नारी विमर्श >> अस्तित्व अस्तित्वज्ञानप्रकाश विवेक
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नये ढंग से स्त्री-विमर्श को केन्द्र में रखता, तथा स्त्री की जटिलताओं, तनाव, भय, असुरक्षा के भाव, तथा अकेलेपन के विषय में सोचने के लिए विवश करता एक उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अस्तित्व उपन्यास स्त्री की संघर्ष गाथा ही नहीं, स्त्री के उस संसार की
खिड़की भी है, जिसमें उसके सपने महत्वाकांक्षाएं, प्रेम की अनुभूतियाँ, मन
की कोमल भावनाएं, यथाथ से टकराने की ताकत तथा जिज्ञासाएं निहित हैं। पुरुष
समाज में स्त्री जब-जब सचेत होकर अपनी निजता को बचाये रखने के लिए संघर्ष
करती है तब-तब अकेलेपन से जूझना उसकी नियति बन जाती है। प्रस्तुत उपन्यास
की स्त्री-पात्र ‘सरयू’ कल्पनाशील, सुसंस्कृत एवं आधुनिक है। प्रत्येक
स्त्री की भाँति उसका अपना संसार है जिसमें भय और संशय बेशक हो, एक ऐसी
शक्ति भी है जिसमें वह सामन्ती एवं उपभोक्तावादी संस्कृति से अपने
अस्तित्व की लड़ाई करती है। उसकी लड़ाई न केवल खोखले कुलीनतावादियों से है
बल्कि कार्पोरेट जगत् की चालाकियों, छद्म जटिलताओं और पाखण्ड से भी है।
भौतिकतावाद की दुनिया अँधेरे के कीचड़ से लथपथ है, लेकिन उस पर रोशनी का
लेमिनेशन जगमगाता है, जिसे देखकर सरयू ढगी सी रह जाती है। फिर भी पुरुषों
द्वारा पोषित नियतवाद से टकराती है और अपनी स्वतंत्र राह बनाने की कोशिश
करती है।
अस्तित्व
सच क्या था, मुझे पता नहीं। हमारे अपने भीतर
के सच, क्या
सचमुच हमें मालूम होते हैं ? मैं सच या सच की छायाएँ पकड़ने का यत्न करती।
हार जाती। हाँफ जाती। अपने सच की पहचान इतनी मुश्किल ? पहचान शायद सच के
अतिरिक्त, अपने वजूद और अपनी उपस्थिति की भी थी। हर बार मुझे लगता कि मैं
अपने सवालों के जंगल में आ खड़ी हूँ—चीखती हुई दश्ते-तन्हाई के
बीच! बे-सरोसामाँ !
मैं सचमुच अजीब थी। कई बार मैं अपने प्रति अजनबी हो जाती। मैं अपने आप से पूछती—मेरे भीतर यह मैं क्या चीज है ? सिर, धड़...मेरा स्त्रीत्व ! आखिर यह ‘मैं’ इतना मुखर और इतना अव्यक्त क्यों होता है ? दोनों बातें एक साथ !....मुझे लगता मेरे भीतर कोई समूचेपन के साथ मौजूद है—मेरा अपना बनता और मेरे साथ जिरह करता। मैं अपने आपको समझ नहीं पाती थी। पराजित हो जाती थी। पराजित होने की वेदना मैं अपने अस्तित्व के रूमाल में बाँधकर रख लेती थी। लेकिन विडम्बना यह थी कि अपने आप से पराजित होने के पश्चात मैं अपने भीतर कुछ अधिक ऊर्जा महसूस करती....
मैं अपने आप पर हैरान होती। मैं ऐसी क्यों हूँ ? अन्य लड़कियों जैसी क्यों नहीं, जिनके पास नपी-तुली व्याख्याएँ थीं और जीवन का एक ऐसा मुहावरा जो सब पर फिट बैठता ? वे एक जैसा बोलतीं, एक जैसा सोचतीं। शायद खाती भी एक जैसा थीं। मेरी दिक्कतें अजीब थीं। जहाँ से ठठाकर हँस रही होतीं, मैं एकदम गंभीर ! कुछ सोचती। आसमान को तोड़कर आँखों में रखती। रात को देखे सपने के किसी तिनके से खेलती। कल्पनाओं के पर बाँधकर उड़ती....
नहीं, मैं सनकी नहीं थी। थोड़ी जटिल थी। सबको ऐसा लगता था। फिर मुझे भी लगने लगा कि मैं लाख चाहूँ अन्य लड़कियों जैसी नहीं बन सकती। यह मेरी वेदना का एक हिस्सा था। कई बार मेरा भी मन करता कि मैं खूब हँसूँ। गाऊँ। मस्ती छानूँ। हवा में उड़ने लगूँ। चुटकुले सुनाऊँ और महफिल में छा जाऊँ। लेकिन ऐसा होता नहीं था। हो भी जाता—तब, जब कोई मुझे मेरे जैसा मिलता। उसके साथ मैं खूब देर तक बातें करती। खिलखिलाकर हँसती।
सब कहते, ‘‘सरयू, तेरी हँसी बहुत अच्छी है। पर तू इसे छुपा कर रखती है।’’
मैं कहती, ‘‘क्या तुमने कभी सोये हुए बच्चे को मुस्कुराते देखा है ? दुनिया की सबसे अच्छी, निष्कपट और मासूम मुस्कान वही होती है। उसमें जादू होता है...। मेरी हँसी पर कई सारी परते होती हैं। मैं महसूस करती हूँ। तुम्हें पता नहीं चलता।’’
कभी-कभी मुझे लगता कि मैं अपने भीतर की अँधेरी सुरंगों में उतरने लगी हूँ। अपने अँधेरों को पकड़ना मुश्किल खेल होता। लेकिन मैं ऐसे खेल खेलने लगती। मुझे महसूस होता कि मैं जिस रोशनी की तलाश में निकली हूँ— वह नीम रोशनी खुद अँधेरों से खेल रही है। कभी-कभी ऐसा भी लगता जैसे मैं धूप-छाँव के खेल खेल रही हूँ। मैं अपनी सहेलियों से पूछती, ‘‘क्या तुमने कभी रोशनी की बूँदें देखी हैं ?’’ वे हैरान होकर मेरा चेहरा देखने लगतीं। मैं कहती, ‘‘जुगनू क्या रोशनी की बूँदें नहीं हैं ?’’
