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नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द)

भैरवी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3752
आईएसबीएन :9788183612883

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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास


“नहीं जी, महिम!" उसने अपने फटे कोट की जेब में दोनों हाथ डालकर, सीना कबूतर की भाँति तानकर कहा था, “गरीब हैं तो क्या हुआ, हमारी क्या इज्जत नहीं है? लाख भूखे हों, पर पहले जब बारात की पंगत में नहीं न्यौते गए तो क्या अब ऐसे ही खाना बच रहा है, हमारे लिए-जानकर न्यौते गए, कंगलों की तरह? क्या अब हम जूठी पत्तल चाट लें?"

उसी रात को राजराजेश्वरी के पिता चोट-खाए नाग की तरह अपनी क्रुद्ध फूत्कार से घर-भर को विषमय बनाकर दामाद ढूँढ़ने निकल पड़े थे। अन्धा, लूला, लँगड़ा जो भी मिलेगा, उसी के पल्ले अब कुल-बोरनी पुत्री को बाँधकर विदा कर देंगे। उनकी आशा आशातीत रूप से सफल हुई। जामाता के रूप में मिला अपने ही कुल का एक धनवान पात्र। बिरादरी कहीं बड़ी मुश्किल से मिले इस जामाता के कान न भर दे, यह सोचकर महिम तिवारी विवाह कराने के लिए पत्नी और पुत्री को लेकर अलमोड़ा से हलद्वानी चले गए।

“माघ के महीने, पहाड़ में विवाह निबाहना, हँसी-खेल नहीं है भाई!" उन्होंने बड़ी चतुराई से अपने पलायन के पक्ष में पुष्ट दलीलें बाँध दी थीं, "इसी से तो इतना खर्चा उठाकर हलद्वानी जा रहा हूँ!"

पर समझनेवाले समझ गए। एक-आध ने मरे सर्प की आँखों में जान-बूझकर प्रश्नशलाका भी घुसेड़ दी, "क्यों जी महिम, हमने तो सुना, कन्यादान करने रानी रामप्यारी को भी साथ लिए जा रहे हो!"

और हीं-हीं कर हँसने भी लगे थे उनके एक-आध मुँहलगे साथी। जब से रामप्यारी राजा साहब की घरनी बनी थी, तब से उसे चाहे-अनचाहे रानी का खिताब, स्वयं ही मिल गया था। लहू की चूंट पीकर, महिम ने सिर झुका लिया। करता भी क्या? क्या निधूत केशा, गत-गौरवा दुष्टा पुत्री ने डूबने को चुल्लू-भर पानी भी रहने दिया था?

दुहाजू सन्तानहीन जामाता की शाहजहाँपुर में मिठाई की बहुत बड़ी दुकान थी। बहुत पहले, घर से भागकर उस पहाड़ी ब्राह्मण ने गुड़ की गजक-रेवड़ी का खोमचा लगाया था। तब ढिबरी के लिए आधी छटाँक तेल जुटाना भी मुश्किल हो जाता था। आज लक्ष्मी की कृपा से, बीसियों नौकर दुकान में खोया घोटते थे। दामाद को देखकर राजेश्वरी की माँ तो जोर-जोर से रोने लगी। पलित केश, भग्न दन्त-पंक्ति, उस पर दहकती भट्टी के साहचर्य से स्याह पड़ गया चेहरा। राजराजेश्वरी की डोली क्या उठी, किसी प्राणहीना की अरथी उठी। राजराजेश्वरी को विदा करने के बाद उसकी माँ ने खाट पकड़ी तो फिर नहीं उठी। आँख में अमृत की अंजन शलाका-सी पत्नी का विछोह महिम तिवारी के लिए असह्य हो उठा। वह दिन-रात, याक और भोटिया भेड़ों पर बीस-बीस सेर के थुल्मे लाद, इधर-उधर भटकने लगे। एक दिन उनका काफिला बिना स्वामी के ही घर लौट आया। लोग ढूँढ़ने निकले और कई दिनों बाद उनकी लाश एक गहरी घाटी में पड़ी हुई मिली। पता नहीं, स्वामी को क्रोधी तिब्बती याक ने ही उस गहरी घाटी में गिरा दिया था, या वह स्वयं ही जीवन की रिक्तता से ऊबकर उस गहराई में टूटकर बिखर जाने को कूद गए थे।

