नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द) भैरवी (सजिल्द)शिवानी
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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास
“आँखें मूंदी जा रही हैं भैरवी! मेरे सिरहाने बैठकर काँसे की थाली पीट। क्या
पता, मरने से पहले उन्हें देख सकूँ!"
चन्दन उनकी उलझी लम्बी जटाओं को सहलाने लगी थी कि ही लट उसके हाथ में आ गई।
आसन्न मृत्यु चन्दन से सटकर खड़ी थी।
'साँप के काटे मनुष्य के बाल जब छूते ही जड़ से निकल आते हैं' चरन ने एक दिन
कहा था, 'तब समझ लो, अब उसे कोई नहीं बचा सकता।'
माया दी की बड़ी-बड़ी आँखें झपकती जा रही थीं। चन्दन काँपते हाथों से काँसे
की थाली पीटती; उन्हें जगाने की व्यर्थ चेष्टा कर रही थी।
"माया दी!" वह उन्हें कन्धा पकड़कर हिलाने लगी। सहसा टेढ़े हो गए चेहरे का
तेज बुझते दीये की लौ की ही भाँति एक बार फिर लौट आया।
ऐंठता शरीर साधारण चन्दन को धक्का देती माया दी तनकर बैठ गईं। उनकी देह थर-थर
काँपने लगी। ठीक ऐसी ही काँपती थी, चन्दन की जागेश्वर वाली विधवा बुआ। जरा-सा
छुआछूत का वहम होते ही उन पर देवी उतर आती। माँ के चूल्हे से जलते अंगारे हाथ
से निकाल बुआ मुँह में धरकर ऐसे कचर-कचर चबा जातीं, जैसे फटी सुपारी खा रही
हों।
चन्दन के त्रस्त-विस्मृत शैशव को माया दी की भयानक मूर्ति एक बार फिर झकझोर
गई। नीला पड़ गया चेहरा, ठुड्डी पर बिखरीं फेनोज्ज्वल बंकिम हँसी, और आँखें
जैसे सामने बुझी राख में छिपे दहकते अंगारे हों। वह जैसे सामने बैठी चन्दन को
भी नहीं देख रही थी। किसी अदृश्य मूर्ति पर उनकी स्थिर दृष्टि निबद्ध थी।
“आनन्दस्वरूपिणी, बुद्धिस्वरूपा, शक्ति ही है। आलोक और अन्धकारवही रात्रि है
और वही ऊषाकाल, वही है मृत्यु और सहस्र सुन्दरियों के रूप में मुस्काती वही
है तारों की छटा, कुमारी का सौन्दर्य और सहचरी का साहचर्य! गुरु, देखना, सब
याद है मुझे?"
अनोखे गर्व से उल्लसित होकर वे फिर निढाल होकर चन्दन की गोदी में लुढ़क गईं।
कौन कहेगा कि माया दी अपढ़ हैं? क्या-क्या बक रही थीं, और कैसी-कैसी बातें।
पर समय बीतता जा रहा था, और एक-एक पल, घातक विष की व्यापकता भी बढ़ रही थी,
काँसे की थाली पीट-पीटकर ही तो उन्हें बचाया नहीं जा सकता था। पर क्या करे?
कहाँ जाए, उन्हें अकेले छोड़कर? गुरु ऐसे असमय लौटते ही कब थे, फिर जब से
उन्हें माया दी ने फटकारा था, बस पता नहीं कहाँ चले गए थे?
यह भी सम्भव था कि वे लौटें नहीं।
पर गुरु उस दिन असमय ही लौट आए। अपनी अनुपस्थिति में आ गई विपत्ति को क्या
उन्होंने अपने योगबल की खुर्दबीन से देख लिया था?
मूर्ति-सी स्थिर बैठी चन्दन को देखते ही उनके कठोर चेहरे की एक-एक रेखा
स्निग्ध हो गई।
बिना कुछ पूछे ही वे घुटने टेककर चन्दन के पास बैठ गए। उसकी गोदी में सिर धरे
निश्चेष्ट पडी माया दी की शिथिल पड़ी कलाई को उन्होंने अपने कठोर पंजे में
जकड़ लिया।
“माया माया!" वह निर्विकार नीले चेहरे पर झुककर पुकारते निराश होकर बैठ गए।
उनका सूखी जटा की एक लट चन्दन का चिबक स्पर्श कर. गई, पर वह उसी अडिग मुद्रा
में बैठी रही।
क्या यह विचित्र अघोरी एक बार भी नहीं पूछेगा कि माया दी को क्या हो गया है?
वह तो केवल झुक-झुककर नाड़ी ही देख रहे थे।
"बेहोश होने से पहले इसने कुछ कहा था क्या?' गुरु का स्वर जैसे दूर किसी जंगल
में गूंज रहा था।
चन्दन चुप रही।
कैसे कहेगी, वह माया दी का सन्देश?
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