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			 नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द) चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
      “यहीं रख दो काशी, रात बड़ी देर तक नींद नहीं आई, इसी से देर में आँखें
      खुली," उसने हँसकर कहा। 
      
      हाथ-मुँह धोकर कुमुद चाय पीने लगी, प्याली ओठों से लगाया ही था कि उसकी
      दृष्टि दीवार पर पड़ी। सुंदर अक्षरों में कमरे की पूर्व स्वामिनी ने क्या
      दीवार ही अपने हस्ताक्षरों के स्मृति-चिह्नों से भर दी थी? मरियम टी. जोजफ,
      मरियम, मरियम, मरियम। क्या यह नाम हर कोने से, उसके साहस को चुनौती देता
      रहेगा? देता रहे, उसे किसी का भय नहीं था, न निर्जीव बाँह का, न जहरबुझी
      दृष्टि के स्वामी शिवकमल सिंह का, न आँखों की ज्वाला से उसे दिन-रात दग्ध
      करती अबाध्य काशी का।
      
      न अब उसे मरियम की अतृप्त आत्मा का भय था और न स्वयं अपनी उन्मादिनी अतृप्त
      गृहस्वामिनी का! अब जब कभी मालती अपनी अमानवीय पकड़ से उसका हाथ कसकर मसलने
      की चेष्टा करती, तब उसी जवाबी पकड़ से उसकी कलाई मरोड़ अपना हाथ उससे छुड़ाना
      वह सीख गई थी। वर्षों से उन्माद के अरण्य में भटककर जंगली बन गई उस शेरनी को
      उसने अपने मौन अनुशासन से जीत लिया था। कभी-कभी उसे लगता, मालती उससे डरने
      लगी है। वह कमरे में आती तो वह भय से पलंग के ही एक कोने में दुबककर बैठ
      जाती, काशी की अबाध्यता को भी उसने केवल अपनी कड़ी चितवन से पराजित कर लिया
      था, वह समझ गई थी कि उसकी अनावश्यक विनम्रता को ही उसकी दीनता समझ काशी उसे
      दबोच रही है। अब काशी अपनी अबाध्यता से उसके किसी आदेश की अवहेलना करती तो वह
      उसे किसी क्षण ले जाकर राजकमल सिंह के सामने खडा कर देती-"देखिए सर, यह काशी
      मेरा एक भी आदेश मानने को तैयार नहीं, यही नहीं, कभी बहुत बुरी तरह जवाब देने
      लगती है," और फिर गृहस्वामी को रोबीली उपस्थिति में थर-थर काँपती काशी पालतू
      बिल्ली-सी कुमुद के पीछे-पीछे लगी रहती। एक ही दिन अपना उग्र रूप दिखाकर
      मालती एकदम शांत हो गई थी। राजकमल सिंह को अपने किसी काम से बाहर जाना था :
      "मालती के कमरे में काशी सोएगी, रात को आपको वहाँ नहीं सोना होगा। फिर भी यदि
      कभी कोई ऐसी-वैसी बात हो जाए, तो आप मुझे इस नम्बर पर फोन कर सकती हैं", वह
      अपना फोन नम्बर भी उसे दे गए थे। किन्तु पति के जाते ही मालती पूर्ण
      स्वाभाविक अवस्था में लौट आई थी। खाने-पीने में भी उसके नित्य का पशुवत् आचरण
      बदल गया था। खाना आता तो वह पहले की भाँति थाली को छीन उस पर टूट नहीं पड़ती,
      बड़े ही सलीके से, आभिजात्यपूर्ण गरिमा में ओठ बन्दकर नन्हे निवाले तोड़
      चुपचाप आँखें झुकाए खाना खाती और स्वयं ही थाली हटा, हाथ-मुँह धोने, बेसिन तक
      चली जाती। सात-आठ दिनों से राजकमल सिंह को न देखकर भी किसी प्रकार की
      जिज्ञासा या कुतूहल की एक रेखा उन बड़ी-बड़ी आँखों में कुमुद नहीं ढूँढ़ पाई
      थी। कुमुद से उसकी बोलचाल अभी भी 'हाँ या ना' तक ही सीमित थी, वह भी केवल सिर
      के मूक संकेत से। बस, एक दिन जब वह उसे नींद की गोली खिलाकर अपने कमरे में ले
      जाने लगी; तब मालती के अलस कंठ-स्वर ने उसे रोक लिया था-
      
      "सुनो?" 
      “जी!" कुमुद पलटी। 
      "वह चली गई क्या?" 
      “कौन?"
      "मरियम!"
      
