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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


"क्यों जी, ऐसे क्या देख रही हो? खाओगी क्या? आज तो खूब होश में हो, क्यों?" फिर उसने व्यंग्यात्मक हँसी से उसे छेदकर एक रोटी ऐसे थमाई, जैसे दीन-भिक्षुक की झोली में बड़ी अनिच्छा से अपने मुख का ग्रास डाल रही हो, किन्तु चन्दन की क्षुधा के विकराल सर्वभक्षी रूप के सम्मुख आत्मसम्मान किसी कायर मित्र की ही भाँति दुबककर अदृश्य हो गया था। उसने लपककर रोटी थाम ली।

"लगता है, चटोरी चरन ने तुम्हें कुछ नहीं खिलाया।" वह कहने लगी, "अपने को तो जब देखो तब, कुछ-न-कुछ चरती रहती है, यहाँ पेट नहीं भरा तो भागती है उस गोपलिया की दुकान पर।"

सब रोटियाँ खाकर, माया ने रूमाल हिला-हिलाकर रोटियों का चूरा हथेली पर रखा और फाँक गई, फिर विलम्बित लय में दो प्रभावशाली डकार लेकर चरन को पुकारा।

"ऐ चरन, चल इधर, एक पल बैठ नहीं सकती क्या? जब देखो तब चौके में। अब क्या फाँक रही है वहाँ?"

चरन उसी अबाध्य मुद्रा में मुँह फुलाए खड़ी हो गई। “सुन!" माया दीदी खड़ी हुईं कि उनका आश्चर्यजनक रूप से लम्बा मर्दाना कद और गढ़न देखकर चन्दन अवाक रह गई। रात के गहन अन्धकार में बेहोशी की अटपटी चेतना में जो वैष्णवी उसे महाकुत्सित लगी थी-वह क्या यही थी? क्या दिन के उजाले ने उस पर सहसा जादू की डंडी फेर दी थी? शान्त स्निग्ध दृष्टि, साँवला होने पर भी सलोना चेहरा, जैसे ताँबे का खूब घिसा-मँजा लाल-लाल चमकता किसी मन्दिर का कलश हो। उठे कपोलों पर निरन्तर चबाए जा रहे बँगला पान की नशीली रक्तिम आभा, नुकीली ठोड़ी पर तीन-तीन बुंदकियों में खुदा गोदना और माथे पर उससे मेल खाती एक नीलाभ लम्बोतरी बिन्दी, जो प्रशस्त चमकते ललाट को समान भाग में विभक्त करती माँग को स्पर्श कर रही थी। उसी के नीचे रक्त-चन्दन का टीका। शरीर भरा-भरा था, जो वयस के वार्धक्य से शिथिल होकर कहीं-कहीं सामान्य परतों में झूलने भी लगा था, किन्तु चेहरे की दीप्ति ने जैसे बढ़ती वयस की स्पष्ट पदचाप सुनकर भी अनसुनी कर दी थी। आँखों में काजल की मोटी रेखा। मोटी गठनवाले विलासी अधरों से उठता खुशबूदार जर्दे का भभका। रुद्राक्ष के बीच-बीच गूंथे एक रंगीन मनकों के दाने। परिपाटी से सँवारा गया जटाजूट का जूड़ा और उसमें लगा धतूरे का पुष्प। सब मानो उसके विराग के रेगिस्तान में यत्न से बनाए गए नखलिस्तान थे। वह चेहरा यौवनकाल में निश्चय ही किसी भी प्रणयी पुरुष को रिझा लेता होगा। चेहरे में सबसे बड़ा आकर्षण था लाल डोरीदार रसीली आँखों का! एक बार उन आँखों से आँखें चार होने पर कोई भी सहज ही आँखें फेर नहीं सकता था।

“खबरदार!" चरन ने चन्दन को बाद में सावधान भी कर दिया, “कभी भी माया दीदी की आँखों की ओर देखकर किसी चीज के लिए हाँ मत कहना। वह तो सिद्धयोगिनी है, आँखों ही के भाले से सबको छेदकर रख सकती है।"

