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नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द)

भैरवी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3752
आईएसबीएन :9788183612883

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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास


लपककर, उसे किसी ने थाम लिया, मुड़कर देखा तो भय से आँखें मूंद ली। आजानुबाहुद्वय ने उसे थामकर सीधी खड़ी कर दिया और इससे पूर्व कि वह दोनों तटस्थ होतीं-उसे सम्हालनेवाला एक ऊँची छलाँग से, वनशावक-सा, झरबेरी की कंटकाकीर्ण झाड़ी की बाढ़ को लाँघ चुका था। किसी को कुछ न समझनेवाली चरन भी, पल-भर को हक्की-बक्की सी रह गई, फिर हँसकर चन्दन को गहरे पानी के बीच खींच ले गई।

"डर क्यों गईं? इनका तो यही हाल रहा है, न जाने कब कहाँ से सर्र साँप की तरह रेंगते चले आएँ। ठीक ही तो कहते हैं कि साँप और संन्यासी का घर क्या एक जगह होता है। लगता है, हमारे पीछे-पीछे चले आ रहे थे, मखमली पंजे हैं इनके। एक दिन ऐसे ही मुझे चौंका दिया।"

चन्दन अभी भी उन दो लम्बी बाँहों के स्पर्श को नहीं भुला पा रही थी। कैसी उत्तप्त बाँहें थीं दोनों, जैसे धूनी में तपाए चिमटे की दो फालें हों! क्या ज्वार में ही बाहर निकल पड़ा होगा वह अवधूत? चरन ने जैसे उनके मन की भाषा पढ़ ली, बड़ी-बड़ी आँखोंवाली इस चपल किशोरी को भी, क्या स्वामी की सिद्धि का वरदान मिल गया था।

"क्यों जी भैरवी, क्या सोच रही हो? हाथ खूब गरम-गरम लगे होंगे न गोसाईं के? अरे, पहले दिन चिलम थमाने में कुहनी से छू गई तो फफोला ही पड़ गया समझो। बाप रे बाप! बाँहें थीं कि चूल्हे में लगी लकड़ी का अंगारा। चाहो तो रोटी सेंक लो।"

फिर वह एक दीर्घ श्वास खींचकर एक स्वगत भाषण में डूब-सी गई, जैसे वह अकेली ही चली जा रही हो, “वह क्या हमारी-तुम्हारी तरह साधारण मानुस हैं-एक धूनी बाहर जलती है तो एक उसके भीतर। वैसी ही तप उठती हैं कभी-कभी माया दीदी! एक दिन चिलम पहुँचाने, वटतला गईं, तो दोनों आमने-सामने तने बैठे थे, जैसे नाग-नागिन का जोड़ा। मैंने सुना, स्वामी उनसे कह रहे थे, 'शिव जिसे शक्ति कहकर पुकारते हैं, सांख्य पराप्रकृति सूर्यपूजक महारजनी, बौद्ध तारा, जैनी श्री, ब्रह्मज्ञानी स्वधा, वैदिक गायत्री और अज्ञानियों की मोहनी, वही हो तुम महामाया महाविद्या।' उधर माया दी की उस दिन क्या अपूर्व रूपछटा थी; काले छिटके केश, कपाल में चढ़ी आँख, ललितासन में बैठी देवी की मूर्ति-सी ही जगमगा रही थीं-कहने लगीं, “तुम्हीं मेरे शिव हो गोसाईं, और मैं तुम्हारी शिव शक्ति।" चन्दन उस जंगली-सी दीखनेवाली चरन के पांडित्यपूर्ण प्रलाप को सुनकर उसे देखने लगी।

क्या यह अपढ़ लड़की अघोरी अखाड़े में झाड़-बुहार, चिलम सजाते ही यह सब सीख गई थी?

