहने को कुछ नहीं है, जो कुछ है वहीं बहुत साफ-साफ कह दिया गया है। हाँ, कहीं-कहीं अपनी बात को साफ़ करने के लिए अपनी कहानियों के नाम लिये हैं जो अनेक को आपत्तिजनक लगेंगे। जहाँ तक स्थापना स्पष्ट कर सकने में दूसरों की कहानियों में सुविधा हुई है, वहाँ यही पसन्द भी किया है। यों मेरी जानकारी की भी एक सीमा तो है ही न ! ‘इन पंक्तियों के लेखक की अमुक कहानी भी’ छद्-विनम्रता, और जानबूझकर अपने को अनुपस्थित रखने की आडम्बरी-उदारता मुझमें नहीं है। विनय और दम्भ से हटकर तथ्य –कथन के रूप में ही उनका उल्लेख है।
लेखकों के अकारादि क्रम से कहानियाँ हैं। परिचय जान बूझकर नहीं दिये जा रहे। देना बहुत परिपाटी-बद्ध हो जाता। इतना काफ़ी है कि ये सभी स्वतन्त्रता के बाद माहित्य में प्रविष्ट हुए हैं, और अभी जीवन्त हैं।
भाई श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, पो० कल्याणमल लोढ़ा और विष्णुकान्त शास्त्री इस संकलन और भूमिका-निबन्ध को पूरा कर लेने के लिए मुझे जिस उत्सुक-आग्रह से प्रेरित करते रहे हैं, वही इस श्रय का स्नेह-सम्बल रहा है। कथाकार मित्रों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
संकलनों की कई दृष्टियां होती हैं।
संकलन किसी साहित्य-विधा के इतिहास-खण्ड को पूरा करने के लिए किये जाते हैं और प्रयत्न होता है कि निश्चित अवधि की सम्पूर्ण रचनात्मक प्रतिभा उनके माध्यम से अभिव्यक्ति पाये। एक विशेष अवधि में जो भी सम्पूर्ण रचनात्मक प्रतिभा उनके माध्यम से अभिव्यक्ति पाये। एक विशेष अवधि में जो भी महत्त्वपूर्ण लिखा गया है, उसे शामिल करके विधा की सतरंजी बुनी जाती है। श्री वाचस्पति पाठक की ‘इक्कीस कहानियाँ’ इस प्रकार का एक निर्दोष संकलन है और श्री विनोदशंकर व्यास ने ‘मधुकरी’ के जचार खण्डों में कहानी के क्रमबद्ध इतिहास को देने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। किसी वर्ष विशेष या दशक को केन्द्र बनाकर भी इतिहास की कड़ी प्रस्तुत की जाती है। ‘मुक्त’ द्वारा संपादित ‘कहानियां 55’ और सत्येंन्द्र शरत् का ‘नये पत्ते’ तथा काल-खण्डों में निकलने वाले संकलन इस दृष्टि से आज की कहानी को पीछे की परम्परा से जोड़ने में अत्यधिक सहायक हैं।
पाठ्यक्रमों के अनुसार किये गये संकलनों को मैं जान-बूझकर छोड़े दे रहा हूँ; क्योंकि वहां न संकलनकार का कोई व्यक्तित्व होता है, न विधा-विशेष के प्रति उसका लगाव। कोर्स में लगवा ले जाने की क्षमता ही संकलन कर्ता का एक मात्र गुण माना जाता है। इसी प्रकार में प्रकाशक की सामर्त्य भी मिली होती है। इसी वर्ग में संकलन का एक और क्रम आया है और किसी अन्य उपयुक्त नाम के अभाव में इसे ‘शवयात्रा’ संकलन नाम दिया जा सकता है। इस प्रकार के संकलनों के नाम होते हैं, ‘भारत की श्रेष्ठ कहानियाँ, ‘विश्व की कहानियाँ’ या ‘ब्रह्माण्ड की कालजयी कहानियाँ’—इसमें आप देखेंगे कि चेखव, टाल्सटाय, हैमिंग्वे इत्यादि के बीच संकलनकर्ता श्री छज्जूलाल जी की भी कहानी फिट है। वस्तुतः यह माहन नामों के कन्धों पर अपनी सवारी निकालने की सद्भावना किये जाते हैं।
