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नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द)

भैरवी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3752
आईएसबीएन :9788183612883

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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास


सोनिया भी इधर उसके साथ खूब घुल-मिल गई थी। घर की इसी अमर्यादा ने बेटे को पूर्णतया विद्रोही बना दिया था। इसी विद्रोह की भावना में बहता, वह कभी अपने दर्जनों विदेशी मित्रों को घर पर न्यौत लेता और उसका कमरा तब चंडूखाने की सडाँध को भी तुच्छ कर देता। कहीं सिल पर भाँग पीसता पहाड़ी नौकर रामसिंह, कहीं गमछे में बँधी ठरें की बोतलों पर बोतलें चली आतीं। एक बार तो विक्रम ने नाक ही काटकर, जैसे मुँह में धर ली थी। उधर मम्मी की समाज-सेविका सखियों की मीटिंग चल रही थी, इधर छोटे बेटे की भिक्षुणियाँ और विदेशी भिक्षुओं का निर्लज्ज 'जोगीड़ा' पर्व चल रहा था। दो-तीन ऊँची-ऊँची नौकरियों पर स्वयं लात मारकर बड़ी चेष्टा से पिता की दिलवाई एक चौथी नौकरी में उसे उलझा दिया था। विरक्त सिद्धार्थ, इस नौकरी से भी लम्बी छुट्टी लेकर छोड़ने के इरादे से ही पर्वतारोही दल के साथ निकल पड़ा था, और वहीं मिल भी गई थी उसे यशोधरा। नास्तिक रुक्मिणी इधर खोए पुत्र को पाने के लिए व्रत-अनुष्ठान निभाती घोर आस्तिक बनी चली जा रही थी।

ठेठ पहाड़ी मर्यादा में पली इस सुपात्री को देख वह स्वयं भी मुग्ध हो गई। कपोलों पर प्रकृति प्रदत्त कुचले पाटलप्रसूनों की लालिमा, और पहाड़ी काफल हिसालू के रस से छलकते अधर! गुलाबी चूड़ीदार और ढीला कुर्ता, सिर पर बँधी गुलाबी चुन्नी का उत्तरीय जैसे कोई किशोर राजकुँवर मुस्कुरा रहा हो।

कैसी मूर्खा थी वह! कार से उतरते समय कैमरा भी उतार लिया होता तो इस अपूर्व भाव-भंगिमा को लैन्स में बाँध अपने ऊँचे तबकेवालियों के रँगे-पुते चेहरों पर झाड़ फेरकर रख सकती थी। जैसे भी हो, इस रत्न को राज्यकोष में लाना ही होगा। एक तो यह सौन्दर्य शायद उसके जंगली बिल्ले बन गए बेटे को पालतू बना लेगा, दूसरे बड़ी बहू, जो अपनी पीतल की ही नथुनी पर सौ-सौ गुमान किए फुदकती रहती है, कम से कम उसे यह अँगूठा दिखा ही देगी।

फिर एक चिन्ता उसे इधर और भी घुने जा रही थी। सोनिया की पंजाबी सहेली दर्शन, जान-बूझकर भी उसके इस छोटे बेटे पर गिरी जा रही थी। चाहे चेहरा तो इस रुपये के सामने चवन्नी-भर भी नहीं था, हर उम्र तो गधी की परी लगनेवाली उम्र थी। लाख हो, लड़का जवान हो चला था, उस पर विदेशी सोहबत में चल रहा आयुर्वेदी कल्प, कभी भी उसे ले बैठ सकता था। चलो, दर्शन से तो छुट्टी मिलेगी।

"ऐ ईडियट!" सोनिया फिर चहकी, “हम इतनी दूर से तुमसे मिलने आए हैं और तुम क्या ईंट-गारा ही ढोती रहोगी? नीचे उतरो।"

खिसियाई-सी हँसी हँसकर चन्दन ने किसी सधे मिस्त्री की ही भाँति चूने की बाल्टी सीढ़ी पर लगी कील पर टाँग दी और उलटा मुँह उतरती, उनके सम्मुख खड़ी हो गई।

