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नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द)

भैरवी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3752
आईएसबीएन :9788183612883

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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास


कहाँ गई होंगी दोनों? कहीं जान-बूझकर ही तो उसे नहीं छोड़ गईं ? क्या पता. उस नंगे अवधूत से ही कोई साँठ-गाँठ हो? 'तुम्हें एकटक देख रहे थे गोसाईं!' चरन ने कहा तो वह लज्जा से लाल पड़ गई थी। छिः-छिः, उन्होंने उसे अपने हाथों से रुद्राक्ष की कंठी पहनाई थी, केवल नौ हाथ की भगवा धोती में लिपटी उसकी अरक्षित देह और उस पर-पुरुष का स्पर्श अकेले में, यह सब सोचकर उसका मन न जाने कैसा-कैसा हो जाता। कभी-कभी सारी रात ही आशंका में कट जाती। दिन निकलने से कुछ पहले दोनों लौटतीं, चरन आकर चुपचाप अपनी खटिया पर लेट जाती, पर माया दीदी बड़ी देर तक खटिया पर बैठी एकटक न जाने खुली खिड़की से किसे देखती रहतीं। उनका चेहरा एकदम किसी कुशल बहुरूपिए के चेहरे-सा रंग बदलने लगता। धूप में तपे ताम्रपात्र-सा दमकता चेहरा, कपाल पर चढ़ी आँखें, ऊँची जटा पर लगा धतूरे का पुष्प और क्षितिज में खोई हुई परलोक की दृष्टि!

'की हे माया दी, आनबी को।

चरन उनसे बंगला में ही बोलती। वैसे भी माया दीदी की हिन्दी में बंगला ही का पुट रहता। बिहार के छपरा जिला की लड़की थी, पर पहले गुरु का अखाड़ा था जिला बर्दमान में। वीरभूमि के मीठे लहजे में ही कभी-कभी चन्दन को पुकारती थी 'लतून भैरवी' (नूतन भैरवी) कहकर। हूँ?' माया दीदी के प्रश्न का हुंकारा ऐसी भयावह हुमक से गुहा में गूंजता कि कोने में लेटी चन्दन की छाती से लेकर पेट तक, भय से असंख्य डमरू डम-डम कर बजने लगते।

'पगला गई है क्या? ऐसी आँखें क्या साधारण मानवी की होती हैं?' और उस दिन फिर चन्दन की पाँचों अंगुलियाँ घी में रहतीं। दिन-भर एक के बाद एक कई चिलमों पर दम लगाती माया दी, इस लोक से बहुत ऊपर उठती सीधे ब्रह्मांड में पहुँच जातीं।

उस दिन भी यही हुआ, रात-भर की साधना माया दी की लाल-लाल आँखों में उतर आई थी। जूड़ा शिथिल होकर चौड़े कन्धों पर झूल रहा था। गुरु की धूनी निरन्तर धधक रही थी, किन्तु गुरु थे ही कहाँ? पिछले तीन दिनों से वह अपने लाड़ले को दुलारने भी नहीं आए थे। चरन लाख जबान चलाने पर भी माया दीदी की स्वाभाविक अवस्था रहने पर एक गस्सा रोटी का भी बिना पूछे नहीं निगलती थी। लेकिन उन्हें इस ध्यानावस्था में देखकर वह ठाठ से सिल पर लहसुन की चटनी पीस रोटियों के थक्के का थक्का साफ कर गई। चन्दन के लिए भी चटपटी चटनी से सजाकर रोटियों का एक थक्का ले आई।

माया दी बाल-सुलभ हँसी से दीप्त अपनी उज्ज्वल दृष्टि पीपल के पेड़ पर टिकाए, चुपचाप बैठी थीं। चरन उनकी इसी ध्यानावस्था का मनमाना लाभ उठा रही थी। उनके ही सामने, उसने पहले उनके 'लक्ष्मी विलास' सुगन्धित केश-तेल से छपाक्-छपाक् अपने रूखे बालों को रससिक्त किया, फिर उनकी गेरुआ पोटली से छालियों और सुगन्धित ताम्बूल मुखरंजन मसाले की गहरी चुटकी भरकर निकाली। चाँदी की काजल की डिबिया से काजल निकाल अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को आँजा, काले ललाट की महिमा को एक बड़ी-सी काजल की बिन्दी लगाकर और भी गहन बना हँसती-हँसती चन्दन के पास आकर बैठ गई।

“ऐसा क्यों कर रही हो, चरन? माया दी सब देख जो रही हैं!"

"तो क्या हो गया, तुम क्या समझती हो, वह इस लोक में हैं? संध्या छह-सात बजे तक ऐसी ही रहेंगी। बड़ा मजा है-चलो, क्यों न आज तुम्हें मन्दिर दिखा लाऊँ? माया दी आज घर का पहरा देंगी, हैं न माया दी।"

और वह धृष्टा सचमुच ही उनके सम्मुख घुटने टेककर पूछने लगी थी। उत्तर में माया दी का साँवला चेहरा, अनुपम हँसी से उद्भासित हो उठा।

द्वार बन्द कर वह उसे बाहर खींच ले गई। कितनी मोड़-मरोड़वाली पतली पगडंडियों के गड़बड़झाले के भूल-भुलैया की-सी परतों के बीच, चरन उसे मजबूत डोरी से बाँधकर खींचने लगी। आमलकी के गहन वन, हरीतकी की हरीतिमा, कहीं-कहीं अरण्यपाल से खड़े नारियल के रौबदार वृक्ष, और कहीं वेणुवनों के झुरझुट से बहती, खोखले बाँस के रन्ध्र को भेदती वंशी की-सी मीठी मुखरा बयार। गहन अरण्य का जो थान, चन्दन की विस्फारित मुग्ध दृष्टि के सम्मुख स्वयं खुलता चला जा रहा था, उसे छापने, रंगने और सँवारने में प्रकृति ने क्या कुछ कम परिश्रम किया था? जवापुष्पों के रक्तिम वैभव से लदे-फदे ठिगने कतारबद्ध पेड़ों की पंक्ति, शेष होते ही स्वयं प्रकृति के दक्ष हाथों से सजे, मालती लता के कई गुलदस्ते, एक टूटी-सी मजार के सम्मुख एकसाथ बिखर गए थे। मजार पर जलती हुई लोबान का सुगन्धित धुआँ उस अरण्य के ओर-छोर सुवासित कर रहा था। बड़े भक्तिभाव से, चरन ने आँचल से मजार पर बिखरे सूखे पत्ते झाड़े, फिर दोनों घुटने टेककर, प्रणाम करती उठ गई।

“चाँद बाबा की मजार है यह। हर शुक्रवार को दूर-दूर से लोग आकर यहाँ मन्नत के डोरे बाँध जाते हैं। कहते हैं : यहाँ की बँधी डोरी कभी झूठी नहीं होती।"

सचमुच ही मजार के जालीदार पायों पर, असंख्य रंग-उड़ी नई-पुरानी डोरियाँ बँधी थीं।

“वह पीली जरीदार डोरी देख रही हो न? वह हमारी माया दी की है।" चरन कहने लगी, “एक दिन मैं छिप-छिपकर देख रही थी। वह खूब लोटलोटकर रोती रही थीं यहाँ। मैं जानती हूँ, क्या माँग रही थीं लोट-लोटकर।" वह दुष्टता से मुस्कुराने लगी, “डोरी बाँधने से क्या होता है? गोसाईं तो कभी आँख उठाकर नहीं देख सकते, वह दूसरी लाल डोरी हमने जो बाँध दी है।"

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