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चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3736
आईएसबीएन :9788183616621

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


"कहाँ?"

"थाने, जहाँ आपकी बहन छाया बनर्जी हवालात में बन्द हैं!" अधिकारी की तीखी व्यंग्यपूर्ण मुसकान कुमुद को तिलमिला गई थी।

"नहीं तू थाने नहीं जाएगी, चलना ही है तो मैं चलूँगी आपके साथ-इतनी रात को मैं इसे कभी नहीं जाने दूंगी-पर क्या किया है मेरी बच्ची ने, जो तुमने उसे थाने में बन्द कर दिया है?" अम्मा ने सिसकियाँ रोकने के लिए आँचल मुँह में दाब लिया।

"बहुत कुछ किया है माताजी, आप ऐसी बुजुर्ग के सामने कहते भी शरम आती है, पर हमारा पेशा ही बेशरमी का है। निरालानगर के एक कुख्यात अड्डे पर आज छापा मारा गया था, वहाँ भले घर की लड़कियों से पेशा करवाया जाता था। वहीं पर जो चार बदकिस्मत लड़कियाँ आज बरामद की गईं, उन्हीं में से एक आपकी पुत्री भी है, बाकी तीन चौक से मँगवाई गई पेशेवर नेपाली छोकरियाँ हैं। कल शायद अखबार में फोटो भी छपे, कितने तो पत्रकार वहाँ जुटे थे।"

उसी क्षण अम्मा फटाक से बेहोश होकर जमीन पर गिर गईं। बड़ी देर बाद उन्होंने आँखें खोली तो देखा वह वर्दीधारी और कुमुद उसी पर झुके हैं।

"मैं मर क्यों नहीं गई, मर क्यों नहीं गई! कुमुद के बाबू क्या यही दिखाने तुम मुझे अकेली छोड़ गए!" वह दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर सिसकने लगीं।

“अम्मा धैर्य रखो, तुम ऐसे हिम्मत हारोगी तो मैं क्या करूँगी! पहले माथुर साहब को फोन करूँगी, शायद वह हमारी कुछ मदद कर सकें!"

किसी तरह अम्मा को समझा-बुझा वह पहले उसी कोठी में गई, जहाँ वह ट्यूशन करती थी। हो सकता है माथुर साहब का, डी.आई.जी. पद ही उसे उबार ले। उनकी तीनों पुत्रियाँ उसकी छात्राएँ थीं, स्वयं माथुर साहब भी कभी उसके पिता के छात्र रह चुके थे। उन्हीं के एक फोन ने फिर उसकी डूबी तरणी को उबार लिया था, किन्तु दूसरे ही दिन उसके ट्यूशन की तरणी डूबकर रह गई थी। बड़ी विनम्रता से ही माथुर साहब ने अर्दली से कहलवा दिया था-परीक्षा पास आ रही है, इसी से अब लड़कियाँ स्वयं पढ़ लेंगी, वह कष्ट न करें। एक लिफाफे में पूरे महीने का वेतन भी भिजवाया था, किन्तु वह लिफाफा मेज पर ही रख घर लौट आई थी। छोटी बहन के कलंक की सजा उसे अब जीवन भर भुगतनी होगी। जिस गृह की छोटी पुत्री ऐसी थी, क्या सबूत था कि उसकी बड़ी पुत्री भी वैसी ही न हो?

और फिर उसी रात रणचंडी बन उसने बहन को अर्द्धमृत कर कोने में डाल, कमरे की साँकल चढ़ा दी थी। यह उसकी पुण्यवती जननी के ही पुण्यों के संचित-कोष का प्रताप था, जो उस परिवार की आन को, बिना खरोंच लगाए बचा ले गया। किसी को कानोंकान खबर नहीं लगी कि रात दस बजे पुलिस की जीप में कुमुद कहीं गई थी और न रात बीते दोनों बहनों को किसी ने कार से उतरते ही देखा। दूरदर्शी माथुर साहब ही दोनों बहनों को उसके मकान की सीमा से कुछ दूर उतार, तब तक खड़े-खड़े देखते रहे, जब तक दोनों द्वार खोलकर भीतर नहीं चली गईं। कुमुद पर उनका अनन्त स्नेह था, किन्तु आज जो घटा था, उसे देख अब वह नहीं चाहते थे कि उस परिवार की लड़की उनकी पुत्रियों को पढ़ाए, बड़े बुझे मन से ही उन्होंने दूसरे दिन उसे बिना मिले बाहर से ही टरका दिया था। फिर भी एक संक्षिप्त पत्र में उन्होंने स्थिति एवं विवशता स्पष्ट कर दी थी-'तुम मुझे अपनी पुत्रियों-सी ही प्रिय हो बेटी, पर कल जो घटना घटी है वह पुलिस की गढ़ी-रची घटना नहीं है मैं तुम्हें एक ही राय दे सकता हूँ। जितनी जल्दी हो, उमा को शहर से कहीं दूर भेज दो-इसका यहाँ रहना कभी तुम्हारे लिए भी घातक सिद्ध हो सकता है।

