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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


"हमें तो अब कुछ याद नहीं रहा पंडितजी," बड़ी बहू का अहंकारी स्वर जैसे कह रहा था, "हम नहीं गाते ये बेसुरे पहाड़ी गाने।"

“आते क्यों नहीं!" अन्ना अपनी धीमी आवाज में अकेली ही गुनगुनाने लगी, "शकूना दे काजए..."

और फिर एक-एक कर उसने पहाड़ी व्याकरण की संस्कारी मर्यादा को अक्षुण्ण रख पूरे संस्कार गीत दुहरा दिए। इन पवित्र संस्कार गीतों को क्या वह कभी भूल सकती थी :

"प्रात जो न्यूतू मैं सूर्ज वे
किरणन को अधिकार
समय बधाए न्यूतिये..."

“वाह हो लली-आपको तो सब कुछ याद है, नहीं तो आजकल किसे याद रह गए हैं ये गीत! हाँ, भट्टजी, संकल्प लीजिए :

"सुमुखश्चैकदंतश्च कपिलोगजकर्णकः
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः
विद्यारम्भे विवाहे च..."

सुनहले लहँगों के ऊपर बुंदकीदार एंवाली पिछौड़ों में अपूर्व राजमहिषी-सी लग रही दोनों मामियों का गोरा रंग जैसे आँखें चौंधिया रहा था और अम्मा के परम संतुष्ट चेहरे की दिव्य हँसी देख नहाकर आई कालिंदी मुग्ध हो गई-धूप दीप नैवेद्य की अगरु चंदन मिश्रित मदिर सुगंध धूप की धूम्र रेखा से एकाकार हो पूरा कमरा सुवासित कर रही थी।

"हाँ महाराज, कन्या के पिता का नाम कमला वल्लभ ही है ना?"

दोनों मामा अचानक सन्न रह गए।

"नहीं," दृढ़ स्वर में कालिंदी ही ने उत्तर दिया, “देवेन्द्र भट्ट!"

"कहती क्या हो बेटी, तुम्हारे पिता भी तो बरसों मेरे यजमान रह चुके हैं, कमला वल्लभ ही तो नाम है उनका!"

"नहीं पंडितजी, कहा ना आपसे, मेरे पिता देवेन्द्र भट्ट ही हैं।"

"देखो बेटी," वृद्ध पंडित ने बार-बार फिसल रहे चश्मे को उतारकर लाल वस्त्र बँधी पूजा की पुस्तक पर धर दिया, “यह पूर्वांग की पूजा है। इसमें तुम्हारे पिता-पितामह सब को न्यौतना है। धैर्य धरो, तुम्हारे मातामह के पूर्वजों को भी न्यौता जाएगा, पर परलोक के उन पितरों को झूठे रिश्ते से तो मैं नहीं न्यौत सकता-उचित रिश्ते का प्रमाण ही चल सकता है वहाँ।"

"ठीक है, ठीक है पंडितजी, जैसा उचित समझें, वैसा करिए।” बुद्धिमती शीला ने विवाद वहीं पर समाप्त कर दिया।

सुदीर्घ पूजा सम्पन्न हुई, शंख-घंट के निनाद से पूजन का समापन पर्व घोषित हुआ। पोथी-पत्रा बगल में दबा पंडितजी अतिथिशाला में आराम करने चले गए-मेज पर नाश्ता लगा दिया गया था, केवल दोनों मामा-मामी आज निर्जल व्रत कर कन्यादान करेंगे। अन्नपूर्णा वैसे ही एक वक्त खाती थी, कालिंदी के विदा होने पर ही जल मुँह में देगी, पर दोनों भाई-भाभियों को उसी ने जबरन मेवे-मिष्ठान्न खिला दूध पिला दिया, “अब कौन कर सकता है निर्जल व्रत, फिर देवू, तुम दोनों डायबिटिक हो, तुम्हें इतनी देर निराहार नहीं रहना होगा।"

माधवी को लेकर कालिंदी अपने कमरे में जा ही रही थी कि पर्दे की दरार से आ रहे कंठस्वर को सुन ठिठककर खड़ी हो गई।

"अरे भई, कोई है घर में?"

कौन आ टपका यह नगद उजड्ड पहाड़ी अतिथि! उस व्यक्ति ने, बिना किसी आह्वान के ही, धोती के किनारों से बनी मैली-सी हाथ की थैली, बढ़कर सोफे पर धर दी और धम्म से बैठ गया, “अरे भाई, कोई है घर में?"

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