नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द) चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)शिवानी
|
10 पाठकों को प्रिय 170 पाठक हैं |
अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
पर बुढ़िया, अपना निर्विकार चेहरा लिए पूर्ववत् ऊँघती रही। किसी म्यूजियम में
धरी जैसी कोई मिट्टी की मूरत हो। चेहरे पर झुर्रियों का जाल, बेहद लम्बी नाक
पर छोटे सूरजमुखी के फूल के आकार के सोने की लौंग, छींटदार लहँगा, मुसलमानी
कुर्ती। काले झीने दुपट्टे को कान-सिर पर मफलर-सा लपेटे बुढ़िया न हिली, न
डुली।
“अय, कहीं अल्लाह को प्यारी तो नहीं हो गई बुआ!" नूरबक्श ने फिर से हँसकर
सूटकेस नीचे धरा और बुढ़िया के दोनों कन्धे पकड़कर झकझोर कर धर दिया। कुमुद
लपककर उसे न सँभाल लेती तो बेंच पर ही दोनों पैर साधे, ऊँघती बुढ़िया निश्चय
ही जमीन पर औंधी गिरती।
"बस काम ही क्या है इनका खाना और सोना, यह नहीं कि हम टेसन गए हैं तो ऊपर
जाकर दो घड़ी मालकिन के पास बैठ जाएँ!" बुरी तरह घबराई बुढ़िया दोनों हाथ
जोड़ विनम्र भयभीत मुद्रा में न जाने कितनी बार दुहरी होकर कुमुद के सामने
फर्शी लगा गई-
"हुजूर सलाम..."
"अच्छा बस-बस अब सलाम ही ठोंके जाओगी या कमरा भी खोलोगी!" नूरबक्श ने
झुंझलाकर उसे डपट दिया।
लहँगे के नेफे में बँधा चाबी का गुच्छा निकाल बुढ़िया ने द्वार खोल दिए।
“आइए सरकार," नूरवक्श सूटकेस लेकर भीतर गया और उल्टे पैर लौटकर बोला-"आप बाहर
ही खड़ी रहिए मिस साहब, ये हरामखोर बुआ किसी काम की नहीं है। क्यों बुआ,
इत्ता भी नहीं हुआ तुमसे, कि लाओ खिड़कियाँ ही खोल दें। लगता है तब ही से
बन्द है जब से..." सहसा वह अपना वाक्य अधूरा ही छोड़, आग्नेय दृष्टि से
बुढ़िया को भस्म कर भुनभुना उठा–“ये बात ठीक नहीं है बुआ, हम साहब से जरूर
कहेंगे...सौ बार तुम्हें बचाया है पर, इस बार तुम्हें सजा दिलानी ही पड़ेगी।
तुम्हें पता था कि मिस साहब आज आ रही हैं। क्या अब तक कमरे की सफाई भी नहीं
हुई तुमसे?"
"हम का जानी कि ई कमरा में मिस साहब रहिहैं, इहाँ मरियम मिस साहब फाँसी लगाए
चोला छोड़े रहीं, पन्द्रह दिन तो पुलिस केर सील-मुहर रही, अब जान्यो जोने दिन
से खुला मुला हम रोज धुलाई करत रहीं, अब कौनो औलिया पीर केर मजार हय जो हम
लोबान दिखाय?"
"बुआ, जान्यो," दाँत पीसता नूरबक्श बुढ़िया पर खोखिया कर झपटा-"तुम्हार जीभ
हम खेंच डारब साहब सनिहें तो..."
"सुनिहें तो का होय रे, हम का डरत है साहब से! जो बात भई रही हम बताय
दिहिन-अब तोहार जिऊ में आय, खटिया भीतर डारो चाहे बाहर..."