मेरे अन्दर की विचित्रताओं ने मुझे अन्तर्मुखी और आत्मसम्मान से भरी लड़की रूप में विकसित किया था। इस विकास में जटिलताएँ भी जरूर शामिल थीं। तभी तो कई बार अजीब-सा घटित हो जाता। मेरी सहेलियाँ ड्राइंगरूम में मेरी प्रतीक्षा कर रही होतीं और मैं छत पर बैठी आसमान में उड़ते परिन्दे देख रही होती। साँझ मुझे अच्छी लगती। जैसे दिन की पाठशाला के सारे शिक्षक चले गये हों। जैसे दिन-भर की थकान ने, किसी नहर में अपने पैर धोये हों और मन्दिर में जाकर घण्टियाँ बजायी हों।...साँझ, जैसे रूमाल हो और दिन भर की सरगर्मियाँ उसमें बाँधकर रख ली हों।...मैं उस साँझ में डूबने लगती। मन करता हँसूँ। मन करता किसी याद की बारीक तार में लिपटती चली जाऊँ। मन करता, छत के इस एकान्त में कोई देव आए और मुझे चूम ले।... सहेलियाँ इन्तजार करते-करते छत पर आ जातीं। मैं अचकचा जाती। स्वयं को सँभालने का प्रयत्न करती। मुझे लगता, मैं साँझ के घर में अपने पैरों के गीले निशान छोड़ आयी हूँ और पकड़ी गयी हूँ।
इसके बावजूद मैं ऊबाऊ नहीं थी। मेरा व्यक्तित्व शायद ऐसा था कि मैं आकर्षित करती। लेकिन मैंने कभी हुनर की तरह इस्तेमाल नहीं किया था। ऐसी हुनरमंदी दूसरों में भय पैदा करती है। नीचा दिखाने के प्रयासों से मैं चिढ़ती थी। मैं अपने विश्वास के बूते पर, संसार को तो नहीं, अपने भीतर के संसार को रचती और उसे अपने बरअक्स खड़ा होता देखती।
यूँ मैं सहज थी। मेरी सहजता का अपना चरित्र था। जटिलताएँ...शायद हर स्त्री का निजत्व जटिल भी होता है। कभी-कभी मैं अपने जटिल व्यक्तित्व से स्वयं डर जाती थी। फिर अपनी तोड़-फोड़ में जुट जाती। कोई मेरे मुकाबिल, अपनी चालाकियों की नकली टाँगें लगाकर खड़ा होने की चेष्टा करता तो मैं अपनी पे आ जाती। मन करता उसका नकलीपन अलग कर दूँ। उसके सारे खोखले चबूतरे समतल कर दूँ। तब, मुझे लगता मेरे अन्दर किसी विद्रोही स्त्री ने जन्म ले लिया है। जो मुझे मारकर, या मुझे बेहोशी की दवा देकर खुद खड़ी हो गयी है।
ये ऊबड़-खाबड़ मेरे अपने थे। मुझे इनसे प्रेम था और कभी-कभी मैं इनसे तंग आ जाती।
एक बार कॉलेज जाते हुए मैंने सड़क के किनारे एक बूढ़े आदमी को फूट-फूटकर रोते देखा। मैं ठिठककर खड़ी हो गयी थी। मैंने बच्चों को या फिर स्त्रियों को रोते देखा था। बूढ़े आदमी को, इतने खुले में बैठकर रोते मैंने पहली बार देखा था। पता नहीं क्यों रोने के लिए अकेले कोने की सख्त जरूरत होती है। वह कोना राहत देता है कि हमें रोते हुए कोई नहीं देख रहा। जैसे रोना न सिर्फ अपने दुख को, बल्कि अपनी कायरता को भी दिखाने का बायस हो।
उस बूढ़े आदमी को फूट-फूटकर रोते देखकर मैं विचलित हो उठी थी। उसने रोते हुए, कराहती आवाज में बताया था कि उसके लड़के ने उसे घर से निकाल दिया है। उसके पास न पैसे हैं न छत !
मैं अपने जीवन की बहुत सारी घटनाएँ भूल चुकी हूँ। कुछ याद भी होंगी। लेकिन उस बूढ़े आदमी का रोना मैं कभी नहीं भूल पायी। रोता हुआ बूढ़ा आदमी, पूरे संसार में, निपट अकेला नजर आता था। उस वक्त जब संसार अपनी व्यस्तताओं, हंगामों और सुविधाओं के जश्न में मग्न था, एक बूढ़ा आदमी सड़क के पास बैठा रो रहा था। उसके रोने की आवाज में लय नहीं थी। वह रोना बेसुरा था। लेकिन उस रोने में बूढ़े आदमी की निरीहता की पपड़ियाँ फूट-फूटकर गिर रही थीं। पता नहीं क्यों उसका रोना मुझे अब भी याद आता है। जब मूसलाधार बारिश हो रही हो या अन्धड़ चल रहा हो, मुझे वह बूढ़ा आदमी याद आने लगता है। पता नहीं वह होगा या नहीं होगा ? पता नहीं उसे कोई छत मिली होगी ? घर होने के बावजूद, बेघर होने की पीड़ा कितनी घनी होती होगी....
मैंने पापा से एक बार यह बात बतायी थी। वे खामोश हो गये थे। अक्सर ऐसा ही होता है। ऐसी बातें उनकी उदासी में थोड़ा और इजाफा करतीं। वे चुप बैठे रहे। सोचते रहे। जैसे अपनी आँखों में उस बूढ़े आदमी का ग़मज़दा चेहरा बना रहे हों। फिर वे कुछ देर बाद बोले, ‘‘बना दिया है पराया, मुझे खुद अपनों ने।’’
मैं तो अजीब थी, कम पापा भी नहीं थे। मेरी उनकी खूब छनती थी। वे अक्सर संजीदा नजर आते। जैसे वर्तमान के भीतर झाँक रहे हों। या जैसे अतीत के शेल्फ से याद की पुरानी किताब के पन्ने पलट रहे हों। मैं उन्हें जब-जब देखती, वे मुस्कराने लगते। मुस्कान पर भी गंभीरता का वर्क चस्पाँ होता। कई बार वे कहीं खो जाते। मुझे लगता, वे अपने आपको रखकर कहीं चले गये हैं। फिर किस रास्ते से चलकर वे अपने आपमें दोबारा आते मुझे पता न चलता। उनका चेहरा रोबीला, भरा-भरा था। उनकी गर्दन मजबूत थी। माथा चौड़ा, भरी-भरी मूछें, नाक लम्बी थी। होठ हमेशा बन्द रहते। उनकी आँखों में मासूमियत झलकती। लेकिन चेहरा संजीदा, खामोश और सख्त प्रतीत होता। मैं उनको कनखियों से देखती तो मुझे लगता, कुछ अव्यक्त-सा भी है जो उनके चेहरे पर पसरा हुआ है। मैं उसको खोजने का प्रयास करती। हाथ कुछ ना आता। फिर सोचती—क्या सबके जीवन में ‘कुछ’ ऐसा नहीं होता जो कहा नहीं जा सकता ? उस अकथ को कोई अन्य सम्भवतः समझ नहीं पाता।
वे रोबीले, सख़्त और चुप्पे नजर आते। लेकिन मेरे साथ उनके तआलुकात दोस्ताना थे। दोस्ती जैसी कोई चीज धीरे-धीरे विकसित हुई थी। एकान्तप्रिय पापा और एकान्तप्रिय मैं !...मैं अपने कोर्स की किताबों में सर गड़ाये रहती तो वे अपनी लाइब्रेरी से कोई किताब उठाकर पढ़ते रहते। वे किताब को अधूरा पढ़कर छोड़ देते। शेल्फ में रख देते। फिर उस किताब के चरित्रों के विषय में सोचते रहते। कुछ दिनों बाद वे कोई दूसरी-तीसरी किताब उठा लेते, जिसे एक मुद्दत पहले उन्होंने अधूरा पढ़कर रखा था। अधूरी पढ़ी किताब के साथ सम्बन्ध खत्म हो जाता है। वे सम्बन्धों को जीवित रखने के पक्षधर थे, चाहे वह किताब हो या फिर मनुष्य ! मुझे उनकी यह बात अच्छी लगती। उनकी एक और भी अच्छी बात थी। वे दुनियादार नहीं थे। इसलिए उन्होंने किताबों की दुनिया में प्रवेश लिया था। मेरे कमरे में उन्होंने मेज कुर्सी और किताबों का शेल्फ लगा रखा था, कमरे के एक कोने में मैं पढ़ रही होती, दूसरे कोने में वे बैठे होते। किताब पढ़ते या फिर कुछ सोचते। हम दोनों एक ही कमरे में घण्टों चुप बैठे रहते। कभी मैं उन्हें देख लेती, कभी वे मुझे। हम दोनों के बीच एक अदद चुप की पुलिया होती। उस पुलिया पर समय अपने पाँव रखकर गुजरता रहता। हम दोनों अपने-अपने संसार में रहते। लेकिन कोई किसी की खामोशी में हस्तक्षेप नहीं करता था।
कभी-कभी इसके विपरीत भी होता था। पापा मेज पर उँगली से खट-खट करते। खटखट की आवाज मुझे संगीत जैसी लगती। वह संगीत या संगीत का अंश, पापा के मन में उपजी कोई भावना जैसा लगता था। मैं उस संगीत को महसूस कर सकती थी। उसके अर्थ समझ सकती थी। मैं जानती थी कि वे इस खटखट से क्या कहना चाहते हैं ? मैं अनजान बनी रहती। पापा के साथ एक छोटा-सा नाटक ! वे फिर खटखट करते। मैं चौंकने का अभिनय करती। उन्हें देखती। वे मुस्कराते हुए नजर आते। मैं पूछती, ‘‘चाय ?’’
