नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द) भैरवी (सजिल्द)शिवानी
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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास
भय से चन्दन काँप उठी, बड़ी मुश्किल से काबू में आए हुए उसके होश-हवास फिर
गुम होने लगे। क्या यह किसी कापालिक की गुहा थी या किसी श्मशान-साधक का
आश्रम?
संन्यासिनी का नासिका-गर्जन और भी ऊँचे अवरोह के सोपान पर हुलसने लगा। ठंडे
पसीने से तर-बतर चन्दन, सारी रात दम साधे, सतर लेटी रही। भोर होने से कुछ
पहले न जाने कब उसकी आँखें लग गईं। आँखें लगी ही थीं कि उसे लगा, किसी ने
उसके ललाट का स्पर्श किया है। न चाहने पर भी उसकी आँखें खुल गईं। एक हब्शी
का-सा काला चेहरा, उसकी ओर बढ़ रहा था। काले चेहरे पर, अंगारे-सी दहकती दो
लाल-लाल आँखें देख, शायद वह जोर से चीख ही पड़ती कि सहसा मोती-से दमकते
दाँतों की उज्ज्वल हँसी देखकर आश्वस्त हो गई। यह हँसी तो मैत्री का हाथ बढ़ा
रही थी।
"भूख लगी है क्या?" स्निग्ध हास्योज्ज्वल प्रश्न के उत्तर में, बिस्तर से लगी
असहाय देह सिसकियों में टूटकर काँपने लगी।
"छि:-रोओ मत, ऐसे रोने से तबीयत और खराब होगी। रुको, मैंने अभी दूध गरम किया
है, जैसे भी हो, थोड़ा-बहुत गुटक लो।"
थोड़ी ही देर में वह काँसे के चपटे कटोरे में भरकर दूध ले आई। सहारा देकर
उसने चन्दन को बिठाया और दूध का कटोरा उसके क्षुधातुर होंठों से लगा दिया। एक
ही साँस में वह पूरा कटोरा खाली कर गई। उस काली लड़की ने, बड़े यल से उसे एक
बार फिर लिटा दिया।
"चुपचाप लेटी रहो, समझीं?" वह हँसकर कहने लगी, “मैं मंदिर को झाड़-पोंछकर अभी
आती हूँ, थोड़ा समय लगेगा, मंदिर जरा दूर है न, इसी से।" वह अनर्गल बोलती जा
रही थी, “लौटते में तुम्हारे लिए प्रसादी के केले भी लेती आऊँगी। बाहर से
साँकल चढ़ाए जा रही हूँ। आज कोई है नहीं, गुरु महाराज बाहर गए हैं और माया
दीदी अपने पुराने अखाड़े में गई हैं, कल तक लौटेंगी, भगवान करे उनकी नाव वहीं
डूब जाए।" वह फिर हँसने लगी।
"क्यों जी, तुम तो कुछ बोलती ही नहीं, गूंगी हो क्या?" इस बार उस काली लड़की
ने उसकी ठोड़ी पकड़ ली। यह चंचल लड़की बस एक पतली-सी भगवा साड़ी पहने थी और
उसे भी ऊँचे बाँधे हुए थी। साड़ी की पतली भाँजों से झाँकते हुए पुष्ट यौवन की
झलकियाँ देखकर चन्दन नारी होते हुए भी लजाकर रह गई। किन्तु उस वन-कन्या को,
लज्जा के लिए अवकाश ही नहीं था।
“अच्छा जी, नई भैरवी-इतने दिनों तक क्या तुम सचमुच दिन-रात बेहोशी में पड़ी
रही थीं!"
चन्दन ने इस बार भी कुछ उत्तर नहीं दिया...।
"हाय राम, सचमुच ही गूंगी हो क्या? राम रे राम! ऐसा गन्धर्व किन्नरियों का-सा
रूप दिया और मुँह में एक छटंकी जीभ नहीं दे पाया। वाह रे भगवान, वाह! इसी
दुःख से तुम चलती रेलगाड़ी से कूद पड़ी थीं क्या?"
चन्दन असहाय करुण दृष्टि से अपनी इस विचित्र अपरिचिता सहचरी को देखती रही।
"बाप रे बाप! हिम्मत तो तुम्हारी कम नहीं है जी! हमारा तो उस कलमुँहे इंजन को
देखते ही कलेजा धड़कने लगता है।...और जानती हो, कहाँ गिरी थीं तुम?"
सुना है, साँप को देखकर पक्षी मन्त्रमुग्ध हो जाता है। किसी ऐसे ही
मन्त्रमुग्ध पक्षी की तरह चन्दन इस बड़ी-बड़ी आँखोंवाली जंगली लड़की की
लच्छेदार बातों में बँधकर रह गई।
“ठीक जलती चिता से आधे गज की दूरी पर। जरा भी और तेजी से गिरी होती तो घोषाल
बाबू के लड़के के साथ सती हो जातीं।" वनकन्या ने अपनी बात पूरी की और जोरदार
ठहाका लगाया।
चन्दन को मौन देखकर उसने खुद ही बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया, "तुम्हारा
भाग्य अच्छा था, जो गुरु उस दिन शिवपुकुर के महाश्मशान में, वट-तले साधना
करने चले गए थे। नवेन्दु घोषाल के जवान लड़के की अधजली चिता छोड़कर ही लोग
तुम्हें हवा में तैरती लाश समझ 'भूत-भूत' कहते भाग गए तो गोसाईं तुम्हें
कन्धे पर रखकर आधी रात को द्वार खटखटाने लगे-मैंने ही द्वार खोला। पहले तो
घबरा गई। ऐसे मुर्दा घर लाकर तो कभी शव-साधना नहीं करते थे गुरु, फिर आज
कन्धे पर मुर्दा कैसे ले आए? फिर तुम्हें मेरी खटिया पर सुलाकर लगे हाँक
लगाने, ‘माया! माया! -माया ससुरी एक बार दम लगाकर फिर क्या कभी इस लोक में
रहती है! नहीं उठी तो मुझसे बोले, 'देख चरन, अमावस के दिन चिता के पास गिरी
होती तो आश्रम को अपूर्व तोहफा जुटता। जलती चिता, वह भी अकाल मृत्यु-प्राप्त
ब्रह्मचारी तरुण की चिता! पर फिर भी स्वयं विधाता ने इस नई भैरवी को प्रसादी
रूप में पटका है, बीच श्मशान में, वह शिवपुकुर का महाश्मशान, जहाँ दिन हो या
रात एक-न-एक चिता जलती ही रहती है। इसकी देखभाल करना, समझी।' और मैं रात भर
तुम्हारे सिरहाने बैठी दी सच पूछो तो मैं तुम्हें मुर्दा ही समझे रखवाली कर
रही थी। गुरु शव-साधना तो नित्य करते ही रहते हैं-किशोरी के शव को, इस बार
शायद धनी रमाकर घर पर ही साधेंगे, पर तुम्हारे कलेजे पर हाथ धरा तो जान गई कि
तुम मुर्दा नहीं हो।"
"यह कोई मठ है क्या?" क्षीण स्वर में चन्दन ने पूछा और उसके प्रश्न के साथ ही
वह काली लड़की उससे लिपट गई, “तब तुम गूंगी नहीं हो-इतनी देर तक गूंगी बनी
क्यों ठग रही थीं जी?"
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