|
नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द) चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)शिवानी
|
278 पाठक हैं |
|||||||
अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
अपनी सरस भूमिका के प्रत्युत्तर की आशा कुमुद को रहती ही कब थी, कभी-कभी अपनी
यह एकांगी, व्यर्थ चाटुकारिता उसे स्वयं उबा देती, पर वह बड़े यत्न से
स्वामिनी की प्रस्तर मूर्ति की जपार्चना में स्तुति-सी करती, उसे अंडा खिलाती
जा रही थी-"कितनी सुन्दर लग रही हैं आज आप! मैंने आज आपका ढीला जूड़ा बनाया
है, नोट किया ना आपने? कल मैं आपके लिए बेले का गजरा बना दूंगी-ऐसे ढीले
जूड़े में ही तो गजरा अच्छा लगता है! वाह, अंडा तो आपने खा लिया, अब यह टोस्ट
खाकर देखिए-कैसा बना है!" कुमुद की मधुर स्मित-रेखा, ओठों से मिटी भी नहीं थी
और वह बड़े दुलार से, उसके मुँह में टोस्ट दे रही थी कि मालती ने लपककर टोस्ट
के साथ-साथ कुमुद की अंगुली पर भी बत्तीसी जमा दी। रोकने पर भी एक चीख उसके
मुँह से निकल ही गई और भागकर राजकमल सिंह अपनी स्टडी से आ गए थे-
“मालती, मालती! क्या कर रही हो! उन्होंने पत्नी को झकझोर कर, अपने चौड़े पंजे
से उसके दोनों कपोल दबा, कुमुद की घायल अँगुली को बड़े कौशल से बाहर खींच
लिया था। अंगुली पर स्पष्ट दंत-क्षत उभर आए थे, कुमुद की आँखों में पीड़ा के
आँसू छलक आए, एक क्षण को उसे लगा था, उसकी अंगुली का सिरा भी टोस्ट के
साथ-साथ स्वामिनी ने उदरस्थ कर लिया है। कुछ क्षणों तक, वह विस्मय-विमूढ़
अवस्था में चित्रार्पित-सी खड़ी रह गई थी। मालती अब भी बुभुक्षित दृष्टि से
उसे देख रही थी। राजकमल सिंह न आते तो, वह शायद उसकी पूरी अंगुली ही
कचर-कचरकर चबा डालती। उस भयावह संभावना ने कुमुद को एक बार फिर आतंकित कर
दिया। उसके अस्फुट कंठ से शायद एक चीख फिर निकल जाती किन्तु उसने अपने को
संयत कर लिया।
कैसी विचित्र पुतलियाँ लग रही थीं मालती की! जैसे दगदगाती हीरे की दो कनियाँ
हों, बार-बार वह अपनी पतली जिला को अपने रक्तवर्णी अधरों पर फेर रही थी, यह
तो नित्य की सौम्य-शांत स्वामिनी नहीं, जैसे भयंकरकारी अग्निशिखा लपटें ले
रही थीं।
उसके आतंकित सफेद चेहरे को देख राजा राजकमल सिंह सहसा उसकी ओर बढ़ आए-"आई एम
एक्सट्रीमली सॉरी," आज से आप इन्हें अपने हाथों से कुछ भी मत खिलाइए, मैं
काशी से कहूँगा, वह इन्हें खिलाया करेगी..." उसकी घायल अँगुली को उन्होंने
हाथ में लेकर देखने की चेष्टा की, किन्तु उसी क्षण उन्मत्त पत्नी की उग्र
दृष्टि उसी अँगुली पर निबद्ध देख, उन्होंने अपने हाथ में धरा वह दुबला-सा हाथ
पत्नी की ओर किया-"देखो क्या कर दिया है तुमने, देखा?"
मालती की अग्निगर्भा दृष्टि देख, सहसा कुमुद ने सहमकर अपना हाथ पीछे खींच
लिया।
मालती ने टोस्ट की प्लेट खींचकर गोद में धर ली और क्षुधातुर पशु की भाँति
कचर-कचरकर, ऐसी उदासीनता से खाने लगी, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
"लीव हर एलोन!" राजकमल सिंह ने फुसफुसाकर कहा-“आप बाहर खड़ी रहिए, मैं आज
स्वयं इन्हें तैयार कर लूँगा।"
वह चुपचाप बाहर आ गई और बाहर धरी कुर्सी पर बैठ गई। हवा के झोंके से हिल रहे
पर्दे की चिलमन से, वह न चाहने पर भी सब कुछ देख पा रही थी। धीमे स्वर में न
जाने किन शब्दों के मोहपाश में पत्नी को बाँधते राजकमल सिंह अनभ्यस्त हाथों
से उसके बाल बना रहे थे, नैपकिन से मुँह पोंछ रहे थे, फिर उतने ही यल से
मालती को एक प्रकार से गोद में ही उठा, उन्होंने कुर्सी पर बिठाया, बिस्तर
लगाया और धीमे अनन्त दुलार-भरे स्वर में जो प्रश्न पूछा, वह पर्दे को चीर
बड़ी प्रखरता से बाहर चला आया- "मेरे कमरे में चलोगी मालती?"