वे संकेत में हाँ करते। उनकी हाँ में संकोच होता। उनका संकोच मुझे किसी बच्चे जैसा लगता।
‘‘बोर्नवीटा भी मिलाऊँ ?’’
वे फिर हाँ करते, सिर हिलाकर।
‘‘टेस्टी टोस्ट ?’’ मैं पूछती। मन ही मन हँसती।
वे मुस्कराते। उनकी मुस्कान को मैं समझती थी। जब वे प्रसन्न होते तो मुस्कराते। मैं बैठी रहती। वे किताब से आँखें हटाकर मुझे देखते। जैसे कह रहे हों—जाती क्यों नहीं ? उनके देखने के विभिन्न अर्थ भी मैं समझती थी। उनकी खूबी यही थी कि वे जुबान से कम, आखों से ज्यादा बोलते थे। कम से कम मेरे साथ तो उनके संवाद का यही तरीका था।
मैं उठ खड़ी होती। उन्हें डाँटते हुए कहती, ‘‘पापा, ये तमाम चीजें आप को मिल सकती हैं। लेकिन एक शर्त है कि आप एक घण्टे तक किताब नहीं पढ़ेंगे।’’
‘‘मंजूर है।’’ वे झट से उत्तर देते।
लेकिन मैं जानती थी उनका ‘मंजूर’ कितना झूठा है। मैं रसोई में जाती। वे मेज पर औंधे मुँह पड़ी किताब को उठाते। पढ़ने लगते।....चोरी और वह भी पढ़ने की मुझे यह मंजर मुग्ध कर देता। मैं चुपके-चुपके आती। वे शायद मेरी आहट महसूस करते या सूँघ लेते। किताब को चुपचाप, बड़ी सफाई के साथ मेज पर रखते। मैं उनके सामने जाकर खड़ी होती। वे हँस पड़ते। कहते, ‘‘सरी, देखो मैं तुम्हारी शर्त का पालन कर रहा हूँ। किताब को छुआ तक नहीं।’’
उनके झूठ पर मैं मुस्कराती।
हम टेस्टी टोस्ट खाते। चाय पीते। वैफर्ज या पनीर वाले बिस्कुट ! खाते-खाते हम खूब गप्पबाजी करते कभी-कभी। बहुत कम बोलने वाले हम दो, इतना अच्छा भी बोल सकते थे। हमें खुद हैरानी होती।
हम ही नहीं, मम्मी और समीर भी हमें बोलता देखकर चकित होते।
पापा रोजाना सुबह टहलने जाते। लेकिन सण्डे के सण्डे मैं भी उनके साथ जाती। मुझे वह साप्ताहिक सैर बड़ी खुशनुमा, सुखद और नैसर्गिक प्रतीत होती। सुबह पाँच-साढ़े पाँच बजे घर से निकलते और करीब दो घण्टे बाहर खेतों जंगलों में भटकते। कहीं बैठते। कहीं ठिठकते। सर्दियों में हम देर से निकलते और जब धूप निकल आती तो हम धूप को शाल की तरह लपेटते और उसे चटाई की तरह बिछाते।
इस बीच मैं दरख्तों को देखती और पापा परिन्दों को। ...मैं वृक्षों के नीचे गिरे हरे पत्ते उठाती। नाखूनों से अपना नाम लिखती। उन्हें हवा में उड़ा देती। पत्ते कुछ क्षण हवा में तैरते। फिर कहीं जा गिरते मुझे नीम के बूढ़े वृक्ष को देखना अच्छा लगता। मैं किसी ठूँठ को देखती तो विचलित हो जाती। जैसे दुनिया का सारा उजाड़ उसमें समा गया हो। जैसे वह अपने नंगेपनसे शर्मसार हो गया हो। लेकिन उसकी सूखी शाखों को देखती तो ऐसे लगता जैसे तमाम शाखें उसके हाथ हों आसमान की जानिब उठे हुए, दुआएँ मागते कि ईश्वर, पृथ्वी को मेरे जैसा उजाड़ मत देना...
सुबह-सवेरे मैं घास पर अटकी ओस की बूँद को देखती। मैं मन ही मन ओस की मासूमियत पर हँस पड़ती। बेवकूफ ने घर भी कहाँ बनाया ?
मैं जंगली फूलों, झाड़ियों दरख्तों को देखती रहती। पापा परिन्दों को देखते। उनके पंख उठाते। मुझे देखकर कहते, ‘‘सरी, परिन्दों के पंखों में आसमान की यात्राएँ लिखी होती हैं।’’
मैं उन्हें देखती। वे आसमान को देख रहे होते। जैसे किसी अनन्त की खोज कर रहे हों। हम थर्मस में चाय डालकर ले जाते। बिस्कुट केक और स्लाइस भी रख लेते। जब थक जाते तो कहीं डेरा जमा देते। लोग हमें हैरान नजरों से देखते। हमें मजा आता। खुले आसमान के नीचे, दरख्तों के सान्निध्य में चाय पीना अद्भुत होता।
रास्ते में एक प्याऊ थी। छोटी-सी चारदीवारी। मेहँदी के पौधे जो फैंसनुमा थे। अमरूद के पेड़ और एक पीपल का बड़ा-सा दरख्त। कुँए के साथ पक्का चबूतरा था। बहुत पहले यहाँ एक बाबा रहता था। बाबा की मृत्यु हुई तो फिर खाली रह गया। किसी के न रहने पर मकान उदास नजर आते हैं जैसे कि यह प्याऊ। बाबा की धूनी, बाबा के अलख, प्याऊ को जीवन देते थे। अब प्याऊ के साथ बना कमरा बहुत चुप नजर आता था। पुराने वक्तों में प्याऊ संवेदना की तरह होते थे। प्यासों के लिए उम्मीद और थके राहगीरों के लिए राहत !
