नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द) भैरवी (सजिल्द)शिवानी
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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास
राजेश्वरी कुछ कहती, इससे पहले ही परदा उठाकर चन्दन माँ को ढूँढ़ती आ गई थी,
“अम्माँ, तुमने चाबियों का गुच्छा कहाँ रखा है?"
उसी के पीछे-पीछे, शान्ति अपने अतिथियों को, मेज पर लगे नाश्ते का तकाजा करने
आ गई। चन्द्रिका के जाने तक फिर दोनों सखियों को आपस में उलझने का एकान्त
नहीं जुट पाया।
चलते-चलते शारदा बहनजी की भाँति, चन्द्रिका भी उसे वैसी ही सीख दे गई थी,
“राजेश्वरी, ऐसी सुन्दर लड़की को साथ लिए, इधर-उधर मत फिरा कर। जमाना बहुत
सुविधा का नहीं है, अच्छा लड़का देखकर इसे ठिकाने लगा दे।"
राजेश्वरी, आत्मीय स्वजनों की बार-बार दी गई उस स्नेहपूर्ण चेतावनी से भी
बुरी तरह झुंझलाने लगी थी। लड़का क्या आकाश से टपक पड़े? किन्तु बार-बार
दोहराई गई वह सीख, उसे भविष्य के प्रति और भी सतर्क बना गई। अचेत में चल रहे
निरन्तर संघर्ष ने विकट रूप ले लिया, अपने अन्तर के उस अमूर्त भय को न उसका
चेतन समझ पाया, न उसने समझने की चेष्टा की। परिणामस्वरूप पुत्री पर उसका कठोर
नियन्त्रण और कठोर हो गया।
कुछ दिन अलमोड़ा रहकर वह धारचूला चली आई। यहाँ आकर जैसे उसके उलझे-थके चित्त
को क्षणिक शान्ति मिल गई। एक अर्से से उसके पैतृक मकान में एक अध्यापक का
परिवार रहता था, उसके आने के कुछ ही दिन पूर्व अध्यापक की बदली हो गई थी। जब
राजेश्वरी ने प्रतिवेशी परिवार से चाबी लेकर मकान खोला, तब वह उसे साफ-सुथरा
मिला। उसके पिता एक लम्बे अर्से से 'शौकीन' परिवारों से घुल-मिलकर एक प्रकार
से स्वयं ही उनके रहन-सहन के रंग में रंग गए थे, इसलिए उनके मकान की बनावट
में भी ठेठ 'शौक' मकानों की निर्माण-कला जीवन्त हो उठी थी। लाल वार्निश के
शीशम के नीचे द्वार, तिब्बती द्वारपाल और शार्दूल बने काठ के झरोखे, और सबसे
ऊपर मंजिल में बना 'मिलन' जो समृद्ध गर्त्यांग निवासियों के ही 'मिलन' का
नक्शा लेकर उसके पिता ने उन्हीं की सज्जा में सजाया था, आज भी हू-ब-हू वैसा
ही धरा था। अध्यापक स्वयं 'शौक' था और शायद उसी से इस 'मिलन' की प्रतिष्ठा पर
उसने आँच भी नहीं आने दी थी।
महिम प्रायः ही राजेश्वरी से कहा करता, 'लोग जापानियों के कलात्मक घर की
सजावट की इतनी प्रशंसा करते हैं, पर क्या आज तक कभी किसी ने एक पंक्ति भी
अपढ़ 'शौक' जाति की अनूठी कलाप्रियता पर लिखी है? शौक-परिवार का यह 'मिलन'
जैसे एक ही साथ उनका ड्राइंग और डाइनिंग रूम होता है, वैसा ही महिम का
अन्तरंग कक्ष भी था। ठीक उसी ढंग की बीचोबीच, हवन की-सी वेदी बनी थी, उस पर
बने चूल्हे पर उबलती, मक्खन, दूध और नमक डली चाय कलात्मक पीतल के बने
'दौंगवो' में फेंट, एकदम एस्प्रेसो के झाग-से उठाकर चाँदी के गिलासों में
अतिथियों को थमाई जाती। एकाएक हाथ की लिपी जमीन की दूरी छोड़, चौड़े-चौड़े
‘मोश्टों' (चटाइयाँ) पर, स्वयं उसके माँ के हाथ के बुने मोटे गलीचों के घनत्व
में अतिथि फँसकर रह जाते। फिर क्या ऐसे-वैसे अतिथि वहाँ प्रवेश पा सकते थे?