विधा की महत्त्वपूर्ण कला-उपलब्धियों को स्वयं लेखक या सम्पादकीय रुचि और विवेक से चुनकर एक जगह संकलित करना दूसरा प्रकार है। ‘मेरी श्रेष्ठ कहानियाँ’ ‘स्वतन्त्रता के बाद की हिन्दी कहानियाँ’ या ‘मेरी चुनी हुई कहानियाँ’, ‘पाँच लम्बी कहानियाँ’ (राकेश) या मेरी ‘नये कहानीकार’ पुस्तक-माला इसी दृष्टि से किये गये संकलन हैं।
प्रथम पुरुष में, पत्रों या डायरी के शिल्प में लिखी गयी कहानियों का संकलन रूप पर बल देते हैं, तो हिन्दी लेखिकाओं की प्रतिनिधि कहानियाँ’ जैसे संकलन लेखकों के वर्गीकरण पर।
जब प्रेम सम्बन्धी, जासूसी, हास्य-प्रधान, ऐतिहासिक आंचलिक या शहरी महानगर बोध, जैसी कहानियों को आधार बनाकर संकलन तैयार किये जाते हैं तो ऐसी किसी विषय की विविधता में प्रस्तुत करने का आग्रह रहता है।
मुक्ति-आंदोलन, क्रान्ति और बलिदान, नारी-जागरण, समाज-सुधार जैसे आन्दोलनों या समस्याओं को केन्द्र बनाकर भी कहानी-संकलन किये गये हैं और युद्ध, विप्लव और बंगाल का अकाल, देश-विभाजन, विदेशी आक्रमण जैसी ‘घटनाओं’ की कहानी-प्रतिक्रियाओं को भी पुस्तकाकार एकत्र किया गया है। विचारधाराओं के आधार पर प्रगतिशील और कला-धर्मी कहानियों का संकलन भी उपल्ब्ध है।
दृष्टियाँ और भी होंगी; लेकिन यह संकलन किसी वर्ग में नहीं आता।
नयी परिस्थितियों में किस प्रकार कथाकार का जीवन-बोध बदलता है, उसके राग-बोध से महत्त्वपूर्ण संस्कार घटित हुए हैं- यही दृष्टि इस कथा-संकलन की प्रेरणा है। जीवन के माध्यम से कहानी और कहानी के माध्यम से जीवन को खोजने-समझने की दृष्टि भी इसे कह सकते हैं। कला, कला के लिए हो या जीवन के लिए; इस उलझन में पड़े बिना मैं यह समझता हूँ कि कला का मूल्यांकन कला के अपने मानदण्डों द्वारा हो ही नहीं सकता। यह ऐसी ही होगा जैसे चोर या सज्जन (वाह) को उसके कार्यों और परिणामों से (ऐविडैन्शियल सरकम्स्टान्सेज में) नहीं, उसके कहे हुए शब्दों (केवल बयान) से—या कृत्यों की जीवन के प्रभावों के परिप्रेक्ष्य से काटकर, देखा जाये। कला के मानदण्ड कहीं-न-कहीं जीवन के सन्दर्भों से जुड़े होते हैं। इसीलिए समय-समय पर इन्हें जीवन के समानान्र रखकर देख लेना दोनों को समझने में सहायक होता है। कला को अभिव्यक्ति देने का माध्यम कलाकार है और यह सबकुछ होते हुए भी समय और समाज के प्रभावों को नकार नहीं सकता। उन्हीं के कारण उसकी अभिव्यक्ति और दृष्टि में परिवर्तन और प्रयोग होते हैं।