अब ऐसा कुछ नहीं था। कुएँ का पानी मीठा था। कुँए की जगत पर जंजीर से बंधी बाल्टी रखी रहती थी। लेकिन लोग कम ही रुकते। प्याऊ के आस-पास हुक्के की टूटी डण्डियाँ, चिलमों की ठीकरियाँ, टाट के टुकड़े और जली हुई लकड़ियों के अवशेष प्याऊ के इतिहास की बची-खुची निशानियाँ थीं। मैं उन्हें देखती रहती। सोचती रहती कि तब कैसा लगता होगा जब लोग यहाँ मिल बैठते होंगे। सुख-दुख का वृतान्त छेड़ते होंगे। बाबा चिलम पीते हुए घनानन्द या कबीर की साखियाँ सुनाता होगा। हम प्याऊ के चबूतरे पर बैठकर चाय पीते। मैं मेहँदी के पत्ते तोड़ती। कुएँ में झाँकती। एक छोटा-सा आसमान कुएँ में उतरा हुआ नजर आता।
आसमान कहाँ-कहाँ नहीं पहुँच जाता ? कमरे के अन्दर...कुएँ के पानी में...बच्चे की हथेली पर...कभी आँखों में तो कभी-कभी किताबों में भी।
लोग कहते हैं कि प्याऊ पर रहने वाला बाबा मरा नहीं, लोगों की उपेक्षा ने उसे मार दिया। बाबा धूनी रमाता होगा कि लोग आएँ। भजन गाता होगा कि लोग आएँ। चिलम के लिए अँगारे ताजे करता होगा कि लोग....। कुएँ से पानी की बाल्टी भरकर रखता होगा कि लोग...। लोग व्यस्त रहने लगे थे। उनके पास सब चीजें थीं, समय नहीं था, वे रुकते होंगे। ठिठकते होंगे। चले जाते होंगे। प्याऊ का बाबा हमेशा फुरसत में रहता होगा। लोग मसरूफ ! फिर उसने धूनी रमानी बँद कर दी होगी। उसके भजन मन्द पड़ गए होंगे। कुएँ का पानी खामोश खड़ा रहता होगा। बहुत कम हलचल होती होगी। फिर न किस्सागो आते होंगे, न अलाव जलाने वाले।
प्याऊ के अकेलेपन ने बाबा को पहले बीमार कर दिया होगा फिर पथरा दिया होगा उसे अपनी तरह !
पापा और मैं सैर करते वक्त कुछ न कुछ ढूँढ़ते रहते। जो ढूँढ़ते उसे झोले में भर लेते। पापा ने कभी मुझसे नहीं कहा था कि इस झाड़-झंखाड़ को झोले में क्यों भर रही हो ? मैंने पापा से कभी नहीं पूछा था कि परिन्दों के पंख इकट्ठे करके क्या करोगे ? बस, हम कुछ-न-कुछ ढूँढ़ते रहते इकट्ठा करते रहते।
यूँ तो हर कोई कुछ न कुछ ढूँढ़ रहा है। पापा परिन्दों के पंख। मैं जंगली फूल। बच्चे मोर के पंख। मछेरे मछलियाँ। चिड़िया, आबो-दाना। बूढ़े लोग अपना माजी। जोगी सच को ढूँढ़ रहे हैं और कोई अपने आप को... एक सण्डे पापा को एक बिजली के खंभे के पास एक पक्षी नजर आया था। वह घायल था। उसके पंख खून से सने थे। किसी-किसी वक्त वह पंख फड़फड़ाता। पापा ने पक्षी को देखा। उसे बड़ी एहतियात के साथ उठाया। मुझे देखते हुए बोले, ‘‘घर ले चलते हैं। शायद बच जाये।’’
उस सण्डे हम अपनी सैर अधूरी छोड़कर घर की तरफ रवाना हुए थे। तीन दिन तक पापा उस परिन्दे की तीमारदारी करते रहे। नर्स की ड्यूटी मैं निभाती रही। कभी टिंक्चर तो कभी बेटनोवेट मरहम ! परिन्दे की हालत बिगड़ती चली गई और हम दोनों की चिन्ताएँ बढ़ने लगीं। मम्मी और समीर भैया ने मुँह बिचकाया। मम्मी को यूँ भी पापा के ऐसे कामों से कोफ्त होती थी। वे कभी-कभी दाँत पीसते हुए कहतीं, ‘‘दोनों एक जैसे हैं।’’
‘‘एक जैसे मतलब ?’’ पापा ने पूछ लिया था।
मम्मी ने गुर्राती हुई आँखों से देखा था और फिर कहा था, ‘‘मतलब यह कि थोड़ी दुनियादारी भी सीखो। पता नहीं क्या होगा दोनों का ?’’
पापा ने हँसते हुए कहा था, ‘‘जीना सिखा रहा हूँ अपनी बेटी को।’’
‘‘और हम क्या कर रहे हैं ?’’ पूछा था मम्मी ने।
‘‘साँस ले रहे हो।’’ पापा ने जवाब दिया था।
तीन दिन बाद परिन्दे ने एक बार गर्दन उठायी थी। पलकों को झपकाते हुए पापा को देखा था। फिर उसकी गर्दन लुढ़क गयी थी। पक्षी का देखना ऐसा था जैसे मरने से पूर्व वह आभार व्यक्त कर रहा हो।
फिर वह पक्षी अपनी देह त्यागकर कहीं दूसरे जहान में कूच कर गया था। वह मरा तो पापा और मैं दिन भर उदास रहे। हमें लगा जैसे हमें मृत्यु ने पराजित कर दिया है।
‘‘यह पक्षी आपका कुछ लगता था ?’’ मम्मी ने पूछा था।
‘‘लगता था। जरूर लगता था लेकिन क्या लगता था ? मैं उस रिश्ते का नाम तलाश रहा हूँ।’’ पापा ने संयत स्वर में कहा था।
मम्मी भौंचक-सी पापा को देखने लगी थी। पापा अब भी गम्भीर थे। वैसे वो गम्भीर ही होते थे। फूहड़ता उन्हें पसन्द नहीं थी। हल्की बात न कहते थे, न सुन सकते थे।
‘‘अच्छा एक बात बताओ कल्याणी ?’’ पापा ने मम्मी से पूछा। मेरी मम्मी का नाम कल्याणी था। कल्याणी था नहीं, पापा ने रखा था। शुरू-शुरू में मम्मी को अजीब लगता था यह नाम। फिर बाद में जब पापा निरन्तर इसी नाम से मम्मी को बुलाते रहे तो मम्मी को यह नाम जँचने लगा था।
‘‘इस दुनियाँ में रिश्तों के कितने नाम होंगे ? यही कोई पचास...सौ या दो सौ ! बस, इतने ही न। वैसे इतने भी नहीं होंगे।...संसार कितना बड़ा हो गया है कल्याणी ? तुम कहोगी उसका नाम ! मैं कहूँगा—कुछ नहीं।’’
पापा जब बोलने लगते तो मम्मी खामोश रहतीं। जिरह नहीं करती थीं। सिर्फ सुनती रहतीं। पापा को वे देखती रहतीं। खास तौर से तब, जब वे चुरुट पी रहे होते। वे वाक्य बोलते। चुरुट को मुँह से लगाते। शून्य में देखते। कश। धुआँ। आँखों में अजीब-सी वेदना। कहीं कोई सुख की झोंपड़ी। फिर से चुरुट को मुँह से निकालते। बोलने लगते।
कल्याणी मछेरे का समन्दर से क्या रिश्ता है ? मैं इस रिश्ते का नाम अब तक नहीं ढूँढ़ सका। समन्दर जीवन है और समन्दर उसके जीवन का सबसे बड़ा संकट है भी। मृत्यु भी समन्दर है।...किसान की मिट्टी से अव्यक्त-सा रिश्ता होता है। कल्याणी, हम रिश्तों के नाम की अपनी सरहद होती है।’’
हमारी छोटी-सी बगीची थी। घर में हम सबको वह बगीची बहुत प्रिय थी। लेकिन उसकी देखभाल पापा करते या मैं। हम फूलों के खिलने का इन्तजार करते। यह इन्तजार बेचैनी भरी होती। अंकुर फूटता तो हम खुश होते। छूकर देखते। चाहते कि वह बहुत जल्दी पौधा बन जाए। या पेड़ बन जाए। तब हम दोनों, पापा और मैं एक साथ मिलकर बोलते—माली सींचत सौ घड़ा, रितु आए फल होय।
हमारी बगीची में जब सबसे पहला फूल खिलता तो वह क्षण हमारे लिए उत्सव जैसा होता।’’ एक फूल का खिलना, कुदरत की एक घटना है। पापा कहते हैं। मैं हाँ में सिर हिलाती।
वैसे अक्सर वे मुझे तुम सम्बोधन से बुलाते। कभी-कभी जब बहुत सहज होते तो तू कहकर बुलाते।
सर्दियों के दिनों में खास तौर से फरवरी के आखिरी दिनों में या मार्च में, बगीची में बैठना अच्छा लगता। कुनकुनी धूप। हवा में रेशमी ठण्डक। बगीची में खिले हुए सैकड़ों फूल। डेहलिया, पेंजी, स्वीट विलियम, एण्ट्रेनियम, साल्विया...इतने सारे फूलों के बीच होना, मौसम की उँगली पकड़कर चलने जैसा लगता। फूलों के खिलने में मुझे जीवन के कई रूप नजर आते—खिले-खिले। मुस्कराते। खिले हुए फूलों के बीच मुझे अक्सर चीनी कहावत याद आती है—सौ फूल खिलने दो। फूल यानी जीवन ! यानी संवेदना ! यानी हँसी ! यानी प्रेम ! यानी मासूमियत। फूल, यानी कुछ पल का जीवन-उत्साह और उमंग से भरपूर....
