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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


रामप्यारी सहसा उदास हो गई। हाय रे भाग्य! रूप के उस रसिक गुणी जौहरी का ऐसा पतन! रूप की हाट का सौदागर, क्या अन्त में गँधाते तिब्बती ऊन-गलीचे-थुल्मों का सौदागर बन गया! एक बार उसने अनुसन्धानी दृष्टि से राजराजेश्वरी को फिर से देखा।

कैसी मूर्खा थी वह!

पहली ही झलक में प्रेमी की पुत्री को क्यों नहीं पहचान सकी? हू-ब-हू वही नक्शा और बोली में भी वैसी ही सामान्य-सी हकलाहट!

कहाँ वह उसे देखते ही अपने सुदर्शन पुत्र की वधू बनाने का फैसला करने जा रही थी। अब तो ऐसा सम्बन्ध सोचने में भी पाप लगेगा। पर उसके सोचने, न सोचने से क्या होता, विधाता ने तो पंच-शर को बिना सोचे-समझे ही पूरी कुमुक के साथ मोर्चाबन्दी पर बैठा दिया था। निशाने में अचूक वह सेनापति क्या फिर चूक सकता था? राजराजेश्वरी नित्य ही स्कूल से लुक-छिपकर आने लगी। अब सखी से भी अधिक प्रिय उसे सखी का भाई था! सजीला कुन्दनसिंह उन दिनों छुट्टियों में घर आया था, कभी तीनों ताश खेलते, कभी पिकनिक पर निकल जाते। रामप्यारी संदिग्ध दृष्टि से विवश-सी उन्हें खिड़की से देखती और एक कुटिल मुस्कान उसके सुन्दर चेहरे को विकृत बना देती। घूमने का क्षेत्र प्रायः संकुचित ही रहता, कभी बड़ी-सी कोठी की व्यर्थ परिक्रमा, जिसमें जान-बूझकर ही सुन्दरी समझदार बहन पिछड़ जाती और उसकी प्रतीक्षा में वे एक लगभग शुष्क जलकुंड में दोनों पैर लटकाकर बैठे बतियाते रहते। बाहर घूमने का प्रश्न ही नहीं उठता था, अलमोड़ा का क्षेत्रफल तब और भी सीमित था, स्वयं अपने यौवनकाल में मनमानी कुरंगी छलाँगें ले चुके रसिक शंकालु बुजुर्ग, एक साथ दस जोड़ी आँखें लिए इधर-उधर घूमते रहते।

रामप्यारी जान-बूझकर ढील देने लगी थी। बेटा यदि उच्च ब्राह्मण कुल की लड़की ले आए तो क्या दोष था? ऐसी बहू निश्चय ही उसके लिए तिलपात्र-सी महत्त्वपूर्ण हो सकती थी। फिर उस ब्राह्मण के बच्चे को सबक भी मिल जाएगा, जो सुन्दरी पत्नी का विधु-मुख देखते ही अपने शिखासूत्र का झोला-थैला बटोर उसके रूप यौवन की रत्नगर्भा मंजूषा को निर्ममता से लतियाकर चला था!

उधर प्रेमीयुगल भविष्य की सम्पूर्ण बचकानी योजनाओं को लिपिबद्ध कर चुका था। एक वर्ष ही में कुन्दन नौकरी पा जाएगा। केवल उसी छोटी-सी अवधि तक राजराजेश्वरी को बड़े धैर्य से पिता के कठोर चक्रव्यूह से जूझना होगा, पर इसी बीच, एक दिन चक्रव्यूह की कठिन मोर्चाबन्दी का आभास पाकर वह छटपटाती, कुन्दन के पास भाग आई। पानी की उसी सूखी डिग्गी के पास उसने अपने कोमल बाहुपाश में तरुण प्रेमी को बाँध लिया। पिता ने उसका विवाह ही नहीं, विवाह-तिथि भी निश्चित कर दी थी। उन्हें पता नहीं कैसे अपनी भोली पुत्री की प्रणय-गाथा का आभास हो गया था। कुमाऊँ के ब्राह्मण की बेटी एक क्षत्रिय को वरे और वह क्षत्रिय वर भी उनकी बाजारू प्रेमिका का पुत्र हो, ऐसा होने से पहले वह ब्राह्मण निर्विकार चित्त से, इकलौती प्राणाधिका पुत्री को गोली से उड़ा सकता था। पर उड़ती चिड़िया को पहचाननेवाले उस दुनियादार व्यक्ति से भी न जाने कहाँ चूक हो गई! ऊँची खिड़की से कूदकर जंगली बिल्ली-सी राजराजेश्वरी भाग खड़ी हुई और साहसी प्रेमी की बाँहों में खो गई।