“अबे सिर का साफा तो खोल-एकदम डाँडी रासवाला काठी राजपूत लग रही है।" फिर झटककर उसने चन्दन की चुन्नी खींच, उसके कन्धों पर डाल दी और हाथ खींचकर उसे ऐसी अन्तरंगता से भीतर ले चली जैसे वह स्वयं मेजवान हो और चन्दन हो कोई लजाई अतिथि बाला। कपड़े बदलकर राजेश्वरी के कमरे में आते ही सोनिया शायद जान-बूझकर ही चन्दन को लेकर दूसरे कमरे में चली गई।

सोनिया की माँ के आने का कारण कुछ तो राजेश्वरी स्वयं ही समझ गई थी और कुछ उन्होंने बिना किसी अनावश्यक उलझाव-फैलाव के खुद उसे समझा दिया। उसके छोटे पुत्र ने उसकी लड़की को पहली ही झलक में देखकर पसन्द कर लिया था।

"वैसे दिल्ली में हमारे समाज की एक से एक सुन्दर और पढ़ी-लिखी लड़कियाँ हैं।" फिर वह स्वयं ही घबराकर कहने लगी, “आप कहीं यह मत सोचिएगा कि मैं आपको 'इम्प्रेस' करने की चेष्टा कर रही हूँ, पर ईश्वर की कृपा से सोनिया के पिता का व्यवसाय अच्छा-खासा है, यह कुछ तो लक्ष्मी की कृपा-दृष्टि का फल है और कुछ स्वयं उनकी साधना का। बड़ा लड़का बर्मा शेल में है। छोटा विक्रम, जो आपके यहाँ पन्द्रह दिन पूर्व अतिथि बन, अब जामाता बनना चाहता है।" यहाँ पर पल-भर रुककर वह व्यवहारकुशल महिला अपनी भुवन-मोहिनी स्मिति से कथन को सँवारना नहीं भूली।

“वह 'महेन्द्रा एंड महेन्द्रा' में काफी तगड़ी तनख्वाह ले रहा है। मैं तो अचरज में डूब गई थी कि मेरे जिस नाक-भौं चढ़ानेवाले बेटे को आज तक एक भी लड़की पसन्द नहीं आई, वह एक ही रात में आखिर किस उर्वशी पर रीझ गया? पर आज जब खुद देखा, तब अब ना कोई जिज्ञासा रही न कुतूहल!"

ऐसी विचित्र परिस्थिति में उसे क्या निश्चय लेना चाहिए, यह राजेश्वरी की समझ में नहीं आया। फिर ऐसी ही अपनी चट मँगनी पट ब्याह का अनुभव बड़ा सुखद था।

विवाह जैसी महत्त्वपूर्ण योजना की स्वीकृति पर उसके मतानुसार गुरुजनों की राय लिए बिना स्वयं हस्ताक्षर कर देना बड़ी भारी मूर्खता थी। न वह इस प्रवासी परिवार के विषय में ही कुछ जानती थी, न पात्र का ही ठीक-ठिकाना था। केवल ऊँची नौकरी और चेहरे के बूते पर ही तो कोई किसी को दामाद नहीं बना लेता। वह जो प्रशंसा सुन रही थी, वह थी, स्वयं माँ के मुँह से अपने पुत्र की। संसार की कौन माँ भला अपने पुत्र की प्रशंसा नहीं करती? अपना बच्चा तो बँदरिया को भी विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति लगता है। बिना सोचे-समझे ही हवा में लगाई गई उसके अबूझ यौवन की छलाँग उसे एक बार खाई में पटक शरीर और मन दोनों पर चिरस्थायी आघात दे चुकी थी, इससे अब वह मुँह खोलने से पूर्व, एक-एक वाक्य को मन ही मन विवेक के तराजू पर ऐसे तोल रही थी, जैसे कोई पटु स्वर्णकार तोला-रत्ती-माशा के बाटों से, सोना तोल रहा हो। उधर उसकी यह चुप्पी, चट योजना बनाकर पट कार्यान्वित करनेवाली, उतावली रुक्मिणी को महाअधैर्य बावली बना रही थी। वह अपनी सूक्ष्म संसारी दृष्टि से सम्मुख धरे उस निर्विकार चेहरे की जितनी ही परतें चीरती, उतनी ही और प्याज की-सी परतें निकलकर उसे छलती जा रही थीं।

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