पापा किताबों अखबारों को लिये बगीची में बैठे रहते। मेज पर अखबार किताबें होतीं। उनके सामने घास, मोरपंखी...फूल...गुलमोहर और अशोक के पेड़ और सामने मकान...आसमान...धूप...हवा...इतवार का सुस्त रफ्तार दिन !
मैं सचमुच अजीब थी। कई बार मैं अपने प्रति अजनबी हो जाती। मैं अपने आप से पूछती—मेरे भीतर यह मैं क्या चीज है ? सिर, धड़...मेरा स्त्रीत्व ! आखिर यह ‘मैं’ इतना मुखर और इतना अव्यक्त क्यों होता है ? दोनों बातें एक साथ !....मुझे लगता मेरे भीतर कोई समूचेपन के साथ मौजूद है—मेरा अपना बनता और मेरे साथ जिरह करता। मैं अपने आपको समझ नहीं पाती थी। पराजित हो जाती थी। पराजित होने की वेदना मैं अपने अस्तित्व के रूमाल में बाँधकर रख लेती थी। लेकिन विडम्बना यह थी कि अपने आप से पराजित होने के पश्चात मैं अपने भीतर कुछ अधिक ऊर्जा महसूस करती....
मैं अपने आप पर हैरान होती। मैं ऐसी क्यों हूँ ? अन्य लड़कियों जैसी क्यों नहीं, जिनके पास नपी-तुली व्याख्याएँ थीं और जीवन का एक ऐसा मुहावरा जो सब पर फिट बैठता ? वे एक जैसा बोलतीं, एक जैसा सोचतीं। शायद खाती भी एक जैसा थीं। मेरी दिक्कतें अजीब थीं। जहाँ से ठठाकर हँस रही होतीं, मैं एकदम गंभीर ! कुछ सोचती। आसमान को तोड़कर आँखों में रखती। रात को देखे सपने के किसी तिनके से खेलती। कल्पनाओं के पर बाँधकर उड़ती....
नहीं, मैं सनकी नहीं थी। थोड़ी जटिल थी। सबको ऐसा लगता था। फिर मुझे भी लगने लगा कि मैं लाख चाहूँ अन्य लड़कियों जैसी नहीं बन सकती। यह मेरी वेदना का एक हिस्सा था। कई बार मेरा भी मन करता कि मैं खूब हँसूँ। गाऊँ। मस्ती छानूँ। हवा में उड़ने लगूँ। चुटकुले सुनाऊँ और महफिल में छा जाऊँ। लेकिन ऐसा होता नहीं था। हो भी जाता—तब, जब कोई मुझे मेरे जैसा मिलता। उसके साथ मैं खूब देर तक बातें करती। खिलखिलाकर हँसती।
सब कहते, ‘‘सरयू, तेरी हँसी बहुत अच्छी है। पर तू इसे छुपा कर रखती है।’’
मैं कहती, ‘‘क्या तुमने कभी सोये हुए बच्चे को मुस्कुराते देखा है ? दुनिया की सबसे अच्छी, निष्कपट और मासूम मुस्कान वही होती है। उसमें जादू होता है...। मेरी हँसी पर कई सारी परते होती हैं। मैं महसूस करती हूँ। तुम्हें पता नहीं चलता।’’
कभी-कभी मुझे लगता कि मैं अपने भीतर की अँधेरी सुरंगों में उतरने लगी हूँ। अपने अँधेरों को पकड़ना मुश्किल खेल होता। लेकिन मैं ऐसे खेल खेलने लगती। मुझे महसूस होता कि मैं जिस रोशनी की तलाश में निकली हूँ— वह नीम रोशनी खुद अँधेरों से खेल रही है। कभी-कभी ऐसा भी लगता जैसे मैं धूप-छाँव के खेल खेल रही हूँ। मैं अपनी सहेलियों से पूछती, ‘‘क्या तुमने कभी रोशनी की बूँदें देखी हैं ?’’ वे हैरान होकर मेरा चेहरा देखने लगतीं। मैं कहती, ‘‘जुगनू क्या रोशनी की बूँदें नहीं हैं ?’’
मेरे अन्दर की विचित्रताओं ने मुझे अन्तर्मुखी और आत्मसम्मान से भरी लड़की रूप में विकसित किया था। इस विकास में जटिलताएँ भी जरूर शामिल थीं। तभी तो कई बार अजीब-सा घटित हो जाता। मेरी सहेलियाँ ड्राइंगरूम में मेरी प्रतीक्षा कर रही होतीं और मैं छत पर बैठी आसमान में उड़ते परिन्दे देख रही होती। साँझ मुझे अच्छी लगती। जैसे दिन की पाठशाला के सारे शिक्षक चले गये हों। जैसे दिन-भर की थकान ने, किसी नहर में अपने पैर धोये हों और मन्दिर में जाकर घण्टियाँ बजायी हों।...साँझ, जैसे रूमाल हो और दिन भर की सरगर्मियाँ उसमें बाँधकर रख ली हों।...मैं उस साँझ में डूबने लगती। मन करता हँसूँ। मन करता किसी याद की बारीक तार में लिपटती चली जाऊँ। मन करता, छत के इस एकान्त में कोई देव आए और मुझे चूम ले।... सहेलियाँ इन्तजार करते-करते छत पर आ जातीं। मैं अचकचा जाती। स्वयं को सँभालने का प्रयत्न करती। मुझे लगता, मैं साँझ के घर में अपने पैरों के गीले निशान छोड़ आयी हूँ और पकड़ी गयी हूँ।
इसके बावजूद मैं ऊबाऊ नहीं थी। मेरा व्यक्तित्व शायद ऐसा था कि मैं आकर्षित करती। लेकिन मैंने कभी हुनर की तरह इस्तेमाल नहीं किया था। ऐसी हुनरमंदी दूसरों में भय पैदा करती है। नीचा दिखाने के प्रयासों से मैं चिढ़ती थी। मैं अपने विश्वास के बूते पर, संसार को तो नहीं, अपने भीतर के संसार को रचती और उसे अपने बरअक्स खड़ा होता देखती।
यूँ मैं सहज थी। मेरी सहजता का अपना चरित्र था। जटिलताएँ...शायद हर स्त्री का निजत्व जटिल भी होता है। कभी-कभी मैं अपने जटिल व्यक्तित्व से स्वयं डर जाती थी। फिर अपनी तोड़-फोड़ में जुट जाती। कोई मेरे मुकाबिल, अपनी चालाकियों की नकली टाँगें लगाकर खड़ा होने की चेष्टा करता तो मैं अपनी पे आ जाती। मन करता उसका नकलीपन अलग कर दूँ। उसके सारे खोखले चबूतरे समतल कर दूँ। तब, मुझे लगता मेरे अन्दर किसी विद्रोही स्त्री ने जन्म ले लिया है। जो मुझे मारकर, या मुझे बेहोशी की दवा देकर खुद खड़ी हो गयी है।
ये ऊबड़-खाबड़ मेरे अपने थे। मुझे इनसे प्रेम था और कभी-कभी मैं इनसे तंग आ जाती।
एक बार कॉलेज जाते हुए मैंने सड़क के किनारे एक बूढ़े आदमी को फूट-फूटकर रोते देखा। मैं ठिठककर खड़ी हो गयी थी। मैंने बच्चों को या फिर स्त्रियों को रोते देखा था। बूढ़े आदमी को, इतने खुले में बैठकर रोते मैंने पहली बार देखा था। पता नहीं क्यों रोने के लिए अकेले कोने की सख्त जरूरत होती है। वह कोना राहत देता है कि हमें रोते हुए कोई नहीं देख रहा। जैसे रोना न सिर्फ अपने दुख को, बल्कि अपनी कायरता को भी दिखाने का बायस हो।
उस बूढ़े आदमी को फूट-फूटकर रोते देखकर मैं विचलित हो उठी थी। उसने रोते हुए, कराहती आवाज में बताया था कि उसके लड़के ने उसे घर से निकाल दिया है। उसके पास न पैसे हैं न छत !
