नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
न्याय देवता चितई मन्दिर के ग्वालदेव की तो उसे अम्मा ने कितनी कहानियाँ
सुनाई थीं-कैसे वे निर्दोष व्यक्ति की फरियाद की अरजी मन्दिर में लटकते ही
उसे फाँसी के फन्दे से मुक्त कर देते हैं! कितने निर्दोष सरकारी अफसरों के
सस्पेंशन की उन्होंने धज्जियाँ उड़ाई हैं, आदि-आदि। इसी बहाने उस प्रसिद्ध
प्राचीन मन्दिर के दर्शन भी कर लेगी।
भोर होते ही दोनों, बिना अम्मा-मामी को साथ लिये, निकल गई थीं। छोटे-से
देवालय में न द्वार थे, न खिड़कियाँ-नन्हे से गोल्ल देवता के सम्मुख, अखंड
घृतजोत जल रही थी। बाहर लगे सैकड़ों कृतज्ञ भक्तों की चढ़ाई छोटी-बड़ी
घंटियों को हवा के मृदु झोंके निरन्तर ठुनका रहे थे-टुन, टुन, टुन। एक ओर
अरजियों का मोटा पुलिन्दा लटक रहा था।
इस अद्भुत देवता के दरबार में क्या वह अपनी अरजी भी लटका दे? नहीं, वह किसी
से दया की भीख नहीं माँगेगी, इस न्यायप्रिय देवता से भी नहीं। पर फिर आँखें
मूंद कर, उसने मन-ही-मन अपनी अरजी लटका ही दी थी-हे गोल्लदेव, मैं निर्दोष
हूँ, मैंने अन्याय नहीं किया, अन्याय मेरे साथ हुआ है।
फिर दोनों ने बड़ी देर तक भटकने के बाद, उस कनफटे सिद्ध की खंडहर धर्मशाला को
ढूँढ़ ही लिया था। गाँजे के कड़वे धुएँ की विचित्र गंध ने ही उन्हें उसका
संधान-सूत्र थमाया था। घना घुप्प अन्धेरा देख, पहले दाना उस गोलाकर गुहाद्वार
पर ही थमककर खड़ी रह गईं। भीतर से अस्फुट मन्त्रजाप की गुनगन स्पष्ट सनाई दे
रही थी, जैसे किसी मधुमक्खी क छत्त के भीतर असंख्य मधुमक्खियाँ भुनभुना रही
हों!
बेहद घबड़ा गई सरोज, अपनी खाँसी का दौर रोक नहीं पाई और उसे सुनते ही भीतर से
बादल की-सी भीमगर्जना हुई, “कौन है?"
और कालिंदी ही पहले, निर्भीक कदम रखती सीधी धूनी के पास जाकर खड़ी हो गई।
पीछे-पीछे डरती-डरती सरोज!
सँकरे कमरे को एकमात्र जलती धूनी की लौ ही आलोकित कर रही थी-न कोई बत्ती जल
रही थी, न लालटेन।
“कौन हो तुम लोग? कहाँ से आई थीं?"
काली भुजंग-सी देह पर था राख का प्रगाढ़ प्रलेप, और भयंकर रूप से उलझे जटाजूट
का जूड़ा शिथिल होकर गर्दन पर ढल आया था। दोनों आँखें अंगारे सी लाल-लाल दहक
रही थीं। कालिंदी ने देखा, उसके कानों से लटके भसे के सींग के बड़े-बड़े कंडल
कानों की लोडी चीरते ऐसे झल रहे थे, जैसे अभी-अभी नीचे गिर पड़ेंगे! नाक पर
एक बड़ा-सा मस्सा उस अमानव चहर को और भी भयावह बना रहा था।
सध्या घनीभूत हो रही थी और उस नितान्त निर्जन अरण्य में, दूर-दूर तक काई
परिन्दा भी नहीं चहक रहा था। वह नंगा अवधूत, यदि हाथ पकड़ दोनों को अपने
कम्बल पर पटक दे तो कोई उनकी चीख भी नहीं सुन पाएगा।
"सरोज, चल,” उसने फुसफुसाकर कहा और उसका हाथ खींचा।
कैसी मूर्खता कर बैठी थी वह जो इस अन्धविश्वासी लड़की के कहने पर यहाँ चली आई
थी? मामा सुनेंगे तो क्या कहेंगे!
कनफटे सिद्ध ने कठोर दृष्टि से दोनों को देखा, फिर बड़ी अवज्ञा से मुँह फेर,
हाथ की चिलम मुट्ठी में बाँध, आँखें बन्द कर, लम्बा दम लगा जोर से हुँकारा
लगाया, "जय गुरु गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, जय चौरंगीनाथ, बटुकनाथ- क्यों री
लड़की, बोलती क्यों नहीं, गूंगी हो क्या?"
“महाराज!” सरोज ने काँपते स्वर में कहा और फिर उसी सम्बोधन ने उसके साहस को
पराजित कर दिया।
"हूँ !" बाबा ने एक हुंकारा लिया और हाथ की चिलम राख में रोप दी, “बोल, क्यों
आई है? टन्ट-घन्ट, उखेद-भेद? (उखाड़ फेंकना, प्रभाव मोचन) बोलती क्यों नहीं?"
"मैं बताती हूँ,” कालिंदी का अहंकार दीप्त स्वर सुन, बाबा के भस्मपुते ललाट
पर प्रच्छन्न क्रोध की रेखाएँ उभर आईं।
"इसे इसके पति ने छोड़ दिया है।” कालिंदी ने अपना वाक्य पूरा किया, और दोनों
हाथ पीछे बाँधे, निर्भीक मुद्रा में खड़ी हो गई, जैसे कह रही हो-मैं तुमसे
नहीं डरती।
अवधूत की दोनों दहकती आँखें, इस बार ठीक कालिंदी के चेहरे पर निवद्ध हो गईं।
कालिन्दी को लगा, सचमुच ही किसी ने चिमटे से उठाकर दो जलते अंगारे ही उसके
ललाट पर धर दिए हैं। वह चिहुँककर पीछे हट गई-अवधूत के घनी मूंछों से ढंके ओठ
एक पल को व्यंग्य से तिर्यक हो गए।
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