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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


दोनों मामा पर्दा खोलकर बाहर निकले।

"कौन?" देवेन्द्र ने ही आगे बढ़कर पूछा।

कोई बिना बुलाया, पहाड़ी भाषा में "भूरिया" शब्द से अलंकृत अनचाहा पाहुना ही आ टपका था शायद-कई दिनों की बिना घुटी दाढ़ी के। सुनहले प्ररोहों को उँगलियों से मरोड़ता वह हँसकर खड़ा हो गया।

मैले पीले दाँतों पर जमी काई, टूटी कमानी का डोरी से अटकाया गया चश्मा, पांडुजीर्ण धोती पर उतना ही मैला गवरुन का कोट, पैरों में पल्टनी बूट और सिर पर ललाट को बड़े फूहड़ ढंग से ढाँकती नाक के सिरे पर झुक आई टोपी।

“कौन हैं आप, किससे मिलना है? क्षमा करें, पहचान नहीं रहा हूँ आपको।"

पर्दे की कोर थामे भीतर खड़ी एक अन्नपूर्णा को ही वह चेहरा कुछ-कुछ पहचाना लग रहा था। कहीं देखा है। इसे अवश्य ही देखा है-वह सोच रही थी।

“लो, पूछते हैं, हम कौन है! क्यों साले साहब, सचमुच ही नहीं पहचान रहे हो हमें या बन रहे हो? तुम तो यार, जस के तस धरे हो-न दाँत ही टूटे, न बाल ही पके हैं तुम्हारे। एक हम हैं साले, सामने के तीन दाँत, एक दिन रोटी के साथ-साथ बाहर निकल आए।" जेब में दोनों हाथ डाल वह फिर बड़ी बेहयाई से मुस्कराने लगा।

देवेन्द्र का सिर चकरा गया। उसे लगा, वह अब जेब से तीनों टूटे दाँत निकालकर उसके सामने रख देगा, “अब पहचाना हम कौन हैं? बिना कन्या के पिता के ही कन्यादान करने का इरादा था क्या ब्रदर? अच्छा, अब ये बताओ, हमारी वैफ कहाँ है-'वैफ'?"

महेन्द्र तब तक छोटे भाई के पीछे आकर खड़ा हो गया था, "सुनिए आप जो भी हों, फूटिए यहाँ से। फूट लीजिए जल्दी-आपकी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की?"

उग्रतेजी भाई का हाथ दबाकर देवेन्द्र ने उसके कान के पास मुँह सटाकर कहा, “इस निर्लज्ज व्यक्ति को जिह्वा से नहीं, विवेक से परास्त करना होगा दद्दा, मालोज का पंत है, इसे तू चरा नहीं सकता, कुछ मत बोल, यह तूफान खड़ा कर सकता है।

"आत्मीय स्वजनों में आए ही कितने थे, उनकी चिंता देवेन्द्र को नहीं थी, चिन्ता थी मातहतों की। उनसे तो आज घर भरा था, आधे दर्जन तो थानेदार ही हाथ बाँधे घूम रहे थे।

"देखिए, आप कृपा कर पिता होकर पुत्री के विवाह में विघ्न मत डालिए!" देवेन्द्र ने दोनों हाथ जोड़कर उससे विनती की और दोनों घुटने टेक जमीन पर ही बैठ गया।

"अच्छा, तो भगा रहे हो हमें। हम भी देखते हैं कि किस साले की छाती में इत्ते बाल हैं जो हमें यहाँ से हटा दे!" अपने फटे दोनों बूट, उसने बड़ी जिद्दी अकड़ से, देवेन्द्र के दामी गलीचे पर अड़ा दिए, “हमें अंगद समझो साले साहब, अंगद! पन्त हैं, वह भी मालोंज के, पहाड़ी होकर इतना तो जानते ही होगे कि पंती अकड़ किसे कहते हैं-यही तो दुख है ब्रदर, तुमने तो हमारे खानदान की नाक ही कटवा दी। न जाने कहाँ के जोशियों से सम्बन्ध जोड़ रहे हो-क्यों ब्रदर, गर्म चाय मँगवा रहे हो न-वैसे उससे भी गरम कुछ मिल जाए तो क्या कहने! तुम लोग तो यार, बिलेती-उलैती पीते होगे-पसलियों में पहाड़ की ठंड जमी है अभी..."

महेन्द्र भाई को हाथ खींचकर भीतर ले गया, “इससे ऐसे छुट्टी नहीं मिलेगी रे देवी-यह तो द्वारे आई बारात लौटा देगा।"

"क्या करूँ-इतने वर्षों में आज ही आना था इसे!"

“घबड़ा मत देबी, साले को थाने में बन्द करवा दें-बारात तो कल सुबह ही विदा हो जाएगी-फिर छुड़वा देना।"

“कैसी बातें कर रहे हो दद्दा!” देवेन्द्र ने आश्चर्य से उसे देखा, “थाने में उसे बन्द करवाने पर भी उसका मुँह क्या बन्द करवा पाओगे? वह तो पूरे थाने के सामने मुझे नंगा कर देगा। कैसी बदनामी होगी कि लड़की के बाप को मामा ने थाने में बेकसूर ही बन्द करवा दिया-वैसे ही आजकल हम मठा भी फूंक-फूंककर पी रहे हैं दद्दा..."

बात ठीक ही कही थी देवेन्द्र ने। आकस्मिक सत्ता परिवर्तन ने उस जैसे कई उच्च पदस्थ अफसरों की हुलिया ही बदल दी थी। जो कल तक शिवकंठ के मुँहलगे भुजंग बने इठला रहे थे, उन्हें अब सत्ताधारी नवीन नेवले नोंच-नोंचकर, सड़कों पर पटक रहे थे-देवेन्द्र भी अतीत की सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रिय जम्बूरों में से एक था। डमरू बजाता सत्ताधारी मदारी कहता, 'जम्बूरे, लेट जा' तो वह फौरन लेट जाता। उसके चादर से ढके निष्प्राण लग रहे शरीर पर मदारी धप्प से छुरी घोंप लाल रोशनाई की भ्रामक रक्तधार बहाकर पूछता-"क्यों बे, मर गया?"

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