कहते है कहानीकार समाज की संवेदनशील आत्मा है। आज की स्थितियाँ किस तरह और किन स्तरों पर उसे छूती या प्रभावित करती हैं, इसका आकलन वस्तुतः समाज के ही नैतिक और आध्यात्मिक इतिवृत्त को पहचानना है- समय आकलन वस्तुतः समाज के ही नैतिक और आध्यात्मिक इतिवृत्त पहचानना है- समय विशेष में मनुष्य को टूटते और बनते देखना है यही जिज्ञासा इस संकलन की भूमि है। यों कहानियों के चुनाव में स्वतन्त्रता के बाद आने वाले कहानीकार और कहानियों के अपने कला-स्तर की न्यूनतम अपेक्षाएँ भी हैं ही। कहानीकार का तीव्र जीवन-बोध, उसके सन्दर्भ में कला-प्रयोग और परिष्कार ही एकमात्र कसौटी मेरे सामने रही हैं। इस प्रक्रिया में मैंने अनिवार्यतः पाया है कि जिनका जीवन-बोध पारम्परिक है, उन्होंने प्रायः कहानी के शिल्प और रूप में भी परिवर्तन नहीं किये हैं। इस विषय का विस्तार में विवेचन अलग है; लेकिन यहाँ कहानियों के चुनाव-सम्बन्धी अपनी दो-एक कठिनाइयों को सामने रखने का प्रयत्न करूँगा।
क्यों एक रचना अपनी ओर सहसा ही ध्यान खींच लेती है और क्योंकि दूसरी अनेक आयोजित परिचर्चाओं और प्रेरित समीक्षाओं के बावजूद वहीं-की-वहीं रह जाती है ?’ शायद जीवन को कुछ अलग तरह देखने-समझने की आकुलता, और परिणामस्वरूप कृति में आये दृष्टि और रूपगत परिवर्तन ही हमारा ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। कोई भी महत्त्वपूर्ण कृति उठा लीजिए, वह कहीं-न-कहीं परम्परागत जीवन-दृष्टि की जड़ता और कला रूप के रुँधाव को तोड़ती है। तो यह तोड़ना ही उसे महत्त्वपूर्ण बना देता है और वहीं से कहानीकार की वास्तविक ‘यात्रा’ शुरू होती है। अपनी हर अगली कृति द्वारा वह प्रमाणित करता है कि उसकी वह विशिष्ट कृति सचमुच किसी संवेदनशील जीवन संचेतना का ही परिणाम थी, या सिर्फ एक तुक्का (फ्लुक) !
चूँकि समीक्षाओं, परिचर्चाओं और गोष्ठियों में अक्सर उन्हीं कहानियों की जिक्र होता है जिन्होंने पहली बार अपनी जी जीवन-संचेतना और रूप-प्रयोग के कारण हमारा ध्यान कहानीकार की ओर आकर्षित किया जाता था, इसलिए संकलकार के सामने एक बहुत ही सुविधाजनक प्रलोभन रहता हैः क्यों न उन्हीं विशिष्ट और ‘ऐतिहासिक’ दृष्टि से महत्त्वपूर्ण’ कहानियों का ही एक संकलन कर दिया जाये जो पाठकों, समीक्षकों और प्राध्यापकों के लिए सन्दर्भ-ग्रन्थ की तरह उपयोगी हो ? मानता हूँ, ऐसे संकलन का महत्त्व और उपयोग कम नहीं है; किन्तु साथ ही प्रश्न उठता है कि वह ‘विशिष्ट कृति’ तो केवल एक ब्रेक-या अलगाव-थी जहाँ से किसी कथाकार की रचनात्मक प्रतिभा एक नई दिशा लेती है-जीवन्त और संवेदनशील कथाकार के राग-बोध और