किन्तु मालती प्रस्तरमूर्ति-सी कुर्सी पर ही बैठी रही, पति के मधुर प्रस्ताव
का न उसने अनुमोदन किया, न खंडन ! सहसा धीरे से कमरे के पट बन्द हो गए।
कुमुद को अब वहाँ अपनी उपस्थिति स्वयं अनावश्यक लगने लगी। हो सकता है रूठी
उन्मादिनी सहचरी को वह प्रणय के जंग लगे आयुधों से विजित करना चाह रहे हों।
किन्तु प्रणय का यह नाटक क्या जानबूझकर ही उसकी उपस्थिति में प्रस्तुत कर रहे
थे राजा साहब ? उससे अपने कमरे में जाने को भी तो कह सकते थे, क्या उसे
गृह-परिचारिका की श्रेणी में रख दिया गया था? 'आप बाहर खड़ी रहिए,' यह भी खूब
रही! पागल पत्नी ने अंगुली चबा डाली, उस घायल अँगुली की मरहम-पट्टी तो दूर,
काशी वाली कुर्सी पर उसे बाहर बिठा दिया। सहसा अव्यक्त क्रोध से उसका सर्वांग
दग्ध हो उठा था। यह अपमान नहीं तो और क्या था, उसी के मुँह पर पट से दरवाजा
बन्द कर दिया, यह भी नहीं कहा कि आप अपने कमरे में जाकर आराम करें। उसके जी
में आया, उसी क्षण वह बोरिया-बिस्तर बाँध घर चली जाए। आज की यह दुर्घटना
भविष्य में कभी भी और भयावह रूप ले सकती थी, फिर कटी अँगुली धप धप कर धपक रही
थी। अम्मा कहती थी कि मनुष्य के दाँतों का विष काले नाग के विष-सा ही जहरीला
होता है। घायल अँगुली को हाथ में थामे वह धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरती अपने कमरे
में आ गई। हवेली का वामांग निरंतर दो रातों से ढोलक की थपेड़ों से गूंज रहा
था-
मेरा बन्ना है फूल गुलाब
बन्नी मेरी चम्पाकली
शीश बन्ने के कलंगी सोहे
सेहरे की अजब बहार
बन्नी मेरी चम्पाकली
काशी पता नहीं क्यों उससे चिढ़ती थी, पर दूसरी नौकरानी रामपियारी, प्रायः ही
काम-काज से छुट्टी पा, उसके पास आकर बैठ जाती। उसी ने बताया था कि परसों बड़े
राजा के छुटके भैया का तिलक चढ़ेगा-"पहली रही लखीमपुर की, साल-भर नहीं काटिन,
मुला दहेज कम मिला रहा, जला डारिन कस्साई..." उसने फुसफुसाकर कहा था-"अयसी
जलत रहीं-जयसे भूसा के ढेरी, बाप-महतारी आए तो मटियो नाहीं पाइन-अब दूसरी लाय
रहे हैं, घाखो इनका कौन गत बनी!"
क्या कह रही थी वह! यह सब होता था इस सुदर्शन हवेली में! कहीं फाँसी के फन्दे
से झूलती किसी नारी की देह और कहीं भूसे की ढेरी-सी सिलगती घर की बहू! उसके
जी में कई बार आया था, वह रामपियारी से पूछे कि मरियम की आत्महत्या का रहस्य
क्या था? पूछने में तो कोई दोष, नहीं हो सकता था। आखिर, वह भी तो मरियम का
स्थान ग्रहण करने आई है, पूछ लेगी, तो कम-से-कम उस देहरी पर तो ठोकर नहीं
खाएगी, जिस पर ठोकर खाकर मरियम को प्राण देने पड़े, वह सावधान तो हो सकती थी।
किन्तु तभी उसे अपनी ओछी जिज्ञासा से स्वयं ग्लानि हो आती। उसकी यही जन्मजात
तटस्थता, कभी उसकी मुखरा बहन उमा को बौखला देती थी-"हद हो तुम भी दीदी, कोई
तुमसे बातें करता है, और तुम गुमसुम बनकर पत्थर बन जाती हो!" ठीक ही कहती थी
उमा, ट्रेन की यात्रा हो या बस की, जहाँ चपर-चपर बोलती उमा, पल-भर में उनके
बारे में सब कुछ जान जाती, वहीं पर वह पूरी यात्रा निःशब्द काट लेती। इसी से
हवेली के दाएँ-बाएँ अंग उसके लिए अभी भी पक्षाघात से अवश अंगों से ही अर्थहीन
बने रह गए थे, उस दिन अकस्मात् उस वर्जित परिवार की महिलाओं को न देखती तो
शायद यह भी नहीं जान पाती कि वहाँ कौन रहता है।
|
|||||

i 








_s.jpg)