विशिष्ट अतिथि, घनिष्ठ आत्मीय या अन्तरंग मित्र ही 'मिलन' की पावन परिधि को
लाँघकर, प्रवेश-पत्र पा सकते थे। खाना समाप्त होता तो बड़ी सुघड़ लिपाई से
अतिथियों की ही उपस्थिति में चौका लिप-पुत जाता और उसी चूल्हे में झोंक दी
जाती- 'दाऊ' की लकड़ियाँ। फिर कोने में बैठी स्त्रियाँ ऊन काततीं, बुनतीं और
चीन, नेपाल से लौटे व्यापारी दल के अतिथियों की मनोरंजक किस्सागोई में डूबी
दिन-भर की थकान तथा अपने प्रवासी पतियों की विरहाग्नि की व्यथा भूलकर रह
जातीं।
गृह के पुरुषों की अनुपस्थिति में दूर से आक्लान्त पथिकों की अभ्यर्थना में
किसी प्रकार की त्रुटि न रहने पाए, इसका उन पोषिता पत्नियों को विशेष ध्यान
रखना पड़ता। राजी के पिता भी, 'शौक' व्यापारियों की ही भाँति लम्बे दौरों पर
कभी चले जाते, तिब्बत, चीन या नेपाल। अपनी छुट्टियों में वह माँ के साथ
धारचूला चली आती और जिस परिवेश में जन्मी पली थी, उसमें आकर वह उस मछली की
भाँति निश्चिन्त होकर तैरने लगती, जो कुछ देर के लिए पोखर से निकालकर फिर उसी
में डाल दी गई हो। पूरी गर्लंग घाटी में खेती की एक ही फसल होती थी, इसी से
स्त्रियों के लिए अवकाश के मधुर क्षणों का अभाव नहीं था।
दिन-भर वह अपनी 'शौकिया' सहेलियों के साथ कातती, बुनती और 'मिलन' के रंगीन
वातावरण में डूबकर रह जाती थी। पिता का व्यापार उनकी व्यवहार एवं
व्यवसाय-कुशल बुद्धि का सहारा पाकर दिन-दुगुनी और रात-चौगुनी उन्नति करने लगा
था। एक ही बन्दूक से उन्होंने न जाने कितने हजार की कस्तूरी बेच ली थी।
इधर-उधर भटक, कस्तूरी-मृग के लिए प्रसिद्ध गांग घाटी के ओर-छोर छान, वे आए
दिन कस्तूरी-मृग का शिकार कर, बेचने निकल पड़ते, कभी अमृतसर और कभी पानीपत।
उधर ‘कौगर' की मुलायम ‘फर' के न जाने कितने निर्जीव संस्करण, विदेशी
सुन्दरियों के स्कन्धों पर डाल, उन्होंने घड़ा-भर विदेशी-मुद्रा अपने 'मिलन'
में गाड़कर रख दी थी। यही उनका बैंक भी था।
आज भी पिता के बनाए उस मकान में सबकुछ वैसा का वैसा ही धरा था, पर अब वह जैसे
विदेश के प्रसिद्ध मोम के निर्जीव पुतलों की स्मृतियों का संग्रहालय मात्र रह
गया था। चारों ओर निस्संग शून्यता में खड़े उसके सुनहले शैशव के साक्षी, पीपल
के पेड़, बरगद की धूमिल जटाएँ, 'हराबा' (हर्र) और बराड़ा (बहेड़ा) की शीतल
छाया में, रक्तिम पुष्पों की चादर-सी बिछाए 'दाऊ' के वृक्ष!
बीते शैशव की एक-एक पगडंडी पर वह उलटा मुँह किए पीछे की ओर चली जा रही थी।
मिलिटरी ने खेत के खेत साफ कर दिए थे, पर अभी भी किसी पराजित वीर शासक के
टूटे-फूटे दुर्गों की भाँति अचल खड़े थे, वे ही चिर-पुरातन सूखी घास के
'लूटे' कदली वन के झुरमुट और आँवलों से लदे-फंदे वृक्ष। बचपन में झुंड की
झुंड किशोरी शौक्याणियों के साथ वह काली नदी में तैरने जाती और देखते ही
देखते उसकी मर्कट सेना एकसाथ लपककर एक-एक आँवला मुख में धरती, पेड़ को नंगा
कर देती। वर्षों पूर्व आँवला मुख में धरकर ली गई काली के जल की मीठी घूट सहसा
इतने लम्बे अर्से के बाद उसके मुख का स्वाद तिक्त कर गई। दो मील की चढ़ाई पार
करती वह 'तपोवन' के शिवालय में जो माँगने गई थी, वह क्या उसे मिल गया था?
उत्तर-दक्खिन से खुली धारचूला की रम्य घाटी अब भी ज्यों की त्यों धरी थी! बीच
से निकाली गई माँग की ही भाँति उसे दो भागों में विभक्त करती काली नदी,
इठलाती अभी भी उसी भुजंगप्रयात के-से छन्द से चली जा रही थी, सामने दूसरे छोर
पर दिखती नेपाल की सीमा में सजी 'धारचूला' की चोटी।
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