नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
सुंदरी : (जैसे सोचती हुई)
दंड होगा कि आपको दर्पण लेकर...
आगे के दीपाधार की ओर संकेत करती है।
वहाँ खड़े होना होगा। यहाँ उजाला नहीं है, मैं अपने को ठीक से नहीं देख पा
रही।
नंद : बस इतना ही ?
बढ़कर दर्पण हाथ में लेने लगता है। सुंदरी उसका हाथ रोक देती है।
सुंदरी : नहीं, इतना ही नहीं। इसके अतिरिक्त आज दिन-भर कहीं जाना नहीं होगा,
आखेट के लिए भी नहीं । यहाँ मेरे पास रहना होगा।
नंद: सारा दिन ?
सुंदरी: आपत्ति करेंगे, तो दंड और बढ़ जाएगा।
नंद : मैंने आपत्ति कहाँ की है ?
सुंदरी : तो लीजिए दर्पण | - नहीं, ठहरिए। (चंदन की कटोरी उठाकर) यह लेप सूख
गया है। विशेषक कैसे बनाऊँगी ! इसे भिगो लाएँगे ?
नंद : क्यों नहीं भिगो लाऊँगा ?
कटोरी उसके हाथ से ले लेता है। आपत्ति करूँगा, तो ।
सुंदरी : (माथे पर बल डालकर)
फिर वही बात ?
नंद : अच्छा, यह भी नहीं कहूँगा।
दाईं ओर के द्वार से चला जाता है और पल-भर बाद कटोरी को तीली से हिलाता हुआ
लौट आता है। सुंदरी इस बीच दर्पण को आधार से उठाकर उसमें अपनी छाया देखती है।
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