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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


"तुमने मुझे कुछ कहने का अवसर ही कब दिया?" इस बार चन्दन हँसी। सच ही तो कह रही थी वह। बकर-बकर करती हुई यह मुखरा लड़की चप ही कहाँ हुई थी? “क्या नाम है तुम्हारा?" चन्दन ने ही फिर पूछा।

"चरन, चरनदासी, और तुम्हारा?" उसकी मोहक हँसी पलभर में उसके दुबते काले व्यक्तित्व को सम्हाल लेती थी। मोटे अधरों पर थिरकती मधुर हँसी का मोहक माधुर्य तीखी नाक के रास्ते चढ़कर उन बड़ी कर्णचुम्बी आँखों में काजल की सुरमा-रेखा बनकर सँवर जाता।

"चन्दन।"

“वाह, कैसा मेल खाता है तुम्हारी देह के रंग से! इतनी गोरी कैसे हो जी तुम? माँ-बाप में से कोई अंग्रेज था क्या?"

“क्यों?" चन्दन को हँसी आ गई, उसके सरल प्रश्न को सुनकर वह क्षण-भर को पीठ की व्यथा को भी भूल गई।

“एक बार माया दीदी अपने पुराने अखाड़े के लोगों से मिलने नैमिषारण्य गई थीं, हम भी साथ थीं। वहाँ सीतापुर के एक गार्ड बाबू अपनी पगली बिटिया को भभूती लगवाने लाते थे। एकदम तुम-सी. ही गोरी थी। वह गार्ड बाबू थे निखालिस साहब, मेम थी काली-कलूटी और बिटिया ऐसी गोरी-चिट्टी कि छुओ तो दाग लग जाए। चलूँ, अब कहीं माया दीदी आ गईं तो बहुत बिगड़ेंगी।" वह आँचल को कमर से लपेटती चली गई।

चन्दन एक बार फिर अकेली रह गई। उसके जी में आ रहा था कि वह एक बार फिर अपनी अचेतन अवस्था में डूब जाए। एक अज्ञात भय की सिहरन रह-रहकर उसे कँपा रही थी। वह भागना भी चाहेगी तो कैसे भाग पाएगी? चारों ओर गहन वन, सम्मुख बाँहें पसारे शिवपुकुर का महाश्मशान, अनजान परिवेश, विचित्र संगी-साथी। और फिर इस पंगु अवस्था में पलायन कैसे सम्भव होगा? उसने पलंग की पाटी का सहारा लेकर उठने की चेष्टा की। दो कदम चलने पर ही पैर डगमगाने लगे। वह पलंग पर बैठकर हाँफने लगी; लेकिन इस बात की खुशी हुई कि पीठ की हड्डी निश्चय ही नहीं टूटी है। यदि टूटी होती तो वह क्या सतर चाल से ये चन्द डग भी भर पाती? वह एक बार फिर खड़ी हुई। इस बार दीवार का सहारा लेकर वह द्वार तक चली गई। बड़े आत्मविश्वास से, सधे कदम रखती वह पलंग पर लौट आई। पीठ में दर्द अभी था, पर हड्डी में इस बार वैसी असह्य शूल वेदना नहीं उठी। कुछ दिनों तक एकान्त में ऐसी ही चहलकदमी करती वह निश्चय ही अपनी मांसपेशियों की खोई हुई शक्ति फिर पा लेगी। इस सुखद अनुभूति से पुलकित होकर वह एक बार फिर लेट गई।

अचानक उसकी दृष्टि एक कोने में गैरिक कथरी से बँधी टोकरी पर पड़ी। टोकरी का ढक्कन जैसे किसी जादुई चमत्कार से हिलता-डुलता, क्रमशः हवा में ऊपर उठता जा रहा था। सहसा एक अदृश्य झटके से ढक्कन नीचे गिर गया और कथरी की शिथिल गाँठों को ठेलकर खोलता, एक काला चमकता नाग फन फैलाता, फूत्कार छोड़ता अपनी चिरी हुई जीभ लपलपाने लगा।

चन्दन थर-थर काँपती सर्वथा अवश पड़ी रही। कुंडली खोलता विषधर भयावह रूप से फन फैलाए झूमने लगा। इस बार चन्दन अपनी चीख नहीं रोक पाई। उसी चीख को सुनकर एक मूर्ति द्वार पर आकर खड़ी हो गई।

“क्या बात है?" अंग्रेजी में पूछे गए प्रश्न को सुनकर वह चौंक उठी। सारी देह पर भस्म, कंधे तक फैली, उलझी कुछ सुनहली कुछ भूरी जटाएँ, आरक्त चक्षु और नग्न देह।

"चीख क्यों रही थीं?" इस बार प्रश्न का उत्तर दिया, स्वयं क्रुद्ध विषधर की फूत्कार ने-

"ओह!" वह उदासीन सहसा ठठाकर हँसने लगा। कैसी अद्भुत हँसी थी, जैसे किसी ने ऊँची पर्वत-श्रेणी से बहुत बड़ी शिला नीचे लुढ़का दी हो। "भोले के कंठहार ने डरा दिया लगता है, क्यों?"

फिर वह लम्बी-लम्बी डगें भरता उसी पिटारी की ओर बढ़ गया। अब मानो वह चन्दन की उपस्थिति भी भूल गया।

“खाना माँग रहा है मेरा बेटा? लगता है, चटोरी चरन आज इसके हिस्से का सब दूध पी गई, बेटे का काँसे का कटोरा तो रीता पड़ा है। यही नालिश कर रहा है न?" चन्दन का कलेजा धक्-धक् कर उठा। काँसे के कटोरे का दूध तो चरन ने नहीं, उसी ने पिया था।

“आने दे चरन को।" वह कह रहा था, “आज उसकी नीली देह को डसकर और भी नीली कर देना अच्छा?" फिर उसे टोकरी से उठाकर अपनी नग्न छाती पर लगाकर ऐसे दुलारने लगा, जैसे वह सचमुच ही उसका लाड़ला बेटा हो। मूक नालिश करते नागराज को अब उसने अपनी ग्रीवा में लपेट लिया और कभी स्नेहपूर्ण आश्वासन से विचित्र कंठहार सहलाता, वह बाहर चला गया।

"अभी बताशा डालकर दूध पिलाऊँगा अपने बेटे को।"

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