गहरे जल में डूबती-निकलती उसकी काली चमकती सुडौल टाँगें नील कमल और चौड़े-चौड़े पत्तों के पाड़ की हावड़ाहाट की सस्ती मोटी धोती, जिसका पलास फूल में रँगा रंग कहीं गहरा और कहीं चितकबरा-बातिक-सा बनकर उभर आया था, और बन्धनहीन वक्षस्थल पर बड़ी उदासीनता से फहरा रहा आँचल, प्रकृति की वनस्थली में स्वेच्छा से विचरण करती यह चंचल तितली-और ऐसी बातें-क्या नित्य सुन-सुनकर ही रट गई होंगी?

“यही है मन्दिर, पैर धोकर मेरे पीछे-पीछे चली आओ, बिना हाथ पकड़े नहीं आ पाओगी।" लोहे की मोटी जंजीर में लटका एक विराट घंटा हिलाती चरन सीढ़ियों पर चन्दन के लिए धमककर रुक गई। घंटे की वज्रहंकार, किसी गिरजे के घंटे की भीम-गर्जना-सी ही पेड़ों से टकराकर लौट आई। प्राचीन देवालय के प्रवेशद्वार से भीतर जाते हुए चन्दन को अपनी लम्बी देह धनुष की प्रत्यंचा के समान दुहरी करनी पड़ी। दो कदम रखते ही भयावह सूचिभेद अन्धकार में सहसा उसकी पथ-प्रदर्शिका खो गई। “कहा था न मैंने, हाथ पकड़े रहो।" चरन का स्वर एक दबी हँसी में खो गया, फिर वह उसके निकट आकर चमगादड़-सी फड़फड़ाने लगी।

"लो पकड़ो मेरा हाथ और मेरे पीछे-पीछे चली आओ।"

बर्फ की सिल्ली-सी ठंडी जमीन पर सहमे कदम रखती वह चरन के हाथ की लकुटी पकड़े किसी अन्धी भिक्षुणी-सी ही चली जा रही थी। आधे गज के अन्धकार की दूरी पार करते ही एक नन्हें घृतदीप के आले पर जल रहे ज्योतिपुंज ने देवालय के छोटे-से कक्ष को आश्चर्यजनक दीप्ति प्रदान कर रखी थी।

'जय शिव, जय गुरु' कहती चरन, जीर्ण चन्दोबे से लटके चाँदी के छत्र को हिला-हिलाकर बजाने लगी। चन्दन एक बार फिर हतबुद्धि-सी खड़ी रह गई, न वह हाथ ही जोड़ पाई, न पलकें ही झपका सकी। कैसा जाना-पहचाना देवस्थल लग रहा था वह, फिर भी वह आज पहली बार यहाँ आई थी। तब क्या किसी पूर्वजन्म की स्मृति ही उसे ऐसे विह्वल किए जा रही थी? नहीं-नहीं, वह ऐसे ही अन्धकार में डूबकर, दर्शन मात्र से ही उज्ज्वलता के तीखे प्रकाश से उभरते एक अन्य शिव मन्दिर की स्मृति स्पष्ट हो उठी थी। क्या शिव के सभी प्राचीन मन्दिर, जान-बूझकर ही ऐसे घनान्धकार में प्रतिष्ठित किए जाते होंगे? उसकी सन्निपात-सी मरणासन्न अवस्था में, माँ की मानी गई मनौती पूर्ण करने, वह एक बार जागेश्वर के शिव मन्दिर में गई थी। ऐसा ही भयावह अन्धकार श्मशान की निकटता, हिमशीलता देवालय की धरा पर पड़ते सहमे कदम, और शिवलिंग को आलोकित कर रहे ऐसे ही घृतदीप की ज्योति को थामे पीतल के पानस में गढ़ी चन्द वंश के राजाओं के शिल्प को अमर करती दिव्य मूर्ति।

माँ का मीठा स्वर जैसे उसके कानों में गूंजने लगा :

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं
मनोभूत कोटि प्रभाश्री शरीरं
स्फुरन्नमौलि कल्लोलिनी चारुगंगा
लसत भाल बालेन्दु कंठे भुजंगा।

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