सचमुच ऐसा ही व्यक्तित्व था माया का। जैसे चौंसठ योगनियों के मन्दिरों की आत्मा ही स्वयं साकार होकर उस अरण्य से अवतरित हो गई थीं। तान्त्रिकों की शक्ति हो, विद्या-अविद्या, ज्ञान-अज्ञान, योग एवं भोग को मुट्ठी में बन्द कर पल-पल में अपनी यौगिक बाजीगरी से चन्दन को छलने लगी। कभी उन सरल आँखों में वात्सल्य छलक उठता, कभी छलकने लगती असीम करुणा, पर दूसरे ही पल वही स्निग्ध चेहरा कठोर बन उठता। चरन की ओर वह शित्रूल तानकर डाकिनी, शाकिनी का रूप धारण कर खड़ी हो उठती। आँखों से ऐसे अग्निबाण छूटते कि लगता अभागी चरन भस्म हो जाएगी। उसी क्रोध की लपटों पर पानी उँड़ेल देती थी अवधूत स्वामी की आकस्मिक उपस्थिति। जादू की छड़ी फेरकर वह उसे किशोरी बना देता तो चन्दन को अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं होता। वह क्या स्वप्न देख रही होगी? कहाँ गई वह क्रोध की लपटों से वीभत्स बनी झुलसी प्रौढा? यही तो था योगिनी का सच्चा रूप। कभी सुर-सुन्दरी नायिका और कभी पार्वती मातृ-स्वरूपा गौरी। यही तो है सिद्धयोगिनी की तान्त्रिक विजय। नंगे अवधूत की सच्ची सहचरी, महामाया, महाविद्या, धूनी-धूम्र से अवरुद्ध अवसन्न मसकान। न वह ज्ञान की उपासिका थी, न वेद की। संसार की माया उस योगिनी के लिए मृग-मरीचिका थी, कल्प-विकल्प के जाल में वह उलझती ही कब थी! आकाश गगन, सिद्धकुल कन्यासाधना, कुंडलिनी-जागरण, षटचक्र, काया-साधन, सबके बाघ मारकर अब वह बाघम्बर पर बैठ चकी थी, किन्तु जीवन का सबसे बड़ा दुःख तो छाती पर शिला बनकर रात-दिन उसे धरातल में धंसा रहा था। गुरु थे सिद्धामृत मार्ग के अनुयायी। तृषाक्रान्ता सिद्धयोगिनी अमृत-वारुणी के स्वर्ग-कलश को दूर से ही निहार सकती थी. निकट आकर स्पर्श कर भी लेती तो स्वामी के तेज से भस्मीभूत हो जाती-यह चन्दन बहुत दिनों बाद जान पाई।

चरन को ताजी चिलम लाने का आदेश देकर माया दीदी दीवार का सहारा लेकर बैठ गई, “वाह, खासा चेहरा पाया है तुमने।" वह बोली, “पर देखो. बात साफ कहनी ही हमें पसन्द है। यह है अघोरी गुरु का आश्रम! दस तरह के औघड़ अवधूत जुटते रहते हैं। ऐसी दहकती आँच में भला हम घी रख सकती हैं!” फिर माया दीदी की अर्धोन्मीलित दृष्टि, एक क्षीण रेखा में खो गई।

“यहाँ, हम ऐसी रूपवती भैरवी को भला कैसे रख पाएँगी? इस अभागी चरन को ही दूसरे अखाड़े में भेजने का प्रबन्ध कर रही थी, दूसरी मुसीबत तुम आ गईं।" उसका स्वर अचानक एक रुष्ट झंकार से झंकृत हो उठा। पल-भर चुप रहकर, वह फिर से जर्दे का पीक गुलगुलाती कहने लगी, "हम दोनों प्रानी दिन-रात तंत्र-मंत्र की सिद्धियों में मसान में भटकते हैं।" मसान का उल्लेख करते ही उस कपालकुंडला का पूरा चेहरा बदल गया। रुक्ष स्वर अत्यन्त मधुर बनता कोमल गन्धार को छूने लगा।

"चलने-फिरने लगोगी तो तुम्हें अपनी गुरु-बहन के अखाड़े में पहुँचा दूँगी। कहीं चिट्ठी-पत्री या तार भेजकर किसी को बुलाना चाहो तो वैसा प्रबन्ध भी हो जाएगा।"

पर किसे बुलाएगी वह-किसे?

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