नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
फिर किवाड़ खोलता है। इस बार किवाड़ सहज ढंग से खुल जाते हैं। बाहर हवा का
शब्द अपेक्षाकृत हल्का सुनाई देता है। कबूतरों का स्वर भी अपेक्षया हल्का पड़
गया है। लगता है दूर एक खुटकबढ़ैया लगातार लकड़ी पर चोंच से प्रहार कर रही
हो। नंद किवाड़ फिर बंद कर देता है। सुंदरी उसके पास से हटकर श्रृंगारकोष्ठ
की ओर आती
सुंदरी : आपका मन इतना कच्चा है, यह मैं नहीं जानती थी।
वह अभी श्रृंगारकोष्ठ तक पहुंच भी नहीं पाती कि दाई ओर के द्वार से अलका
घबराई हुई-सी आती है।
अलका : देवि ! कुमार !
नंद : (सहसा रुककर)
क्या बात है अलका ? क्या हुआ है ? श्यामांग ठीक तो है न ?
अलका : (हाँफती हुई)
वह वह ! अभी सो रहा होगा। मैं आपसे आपसे एक और बात कहने आई थी ।
सुंदरी : (श्रृंगारकोष्ठ की ओर बढ़ती हुई)
कोई ऐसी बात है जो इसी समय कहनी आवश्यक थी ?
अलका : हाँ, देवि ! अभी-अभी मैं बाहर से आ रही थी, तो देखा देखा कि आँगन के
द्वार पर एक भिक्षुमूर्ति भिक्षा लेने के लिए खड़ी है। दो बार उसने भिक्षा की
याचना की, फिर सहसा लौट पड़ी। तभी मैंने उसे आलोक में देखा। देखा कि वे स्वयं
स्वयं गौतम बुद्ध हैं । मैं उसी समय सूचना देने के लिए यहाँ चली आई ।
पल-भर निस्तब्धता रहती है। तीनों में से कोई बात नहीं करता। नंद सिर झुकाए,
बाँहें लपेटे चबूतरे की ओर आता है।
नंद : (अलका से)
तुमने ठीक देखा है कि स्वयं भाई क स्वयं गौतम बुद्ध भिक्षा के लिए आए थे ?
अलका : किसी को पहचानने में भूल कर सकती हूँ, पर उन्हें पहचानने में मैं कभी
भूल नहीं कर सकती। दो बार याचना करने पर भी जब कोई उनके पात्र में भिक्षा
डालने नहीं आया, तो आँखें उठाकर पल-भर वे गवाक्ष की ओर देखते रहे। फिर सहसा
लौट पड़े ।
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