नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द) भैरवी (सजिल्द)शिवानी
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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास
एक बार उसके जी में आया, वह उतरकर फिर वापस भाग, उस डोरी को खोल-खाल हवा में
उड़ा दे। लगता था, वह गाड़ी एक-एक सिगनल को सलामी देती, रुक-रुककर लँगड़ाती
चली जा रही है। न उस डिब्बे में कोई चढ़ा, न कोई टिकट ही देखने आया। जहाँ
किसी स्टेशन के आने का आभास मिलता, वह भागकर गुसलखाने की चिटखनी चढ़ा छिप
जाती, पर वह आखिर कब तक, यह लुका-छिपी खेल सकती थी?
अदृष्ट गन्तव्य आया और उसका कटा डिब्बा भी कटी-सी गाड़ी के साथ जुड़ा, यार्ड
के सीमान्त में जाकर खड़ा हो गया। चहल-पहल एकदम ही शान्त हो गई, तब वह
डरती-डरती पिछवाड़े का द्वार खोल बाहर निकल गई। छोटे-से लोहे के फाटक को
अरक्षित देख, कुदने में उसने विलम्ब नहीं किया।
बाहर आई और परिचित शहर ने उसकी गेरुआ चादर खींच सहसा नंगी कर दिया।
'लाख छिपो हे नूतन भैरवी! हमसे क्या खाक छिप सकोगी?' लाह की छड़ों से लदी-फदी
ट्रकें, आधा कलेवर पीताभ किए घूमती टैक्सियाँ, बहुरंगी मोटरें और स्कूटर।
निरन्तर बह रहे और जनप्रवाह को बहा रहे भीड़ के रेलमपेल के बीच वह
हतबुद्धि-सी खड़ी थी, जैसे मेले में खो गई भीड़ में भटकती कोई गाँव की हकबकाई
बालिका हो।
"ऐई जे लतून भैरवी गा, तुई को कोथाय थेके ऐली।"
(अरे यह तो नूतन भैरवी है, क्यों तुम कहाँ से आ गईं यहाँ?)
गैरिक दरी में बँधा बिस्तरा, सिर पर धरे हँसती-हँसती विष्णुप्रिया दी ने उसका
हाथ पकड़ लिया।
"क्या अकेली आई हो या माया भी है संग में? लो अच्छा हुआ मैं मिल गई, हाय राम,
सामान क्या गाड़ी में ही छोड़ आई?" प्रिया दी के ढेर सारे प्रश्नों में से एक
का भी उत्तर नहीं दे सकी चन्दन।
कनखियों से ही उसके उतरे चेहरे को देखकर चतुरा वैष्णवी समझ गई कि कुछ अनहोनी
घटना घट गई है।
'चलो-चलो, टैक्सी कर लूँ पहले, बहुत थकी लग रही हो, बस पकड़ने में और थक
जाओगी। जब से स्कूटर से गिरी हूँ, तब से अब स्कूटर में नहीं बैठती।"
वह स्वयं ही बकर-बकर करती, उसे लेकर टैक्सी में बैठ गई।
“अच्छा हुआ, जो मैं आज लौट आई। नहीं तो तुम कहाँ-कहाँ ढूँढ़ती फिरतीं! रानीजी
को लेकर गई थी मथुरा, वृन्दावन और फिर नाथद्वारा। रानीजी वहीं रुक गईं,
बोलीं, 'विष्णुप्रिया, तुम चली जाओ, वहाँ मेरे राधागोविन्द अकेले हैं। इसी से
लौट आई। मन्दिर के पट, कभी आठ दिन से ज्यादा बन्द नहीं रहने देतीं। सोच रही
थी अकेली कैसे रहूँगी? चलो अच्छा हुआ, गोविन्द ने तुम्हें भेज दिया।" मार्ग
की थकान दो रातों की उनींदी आँखों में उतर आई थी, बिना कुछ कहे चुपचाप हवा की
गति से भागती टैक्सी के काँच से चन्दन न जाने, क्या देखती और भी उदास हो उठी
थी।
टैक्सी को रोककर विष्णुप्रिया दी ने अपना बिस्तर उतार, चन्दन से हँसकर कहा,
"कि गा, नामबी ना?" (क्या री, उतरोगी नहीं क्या?)
रानीजी की विराट हवेली में ही पश्चिम के कोने में राधागोविन्द का मन्दिर था,
और उसकी कोठरी में विष्णुप्रिया दी के रहने की भी व्यवस्था थी।
“क्यों भैरवी, तुम्हारी चुप्पी देखकर तो मुझे डर लग रहा है। कुशलमंगल तो है
ना? माया की इधर कोई चिट्ठी भी नहीं आई, ठीक है माया?"
माया ठीक होती तो वह यहाँ आती? अब तक यत्न से रोका गया. अश्रु-प्रवाह स्वयं
ही बहुत कुछ कह गया, फिर चन्दन ने आँखें पोंछ लीं। रुक-रुककर, वह आरम्भ से
अन्त तक सब कह गई। माया दी की गुरुबहन थी विष्णुप्रिया। माया दी आज होतीं, तो
वह शायद उनसे भी सबकुछ कह देतीं। एक लम्बी अवधि से, भीतर ही भीतर घोटी गई
वेदना का उफान, अब उसके मौन को ठेलकर उफनता स्वयं ही बाहर गिरता जा रहा था।
"मैं जानती थी, एक दिन ऐसे ही अभागी का अन्त होगा, वैष्णवी अखाड़ा छोड़कर गई,
नाथ-कनफटों की सोहबत में। उस अघोरी अवधूत ने मोहिनी जो फूंक दी थी।" आँचल से
आँखें पोंछकर; उन्होंने एक लम्बी साँस खींची।
“अब तुम कहाँ जाओगी, भैरवी?"
चन्दन चौंक उठी, वह वैसे इस प्रश्न के लिए प्रस्तुत नहीं थी।
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