नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द) भैरवी (सजिल्द)शिवानी
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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास
सात समुद्र पार जाकर वह अपने नवीन जीवन का सर्वथा नवीन परिच्छेद निश्चय ही
खोल सकेगी।
फिर उसकी सन्तान क्या ऐसे-वैसे पिता की देन थी? कुमाऊँ के राजपरिवार का रक्त
था उसकी धमनियों में। इसी से तो उसकी लाड़ली चन्द्रिका जब अपनी जिद में
मचलती, तब उसे बड़ा गर्व होता-इसी को तो कहते हैं राजहठ, स्त्रीहठ, बालहठ! वह
मन ही मन अपनी राजकन्या के बीसियों नखरे सहने को तत्पर रहती।
राजराजेश्वरी ने पहली बार सखी के गृह का वैभव देखा तो दंग रह गई। क्या-क्या
नक्काशीदार कुर्सी-मेज थे और वैसे ही आदमकद आईने, झाड़फानूस और तिब्बती
गलीचे। चाँदी की तश्तरी में जलपान लेकर चन्द्रिका की माँ आई तो उसने पहले
उन्हें नहीं देखा। वह तो एकटक दीवार पर लगे रंगीन तैल-चित्र को देख रही थी।
तंग नेपाली पायजामा, बन्द गले का कोट, कार-चोबी की सलमा जडी मखमली गोल टोपी
और तिब्बती भेड़ की पूँछ-सी पुष्ट मूंछे। हाथ में थीं एक चाँदी की मूठ की
पतली छड़ी, मखमली पायदान पर चमकीला पम्पशू ऐसा चमक रहा था, जैसे अभी-अभी कोई
दक्ष पेशेदार बुरुश मारकर चमका गया हो।
“क्या देख रही हो, बेटी?" मुस्कुराकर चन्द्रिका की माँ ने कहा और वह
हड़बड़ाकर मुड़ी।
“यह हैं तुम्हारी सहेली के पिताजी। जो भी यहाँ आता है, पहले इस तस्वीर को
देखता रहता है।"
पर राजेश्वरी तो अब चन्द्रिका के मृत पिता को नहीं, जीवित माता के अनूठे
चित्र को ही सम्मुख देखकर हतबुद्धि हुई जा रही थी। जैसा लम्बा कद, वैसा ही
सुडौल शरीर का गठन। इस उम्र में भी यह किसी नवयुवती की गदराई देहयष्टि से
लोहा ले सकता था। चेहरा देखने पर ही समझ में आता था कि प्रकृति के क्रूर
आतप-वर्षाकालीन घात-प्रतिघात को सहता इस बुलन्द इमारत का बुर्ज अब ढहने को
है। "किसका घर उजाला किया है तुमने, बेटी? क्या नाम है तुम्हारे पिता का?"
पेशेवर गायिका की मधुर शब्द-व्यंजना घुघरू-सी झनक उठी थी।
“विशाड़ के महिमचन्द्र तिवारी हैं मेरे पिताजी।" राजराजेश्वरी ने यह सूचना
सहज भाव से दी, लेकिन इसे सुनते ही एक क्षण को रोबदार मेजबान का सुदर्शन
चेहरा न जाने किस विस्मृत वेदना से नीला पड़ गया; पर दूसरे ही क्षण उसने अपने
को सम्हाल लिया, “वाह-वाह, तब तो तुम हमारे जान-पहचानवालों की ही बिटिया
हो-क्यों, आजकल कहाँ हैं पिताजी?" वह कुर्सी खींचकर उसके पास बैठ गई।
“क्या आप बाबूजी को जानती हैं?' राजराजेश्वरी ने पूछा और साथ ही माँ की
क्रोधपूर्ण गर्जना का स्मरण कर, स्वयं ही चुप हो गई। कहीं पिता का अता-पता
पूछती यह उसके घर पर ही न चली आए!
"जानती क्यों नहीं जी, तिवारीजी को कौन नहीं जानता? कौन-सी होली की बैठक उनके
बिना जम सकती थी भला?"
ठीक ही कह रही थी रामप्यारी। होली की बैठक में ठंडाई से छलकते कलश, पहाड़ी
गुझियाँ और सुगन्धित आलू के गुटकों के थाल बैठक में भेजती अम्माँ, कभी बुरी
तरह झुंझला उठतीं, किन्तु दूसरे ही क्षण बाबूजी का लड़कियों को भी लजानेवाला
मिश्री कंठ-स्वर गूंजता तो अम्माँ भी परदे की ओट से सुनती हुई झूमने लगतीं।
बाबूजी का गोरा चेहरा, तान आलाप की कशमकश से तमतमा उठता। कान पर हाथ धरकर वह
पहाड़ की अनूठी चाँचर ताल की होली की गूंज से बैठक गुंजा देते :
जाय पडूं पी के अंक
चाहे कलंक लगे री!
साथ ही 'अंक' के सम को पकड़ने, पूरी महफिल ऐसे झूमने लगती, जैसे सम न हो, हवा
में उछाली गई गेंद हो।
रामप्यारी ने फिर पूछा, “क्यों, कहाँ हैं आजकल तिवारीजी?"
"धारचूला!"
"हाय राम, इतनी दूर? क्या करते हैं वहाँ?"
"थुल्मे, ऊन और गलीचों का व्यापार करते हैं।"
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