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चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3736
आईएसबीएन :9788183616621

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


साहस कर कुमुद ने पहली बार उस सौम्यकान्ति व्यक्ति के चेहरे को ठीक से देखा। शान्त गम्भीर चेहरा, तीखी नाक, चौड़े कन्धे, चिबुक पर घाव 'का एक तिरछा निशान, ऐसे सधे अन्दाज में सँवरी मूंछे जैसे किसी कलाकार की दक्ष तूलिका ने यल से चित्रांकित की हों। पुकारने में कंठ-स्वर जितना ही बुलंद था, बोलने में था उतना ही मन्द। बीच-बीच में लगता फुसफुसाहट चल खुसरो घर आपने ही में आधा वाक्य डूब गया है। किन्तु आँखों में तिरती, किसी अव्यक्त पीड़ा का अवसाद बीच-बीच में पूरे चेहरे को अस्वाभाविक बना रहा था और ललाट पर खिंची आकस्मिक गाँठ देखनेवाले को सहमा जाती थी।

कहीं-न-कहीं इस व्यक्ति के मन में कोई उलझन अवश्य है, यह भोली कुमुद भी समझ गई। उसे ऐसा लगा, जैसे वह उससे कुछ कहना चाह रहा है और बावजूद अपने तेज, अपनी वैभव-मंडिता हवेली के परिवेश एवं अपने पीढ़ियों के आभिजात्य के, अपने जीवन के किसी दुर्बल पक्ष की हीनता उसे उस कमनीय, किशोरी-सी दिख रही नवनियुक्त युवती के सम्मुख गूंगा बना रही है और चाहने पर भी जो कहना चाहता है, वह कह नहीं पा रहा है।

"मिस जोशी," इस बार उसने घुटनों पर धरे अपने हाथ को उठाया तो अँगुली की अंगूठी का नीलम देख कुमुद चौंकी। ठीक ऐसी ही नीलम की अंगूठी तो उसके बाबूजी भी पहनते थे। अम्मा कहती थी, "इसी नीलम ने हमारा सर्वनाश किया है, लाखों बार तेरे बाबूजी को समझाया था, पर उनकी जिद के आगे कौन जीत सकता था।" पिता की मृत्यु के बाद वही तो महानगर वाले मामा के साथ, खुनखुनजी की दुकान पर वह अँगूठी बेचने गई थी। तो क्या यह वही अंगूठी थी?

"मिस जोशी, मालती से मिलाने से पहले, मैं एक बात स्पष्ट कर दूं-मैंने विज्ञापन में अपनी रुग्ण पत्नी का उल्लेख किया था," इस बार नीलम की अँगूठी वाला हाथ, अप्रस्तुत स्वामी ने फिर कुर्सी के हत्थे पर धर लिया, एक क्षण को उस हाथ की पकड़ ने कुर्सी को और भी मजबूती से जकड़ लिया। लग रहा था उस अजनबी लड़की के सामने बैठ वह अपने दुर्भाग्य का प्रकरण खोल नहीं पा रहा है। अचानक उठकर वह चहलकदमी करता, खिड़की के पास खड़ा हो बाहर देख ऐसे कहने लगा, जैसे वह कुमुद से नहीं, बाहर खड़े किसी अन्य व्यक्ति से बातें कर रहा है-

"मेरी पत्नी पागल है, मिस जोशी! पिछले बीस वर्षों से उसकी अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया। मैंने जान-बूझकर यह बात इसलिए छिपाई थी कि कहीं सच बात लिख दी तो मेरा विज्ञापन व्यर्थ जाएगा...।"

कुमुद ने चौंककर उसकी ओर देखा, एकाएक अब तक की उसकी सौम्यता, सहसा कपूर के धुएँ-सी उड़ गई। उसका गोरा चेहरा तमतमाकर लाल पड़ गया-"तो आप उन्हें पागलखाने में क्यों नहीं रखते? यह आपका अन्याय है, सर..." उसका आहत स्वर सहसा अशिष्टता की तीखी गूंज से खनक उठा-"आप यदि यह सब, अपने पिछले पत्र में भी मुझे बता देते तो मैं अपनी अच्छी-खासी नौकरी से इस्तीफा देकर, एक पागल की देखभाल करने यहाँ क्यों आती? आपने कम्पैनियन के लिए विज्ञापन दिया था, मैं वही कार्यभार संभालने आई थी," उसका गला विवशता से रुंध गया।