मैं अपने जीवन की बहुत सारी घटनाएँ भूल चुकी हूँ। कुछ याद भी होंगी। लेकिन उस बूढ़े आदमी का रोना मैं कभी नहीं भूल पायी। रोता हुआ बूढ़ा आदमी, पूरे संसार में, निपट अकेला नजर आता था। उस वक्त जब संसार अपनी व्यस्तताओं, हंगामों और सुविधाओं के जश्न में मग्न था, एक बूढ़ा आदमी सड़क के पास बैठा रो रहा था। उसके रोने की आवाज में लय नहीं थी। वह रोना बेसुरा था। लेकिन उस रोने में बूढ़े आदमी की निरीहता की पपड़ियाँ फूट-फूटकर गिर रही थीं। पता नहीं क्यों उसका रोना मुझे अब भी याद आता है। जब मूसलाधार बारिश हो रही हो या अन्धड़ चल रहा हो, मुझे वह बूढ़ा आदमी याद आने लगता है। पता नहीं वह होगा या नहीं होगा ? पता नहीं उसे कोई छत मिली होगी ? घर होने के बावजूद, बेघर होने की पीड़ा कितनी घनी होती होगी....
मैंने पापा से एक बार यह बात बतायी थी। वे खामोश हो गये थे। अक्सर ऐसा ही होता है। ऐसी बातें उनकी उदासी में थोड़ा और इजाफा करतीं। वे चुप बैठे रहे। सोचते रहे। जैसे अपनी आँखों में उस बूढ़े आदमी का ग़मज़दा चेहरा बना रहे हों। फिर वे कुछ देर बाद बोले, ‘‘बना दिया है पराया, मुझे खुद अपनों ने।’’
मैं तो अजीब थी, कम पापा भी नहीं थे। मेरी उनकी खूब छनती थी। वे अक्सर संजीदा नजर आते। जैसे वर्तमान के भीतर झाँक रहे हों। या जैसे अतीत के शेल्फ से याद की पुरानी किताब के पन्ने पलट रहे हों। मैं उन्हें जब-जब देखती, वे मुस्कराने लगते। मुस्कान पर भी गंभीरता का वर्क चस्पाँ होता। कई बार वे कहीं खो जाते। मुझे लगता, वे अपने आपको रखकर कहीं चले गये हैं। फिर किस रास्ते से चलकर वे अपने आपमें दोबारा आते मुझे पता न चलता। उनका चेहरा रोबीला, भरा-भरा था। उनकी गर्दन मजबूत थी। माथा चौड़ा, भरी-भरी मूछें, नाक लम्बी थी। होठ हमेशा बन्द रहते। उनकी आँखों में मासूमियत झलकती। लेकिन चेहरा संजीदा, खामोश और सख्त प्रतीत होता। मैं उनको कनखियों से देखती तो मुझे लगता, कुछ अव्यक्त-सा भी है जो उनके चेहरे पर पसरा हुआ है। मैं उसको खोजने का प्रयास करती। हाथ कुछ ना आता। फिर सोचती—क्या सबके जीवन में ‘कुछ’ ऐसा नहीं होता जो कहा नहीं जा सकता ? उस अकथ को कोई अन्य सम्भवतः समझ नहीं पाता।
वे रोबीले, सख़्त और चुप्पे नजर आते। लेकिन मेरे साथ उनके तआलुकात दोस्ताना थे। दोस्ती जैसी कोई चीज धीरे-धीरे विकसित हुई थी। एकान्तप्रिय पापा और एकान्तप्रिय मैं !...मैं अपने कोर्स की किताबों में सर गड़ाये रहती तो वे अपनी लाइब्रेरी से कोई किताब उठाकर पढ़ते रहते। वे किताब को अधूरा पढ़कर छोड़ देते। शेल्फ में रख देते। फिर उस किताब के चरित्रों के विषय में सोचते रहते। कुछ दिनों बाद वे कोई दूसरी-तीसरी किताब उठा लेते, जिसे एक मुद्दत पहले उन्होंने अधूरा पढ़कर रखा था। अधूरी पढ़ी किताब के साथ सम्बन्ध खत्म हो जाता है। वे सम्बन्धों को जीवित रखने के पक्षधर थे, चाहे वह किताब हो या फिर मनुष्य ! मुझे उनकी यह बात अच्छी लगती। उनकी एक और भी अच्छी बात थी। वे दुनियादार नहीं थे। इसलिए उन्होंने किताबों की दुनिया में प्रवेश लिया था। मेरे कमरे में उन्होंने मेज कुर्सी और किताबों का शेल्फ लगा रखा था, कमरे के एक कोने में मैं पढ़ रही होती, दूसरे कोने में वे बैठे होते। किताब पढ़ते या फिर कुछ सोचते। हम दोनों एक ही कमरे में घण्टों चुप बैठे रहते। कभी मैं उन्हें देख लेती, कभी वे मुझे। हम दोनों के बीच एक अदद चुप की पुलिया होती। उस पुलिया पर समय अपने पाँव रखकर गुजरता रहता। हम दोनों अपने-अपने संसार में रहते। लेकिन कोई किसी की खामोशी में हस्तक्षेप नहीं करता था।
कभी-कभी इसके विपरीत भी होता था। पापा मेज पर उँगली से खट-खट करते। खटखट की आवाज मुझे संगीत जैसी लगती। वह संगीत या संगीत का अंश, पापा के मन में उपजी कोई भावना जैसा लगता था। मैं उस संगीत को महसूस कर सकती थी। उसके अर्थ समझ सकती थी। मैं जानती थी कि वे इस खटखट से क्या कहना चाहते हैं ? मैं अनजान बनी रहती। पापा के साथ एक छोटा-सा नाटक ! वे फिर खटखट करते। मैं चौंकने का अभिनय करती। उन्हें देखती। वे मुस्कराते हुए नजर आते। मैं पूछती, ‘‘चाय ?’’
वे संकेत में हाँ करते। उनकी हाँ में संकोच होता। उनका संकोच मुझे किसी बच्चे जैसा लगता।
‘‘बोर्नवीटा भी मिलाऊँ ?’’