दृष्टि को समझने के लिए क्या यह अधिक अच्छा नहीं है कि कथाकार की पौढ़तर कृति ही ली जाये और उस कृति का मोह छोड़ दिया जाये जो उसकी ‘यात्रा का आरम्भ’ थी ? यों, यहाँ मैं कलासृजन का प्रौढ़ होना ही नहीं होता और कभी-कभी कला-पौढ़ता और आयु-वार्धक्य दो विरोधी बातें भी हो जाती हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि किसी जीवन्त कथाकार कि किसी जीवन्त कथाकार की हर अगली रचना उसका विकास ही बताये। और इस बात का मैंने ध्यान रखा है।
बहरहाल, इसी दृष्टि से जो रचनाएँ समय के परिप्रेक्ष्य में कथाकार की जीवन-संचेतना को अधिक सार्थकता से व्यक्त करती थीं, मैंने उन्हें चुनना बेहतर समझा है कुछ कहानियाँ तो इसी वर्ष की है।
लेकिन इस दृष्टि से भी एक और कठिनाई सामने आती है और यह कठिनाई, लक्ष्मीनारायण लाल की कहानियाँ मनोहरश्याम जोशी की ‘एक दुर्लभ व्यक्तित्व’; हरि प्रकाश की वापसी’; मनहर चौहान की ‘घरघुलरा’; दूधनाथनाथसिंह ‘विस्तर श्रीमती विजय चौहान की ‘अफ़सर की बेटी’ या ‘एक बुतकिशन का जन्म’; शरद देवड़ा की ‘अनकहा’ और इसी तरह रवीन्द्र कालिया, ज्ञानारंजन, महेन्द्र भल्ला की अनेक कहानियों को लेकर मेरे सामने आयी है। अपनी ही कसौटी में ऐसी बहुत-सी कहानियाँ मुझे किसी भी प्रतिनिधि संकलन के लिए आवश्यक लगती हैं; फिर भी मैं इन्हें नहीं ले पा रहा हूँ। कारण; संकलन की स्थान-सीमा है और उस हालत में कुछ को छोड़कर ही कुछ को लिया जा सकता है
.जिन कुछ को छोड़ा जा सकता है उनके पक्ष में एक-तर्ज मेरे सामने है। जीवन संचेतन के अन्वेषण और अभिव्यक्ति के प्रयत्न में ‘उसने कहा था’ का इतिहास बार-बार नहीं दुहाराया जाता; जहाँ कोई एक कहानी ही किसी के ‘अमरत्व’ के लिए पर्याप्त हो। प्रतिभा अपने विस्फोट से नहीं, नैरन्तर्य से अपने-आपको प्रमाणित करती है और कहानीकार का स्थान एक कहानी से नहीं, अनेक कहानियों में विकसित होती उसकी जीवन –दृष्टि से निर्धारित होता है, अपनी विधा के प्रति आत्मीय लगाव से निश्चित होता है। ऊपर वाली कहानियों के लेखकों में कुछ ने इस नैरन्तर्य को प्रमाणित करना आवश्यक नहीं समझा जाता है तो कुछ लेखक ऐसे भी हैं जिनकी सम्भावनानाओं और उपलब्धियों के प्रति समस्त सम्मान का भाव रखते हुए भी मुझे लगता है कि उनकी वास्तविक दिशा का निर्धारण अभी होना है, अभी तो उनकी हर रचना उनके लेखक-व्यक्तित्व की मूल रेखाएँ उकेर रही है। अवधानारायण सिंह, दूधनाथ सिंह, प्रबोध कुमार विजय चौहान नीलकान्त सिंह, श्रीकान्त वर्मा, गिरिराज किशोर नरेश मेहता, रवीन्द्र भल्ला इत्यादि अनेक नाम हैं जो भविष्य के प्रति आशवस्त करते हैं; इनके कृतित्व के साथ न्याय करने के लिए स्वतन्त्र संकलन की अपेक्षा है।
अब प्रस्तुत है कहानियाँ