“इसके कहने का बुरा मत मानिएगा सरकार, हवेली की सबसे पुरानी मुलाजिम है, इसी
से नकचढ़ी के तेवर हमेशा चढ़े रहते हैं।"
नूरबक्श शायद कुमुद का विवर्ण चेहरा देखकर समझ गया था कि वह बुरी तरह सहम गई
है। यही उसके निष्पाप चेहरे का संबसे बड़ा दोष था, उसका क्रोध, विषाद,
उल्लास, भय-अनाड़ी हाथों से पुते अंगराग-सा, पूरे चेहरे पर बिखर जाता था, इसी
से उस उद्विग्न चिन्तातुर भोले चेहरे को देखते ही नूरबक्श को लगा कि कुख्यात
कमरे का बदनाम अतीत बुढ़िया उसे थमा गई थी, वहाँ कदम रखने में वह झिझक रही
है।
"यहाँ कोई और कमरा नहीं है क्या?" उसने पूछा तो नूरबक्श ने एक बार फिर उसी
उत्साह और फुर्ती से जमीन पर धरा सूटकेस उठा लिया-"है क्यों नहीं सरकार,
हवेली में पच्चीस कमरे हैं, चलिए आपको उस कमरे में ले चलूँ, जहाँ साहब के
फिरंगी मेहमान ठहरते हैं।"
इस बार वह उसे लेकर निचली ही मंजिल के जिस हवादार कमरे में पहुँचा, उसे देखकर
ही कुमुद की समस्त क्लान्ति दूर हो गई, हवा के ऐसे फरफराते झोंके, जैसे
बीसियों कूलर चल रहे हों : “आप गुसलकर सुस्ता लें, मैं तब तक चाय लगवा दूं।"
उसके जाते ही कुमुद द्वार बन्दकर दुलहन-से सजे उस कमरे को घूम-घूमकर देखने
लगी। गुलाबी मसहरी लगा पलंग, नक्काशीदार शृंगारमेज, चाँदी के मोमबत्तीदान में
सतर खड़ी सफेद दीर्घकाय मोमबत्ती, एक ओर धरा बड़ा चिमनी लगा लैम्प, जिसे शायद
हवेली विद्युतोज्ज्वल होने से पूर्व कभी जलाया जाता होगा। खिड़की के अधखुले
पट खोल, कुमुद बाहर देखने लगी, खिले गुलाबों की कतार-की-कतार उसे मुग्ध कर
गई। नानावर्णी गुलाब हवा में झूम रहे थे। खिड़की से ही हवेली के दोनों भाग
आलोक से जगमगाते स्पष्ट दीख रहे थे, जितनी ही झरोखेनुमा खिड़कियाँ थीं उतनी
ही प्रकाश से उज्ज्वल। ठीक जैसे लखनऊ के कैसरबाग की बारादरी। पत्र में तो
लिखा था, हम दो प्राणी हैं, मैं और मेरी पत्नी, तब इस बुलन्द आलमगीर इमारत का
अंग-प्रत्यंग किस-किस की उपस्थिति का आभास देता, ऐसे जगमगा रहा था? कौन रहता
था यहाँ? और वह बुढ़िया, किस मिस साहब की फाँसी के प्रसंग की ओर इंगित कर रही
थी? वह न जाने कब तक इसी सोच में डूबती-उतराती खिड़की पर ही खड़ी रह गई, तब
ही उसे अचानक याद आया-नूरबक्श उसे लेने बीस मिनट में आएगा-कह गया था और वह
अभी तक हाथ-मुँह भी नहीं धो पाई।
हड़बड़ा कर उसने सूटकेस उठाया, यत्न से बिछे उस ऐश्वर्यपूर्ण पर्यंक में उसका
जीर्ण सूटकेस पैबन्द-सा ही लग रहा था। कपड़े निकालकर नहाने गई तो गुसलखाने की
बत्ती ढूँढ़ने में फिर उलझ गई। सहसा, एक बटन खटखटाते ही एक साथ कई बल्बों का
अँगूरी गुच्छा ऐसे जगमगा उठा कि वह सहम गई। विदेशी सज्जा में सजे गुसलखाने को
देख उसे सहसा मकड़ी के जालों से भरे अपने संकीर्ण गुसलखाने की याद हो आई,
जहाँ नहाने में, कपड़े धोने में जरा भी चूक हुई तो कुहनियाँ दरदरी, बिना चूने
पुती दीवारों से टकराकर छिल जाती थी। उस मकान में सम्मिलित रूप से रहनेवाले
किराएदारों का वह एकमात्र संयुक्त गुसलखाना था, सुबह चार बजे उठने पर ही
गुसलखाने का एकान्त उसे मिल पाता था और कहीं भूल से कभी नहाने या कपड़े धोने
के साबुन की बट्टी वहाँ छूट जाती तो उसके दूसरे नम्बर पर नहानेवाली गौरी चाची
उसे बाजीगरी सफाई से आलोप कर देतीं। नहाते-नहाते कुमुद को हँसी भी आ गई थी।
एकाएक गौरी चाची उसी ऐतिहासिक कौशल से पार की गई वट्टी को ब्लाउज के भीतर
छिपाकर गीले बाल तौलिये में जटाजूट बना बाहर निकली कि गुसलखाने को हथियाने
देहरी पर खड़े लालू से टकरा गईं। लालू का कहना था कि उसने उसके ब्लाउज के
भीतर उस तीसरे अस्वाभाविक उभार को देख जान-बूझकर ही उन्हें ढकेल दिया था-गौरी
चाची चारों खाने चित गिरी और फक से गीली बट्टी ब्लाउज के भीतर से निकल जमीन
पर फिसलती चली गई।
“यह तो दीदी का साबुन है!" उस मुँहजोर ने चीखकर पूरे घर में गौरी चाची की
बदनीयती के पोस्टर चिपका दिए थे-
|