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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


बृजेन्द्र शाह, उसके बचपन का साथी, जिसे उसने न जाने कितनी बार बाजार दौड़ाकर कभी काढ़ने का फ्रेम मँगाया है, कभी कढ़ाई की रेशमी लच्छियाँ और कभी मोहन धोबी की दुकान से ऊन। कहाँ क्या मिलता है, एक उसी को तो पता था। लोहे के शेर के पास गजब का मीट मिलता है री, मिट्टी के सकोर में चार बोटी और लाल-लाल शोरबा कुल अठन्नी में, चूसने वाली हड्डी लो तो इकन्नी और!" वह वर्जित देवदुर्लभ सकोरा चाटने, उसे बग्वाली (भाईदूज) की सुदीर्घ प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, तब ही तो हाथ में रकम आती थी! फिर मामाओं की, अम्मा की तीक्ष्ण संधानी दृष्टि बचा, वह दो सकोरे मँगाती-एक लाने वाले बिरजू का कमीशन, और एक अपने लिए। तिमिल के सघन वृक्ष की छाया में छिपकर दोनों एक साथ सकोरा चाटते-चाटते मिट्टी भी सटका जाते, फिर भी तृप्ति नहीं होती थी। क्या गजब की स्पीड थी बिरजू की। गया और आया। लगता था, पैरों में स्केटिंग के अदृश्य पहिए ही वाँधकर सर से जाकर लौट आया है। लाल-लाल पके आड़-से सुर्ख गाल और डाँसी सफेद पत्थर-सी चिकनी त्वचा जैसे नवजात शिशु के नितम्ब! पढ़ने में था एकदम शून्य, पर फुटबॉल-हॉकी का हीरो। न जाने कितनी बार नैनीताल से, रानीखेत से, मैच में बड़ी-बड़ी शील्ड जीतकर लाया था।

“अरे देख लेना चड़ी, एक दिन हम हवाई जहाज में उड़कर तुझसे मिलने आएँगे।"

“हाँ, बड़े आए हैं हवाई जहाज में उड़ने वाले! तीन साल से पाँचवीं क्लास में ही तो उड़ रहे हो!" वह हँसकर कहती।

“अरी, हम हैं फन्ने खाँ, हम इम्तहान में पास नहीं होते, जिन्दगी में पास होते हैं-एकदम फर्स्ट!"

मँझले मामा और छोटे मामा उसे फूटी आँखों नहीं देख पाते थे, “देख, उसके साथ तेरा उठना-बैठना ठीक नहीं है चड़ी, अब तू बड़ी हो गई है।"

अम्मा ने भी एक दिन कहा तो वह बिगड़ गई थी, “वाह रे, वड़ी हो गई हूँ तो क्या सब पुराने मिलने वालों को छोड़ दूँ? तुम लोग उससे क्यों इतना चिढ़ते हो? तुम्हीं तो कहती थीं, बड़ा मोहिला (स्नेही) है बिरजू।"

“वह सब ठीक है, पर अव वड़ा ऐबी हो गया है।"

"ऐबी क्या होता है मामा?"

पर परिभाषा समझने से पहले ही फिर वह दिल्ली चली आई थी।

सरोज ने ही फिर उसे इतने वर्षों बाद ऐवी की परिभाषा समझा दी थी। बृजेन्द्र की माँ बचपन में ही मर गई थी, पिता संन्यासी होकर कहाँ निकल गए, किसी को पता नहीं चला। मौसी ने ही उसे पाला था, मौसेरे भाई गिरीन्द्र की कुसंगत में, वह पहले ही बिगड़, गाँजा-चरस पीने लगा था-एक दिन, एक नाटक कम्पनी के साथ कलकत्ता भाग गया, वहाँ से बम्बई। इन दो महानगरियों ने उसका सर्वनाश कर एक दिन उसे खोटे सिक्के-सा फिर उसी के शहर में पटक दिया।

"जब से महामारी-सा यहाँ आया है हरामी, मुहल्ले की बहू-बेटियों का साँझ पड़े घर से निकलना दूभर हो गया है। मौसी होती तो शायद उसे कुछ लाज-हया भी होती। कहते हैं, इसी ने अपने मौसरे भाई गिरुआ का खून किया है। उसे लेकर शिकार खेलने कालाढंगी गया और उसी का शिकार कर आया। उसे लूट-पाट, झील में उसकी लाश भी बहा आया और यहाँ आकर कह दिया, हम दोनों तैरने गए थे, गिरुआ तेज धार में वह गया। हे भगवान, बाबा ने हमें भभूत न टिकाई होती तो हमारे साथ भी न जाने क्या होता।"

"चुप कर सरोज, बिरजू कभी खून नहीं कर सकता।” कालिंदी को सचमुच सरोज की बकर-बकर असत्य लग रही थी।

सरोज हँस पड़ी, "नहीं, खून नहीं कर सकता, जरा पूछना पार्वती बुआ से, तुम्हें और भी बहुत कुछ बता देगी कि बिरजू और क्या कर सकता है। कहते हैं, पहाड़ी चरस-गाँजे की पोटलियाँ पेट में वाँध-वाँधकर, नेपाल ले जाता है. और वहाँ से यहाँ लाकर न जाने कितने अबोध लड़कों को वरवाद कर चुका है। रात-भर जीप लेकर इधर-उधर घूम, यही धन्धा तो करता है। कई वार जेल जा चुका है, पर फिर जमानत पर छूट आता है। रात-भर उल्लू की तरह जागता है और दिन-भर सोता है निशाचर! मौत भी नहीं आती छनचरिया (शनीचरी) को! जानती हो, एक बार शिव मन्दिर की अधेड़ पुजारिनी को भी 'जै लगने' (वाँहों में वाँधने) गया था वेशरम, वह तो पुजारिनी ज्यू ने इसकी गर्दन पकड़, दो-तीन बार शिवलिंग पर ही पटका दी, 'ओ इजू, ओ बबू' करता भागा और फटे सिर पर महीनों तक पट्टी वाँधे घूमता रहा। पार्वती बुआ ने तो भरे बाजार में नंगा कर दिया-क्यों रे विरजुआ, शरम नहीं आई जो अपनी माँ की 'श्वानिक' (हमउम्र) पुजारिनी को दवोचने पहँच गया, वह भी मन्दिर में?-तो हरामी ने खीसें निपोड़कर क्या कहा, जानती हो, दीदी? बोला, भूख लगी हो पार्वती बुबू, तो कैसी माँ और कैसी बहन, किसी से भी खाना माँगने में मुझे न कभी शरम आई है, न आएगी। और तुम कहती हो, बिरजू ऐसा नहीं कर सकता, वैसा नहीं कर सकता-गली का कुत्ता है, कुत्ता!”

मन्दिर से देर में लौटने पर न उसे मामा ने कुछ कहा, न मामी ने! पर अम्मा की संदिग्ध दृष्टि से वह बच नहीं पाई। रात को वत्ती बुझाकर, अम्मा उसके बगल में लेटी तो वोली, “चड़ी, तुझे शायद पता नहीं कि विरजू पूरे शहर में कितना बदनाम है!"

ओह, तो अम्मा ने उन्हें विरजू की जीप से उतरते देख लिया था!

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