      कुमुद की समझ में नहीं आया कि उस अर्थहीन प्रश्न का वह क्या उत्तर दे। एक
      अज्ञात भय से वह मन-ही-मन सिहर भी उठी थी। यदि इस निभृत कमरे में जहाँ से
      उसकी चीख भी शायद नौकरों के सागरपेशे तक नहीं पहँचेगी, मालती ने उसे दबोच
      लिया, तो वह अपने को कैसे छुड़ा पाएगी? आज तो वह भी नहीं हैं, जिन्होंने उसे
      उस दिन एक छलाँग लगाकर उन्मादिनी पत्नी से छुड़ा लिया था। अपने रक्तिम दाडिम
      से अधरों पर नुकीली जिह्वा फेरती, वह कैसे उस दिन उसकी अंगुली के रक्त को चाट
      रही थी! यदि उसकी असहाय विवशता भाँप, वह नरभक्षिणी उस पर झपट पड़ी, तो वह
      क्या कर लेगी! किन्तु प्रश्न पूछनेवाली ने स्वयं ही उसकी उलझन दूर कर दी।
      दोनों घुटनों को अपनी चूड़ियों भरे हाथों के बन्धन में बाँध, झूला-सा झूलती
      मालती, ओठों ही ओठों में न जाने क्या बड़बड़ाने लगी थी।
      
      कुमुद तेजी से सीढ़ियाँ उतर गई। अब रात दस बजे से सुबह सात तक की ड्यूटी काशी
      की थी। किन्तु कमरे में आते ही वह अचानक फिर गहन नैराश्य में डूब गई।
      
      क्यों उसने यह प्रश्न पूछा था? क्या कभी मरियम के किसी आचरण ने उसके विकृत
      मस्तिष्क को कभी आहत किया था? सुना था, मरियम साँवली होने पर भी बेहद आकर्षक
      थी।
      
      "बड़ी कटीली आँखें रहीं!" पियरी ने ही उसे बताया था, "रही साँवर, मुला गजब की
      मुस्की छाँटत रही, नाक-नक्सा अइसन रहा कि का बताईं..."
      
      क्या कभी उस गजब की मुसकान ने उस शिला-सी निष्प्राण गृहस्वामिनी का सुहाग
      छीनने की अनधिकार चेष्टा की थी?
      
      दिन-प्रतिदिन गहन रहस्य के दलदल में कुमुद विवशता से धंसती चली जा रही थी।
      कभी आधी रात को दबे स्वरों की फुसफुसाहट सुन जगकर खिड़की पर खड़ी होती, तो
      देखती जीप में भरे हाथों में बन्दूक लिये दीर्घदेही रहस्यमय अतिथि उतरकर बड़े
      राजा की सीढ़ियों पर चढ़ रहे हैं-तब क्या यही वह कुख्यात दस्युदल था, जिसकी
      ओर उस दिन राजकमल सिंह ने संकेत कर उसे चेतावनी दी थी। एक दिन उसने और भी
      भयानक दृश्य देखा था। मदालस स्वर में किसी को गाना गाते सुन वह बिना बत्ती
      जलाए ही खिड़की पर खड़ी हो गई। कार का दरवाजा खुला और शराब के नशे में धुत
      मँझले राजा को तीन-चार नौकरों ने पकड़कर उत्तारा, उनकी ऐसी अवस्था कि पैर भी
      सीधे नहीं पड़ रहे थे-"अबे स्साले, ठीक से नहीं पकड़ पा रहा है क्या? ठीक से
      पकड़ो..." फिर एक झटके से नौकरों की पकड़ से अपने को छुड़ा, उन्होंने स्वयं
      चलने की चेष्टा की और धड़ाम से वहीं गिर गए। फिर आरंभ हुआ रोना-सिसकियाँ
      ले-लेकर वह विलाप करने लगे-"भैया, कहाँ हो तुम? देखो न हरामखोर पेशेदारों ने
      मुझे कैसे गिरा दिया है। भैया, भैया हो..." नौकरों ने ही उन्हें सहारा देकर
      उठाया और वह फिर अपनी चोट भूल बड़ी मस्ती से गाने लगे-
      
      पत राखो न राखो तोहार मरजी-ए तोहार मरजी.. ऐसे वातावरण से बाहर निकलने को
      कुमुद छटपटा रहीं थी, किन्तु उसकी विवशता, उसके भाग निकलने के उत्साह को उसी
      क्षण उड़ा देती। यहाँ आने से वह सुखी हो न हो, उसका परिवार निश्चय ही सुखी
      था, माँ के प्रत्येक पत्र में उसके लिए कृतज्ञ आशीर्वादों के साथ, बार-बार
      यही उल्लेख रहता कि उसके वहाँ जाने से उसके परिवार की आर्थिक दशा बाबूजी के
      जीवनकाल की दशा से भी अधिक संतोषजनक हो गई है-
      
      “तूने मुझे जो सुख दिया है कुमु, वह सुख तेरे बाबूजी भी मुझे कभी नहीं दे
      पाए, उनके पास इतनी रकम रहती ही कब थी? फिर एक न एक रिश्तेदार, हमेशा हमारा
      गल ग्रह बना रहा। दुख यही होता है कि आज जब तेरी कमाई ने सब सुख-साधन हमारे
      करतल पर रख दिए हैं तब भोगने को तेरे बाबूजी नहीं हैं..."
      			
						
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