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नारी विमर्श >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3745
आईएसबीएन :81-216-0178-9

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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण

पर अचानक, वह अकेली ही मुझसे मिले बिना ट्यूब-टायर बदलवाने चली जाएगी, यह मैंने नहीं सोचा था। यद्यपि मुझे उसके चिर प्रस्थान की शंका होने लगी थी। लम्बे प्रवास के बाद लौटी तो वह खाट पकड़ चुकी थी-कंकाल-सी देह, जैसे कोई दस-बारह साल की बच्ची पड़ी हो। फिर भी चेहरे पर वही स्निग्ध हँसी, “दीदी आई गईन। अब हमका कछु ना होई।"

उसका यह विचित्र विश्वास था कि मेरे रहने पर उसे कुछ नहीं हो सकता। जाएगी तो मेरे न रहने पर। दो बार मैं उसे सचमुच ही मौत के मुँह से खींच लाई थी। एक बार जब वह रक्त-वमन कर अचेत हो गई तो मैं तत्काल एम्बुलैंस में अस्पताल ले गई थी। दूसरी बार जब सम्भवतः उसे पहला दिल का दौरा पड़ा था। “ऐ दीदी, बचाय लो हमें, बड़ा जीव घबड़ा रहा है।" उस दिन भी उसे ईश्वर ने छोड़ ही दिया था। सन्ध्या होते ही वह फिर चैतन्य हो गई, “हम जानत हैं महतारी, जमऊ ससुर आपसे डरात हैं..."

उसकी दृढ़ धारणा थी कि मृत्यु की उत्क्रांति या शक्ति मेरी मुट्ठी में बन्द रहती है-जब चाहूँ यमराज को समझा-बुझाकर वापस भेज सकती हूँ। इसी से जब इस बार लखनऊ छोड़ा तो वह रोने लगी, “ऐ मोर महतारी, हमका छोड़ के न जाओ।"

मैं उसकी निरन्तर गिरती अवस्था को देखकर भी रुक नहीं सकती थी। जिन-जिन लक्षणों के विषय में पढ़ा था, वे स्पष्ट उभर रहे थे। बाईं आँख से निरन्तर पानी गिर रहा था, कानों की लोरियाँ पलट गई थीं, नाक टेढ़ी लगने लगी थी, सिर के बाल साही के काँटे-से खड़े हो गए थे। मैं जान गई कि लौटकर इस स्वामिभक्त सेविका को कभी नहीं देख पाऊँगी। मैं नित्य उसके पास बैठती, उसके सींक-से पैर सहलाती तो वह अर्धचैतन्यावस्था में भी चट से ऊपर खींच लेती। “अब नरक में काहे ढकेलत हो दीदी, हमार गोड़ जिन छुयो...”

मैं जिस दिन उससे अन्तिम विदा लेकर लौटी तो उसने बड़े कष्ट से अपने दोनों हाथ माथे से लगा लिए। एक बार मुड़ी तो देखा, वह करुण, विवश, असहाय अश्रुपूरित दृष्टि से मझे एकटक देख रही है।

जिसने न जाने कितनों की छोटी-मोटी व्याधियाँ दूर की, वह पल-पल मृत्यु से पराजित हो रही थी। उसके जड़ी-बूटियों के ज्ञान की ख्याति दूर-दूर तक थी। आए दिन भीड़ जुटी रहती-कभी बच्चे के दाँत बिठाने, कभी उखड़ी हँसुली, कभी खिसकी नाभि। और कमर की हूक दूर करने में तो उसे विधाता का वरदान प्राप्त था। “हम उलटे जनमे हैं।" वह बड़े गर्व से कहती, “एक लात धर मरीज का दौड़ाय देईं तो कइसनऊ हूक हो, साफ।” वह उपचार वह अपनी भाषा में केवल 'अवतार-मंगल' को ही करती। वह दृश्य भी देखने लायक होता जब कमर थामे, काँखते-कराहते मरीज आते। वह ठाठ से कमर पर लात जमाकर कहती, “जाओ तेजी से भागो!” रोता रोगी हँसता हुआ ही जाता। एक दिन इतवार को बड़ी देर से आई। मरीजों की भीड़ उस दिन कुछ अधिक थी। मैंने फटकारा, “यह क्या ढोंग है, या तो डॉक्टरी ही कर ले या मेरी नौकरी!”

