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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


“नहीं बेटी,” उनका स्वर जैसे मीलों दूर किसी अभेद्य पातालगुहा से चला आ रहा था, “झूठी दिलासा मत दे बेटी, यह कभी ठीक नहीं होगी, इसकी चोट बहुत गहरी है, सन्तान ने ही गोली मारी है इसे, सन्तान की दागी गई गोली फिर चिता में हड्डियाँ चटकने पर ही निकलती है। तू कितनी ही बड़ी सर्जन क्यों न हो, इसकी गोली कभी निकाल नहीं पाएगी..."

कालिंदी ने सिर झुका दिया, शायद ठीक ही कह रहे थे बसन्त मामा।

"कई चिट्ठियाँ लिख चुका हूँ, लिखना तो नहीं चाहता था पर क्या करूँ, इसकी हालत दिन-पर-दिन गिरती जा रही है। मैंने यहाँ तक लिख दिया कि अब देर की तो माँ का मुँह भी नहीं देख पाआगे, जिन्दगी भर पछताओगे कपूत! आज ही चिट्ठी आई है कि मैं नहीं आ सकता, पहले किसी वैज्ञानिक की कॉन्फ्रेन्स में वियना जाना है फिर जेनेवा और फिर चीन-मेरा आना असम्भव है, इजा को आप दामी से दामी प्राइवेट नर्सिंग होम में रख दीजिए, पूरा खर्चा मैं दूंगा..."

देवेन्द्र मामा चुपचाप सिर झुकाए ऐसे खड़े थे जैसे अपराधी बसन्त का नहीं, स्वयं उन्हीं का पुत्र हो।

"रुपया ही क्या सब कुछ है रे देबी?" बसन्त मामा ने मित्र के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, "आज हमारी सन्तान माँ-बाप का प्यार भी रुपयों में खरीदना चाहती है-घूस लेने और देने की ऐसी आदत पड़ गई है इस पीढ़ी को कि माँ-बाप को भी घूस देकर जीतना चाहती है-जितना चाहे रुपया ले लो, उपहार ले लो, मकान बनवा लो पर हमारी सुख-शान्ति में बाधा डालने की जुर्रत मत करो-हमारे दाल-भात में मसरचन्द मत बनो..."

फिर कहते ही वे स्वयं खिसिया गए, “कैसा मूरख हूँ रे मैं देबी, चाय के लिए भी नहीं पूछा-बैठ, मैं चाय ले आऊँ।"

"नहीं मामा, अभी चाय पीकर ही तो आए हैं, तुम बैठो।” कालिंदी ने उन्हें रोकने की चेष्टा की।

“तू भी चेली, ऐसा हो सकता है कि पहाड़ का कोई घर, अपने पाहुनों को चाय पिए बिना जाने दे! एक गिलास चाय ही तो अब रह गई है हमारे पास-फिर ऐसा-वैसा मत समझना अपने इस मामा को, उसके बेटे ने विलायत से उसके लिए बिजली की केतली जो भेज दी है।" बड़े व्यंग्य से हँसते वे भीतर चले गए।

"कैसा सिनिक हो गया बसन्त!” मामा ने कहा।

"परिस्थितियाँ ही आदमी को सिनिक बनाती हैं मामा, मुझे मिलता पिन्टू दा तो मैं चीरकर रख देती-शर्म नहीं आती उसे?"

उसके बाद, उठते ही वह नित्य बसन्त मामा के यहाँ जा, मामी का हाथ मुँह धुला, बिस्तर साफ कर चम्मच से खिला-पिलाकर ही लौटती। बाजार जा कर वह आधी दर्जन चादरें, गिलाफ, फीडिंग कप, बैडपेन सब कुछ लाकर रख गई थी। दो ही दिन में लाल मामी की आँखों में चमक आ गई थी, उसे देखते ही वह खुशी से ‘गों गों' करने लगती-मामी के अकृतज्ञ सुदर्शन पुत्र के चित्र को मकड़ियों ने जाल से भर, अपना स्थायी आवास बना लिया था, उसे यत्न से पोंछ-पाँछ, उसने मामी के सिरहाने धर दिया जिससे वह सामान्य-सी गर्दन फेरने पर भी उसे देख सके। पौत्रों के भेजे 'ग्रैन्नी गैट वेल सून' के विभिन्न कार्ड उसने सजाकर दीवाल पर टाँग दिए।

“मामा, यह मिक्सी काम में क्यों नहीं लाते?" उसने धूल जमी मिक्सी को साफ करते-करते पूछा, “धरे-धरे खराब हो जाएगी।"

खीजे बसन्त मामा ने तड़ाक से कहा, “क्या पीयूँ री इसमें-अपना कलेजा या तेरी मामी का?"

वह समझ गई, पुत्र को वे शायद कभी क्षमा नहीं कर पाएँगे।

"मैं जानता हूँ बेटी, अपनी अमेरिकन पत्नी और बेटों को लेकर वह कभी यहाँ नहीं आ पाएगा-पहाड़ के खटमल जो उसकी पत्नी का सारा विलायती खून चूस लेंगे।"
"कैसी बातें करते हो मामा!” कालिंदी ने हँसकर कहा।

"हाँ-हाँ, झूठ नहीं कह रहा हूँ, उसने एक बार यही लिखा था, आना तो चाहता हूँ पर क्या करूँ बाबू, अल्मोड़े के खटमलों से डर लगता है। पिछली बार आया तो खटमलों ने खा लिया था, महीनों तक एंटी एलर्जी गोलियाँ खानी पड़ीं-आएगा तो यहीं रहना पड़ेगा, इसी घर में जहाँ जन्मा है, पला है, बड़ा हुआ है, अब तक अल्मोड़े में कोई फाइव स्टार होटल भी तो नहीं बना जो वहीं बाल-बच्चों को लेकर चला जाए-यही तो मूर्खता है हमारी, जब जानते हैं कि हमारे बच्चे अब सभ्य हो चुके हैं, अमेरिका जाना जब उनके लिए रानीखेत-भीमताल जाने-सा सुगम हो गया है तो हमें यहाँ एक फाइव स्टार तो बनाना ही चाहिए था। क्यों, है न बेटी?"

वृद्ध मामा की सफेद मूंछे तक व्यंग्य से सतर हो गई थीं।

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