वे फिर हाँ करते, सिर हिलाकर।
‘‘टेस्टी टोस्ट ?’’ मैं पूछती। मन ही मन हँसती।
वे मुस्कराते। उनकी मुस्कान को मैं समझती थी। जब वे प्रसन्न होते तो मुस्कराते। मैं बैठी रहती। वे किताब से आँखें हटाकर मुझे देखते। जैसे कह रहे हों—जाती क्यों नहीं ? उनके देखने के विभिन्न अर्थ भी मैं समझती थी। उनकी खूबी यही थी कि वे जुबान से कम, आखों से ज्यादा बोलते थे। कम से कम मेरे साथ तो उनके संवाद का यही तरीका था।
मैं उठ खड़ी होती। उन्हें डाँटते हुए कहती, ‘‘पापा, ये तमाम चीजें आप को मिल सकती हैं। लेकिन एक शर्त है कि आप एक घण्टे तक किताब नहीं पढ़ेंगे।’’
‘‘मंजूर है।’’ वे झट से उत्तर देते।
लेकिन मैं जानती थी उनका ‘मंजूर’ कितना झूठा है। मैं रसोई में जाती। वे मेज पर औंधे मुँह पड़ी किताब को उठाते। पढ़ने लगते।....चोरी और वह भी पढ़ने की मुझे यह मंजर मुग्ध कर देता। मैं चुपके-चुपके आती। वे शायद मेरी आहट महसूस करते या सूँघ लेते। किताब को चुपचाप, बड़ी सफाई के साथ मेज पर रखते। मैं उनके सामने जाकर खड़ी होती। वे हँस पड़ते। कहते, ‘‘सरी, देखो मैं तुम्हारी शर्त का पालन कर रहा हूँ। किताब को छुआ तक नहीं।’’
उनके झूठ पर मैं मुस्कराती।
हम टेस्टी टोस्ट खाते। चाय पीते। वैफर्ज या पनीर वाले बिस्कुट ! खाते-खाते हम खूब गप्पबाजी करते कभी-कभी। बहुत कम बोलने वाले हम दो, इतना अच्छा भी बोल सकते थे। हमें खुद हैरानी होती।
हम ही नहीं, मम्मी और समीर भी हमें बोलता देखकर चकित होते।
पापा रोजाना सुबह टहलने जाते। लेकिन सण्डे के सण्डे मैं भी उनके साथ जाती। मुझे वह साप्ताहिक सैर बड़ी खुशनुमा, सुखद और नैसर्गिक प्रतीत होती। सुबह पाँच-साढ़े पाँच बजे घर से निकलते और करीब दो घण्टे बाहर खेतों जंगलों में भटकते। कहीं बैठते। कहीं ठिठकते। सर्दियों में हम देर से निकलते और जब धूप निकल आती तो हम धूप को शाल की तरह लपेटते और उसे चटाई की तरह बिछाते।
इस बीच मैं दरख्तों को देखती और पापा परिन्दों को। ...मैं वृक्षों के नीचे गिरे हरे पत्ते उठाती। नाखूनों से अपना नाम लिखती। उन्हें हवा में उड़ा देती। पत्ते कुछ क्षण हवा में तैरते। फिर कहीं जा गिरते मुझे नीम के बूढ़े वृक्ष को देखना अच्छा लगता। मैं किसी ठूँठ को देखती तो विचलित हो जाती। जैसे दुनिया का सारा उजाड़ उसमें समा गया हो। जैसे वह अपने नंगेपनसे शर्मसार हो गया हो। लेकिन उसकी सूखी शाखों को देखती तो ऐसे लगता जैसे तमाम शाखें उसके हाथ हों आसमान की जानिब उठे हुए, दुआएँ मागते कि ईश्वर, पृथ्वी को मेरे जैसा उजाड़ मत देना...
सुबह-सवेरे मैं घास पर अटकी ओस की बूँद को देखती। मैं मन ही मन ओस की मासूमियत पर हँस पड़ती। बेवकूफ ने घर भी कहाँ बनाया ?
मैं जंगली फूलों, झाड़ियों दरख्तों को देखती रहती। पापा परिन्दों को देखते। उनके पंख उठाते। मुझे देखकर कहते, ‘‘सरी, परिन्दों के पंखों में आसमान की यात्राएँ लिखी होती हैं।’’
मैं उन्हें देखती। वे आसमान को देख रहे होते। जैसे किसी अनन्त की खोज कर रहे हों। हम थर्मस में चाय डालकर ले जाते। बिस्कुट केक और स्लाइस भी रख लेते। जब थक जाते तो कहीं डेरा जमा देते। लोग हमें हैरान नजरों से देखते। हमें मजा आता। खुले आसमान के नीचे, दरख्तों के सान्निध्य में चाय पीना अद्भुत होता।
रास्ते में एक प्याऊ थी। छोटी-सी चारदीवारी। मेहँदी के पौधे जो फैंसनुमा थे। अमरूद के पेड़ और एक पीपल का बड़ा-सा दरख्त। कुँए के साथ पक्का चबूतरा था। बहुत पहले यहाँ एक बाबा रहता था। बाबा की मृत्यु हुई तो फिर खाली रह गया। किसी के न रहने पर मकान उदास नजर आते हैं जैसे कि यह प्याऊ। बाबा की धूनी, बाबा के अलख, प्याऊ को जीवन देते थे। अब प्याऊ के साथ बना कमरा बहुत चुप नजर आता था। पुराने वक्तों में प्याऊ संवेदना की तरह होते थे। प्यासों के लिए उम्मीद और थके राहगीरों के लिए राहत !
अब ऐसा कुछ नहीं था। कुएँ का पानी मीठा था। कुँए की जगत पर जंजीर से बंधी बाल्टी रखी रहती थी। लेकिन लोग कम ही रुकते। प्याऊ के आस-पास हुक्के की टूटी डण्डियाँ, चिलमों की ठीकरियाँ, टाट के टुकड़े और जली हुई लकड़ियों के अवशेष प्याऊ के इतिहास की बची-खुची निशानियाँ थीं। मैं उन्हें देखती रहती। सोचती रहती कि तब कैसा लगता होगा जब लोग यहाँ मिल बैठते होंगे। सुख-दुख का वृतान्त छेड़ते होंगे। बाबा चिलम पीते हुए घनानन्द या कबीर की साखियाँ सुनाता होगा। हम प्याऊ के चबूतरे पर बैठकर चाय पीते। मैं मेहँदी के पत्ते तोड़ती। कुएँ में झाँकती। एक छोटा-सा आसमान कुएँ में उतरा हुआ नजर आता।
आसमान कहाँ-कहाँ नहीं पहुँच जाता ? कमरे के अन्दर...कुएँ के पानी में...बच्चे की हथेली पर...कभी आँखों में तो कभी-कभी किताबों में भी।
लोग कहते हैं कि प्याऊ पर रहने वाला बाबा मरा नहीं, लोगों की उपेक्षा ने उसे मार दिया। बाबा धूनी रमाता होगा कि लोग आएँ। भजन गाता होगा कि लोग आएँ। चिलम के लिए अँगारे ताजे करता होगा कि लोग....। कुएँ से पानी की बाल्टी भरकर रखता होगा कि लोग...। लोग व्यस्त रहने लगे थे। उनके पास सब चीजें थीं, समय नहीं था, वे रुकते होंगे। ठिठकते होंगे। चले जाते होंगे। प्याऊ का बाबा हमेशा फुरसत में रहता होगा। लोग मसरूफ ! फिर उसने धूनी रमानी बँद कर दी होगी। उसके भजन मन्द पड़ गए होंगे। कुएँ का पानी खामोश खड़ा रहता होगा। बहुत कम हलचल होती होगी। फिर न किस्सागो आते होंगे, न अलाव जलाने वाले।
प्याऊ के अकेलेपन ने बाबा को पहले बीमार कर दिया होगा फिर पथरा दिया होगा उसे अपनी तरह !