बदलती परिस्थितियों में व्यक्ति-सम्पर्कों के भावात्मक परिवर्तन स्पष्ट करने के लिए पहले इन कहानियों को दूसरे क्रम में रखा गया था। तब इन कहानियों के चार वर्ग थे और वे इन प्रकार विभाजित थीं।
1. गुजरते साये-अथवा पितृ-वर्ग वर्तमान पीढ़ी की बदलती हुई दृष्टि। इस वर्ग में जो कहानियाँ थीं उनमें परम्परा या प्राचीनों के प्रति श्रद्धा की भावना धीरे-धीरे दया में बदलती दिखायी देती है, दया उदासीनता और फिर उपहास में :
1. हंसा जाई अकेला मार्कण्डेय
2. गुलरा के बाबा ,,
3. देवा की माँ कमलेशवर
4. किसके लिए ,,
5. दुनिया बहुत ब़ड़ी है ,,
6. आर्द्रा मोहन राकेश
7. कर्मनाशा की हार शिवप्रसाद सिंह
8. गँदले जल का रिश्ता शानी
9. अकेली मन्नू भण्डारी
10 चीफ़ की दावत भीष्म साहनी
11. तलवार पंच-हजारी राजेन्द्र यादव
12. बिरादरी-बाहर ,,
13. एक दुर्लभ व्यक्तित्व मनोहरश्याम जोशी
2. प्रणव और परिणय-वर्ग में नारी और पुरुष के आपसी सम्बन्धों के दबें-घुटे बदलते स्वर मुखरित करने वाली कहानियाँ थीं। इनमें हल्के-से मधुर-भाव से लेकर एक-दूसरे के प्रति बाकायदा विरक्ति और उदासीनता तक प्रकट होती है। इसी वर्ग की कहानियों की संख्या सबसे अधिक थीः
1. अपरिचित मोहन राकेश
2. फौलाद का आकाश ,,
3. अँधेरे में निर्मला वर्मा
4 लवर्स ’’
5 अन्तर ’’
6.तीसरी कसम फणीश्वर रेणु
7. तीन बिन्दियाँ ,,
8. अच्छे आदमी ,,
9. यही सच है ,,
13. कोसी का घटवार शेखर जोशी
14. पक्षाघात मार्कण्डेय
15 सूर्या ,,
16. मोहबन्ध उषा प्रियवदा
17 एक कोई दूसरा ,,
18 सागर पार का संगीत ,,
19. रेवा राजकुमार
20 शबरी रमेश बक्षी
21. बिस्तर दूधनाथ सिंह
22. बातें प्रयाग शुक्ल
23. राजा निरबंसिया कमलेश्वर
24 नीली झील ,,
25 जो लिखा नहीं जाता कमलेश्वर
26. एक कमजोर लड़की की कहानी राजेन्द्र यादव
27. छोटे-छेटे ताजमहल ,,
28 टूटना ,,
29 पुराने नाले पर नया फ्लैट ,,
30 सावित्री नम्बर दो धर्मवीर भारती
31. एक पति के नोट्स महेन्द्र भल्ला
टूटे हुए पुरुष वर्ग में दुनिया की भाग-दौड़ में खोये हुए से लेकर अपने प्रारब्ध के प्रति समर्पित आदमी भी थाः
1. सितम्बर की एक शाम निर्मल वर्मा
2. सिमेट्री राजकुमार
3. सेलर ,,
4 एक चेहरा ,,
5 अन्धकूप शिवप्रसाद सिंह
6 नये-नये आने वाले राजेन्द्र यादव
7. खुशबू ,,
8. कोसी का घटवार शेखर जोशी
9. एक ज़िन्दगी मोहन राकेश
10, मलबे का मालिक ,,
11. पाँचवें माले का फ्लैट ,,
12 ज़ख़्म ,,
13. डिप्टी कलक्टरी अमरकान्त
14ज़िन्दगी और जोंक ,,
15 छिपकली ,,
16 बेकार आदमी कमलेश्वर
17 दिल्ली में एक मौत ,,
18 खोई हुई दिशाएँ ,,
19 दुखों के रास्ते ,,
20 आइसबर्ग दूधनाथ सिंह
21. घरघुसरा मनहर चौहान
22. भोलाराम का जीव हरिशंकर परसाई
