नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
"हाँ, उस्ताद, मर गया"-वह वहीं से उत्तर देता।
"देखिए मेहरबान, अब इसकी गर्दन फिर जोड़ता हूँ-अबे जम्बूरे, उठ, फिर से जी और
मालिकों को सलाम कर...” वह तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बार-बार मरता और
बार-बार जीता-पर इस बार मदारी ही मरा पड़ा था और उस कटे धड़मुंड को जोड़ने
वाला मदारी अब कोई नहीं था।
शासन में नए परिवर्तन का प्रचंड झंझावात, वर्षों से जमे सुदीर्घ वृक्षों को
धराशायी कर चुका था और निरन्तर कर रहा था। देवेन्द्र जानता था कि उसे भी कभी
भी धराशायी किया जा सकता है। एक ईमानदार कर्मठ अफसर के रूप में उसकी प्रचुर
ख्याति थी, पर सौत तो सौत ही होती है-भले ही आटे-चून ही की क्यों न हो! वह
पूर्व प्रभु का स्वामी-भक्त चाकर रहा है, यह नवीन सत्ता कैसे भूल सकती थी?
फिर नवीन सत्ता के एक प्रख्यात सिपहसालार के दूर के संपर्क के आत्मीय को उसने
पुष्ट प्रमाण सहित ही खून के अपराध में ऐसा बन्दी बनाया था कि जमानत भी नहीं
होने दी थी-वह प्रतिशोध उससे अवश्य लिया जाएगा और उसे किसी नगण्य विभाग के
अन्धे कुएँ में ससम्मान फेंक दिया जाएगा, यह वह जानता था। ठीक है, उसका
क्या-कहीं भेज दें! बड़ी-बड़ी कोठियाँ खाली कर एक से एक दिग्गज नेता मूंछे
नीची किए, बिना किसी प्रतिवाद के आबंटित किए गए छोटे-छोटे दड़बों में घुसे जा
रहे थे-उनकी मूंछों में मलाई लगी है या नहीं, इसे देखने का अवकाश ही किसे था?
वे तो प्रमाणित करने में लगे थे कि उन्होंने मलाई खाई है अवश्य। दरजियों का
बृहस्पति टप्प से जाकर केन्द्र में बैठ गया था-एक-एक दिन में नवीन मन्त्रियों
के लिए बीसियों जवाहर वास्कटें और अचकनें सिलने में उनकी सूइयाँ बार-बार
टूटती जा रही थीं। टोपियाँ धड़ल्ले से बिक रही थीं और कई खल्वाट खोपड़ियाँ,
विरल केशराशि को टोपी की भ्रामक मोह-मुद्रा में प्रच्छन्न कर, दगदगाते फिर
रहे थे। दूरदर्शन में चेहरा न दिखाने की ना-ना में भी नवोढ़ा बालिका वधू की
ही 'ना'-'ना' की भ्रामक गँज 'मौन सम्मति लक्षणं' बनी हाँ-हाँ में सार्थक बनती
जा रही थी।
देश ऊँट की-सी पार्श्व परिवर्तनी मुद्रा में कब किस करवट बैठेगा, इसका चतर
संधानी भी अनुमान नहीं लगा पा रहे थे। विजय का उन्माद, उत्तेजना, उत्साह-सबकी
गति, सन्निपात के रोगी की नाड़ी की भाँति कभी तीव्र होती और कभी एकदम ही
शैथिल्य में खोती जा रही थी।
यही कारण था कि देवेन्द्र कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाह रहा था जिससे वह
भूले से भी ठोकर खाकर समय से पूर्व ही उस अंधकूप में स्वयं गिर जाए, जहाँ एक
दिन उसे गिरना ही होगा-देश की जैसी स्थिति थी, उसमें उसे निर्विकार ही रहना
होगा। वह देश के अतीत से जुड़ा था और आज वही अतीत विपन्न हो मुँह छिपाए फिर
रहा था और वर्तमान की बत्तीसी खुली थी।
"नहीं, महेन्द्र, मैं ऐसा नहीं कर सकता।” कहते ही उसकी दृष्टि अन्ना के सफेद
चेहरे पर पड़ी। कुर्सी का हत्था पकड़े वह चुप खड़ी थी-निष्चेष्ट, निर्वाक,
निष्प्राण!
"देखो देबी, तुम जानते हो, यह गुंडा किस नीचता पर उतर सकता है। इस काँटे को
बेरहमी से ही खींचकर मार्ग से हटाना होगा।"
“मतलब?"
"आखिर तुम्हारे महकमे में कोई तो तुम्हारा विश्वासपात्र मातहत होगा, उसी को
सब कुछ बतलाकर कहो-इसे खूब पिला-विलाकर, इसकी जवान जैसे भी हो, बन्द रखे।
पीने की इसकी कमजोरी का फायदा उठाना ही होगा हमें। एक बार कालिंदी कैनेडा चली
गई तो इस उल्लू के पट्टे का बाप भी कुछ नहीं कर सकता।" चतुर बड़े भाई की यह
दलील भी देवेन्द्र को उचित तो नहीं लगी, पर मरता क्या न करता!
उधर गर्म चाय पीकर कमला वल्लभ की निर्लज्ज अशालीन जिह्वा फिर मुखर हो उठी थी,
“अजी साले साहब, हमारी बेटी कहाँ है, जरा छाती से लगाकर कलेजा तो ठंडा
करें-कल तो पराई हो ही जाएगी।"
छाती से! उस लोमश गन्दी छाती से उनकी सुघड़ कालिंदी लगेगी-छिः छिः! देवेन्द्र
सिहर उठा।
“कहाँ है मेरी लाड़ली, बुलाओ न उसे!"
“यहाँ हूँ मैं," कहती कालिंदी पर्दा खोल निर्भीक होकर खड़ी हो गई।
"आहा रे-आ जा चेली (बेटी)! पैर नहीं छुएगी बाप के! मैं तेरा बाप हूँ, बाप!"
"बाप का कौन-सा कर्तव्य निभाया है आपने? आज आप अचानक मेरे बाप बनने कैसे चले
आए? मेरे बाप ये हैं," कह वह बड़े अधिकार से देवेन्द्र की भुजा थाम खड़ी हो
गई।
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