“का करी दीदी, आज कमर थामे एक अकड़बाज थानेदरुआ आबा रहा। पूछत है, 'सुना तुम कमर की हूक ठीक करती हो। हमारी हूक ठीक कर पाओगी?' हम कहिन, ‘ल्यो, बड़े-बड़े डूवी गए, गदहा पूछै कित्ता पानी! कइसन-कइसन ब्रिगेडियरन की, पुलिस कप्तानन की हूक ठीक किए हैं।' हम कहिन, चलो खड़े हो जाओ और अइसन लात धरिन महतारी, कि ओकर सब थानेदारी भुलाये दिहिन!”

अब इस सरस कैफियत के बाद किस मुँह से डाँट सकती थी उसे ? किन्तु जब एक बार मेरी कमर में एक पड़ी तो लाख चिरौरी करने पर भी उसने मेरी कमर पर प्रहार नहीं किया, कान पकड़कर जीभ काटकर बोली, “राम-राम ! हमका मत कहो दीदी। हम मर जाई पर ई काम नाँहि कर सकत!”

खूनी पेचिश, कान-दाढ़ का दर्द, सब टोटके उसके आँचल की गाँठ में बँधे रहते। मेरी सन्तान उसे अपनी सन्तान से प्रिय थी। मेरी बेटियों को बड़ी होते देखा था। उनके विवाह देखे, फिर उनके बच्चे देखे। बन-ठन छोचक की परात सिर पर धरे उनकी ससुराल गई। नेग-निछावर लिया। मेरी सबसे छोटी लड़की के दो जुड़वाँ बेटों में तो उसके प्राण बसे थे। फैजाबाद जाकर उनके साथ महीना-भर रह आई थी। “अरे हम दूनो को बेबी गाड़ी में घुमाबे ले जायें तो भीड़ लग जाये, लोग पूछे, ‘अरी केकर बिटवा हैं री?' हम कहती, ‘राजा रामचन्द केर जुड़िया हैं लव-कुस' !”

अंग्रेजी शब्दों का उसका अपना मौलिक कोश था। वाइस चांसलर को 'वाइस टांटलर', 'ब्लिट्ज' को 'बिलडप्रेशर', फैंटा को ‘एलिफेंटा' और गोर्बाचोव को ‘करवाचौथ' ! एक बार टेलीफोन पर कोई सिरफिरा मुझे बेहद परेशान करने लगा। वह भी रात-आधी रात को। कभी रामरती की लड़कियों के नाम लेता, कभी मुझसे कहता, “लिखना बन्द करो, हम उग्रवादी हैं, तुम्हें खत्म कर देंगे।"

एक दिन रामरती बोली, “महतारी, अब फून आये तो तुम मत उठाना। हम उग्रवादी की खटिया खड़ी करब।" आधी रात को फोन बजा, उसी ने उठाया :

"हैलू, कौन है रे?"
उधर उद्धत स्वर ने पूछा, “शिवानीजी हैं?"
"हाँ हैं।”
“क्या कर रही हैं?”
"तोहार अरथी सजाय रही हैं।"

उसने फिर कुछ कहा तो वह जोर से गरजी, “यू ब्लाडी बास्टर्ड!” और फोन रख मेरी ओर बड़े गर्व से मुस्कुराकर बोली, “अपने ससुर से सीखी रहिन ये गाली। अंग्रेजन के खानसामा रहे हमार ससुर। अंग्रेजी समझत होई तो अब चुप्पै रहब सरऊ!” उसके ससुर से सीखी वह गाली बड़ी अचूक निकली। फिर उस सिरफिरे ने कभी परेशान नहीं किया।

उसकी मासूम सरलता की एक मार्मिक घटना मैं कभी नहीं भूलती। मैं अपने पति की क्रिया कर हरिद्वार से लौटी तो अपना ही घर मुझे बियाबान लग रहा था। नींद नहीं आ रही थी। मैं बरामदे में कुर्सी डालकर बैठी थी। सहसा पालतू बिल्ली-सी वह मेरे घुटनों से कपोल सटाकर बैठ गई, “जान्यो दीदी, आप नहीं रहीं तो साहेब रोज आवत रहें..."

मैं चौंकी, “क्या बक रही है, रामरती?"

“यकीन मानो दीदी, रोज संझा को आएँ और आपके कमरे के दरवज्जे पर उचककर बैठ जाएँ।”

फिर बताने लगी कि नित्य सन्ध्या को एक चिड्डा लगातार दस दिनों तक चुपचाप दरवाजे पर बैठ जाता और टुकुर-टुकुर देखता रहता। न संग में गौरैया न कोई चिड्डा। “रात होती तो हम दिया जलाकर देहरी पर रख आती, फिर हाथ जोड़कर कहती, 'साहेब, अब बड़ी अबेर हुई गई, अब लौटा जाई।' बस, फर्र से चिड्डा उड़ जाता।"

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