"आप शान्त होकर पहले मेरी बात सुन लें, मिस जोशी, आप मालती से मिल लें, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, वह उन्मादिनी अवश्य है, पर आज तक उसने कभी किसी को परेशान नहीं किया। उसका विचित्र उन्माद है, अपने ही में घुट-घुटकर मनहूस चुप्पी में अपने को घुलाने वाला उन्माद। आप पूछती हैं, मैंने उसे पागलखाने में क्यों नहीं रखा? आप अभी बहुत छोटी हैं..." एक लम्बी साँस खींचकर उसने सिगरेट की राख झाड़ी और कमद के सामने की कुर्सी पर बैठ गया-"जिसके साथ जिन्दगी के पूरे बीस वर्षों की मीठी-कड़वी यादें जुड़ी हैं, आज उसी की बेबसी का फायदा उठा, मैं चाहने पर भी अपने से उसे अलग कर, बिजली के झटकों से तड़पाने किसी पागलखाने में नहीं भेज पाया। यह बात नहीं कि मैंने कोशिश नहीं की। कितनी ही बार दूर-दूर तक घूम एक-एक पागलखाने की खाक छान आया, पर जैसी हालत वहाँ मरीजों की देखी, फिर साहस नहीं हुआ। मालती की इस अवस्था के लिए दोषी मैं भी हूँ, मिस जोशी..."
कुमुद ने सहमी दृष्टि से उसे देखा, यह कहाँ फँस गई थी वह! पागल पत्नी और यह रहस्यमय अपराधी पति!

“सोचता हूँ, मालती से मिलाने से पहले, उसके केस-हिस्ट्री भी आपको बता दूं। मालती जब गौना होकर इस हवेली में आई, तब केवल सोलह साल की थी, पालकी से उतरते ही उसे पहली बार दौड़ा पड़ा था। दाँत भिंच गई, हाथ-पैर ऐंठ गए और पुतलियाँ पलट गईं। मेरी माँ का कहना था, 'मार्ग में पीपल के नीचे कहारों ने डोली उतारी थी, वहीं का जिन्न चिपट गया, वह हँसा, पर कैसी करुण हँसी थी! 'आई डोंट बिलीव इन आल दिस रबिश' जिन्न-विन्न कुछ नहीं, वही पागलपन की शुरुआत थी, बाद में सुना यह पागलपन उसके खानदान में है, दो मामा पागल हैं, नानी भी उन्मादिनी थी। मध्य प्रदेश की एक छोटी-सी रियासत की राजकन्या थी, पर नाना राज-प्रमुख थे, उन्हीं ने झाड़फूंक में हजारों रुपया फेंक दिया, न कोई मजार छूटी, न कोई मन्दिर। कुछ दिनों ठीक रही, फिर मनहूस चुप्पी। किसी ने कहा-किछौछे में एक प्रख्यात मजार है, प्रेतमुक्ति-तीर्थ, जहाँ से चार कोस की दूरी रहने पर ही जब प्रेतग्रस्त रोगी चीखने-चिल्लाने लगता है, तब मुजावर जान जाते हैं कि रोगी इहलोक का नहीं है। मजार में पैर रखते ही मरीज बेदम होकर गिर पड़ता है। मेरी माँ जब मालती को वहाँ ले जाने की तैयारी करने लगी. तब मैं अड़ गया। बहुत पहले मैं एक बार वहाँ अपनी मौसी की प्रेतमक्ति देख चुका था। उस जंगली इलाज में, मुजावरों ने मौसी को लोहे की जंजीरों से बाँध, झोंटा पकड़ बुरी तरह घसीटा था, मिर्च की धूनी दी थी। मैं मालती के साथ यह सब नहीं होने दूंगा। पर मेरी माँ की जिद ने मुझे पराजित कर दिया। बीसियों सिकरमों में हमारा पूरा अन्तःपुर वहाँ पहुँच गया। मैं रूठकर अपने एक मित्र के यहाँ चला गया। तीन महीने बाद लौटा तो देखा मालती एकदम ठीक हो गई है। तीन वर्षों तक वह फिर पूर्णरूप से स्वाभाविक बनी रही। इन्हीं तीन वर्षों में हमारे पुत्र का जन्म हुआ। उसी के जन्म के लिए जैसे माँ रुकी थीं। उनकी मृत्यु के बाद मालती ने बड़ी सहजता से गृहस्थी का भार ग्रहण कर लिया। कभी-कभी वह गुमसुम अवश्य हो जाती थी, पर उस चुप्पी में भी वह एक क्षण को भी मेरे और अपने पुत्र के प्रति उदासीन नहीं होती थी। मैंने देखा कि उसकी पुत्र के प्रति यह आसक्ति उसे बिगाड़ रही है। मैंने ही उसे एक दिन जोर-जबरदस्ती कर नैनीताल के बोर्डिंग-स्कूल में पढ़ने भेज दिया। मालती बहुत रोई-धोई, तीन दिन तक अन्न का दाना भी. उनके मुँह में नहीं गया, पर फिर मेरे समझाने-बुझाने से वह कुछ शान्त हुई और धीरे-धीरे उसने परिस्थितियों से समझौता कर लिया। वह पहली बार छुट्टियों में घर आया तो उसके सुधड़ सलीके और अदब-कायदे को देख मालती मोह-मुग्ध हो गई। पर मजार पर डंडों की मार से उतारा गया जिन्न शायद अब भी मुजावर की मार को नहीं भूला था। उसने फिर बदला ले ही लिया..."

