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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


"और तू? तेरा पति भी तो तुझे छोड़ गया है, क्यों? वैसे वह तेरा पति नहीं बन पाया था-छोकरी, तूने अपने पैरों पर खुद ही 'कुल्हाड़ी मारी है, अब क्यों आई है यहाँ?"

सरोज विस्फारित दृष्टि से एकटक बाबा को देख रही थी! कालिंदी को उस मर्मभेदी दृष्टि का तेज सहसा असह्य लगने लगा-यह कैसा अन्तर्यामी अवधूत था? कहीं सरोज ने पहले कभी आकर उसकी गोपनीय फाइल तो उसे नहीं थमा दी थी? पर वह तो पहले ही उसे बता चुकी थी कि उसने कभी पहले उनके दर्शन नहीं किए, उनकी सिद्धि की चर्चा ही सुनी है। कैसा अद्भुत सम्मोहन था उस हिप्नोटिक दृष्टि में! चाहने पर भी वह पलटकर भाग नहीं पा रही थी। क्या किसी अदृश्य कीलक से गाड़ दिया था उसे?

वह मामा से सुन चुकी थी कि यह भूमि योगियों के अधिवास के रूप में चिरकाल से प्रसिद्ध रही है। तन्त्र-मन्त्र, जादू-टोनों तथा आचार-अभिचारों में यहाँ के योगियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। एटकिंसन जैसे विदेशी सुशिक्षित व्यक्ति ने भी स्वीकार किया है कि पूरा कुमाऊँ ही ऐसे अनेकानेक रहस्यों से भरा है, जिनकी विज्ञान भी कोई व्याख्या नहीं कर सकता। कुमाऊँ का पूरा गजेटियर ही तो उसने चाटा है। 'विचक्राफ्ट इन कुमाऊँ' पढ़कर वह यही सब तो अपनी आँखों से देखना चाह रही थी, आज देखकर वह स्तब्ध थी-निर्वाक् ! दक्षिण गढ़वाल की धौला ओडयारी गुफा, जहाँ स्वयं गुरु गोरखनाथ ने तपस्या की, कजरीवन जिसे गजेटियर ने सिद्धों का आवास बताया है, बूढ़ा केदार जहाँ नाथों की समाधियाँ बनी हैं, सब घूम-घूमकर देखना चाहती थी वह, पर आज इस रहस्यमयी गुफा में पहुँचकर उसे लग रहा था, भले ही आज उन सिद्धों की सिद्धि अपने विशिष्ट रूप में लुप्त हो चुकी हो, उसके अवशेष अभी भी विद्यमान हैं।

"इधर बैठो।" अवधूत ने गरजकर कहा तो दोनों सहमकर एक साथ बैठ गईं।

धूनी से चुटकी-भर भभूत उठाकर बाबा ने दोनों के ललाट पर ऐसे दाबी कि लगा, किसी अदृश्य स्क्रू ड्राइवर से छेद कर, सीधे भेजे में पहुँचा दी है। फिर दोनों आँखें ऐसे ऊपर चढ़ा लीं कि पुतलियाँ अदृश्य हो गईं। भारी आवाज म वह बुदबुदान लगा:

“ॐ शरणागत नमो नमः
पाँच पड़ी छठा नरैणा
कौरों की कौरूला, पर्वत की ह्यूँगला
बासुकी नागलोक की माता
शरणागत नमो नमः!"

फिर चील का-सा झपट्टा मार, उसने दोनों के बाल एक साथ मुट्ठी में बाँध ऐसे जकड़ लिये कि पल भर में, यदि दोनों अपने हाथ जमीन पर न अड़ा लेती तो शायद एक साथ, या तो बाबा की गोद में भरभराकर गिर पड़ती या जलती धूनी में। पर अवधूत तो जैसे बहुत दूर किसी अन्य ही लोक में चला गया था-बालों की पकड़ क्रमशः और मजबूत होती जा रही थी, जैसे कोई जड़ से ही उखाड़े जा रहा हो-धूनी की जलती लकड़ी का प्रकाश भी सहसा बुझ गया-केवल दहकते अंगारों का ही धुंधला प्रकाश गहन अन्धकार से जूझ रहा था। अवधूत का स्वर कभी ऊँचा होता, कभी क्षीण होकर बुदबुदाहट में खो जाता :

"सात धारों की साँक्री करै
झारझरादाँ बूटे की छैल करै
उल्लू की आँख करै
सिटौले की पाँख करै
काँणा बल्द को गोबर करै
जो बैरी करै सो बैरी मरे
जो जसा जले, तिल जसा गले
जैका बाँण होला
ते की खान

“जा भाग-तेरे शत्रु का बाण ही तेरे शत्रु का संहार करेगा!

"भाग-भाग, पीछे मुड़कर मत देखना, कोई कुछ पूछे तो उत्तर मत
देना..." और फिर उस बलिष्ठ हाथ के धक्के ने दोनों को एक साथ बाहर पटक दिया था। एक दूसरे का हाथ पकड़े वे फिर बिना मुड़े, विना बोले हाँफती-काँपती सड़क पर ही आकर रुकी थीं।

"कैसे घर पहुंचेंगे दीदी!" सरोज का रुआँसा स्वर सुन कालिंदी को गुस्सा आ गया, कैसी डरपोक लड़की है यह! जब देखो तब सामान्य-सी विपत्ति की आशंका से ही थरथराकर हथियार डाल देती है।

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