राजराजेश्वरी अपने पचास वर्ष के पति के साहचर्य के कुछ ही दिन बाद जान गई कि सुदूर प्रवासी होने पर भी उसकी कलंक कथा के अभिशप्त पृष्ठ उड़ते-उड़ते यहाँ उसके पति तक भी पहुंच गए हैं। वह इसी से और भी सावधान बनी, फूंक-फूंककर पैर रखने लगी। न कभी हँसती, न सजती-सँवरती। घर से बाहर जाना तो दूर, वह आँगन में या छत पर भी न जाती। यहाँ तक कि कभी आईने के सम्मुख भी खड़ी नहीं होती। फिर उस शंकालु स्वभाव के व्यक्ति ने भी अपनी ओर से पक्की किलेबन्दी करना आवश्यक समझा! दुकान पर जाता तो अपनी सुन्दरी पत्नी को ताले में बन्द कर जाता। ठीक एक वर्ष पश्चात चन्दन हुई, पर फिर भी वह ताले में बन्द रखी गई। सुन्दरी पत्नी द्वारा ईमानदारी से प्रस्तुत की गई सन्तान को भी वह निर्मल चित्त से ग्रहण नहीं कर पाया। उसके अहम ने उसका मस्तिष्क सम्भवतः कुछ अंश में विकृत ही कर दिया था। दुकान का काम भी अब नौकर-चाकर देखते। वह चौबीसों घंटे, अपनी बन्दिनी पत्नी के इर्द-गिर्द भौरे-सा मँडराता रहता। उससे एक ही प्रश्न बार-बार पूछता, "क्यों जी, यह तो मेरी ही पुत्री है न? कहीं पानी तो नहीं मिलाया दूध में?"

फिर वह. अपनी विकृत हँसी से उसे सहमा देता, पर तब भी वह आश्चर्यजनक धैर्य से चित्त की झुंझलाहट पर कड़ा अंकुश गाड़कर रख देती।

“पागल हो गए हो क्या?" वह ऐसी मीठी मुस्कान का मधु घोलती कि सनकी हलवाई को अपनी तीन-तार की चाशनी का स्मरण हो आता।

"बस तो तुझे हवा ने भी नहीं छुआ!" वह एक बार फिर, उसकी परिक्रमा करता, उसे पान के पत्ते-सा फेरने लगता, “बुरा मत मानना री, पर अभी उस दिन अखबार में पढ़ा कि विलायत में एक मेम ने, तेरहवें महीने बच्चा जना है। मेरा बस चलता, तो ऐसी खबर छापनेवाले को गोली से उड़ा देता। क्या मिलता है इन्हें ऐसे किसी की हरी-भरी गृहस्थी चौपट करके!"

राजेश्वरी का सर्वांग घृणा से सिहर उठता। उसके जी में आता, उस ठिगने, ठुस्के, दन्तहीन कलूटे को, उसी की चाशनी में डुबोकर रख दे; लेकिन उसके लिए यह सब सहना जैसे प्रायश्चित करना था। वह शक्की जितना ही उसको दबाता, वह उतनी ही अधिक दबती। व्रत-अनुष्ठानों में अपने को डुबाकर रख देती। बूढ़े पति की वह सच्चे अर्थ में सहधर्मिणी बन चुकी थी। वह पग-पग पर उसके पातिव्रत्य की परीक्षा लेता, पर कभी मुँह की नहीं खाती। कभी-कभी खाँसते-खाँसते वह थाली ही में थूक देता और फिर जूठी थाली पत्नी की ओर खिसकाकर कहता, “इसी में खा लेना, ढेर-सी सब्जी परस दी थी मुझे। भला इतनी सब्जी क्यों बनाती है तू?" और वह चुपचाप अधिक सब्जी बनाए जाने का दंड स्वयं भोगने के लिए थाली में बची-खुची जूठन का चरी-भूसा निरीह गैया की भाँति निगल जाती।

चन्दन दो वर्ष की भी नहीं हुई थी कि राजराजेश्वरी विधवा हो गई। पाँच ही दिन के ज्वर में बूढ़ा मरा तो यह भी नहीं बता पाया कि अपनी अटूट सम्पत्ति वह किस चूल्हे के नीचे गाड़ गया है। सूम की सम्पत्ति की, वही तृतीय गति हुई, जो प्रायः हुआ करती है। राजराजेश्वरी को अलिखित विल के रूप में प्राप्त हुई, एक बड़ी-सी हवेली, अस्सी वर्ष की अन्धी-बहरी सास, सात-आठ कड़ाही और आठ-दस थाल बासी लड्डू-बर्फी, जिन्हें अर्थी उठानेवाले स्वयं ही निकालकर खा गए।

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