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नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द)

लहरों के राजहंस (सजिल्द)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3763
आईएसबीएन :9788126708512

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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...


नेपथ्य में ही हल्का-सा अलका का स्वर : 'अभी देती हूँ पानी, अभी ला रही हूँ।'

चबूतरे पर सुंदरी-दूसरी छायाकृति-करवट बदलती है।

नंद : (धीमे कदमों से चबूतरे की ओर जाती हुई छायाकृति :
झुककर और सुंदरी को देखकर) नहीं, नींद नहीं खुली। दिन-भर की थकान और उसके बाद की गहरी निराशा ! कितनी कठिनता से नींद आई थी इसे ! अलका को सोचना चाहिए था कि इस स्वर से किसी की नींद टूट भी सकती है।

नेपथ्य :(पहले से कुछ ऊँचा स्वर) कोई नहीं देखेगा...मुझे यहाँ कोई नहीं देखेगा... इस अँधेरे में इस अँधेरे में मुझे अकेला क्यों छोड़ दिया ? - ' मैं इस अँधेरे में नहीं रहना चाहता मैं अकेला नहीं रहना चाहता मुझे एक किरण ला दो एक किरण (कुछ और ऊँचे स्वर में) कोई नहीं लाएगा? कोई एक भी किरण नहीं लाएगा ?

सुंदरी फिर करवट बदलती है। उसके मुँह से एकाध शब्द निकल पड़ता है : 'नहीं, अब और नहीं, बस ।' सामने के गवाक्ष से प्रत्यूष की हल्की किरण अंदर आती है।

नेपथ्य : लहरों में पानी नहीं कहीं भी पानी नहीं है।
नेपथ्य में अलका का स्वर : 'मैं पानी ले आई हूँ। थोड़ा-सा पानी पी लो।'

नेपथ्य : (हाँफता-सा स्वर)
पानी नहीं है। पानी कहाँ है ? कहाँ है पानी ?

नंद दबे पैरों दाईं ओर के द्वार के पास जाता है।

नंद : (पहले से स्पष्ट आकृति)
अलका !

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