पापा और मैं सैर करते वक्त कुछ न कुछ ढूँढ़ते रहते। जो ढूँढ़ते उसे झोले में भर लेते। पापा ने कभी मुझसे नहीं कहा था कि इस झाड़-झंखाड़ को झोले में क्यों भर रही हो ? मैंने पापा से कभी नहीं पूछा था कि परिन्दों के पंख इकट्ठे करके क्या करोगे ? बस, हम कुछ-न-कुछ ढूँढ़ते रहते इकट्ठा करते रहते।
यूँ तो हर कोई कुछ न कुछ ढूँढ़ रहा है। पापा परिन्दों के पंख। मैं जंगली फूल। बच्चे मोर के पंख। मछेरे मछलियाँ। चिड़िया, आबो-दाना। बूढ़े लोग अपना माजी। जोगी सच को ढूँढ़ रहे हैं और कोई अपने आप को... एक सण्डे पापा को एक बिजली के खंभे के पास एक पक्षी नजर आया था। वह घायल था। उसके पंख खून से सने थे। किसी-किसी वक्त वह पंख फड़फड़ाता। पापा ने पक्षी को देखा। उसे बड़ी एहतियात के साथ उठाया। मुझे देखते हुए बोले, ‘‘घर ले चलते हैं। शायद बच जाये।’’
उस सण्डे हम अपनी सैर अधूरी छोड़कर घर की तरफ रवाना हुए थे। तीन दिन तक पापा उस परिन्दे की तीमारदारी करते रहे। नर्स की ड्यूटी मैं निभाती रही। कभी टिंक्चर तो कभी बेटनोवेट मरहम ! परिन्दे की हालत बिगड़ती चली गई और हम दोनों की चिन्ताएँ बढ़ने लगीं। मम्मी और समीर भैया ने मुँह बिचकाया। मम्मी को यूँ भी पापा के ऐसे कामों से कोफ्त होती थी। वे कभी-कभी दाँत पीसते हुए कहतीं, ‘‘दोनों एक जैसे हैं।’’
‘‘एक जैसे मतलब ?’’ पापा ने पूछ लिया था।
मम्मी ने गुर्राती हुई आँखों से देखा था और फिर कहा था, ‘‘मतलब यह कि थोड़ी दुनियादारी भी सीखो। पता नहीं क्या होगा दोनों का ?’’
पापा ने हँसते हुए कहा था, ‘‘जीना सिखा रहा हूँ अपनी बेटी को।’’
‘‘और हम क्या कर रहे हैं ?’’ पूछा था मम्मी ने।
‘‘साँस ले रहे हो।’’ पापा ने जवाब दिया था।
तीन दिन बाद परिन्दे ने एक बार गर्दन उठायी थी। पलकों को झपकाते हुए पापा को देखा था। फिर उसकी गर्दन लुढ़क गयी थी। पक्षी का देखना ऐसा था जैसे मरने से पूर्व वह आभार व्यक्त कर रहा हो।
फिर वह पक्षी अपनी देह त्यागकर कहीं दूसरे जहान में कूच कर गया था। वह मरा तो पापा और मैं दिन भर उदास रहे। हमें लगा जैसे हमें मृत्यु ने पराजित कर दिया है।
‘‘यह पक्षी आपका कुछ लगता था ?’’ मम्मी ने पूछा था।
‘‘लगता था। जरूर लगता था लेकिन क्या लगता था ? मैं उस रिश्ते का नाम तलाश रहा हूँ।’’ पापा ने संयत स्वर में कहा था।
मम्मी भौंचक-सी पापा को देखने लगी थी। पापा अब भी गम्भीर थे। वैसे वो गम्भीर ही होते थे। फूहड़ता उन्हें पसन्द नहीं थी। हल्की बात न कहते थे, न सुन सकते थे।
‘‘अच्छा एक बात बताओ कल्याणी ?’’ पापा ने मम्मी से पूछा। मेरी मम्मी का नाम कल्याणी था। कल्याणी था नहीं, पापा ने रखा था। शुरू-शुरू में मम्मी को अजीब लगता था यह नाम। फिर बाद में जब पापा निरन्तर इसी नाम से मम्मी को बुलाते रहे तो मम्मी को यह नाम जँचने लगा था।
‘‘इस दुनियाँ में रिश्तों के कितने नाम होंगे ? यही कोई पचास...सौ या दो सौ ! बस, इतने ही न। वैसे इतने भी नहीं होंगे।...संसार कितना बड़ा हो गया है कल्याणी ? तुम कहोगी उसका नाम ! मैं कहूँगा—कुछ नहीं।’’
पापा जब बोलने लगते तो मम्मी खामोश रहतीं। जिरह नहीं करती थीं। सिर्फ सुनती रहतीं। पापा को वे देखती रहतीं। खास तौर से तब, जब वे चुरुट पी रहे होते। वे वाक्य बोलते। चुरुट को मुँह से लगाते। शून्य में देखते। कश। धुआँ। आँखों में अजीब-सी वेदना। कहीं कोई सुख की झोंपड़ी। फिर से चुरुट को मुँह से निकालते। बोलने लगते।
कल्याणी मछेरे का समन्दर से क्या रिश्ता है ? मैं इस रिश्ते का नाम अब तक नहीं ढूँढ़ सका। समन्दर जीवन है और समन्दर उसके जीवन का सबसे बड़ा संकट है भी। मृत्यु भी समन्दर है।...किसान की मिट्टी से अव्यक्त-सा रिश्ता होता है। कल्याणी, हम रिश्तों के नाम की अपनी सरहद होती है।’’
हमारी छोटी-सी बगीची थी। घर में हम सबको वह बगीची बहुत प्रिय थी। लेकिन उसकी देखभाल पापा करते या मैं। हम फूलों के खिलने का इन्तजार करते। यह इन्तजार बेचैनी भरी होती। अंकुर फूटता तो हम खुश होते। छूकर देखते। चाहते कि वह बहुत जल्दी पौधा बन जाए। या पेड़ बन जाए। तब हम दोनों, पापा और मैं एक साथ मिलकर बोलते—माली सींचत सौ घड़ा, रितु आए फल होय।
हमारी बगीची में जब सबसे पहला फूल खिलता तो वह क्षण हमारे लिए उत्सव जैसा होता।’’ एक फूल का खिलना, कुदरत की एक घटना है। पापा कहते हैं। मैं हाँ में सिर हिलाती।
वैसे अक्सर वे मुझे तुम सम्बोधन से बुलाते। कभी-कभी जब बहुत सहज होते तो तू कहकर बुलाते।
सर्दियों के दिनों में खास तौर से फरवरी के आखिरी दिनों में या मार्च में, बगीची में बैठना अच्छा लगता। कुनकुनी धूप। हवा में रेशमी ठण्डक। बगीची में खिले हुए सैकड़ों फूल। डेहलिया, पेंजी, स्वीट विलियम, एण्ट्रेनियम, साल्विया...इतने सारे फूलों के बीच होना, मौसम की उँगली पकड़कर चलने जैसा लगता। फूलों के खिलने में मुझे जीवन के कई रूप नजर आते—खिले-खिले। मुस्कराते। खिले हुए फूलों के बीच मुझे अक्सर चीनी कहावत याद आती है—सौ फूल खिलने दो। फूल यानी जीवन ! यानी संवेदना ! यानी हँसी ! यानी प्रेम ! यानी मासूमियत। फूल, यानी कुछ पल का जीवन-उत्साह और उमंग से भरपूर....
पापा किताबों अखबारों को लिये बगीची में बैठे रहते। मेज पर अखबार किताबें होतीं। उनके सामने घास, मोरपंखी...फूल...गुलमोहर और अशोक के पेड़ और सामने मकान...आसमान...धूप...हवा...इतवार का सुस्त रफ्तार दिन !
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