नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द) चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
"चल हट मुँहझौंसे, मेरा साबुन है।"
"जरूर है, तुम्हारे बाप ने भी नहाया है कभी महारानी सन्दल साबुन से! तुम तो
अपनी कटहल-सी खाल पर हमेशा लाइफवाय रगड़ती हो...
"हे राम, आज एकादशी के दिन मुझ राँड़ रंडकुली को इल्जाम लगा है! मुर्दे-कहाँ
हैं तेरी माँ..."
कुमुद ही हाथ पकड़कर अबाध्य लालू को अपने कमरे में खींच लाई थी।
“साबुन तो तुम्हारा ही है! चोर, चोट्टी कहीं की!" लालू जोर-जोर से चीखने लगा,
हाथ जोड़कर ही वह उसे चुप करा पाई थी।
"तुम ही बनो महात्मा गाँधी," लालू कहने लगा था-"तुम्हारी इसी ऐक्टिग से मेरे
हाड़ जल जाते हैं--कभी बुढ़िया हमारा साबुन पार करती है, कभी मंजन, तुम और
अम्मा सब कुछ देखकर भी मक्खी निगलती हो..."
"चुप कर लालू, क्या कहेंगे सब..." “कहने दो, लालू किसी के बाप से नहीं डरता,
एक तो बुढ़िया गुसलखाने में ही गन्दगी करती है, कहती है, संडास में जाने पर
छूत लगेगी, धोती बदलनी पड़ेगी, मैं पूछता हूँ चोरी करने में नहीं लगेगी
छूत-इन पाखण्डी पहाड़ी बुढ़ियाओं को देख मेरा खून खौल जाता है।"
काश, लालू-उमा को वह महल-सा सुघड़ स्नानगृह दिखा पाती, बौरा जाते दोनों!
बड़ी देर नहाने पर भी उसका मन नहीं भरा। जब बाहर निकली, तब नूरबक्श ने बड़ी
विनम्र खटखट से उसे सूचित किया, "मिस साहब तैयार हो लें।" वह उन्हें साहब से
मिलाने द्वार पर प्रतीक्षारत बैठा मिलेगा।
कैसी मूर्ख थी वह, आज सिर धोने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी उसे! अब कैसे
सुखाएगी इन घने बालों को? बड़ी निर्ममता से ही भीगे बालों को सुलझा, उसने पीठ
पर डाल दिया। चैत के भेंटुणों में माँ की दी गई सफेद आंगाइल पहन वह आईने के
सामने खड़ी हुई तो अपने उतरे सूखे चेहरे को देख उसे स्वयं तरस आ गया। वह
मन-ही-मन जिस अज्ञात भय से, इस रहस्यमय परिवेश में प्रतिक्षण ठंडी पड़ती जा
रही थी, उस भय की एक-एक रेखा उसके कमनीय चेहरे पर उतर आई थी। "तुम अपनी उम्र
से बहुत छोटी लगती हो दीदी, सब हमसे पूछते हैं, तुम बड़ी हो या कुमुद? हमें
अच्छा नहीं लगता, अब तुम जूड़ा बनाया करो, दीदी?" उसी दिन से वह अपनी पृथुल
वेणी को जूड़े में लपेटने लगी थी। फिर भी वह छोटी लगती थी, उमा के शरीर की
गढ़न, चेहरे की परिपक्वता, उससे कहीं अधिक मँजी-घिसी थी।
बिना बाँहों के ब्लाउज से निकली अपनी दुबली बाँहों को साड़ी के आँचल से ढाँक
उसने ललाट पर आईब्राउ पेंसिल से बिन्दी का ठप्पा धरा और बाहर निकल आई। एक
क्षण को, नूरबक्श उसे देखता ही रह गया। बत्तियों के जगमगाते प्रकाश में उस
दुबली गोरी, एकदम स्कूली लड़की-सी दिख रही कुमुद को देख वह कुछ देर हतप्रभ-सा
खड़ा ही रह गया। यह बित्ते भर की लड़की क्या खाक सँभालेगी, उसकी मालकिन को!
"आइए, सरकार!"
कुमुद, एक बार फिर उसी दीवानखाने में बैठी, गृहस्वामी की प्रतीक्षा करने लगी।
एक भुजंग काली प्रौढ़ा, अपने घेरदार लहँगे की मज्जी फहराती चाय की ट्रे धर
गई। कितनी नौकरानियाँ थीं यहाँ और प्रत्येक का चेहरा कदर्य-कुत्सित, क्या
जानबूझकर ही यहाँ अशोकवाटिका की-सी इन राक्षसियों की नियुक्ति की गई थी!
चाँदी की चायदानी पर फहराते पंखे की फाल प्रतिबिम्बित हो, उसकी आकर्षक
नक्काशी को और प्रखर कर रही थी। तश्तरी पर धरे मेवे-मिष्टान देख कुमुद को एक
बार फिर अपनी भोजनलोलुप चंचल छोटी बहन की याद आ गई। वह अब तक इस दुर्लभ जलपान
के साथ अकेली बैठी होती तो उसकी भाँति क्या अँगुली के नाखून दाँतों से
कुतरती, ऐसे अकर्मण्य बैठी रहती? अब तक कई काजू उसने बाजीगरी सफाई से उदरस्थ
कर लिए होते। वही स्मृति, एक मोहक स्मित बन, उसके ओंठों पर उतरा ही था कि वह
अचानक गृहस्वामी को सम्मुख खड़ा देख अचकचाकर उठ गई। अपने दिवास्वप्न में डूबी
वह मूर्ख क्रमशः निकट आती पदचाप को भी क्या नहीं सुन पाई?
"क्षमा कीजिएगा, मैं आपको लेने स्टेशन नहीं आ पाया!" उसने हँसकर उस कुर्सी की
ओर हाथ बढ़ाकर कहा-"आप बैठिए, मिस जोशी! आई एम सॉरी...अचानक मालती की तबीयत
खराब हो गई थी।"
उसे उत्तर में क्या कहना चाहिए यही सोचती, पसीने में डूबी कुमुद फिर भी खड़ी
रह गई।
“बैठिए!" आकाशवाणी के किसी अनुभवी उद्घोषक का-सा गुरुगम्भीर कंठ-स्वर सुनकर
वह बैठ तो गई, पर आगन्तुक की ओर आँखें उठाकर देख नहीं पाई।
"आपने यहाँ आकर हम पर कितना उपकार किया, मैं बता नहीं सकता! मैं जानता हूँ इस
अनजान बस्ती में आकर आप अवश्य घबरा रही होंगी, पर मैं आपको विश्वास दिलाता
हूँ, यहाँ हम आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देंगे।"
फिर वह स्वयं चाय बनाने उठे तो नतमुखी कुमुद की दृष्टि उस अजनबी के पैरों पर
पड़ी। कितने गोरे पैर थे, एकदम गुलाबी। तब क्या इनके वंश में कोई अंग्रेज था?
दुग्ध-धवल इकबर्रा पायजामे के चौड़े पायंचे रह-रहकर पंखे की हवा से उड़ रहे
थे।
"लीजिए," उसकी ओर चाय का प्याला बढ़ाया।
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