एक क्षण को चुप हो गए राजा राजकमल सिंह का गौर मुखमण्डल, मद्धिम रोशनी के प्रकाश में कैसा तो विवर्ण लग रहा था! कैसा अद्भुत व्यक्तित्व था इस व्यक्ति का! कुमुद को लगा, वह फिल्मी सेट पर कुशल अभिनय कर रहे किसी अनुभवी अभिनेता की शूटिंग देख रही है। कुरते की बाँहों की कलफ में सीधी महीन चुन्नट, ओठों पर पान की लालिमा, बीच-बीच में दीर्घ श्वास के साथ प्रखर हो पूरे कमरे में महक रही जर्दे की सुबास।

"...एक दिन स्कूल से फोन आया, स्कूल के नये बने स्विमिंग पूल में आपका बच्चा डूब गया है। कैसी विचित्र लीला थी भगवान की, एक साल पहले मैंने ही उस कालकूप के निर्माण के लिए सबसे अधिक डोनेशन दिया था! तब मैं क्या जानता था कि विधाता स्वयं मेरे हाथों मेरे बच्चे की चिता चुनवा रहा है? क्या कहँगा मालती से, क्या अब वह जीवन भर मुझे क्षमा कर पाएगी? फिर बड़े छलबल से उसे समझाया-"विक्रम की तबीयत अचानक खराब हो गई है, मैं उसे लेने नैनीताल जा रहा हूँ।" वह जिद करने लगी, वह भी मेरे साथ चलेगी। मैंने कहा-मालती मैं उसे यहीं तो ला रहा हूँ।

"बेचारी मान गई, वह क्या जानती थी कि मैं उसके बेटे को किस रूप में ला रहा हूँ। एक बार जी में आया, उसे वहीं छोड़ आऊँ, जहाँ मैंने उसे उसकी माँ से छीनकर भेजा था, पर मैं वचन दे चुका थ कि मैं उसे घर लाऊँगा। मालती ने उसे देखा, न रोई न चीखी-बस एक बार डरते-डरते उसके ठंडे ललाट को छुआ, फिर उठकर चुपचाप भीतर चली गई। उसी दिन से वह एक बार फिर अपनी उसी मनहूस चुप्पी में डूब गई। मुझे लगा, मुझे शायद वह पुत्र की अकाल मृत्यु के कारण क्षमा नहीं कर पा रही है, शायद किसी सहृदय नारी का साहचर्य उसकी वह चुप्पी तोड़ दे। एक बात और भी है, इन बड़े-बड़े कमरों में इतने वर्षों से हम दोनों एक-दूसरे को देखते-देखते बुरी तरह ऊबने लगे हैं; वह मायके भी नहीं जाना चाहती, कहीं बाहर घूमने का प्रस्ताव रखता हूँ तो उग्र होने लगती है। इसी से यह विज्ञापन दिया था।"

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