अविवेकी किशोर के पास न अनुभव था, न आगा-पीछा सोचने का समय। उसके बाद की कहानी यन्त्रणा और केवल यन्त्रणा की ही कहानी थी। राजराजेश्वरी के पिता ने लाल कुआँ के स्टेशन पर भगोड़े प्रेमियों को पकड़ लिया। कुन्दन को शायद वह सचमुच ही गोली से उड़ा देते। क्रोध किसी बावरे भूत की भाँति उनके सिर पर चढ़ आया था; लेकिन कुन्दन जापानी जुजुत्सु का-सा घिस्सा देकर भाग गया और मालगाड़ी में लदे गन्ने के ढेर के नीचे दुबक गया। रह गई काँपती-थरथराती राजराजेश्वरी, जिसे प्रेम के सुनहले सिंहासन से, बाल पकड़कर कसाई की भाँति घसीटते हुए महिम तिवारी घर ले आए। स्कूल छुड़ाकर उसे घर की चहारदीवारी में मूंद दिया गया।

पुत्री की कलंक-कथा कानोंकान बाहर न जाए, इस चेष्टा में तिवारीजी ने हजारों रुपया पानी की भाँति बहा दिया, किन्तु ऐसी बातें पहाड़ में छिपाए नहीं छिपतीं। ऐसी प्रेम-कथाओं की सामान्य गूंज भी, इन विचित्र गिरि-कन्दराओं में टकराकर नन्दादेवी के मेले में क्रूर व्यंग्य से भरे लोकगीत का रूप लेकर शत-शत कंठों में ललक उठती हैं। उसी मेले में पुत्री की कलंक-कथा का नया गीत गूंजने लगा तो राजराजेश्वरी को और भी कठिन कपाटों में मूंद दिया गया। देखते ही देखते चारों ओर विस्तृत पर्वतश्रेणियाँ, उसी अपमानजनक गीत से आन्दोलित होने लगी :

'अहा कुन्दनी रंगरूठा
मेरी राजी के न्हिलैगो!
मेरी रजुला भली बाना
मेरी कुन्दनी न्हिलैगो।'

'कुन्दन रंगरूट मेरी राजी को ले गया रे! मेरी सुन्दरी रजुला को, मेरा कुन्दन ही ले गया।

इस गीत की चार पंक्तियों ने चन्दन की माँ का सौभाग्य-द्वार अवरुद्ध-सा कर दिया। योग्य जामाता पाने का जो स्वप्न साकार होने जा रहा था, वह मूर्खा पुत्री ने अपने ही हाथों से व्यर्थ करके रख दिया। पहाड़ में अब कोई भी वेश्या-पुत्र के साथ भाग चुकी, उस नादान किशोरी के बचपने को क्षमादान नहीं दे पाएगा। सरल पर्वतीय समाज की दृष्टि में उसका अपराध जघन्य था। अब कौन विश्वास करेगा कि तिवारीजी की पुत्री पवित्र है? कौन-सी अग्नि-परीक्षा, अब उसे समाज में प्रवेश-पत्र दे सकेगी?

अपने ही एक दरिद्र मित्र के पैरों पर टोपी रखकर गिड़गिड़ाए भी थे, महिम तिवारी। उसके इंटर पास पुत्र को भी शायद वह अपने वैभव के अंग-राग से आकर्षक बना सकते थे। एक वर्ष पूर्व, शायद वह उस मित्र पुत्र की ओर देखकर थूकते भी नहीं, पर अब जो देखा उसी मित्र ने उलटे उन्हीं के मुँह पर जैसे पच्च से थूक दिया।

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