नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द) भैरवी (सजिल्द)शिवानी
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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास
कन्यादान के निबटते ही उसने कोने में लुढ़की, चौकोर बोतल भी देख ली थी, बड़े
कौशल से वह उसे आँचल में सँभालती गेहूँ के बोरे में छिपा आई थी। उसकी देवरानी
की तो पीठ में आँखें थीं। यही नहीं, विदा से पूर्व, ग्यारह छोकरे उसे धन्यवाद
देने आए तो इलायची, पान से छिपाई गई दुर्गन्ध को, उसकी सात्विकी घ्राण-शक्ति
ने पकड़ भी लिया था।
विवाह के दिन भी चढ़ानेवाला, उसका यह अनजान जामाता क्या उसकी भोली पुत्री को
सुख से रखेगा?
किन्तु जब, पलंग पर बैठी, राधागोविन्द-सी पुत्री-जामाता की जोड़ी की आरती कर
तिलक लगाने उसने पुत्री का घूघट उठाया तो वह चन्दन का खिले फूल-सा दमकता
चेहरा देखकर अपना सबकुछ भूल गई। कम-से-कम इस चेहरे को देखकर कोई इसका अनिष्ट
नहीं कर पाएगा।
यही तो भूल थी राजेश्वरी की। जब चन्दन विदा हुई, तब भी उसका चेहरा वैसा ही
खिला था, न आँखों में आँसू थे, न चेहरे पर माँ के विछोह का दुःख।
हाय, कितनी बेरुखी से पली-पलाई बेटी पराई हो जाती है! उसकी हिचकी यत्न से
दबाए जाने पर भी शायद निकल ही पड़ती कि देवरानी आकर डंक दे गई।
“आज की लड़कियाँ, क्या हमारी-तुम्हारी तरह रोती हैं, चन्दन की माँ? बेशरम
हँसती-हँसती ससुराल को चल देती हैं। मैंने तो कहा भी-बेहया, एक बूंद तो
लोकलाज के लिए गिरा दे, पर राम भजो-तुम्हारी चन्दन तो मना रही थी कि कबै कार
चले और कव मायका छूटे।" जली-भुनी देवरानी ने तो छौंक लगाई थी, पर चन्दन सचमुच
ही आकाश में उड़ती जा रही थी।
अपनी ससुराल के नये परिवेश की ऊँची-नीची देहरियों पर जब कभी ठोकर खाती,
आनन्दी स्वभाव की हँसमुख ननद सोनिया उसको हाथ थमाकर सँभाल लेती।
“यह भाभी हैं, इनके पैर छूना, यह तुम्हारी जिठानी हैं, समझीं? यह मेरी दोस्त
है, दर्शन!"
जिठानी सुमीता और सहेली दर्शन, दोनों की आँखों में ईर्ष्याग्नि की दमदमाती
ज्वाला को सरला चन्दन ने पहली ही झलक में पहचान लिया था।
"असल में दर्शन चार साल से दद्दा के पीछे पागल बनी घूमती रही है।" सोनिया के
पेट में भला कोई बात पच सकती थी? वह अपनी भोली नई भाभी के कान में, दर्शन के
आने से पहले ही फुसफुसाकर कह गई थी-सुमीता ने कटे बालों की एक लट पीछे फेंक,
अपना अग्निबाण, 'ऐट होम' की पार्टी के बीच ही छोड़ दिया, “हाय देवरजी! तुम तो
कहीं से दूध-पीती बच्ची ही को उठा लाए, चाहने पर शारदा ऐक्ट में तुम्हें
पकड़वाया जा सकता है। क्यों जी देवरानी, दूध के दाँत टूट गए हैं तुम्हारे?"
और अतिथियों के बीच ठहाकों की मार से, लाल साड़ी में लिपटी चन्दन लाल पड़ती
और भी सुन्दर लगने लगी थी।
उसी के सोफे पर, उससे सटकर बैठे पति ने सबकी दृष्टि बचाकर अपनी बालिका-वधू का
हाथ हलके से दबाकर मूक आश्वासन दिया था, जैसे कह रहा हो, 'डरना मत चन्दन, ये
सब भूखी आदमखोर शेरनियाँ हैं। मैं तो यहाँ हूँ, फिर तुम्हें कैसा भय?'
श्वसुर-गृह के एक-एक कक्ष का वैभव देखकर चन्दन की निर्दोष आँखें और भी बड़ी
होकर, उसके सलोने चेहरे पर फैल गई थीं। कितने आभूषण, कैसी-कैसी साड़ियाँ और
कैसे-कैसे हीरे फिर सबसे अधिक जगमगाता हीरा, स्वयं उसका पति।
विवाह के दस दिन बीतने पर चन्दन की लज्जा कुछ-कुछ कट चुकी थी। माँ ने लिखा था
कि द्विरागमन के लिए पति को लेकर वह पहाड़ चली आए, पहाड़ की यह रस्म तो मायके
ही आकर निभाई जाती है। किन्तु उसके उतावले पति ने वह रस्म भी वहीं उसकी माँ
के किसी दूर के रिश्ते के मामा के यहाँ जाकर निबटा ली थी।
"चलो, अब हम एक लम्बा-सा 'हनीमून' मना आएँ।" विक्रम ने चन्दन को छाती के पास
खींचकर कहा था।
शाहजहाँपुर की चची का भानजा भी शादी के बाद पाकिस्तान से हनीमून मनाने
हिन्दुस्तान आया था, वह भी उड़कर। उस रंगीन जोड़े की 'ताजमहल' के सामने खींची
गईं तसवीरें देखकर अम्माँ ने उसे खूब डाँटा भी था।
“छिः-छिः कुँआरी लड़की को ऐसी तसवीर, तेरी चची ने भला क्या सोचकर दे दी?"
"क्यों अम्माँ, क्या है इस तसवीर में?"
सचमुच ही तो कुछ भी नहीं था उस तसवीर में। दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े खड़े
थे, बस।
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