23. सज़ा मन्नू भण्डारी
24, प्रयागनारायण शुक्ल और रामनारायण शुक्ल की अनेक कहानियाँ।
4. बिखरी हुई नारी-में सम्पर्कों के लिए ललकती और सम्पर्कों से कटी नारी की कहानियाँ थीं:
1. बादलों के घेरे में कृष्ण सोबती
2. गुलटी बन्नो धर्मवीर भारती
3. क्षय मन्नू भण्डारी
4. छुट्टी का दिन उषा प्रियंवदा
6. खोज ,,
7, सिर का सदका भीष्म साहनी
8. खले पंख, टूटे डैने राजेन्द्र यादव
9. प्रतीक्षा ,,
10. मिस पाल मोहन राकेश
11. सुहागिने ,,
12 जानवर और जानवर ,,
13 टेबुल फणीश्वर नाथ रेणु
14 नन्हों शिवप्रसाद सिंह
15 एक संधि और शानी
भाई श्री जयरतमन का तो अभी आग्रह है कि संकलन में कहानियों का यही विभाजन देना चाहिए, क्योंकि यह बिल्कुल नया प्रकार होगा। किंतु इनमें भी कुछ दिक़्कतें मेरे सामने हैं ऊपर गिनायी कहानियों में से छँटाई करने के बाद भी निर्धारित संख्या से बहुत बढ़ जायेंगी; दूसरे, प्रायः सभी लेखक चारों वर्गों में बार-बार आयेंगे। संशयात्मा मित्रों को अपना कोई मन्यव्य खोज निकालने का सन्तोष दे सकने लायक साहस मुझसे नहीं है। वस्तुतः इन या ऐसे ही वर्गों के आधार पर चार स्वतन्त्र संकलन कर देना अधिक उपयोगी होगा। मैंने ऊपर केवल उन्हीं कहानियों के नाम दिये हैं जो प्रायः सुपरिचित हैं और सहज ही याद आ गयी हैं, हो सकता है इनमें अच्छी कुछ और भी कहानियाँ बन गई हों।
इस भूमिका और साथ के निबन्ध के विषय में भी एक शब्द यों कहने को कुछ नहीं है, जो कुछ है वहीं बहुत साफ-साफ कह दिया गया है। हाँ, कहीं-कहीं अपनी बात को साफ़ करने के लिए अपनी कहानियों के नाम लिये हैं जो अनेक को आपत्तिजनक लगेंगे। जहाँ तक स्थापना स्पष्ट कर सकने में दूसरों की कहानियों में सुविधा हुई है, वहाँ यही पसन्द भी किया है। यों मेरी जानकारी की भी एक सीमा तो है ही न ! ‘इन पंक्तियों के लेखक की अमुक कहानी भी’ छद्-विनम्रता, और जानबूझकर अपने को अनुपस्थित रखने की आडम्बरी-उदारता मुझमें नहीं है। विनय और दम्भ से हटकर तथ्य –कथन के रूप में ही उनका उल्लेख है।
लेखकों के अकारादि क्रम से कहानियाँ हैं। परिचय जान बूझकर नहीं दिये जा रहे। देना बहुत परिपाटी-बद्ध हो जाता। इतना काफ़ी है कि ये सभी स्वतन्त्रता के बाद माहित्य में प्रविष्ट हुए हैं, और अभी जीवन्त हैं।
भाई श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, पो० कल्याणमल लोढ़ा और विष्णुकान्त शास्त्री इस संकलन और भूमिका-निबन्ध को पूरा कर लेने के लिए मुझे जिस उत्सुक-आग्रह से प्रेरित करते रहे हैं, वही इस श्रय का स्नेह-सम्बल रहा है। कथाकार मित्रों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
-राजेन्द्र यादव
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