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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


“पाटिया, कसून, पिलिख, भैंसोडी, अनूप शहर-सब जगह हमारे इसी पांडे वंश की शाखाएँ तो अब भी फैली हैं-तब ही तो बाबू कहते हैं..." वह फिर अधूरा ही वाक्य छोड़ चुप हो गई।

"क्या कहते हैं?"

"कुछ नहीं।"

"बता ना सरोज, मुझे यह सब सुनना बड़ा अच्छा लग रहा है।"

“कहते हैं, हमारे पुरखों ने कभी पत्थर फोड़कर, पाषाणभेदी जलधार बहाई है, राजा भगीरथ की तरह और आज हमारा ही अनाचार हम ब्राह्मणों के ब्रह्मतेज को सुखा गया है। नहीं तो श्रीवल्लभ के कुल की निरपराध कन्या को क्या ऐसे कोई मायके में पटक जाता है?"

"क्यों, क्या अनाचार किया है तुमने?"

“बाबू कहते हैं, न अब कोई सूतक (अशौच) मानता है, न 'नातक' (शिशु जन्म की छूत)। अभी मेरे कक्का खतम हुए, उनके बेटों ने बाल भी नहीं उतरवाए-बस, कलम छाँट लीं-उधर बाबू ने, उनके मरने के पूरे दस दिन बाद तक हमें न कपड़े बदलने दिए, न सिर में तेल ही डालने दिया। मैं तो चुप रही पर छोटी कभी रह सकती है-कहने लगी, कक्का के दोनों बेटे तो कल जुल्फें फटकारकर वेदा के होटल में प्याज की पकौड़ियाँ भसका रहे थे-तुम बस हमें ही दबाते हो, उनसे कुछ क्यों नहीं कहते?

"चुप कर!-बाबू ने उसे वहीं चीरकर धर दिया था, उनकी करनी उनके साथ, हमारी हमारे साथ।"

"दीदी, एक बात पूछू?"

"पूछ ना!"

“सच बताना दीदी, तुम जादू-टोने में विश्वास करती हो?"

"कैसा जादू-टोना?"

सरोज का चेहरा एक पल को लाल पड़ गया-फिर सिर झुकाकर वह कहने लगी, “सुना है, चितई के मन्दिर की किसी गुफा में एक कनफटा सिद्ध आए हैं, मन की बात बिना कहे ही जानकर सब मुरादें पूरी कर देते

"ओह, तेरी मुराद क्या है री? जहाँ से पटकी गई है वहीं लौट फिर पटके जाने की?"

उसने कुछ उत्तर नहीं दिया।

"छि:-छिः, सरोज, कौन कहेगा-तू पढ़ी-लिखी है? मेरा किसी ने ऐसा अपमान किया होता तो मैं वहाँ कभी थूकने भी नहीं जाती।"

"तुमने तो अपने दूल्हे को देखा भी नहीं है दीदी, पर मैंने तो उन्हें देखा है ना!"

"मूर्ख है तू सरोज! ऐसा ही था तो वह आज तक तुझे लिवाने क्यों नहीं आया? तो चली जा न उस सिद्ध के पास-जाती क्यों नहीं? क्या पता, वशीकरण, उच्चाटन से तेरे पति को तेरे पास खींच ही लाए!" उसके स्वर का व्यंग्य सहसा सरोज को तिलमिला गया।

"कैसे जाऊँ अकेली? सुना है, मन्दिर के पिछवाड़े किसी धर्मशाला के खंडहर में धूनी रमाकर बैठते हैं-भाग्य अच्छा हो तो मिलते हैं, नहीं तो लाख सिर पटकने पर भी दर्शन नहीं देते। तुम चलोगी दीदी-तुम्हारे गुण जीवन-भर नहीं भूलूंगी!” उसने गिड़गिड़ाकर कालिंदी के दोनों पैर पकड़ लिए।

“अरी पगली-करती क्या है? अच्छा, जा, मैं चलूँगी तेरे साथ-ऐसे भंड साधु बाबाओं से मैं नहीं डरती।"

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