माथुर साहब की ही राय मान, दूसरे ही दिन उसने उमा को माँ के साथ ननिहाल भेज दिया था। बड़े मामा विधुर थे, सब जानते थे कि बीच-बीच में कुमुद-उमा यहाँ जाती रहती हैं इसी से कुतूहलप्रिया गौरी चाची की जिज्ञासा को उसने यहाँ पिस्सू-सा मसल दिया था--"मामा की तबीयत अचानक खराब हो गई, मुझे छुट्टी नहीं मिल सकती, इसी से अम्मा उमा को लेकर पहाड़ गई है।"

और जब अम्मा लौटीं तब साथ में उमा को न देख रिक्शा से उतरने से पहले ही गौरी चाची पूछने आ गई थीं-"हाय लड़की को कहाँ छोड़ आई हो गोदी दीदी, कालेज तो खुला है उसका!'

"दद्दा की देखभाल करनेवाला कोई नहीं था, मैं उसे छोड़ आई गौरी, दस दिन बाद तो गरमी की छुट्टियाँ हो ही जातीं, सोचा मामा की देखभाल कर लेगी।"

बस बात बड़ी सहजता से आई-गई हो गई थी। जो तीन छोकरियाँ उसके साथ पकड़ी गई थीं, वे भी सम्भवतः उसके जाली नाम से ही परिचित रही। होंगी और वे अपने नरक में लौट गई होंगी। ऐसी अपराधिनियों को इस पृथ्वी पर दंड मिलता ही कहाँ है! सौभाग्य से, अखबार में पुलिस से घिरी, जिन चार लड़कियों का चित्र छपा था, उसमें से चारों के चेहरे अस्पष्ट थे। एक ने साड़ी मुँह में साफे-सा लपेट, अपने को स्वयं छिपा लिया था, केवल पहचानने वाली ने ही, अपनी उस साड़ी की छींट को पहचानने में भूल नहीं की थी। एक लालू ही था, जिसे अब तक यह रहस्य समझ में नहीं आ रहा था कि क्यों शान्त दीदी में उमा को ऐसी बेरहमी से पीटा और क्यों कालेज खुला रहने पर भी, उसका निर्मम निर्वासन कर दिया गया। न किसी ने कुमुद से कुछ पूछा, न कहा, फिर भी उसे स्वयं, उस दमघोंटू वातावरण में साँस लेने में मृत्यु-तुल्य कष्ट होने लगा था। अध्यापिकाएँ आपस में फुसफुसाती तो उसे लगता, वे उसे ही देखकर हँस रही हैं, कोई राह चलते मुड़कर देखता या कोई उसकी रिक्शा के पास आकर, कार की गति धीमी करता, तो उसके हाथ-पैर ठंडे हो जाते। कहीं यह कोई उमा का ही प्रेमी तो नहीं था! अम्मा से पहले ही उसकी बात कम होती थी, अब तो वह बात भी 'हाँ-ना' तक ही सीमित रह गई। भूख लगती पर चेष्टा करने पर भी, वह गले के नीचे गस्सा नहीं उतार पाती। आठ ही दिन में उसके कन्धे की हड्डियाँ निकल आई थीं, आँखों के नीचे स्याही फुक गई थी-उसके जी में आता वह कहीं दूर भाग जाए। इस लज्जा से उसने बाहर जाना भी बहुत कम कर दिया था। ट्यूशन छूट गए थे, सब्जी लानी होती तो वह अम्मा को भेज देती। पापिष्ठा बहन के गर्हित पाप का बोझ अब वह सहन नहीं कर पा रही थी। उस पर एक अज्ञात आशंका उसे सहसा आधी रात को जगाकर विचलित करने लगती। अभागिनी उमा को वह सरल मामा के सिर पर तो पटक आई थीं, पर कहीं अनजाने में ही कुछ और भी बड़ा पाप न बटोर बैठी हो लड़की! वहाँ तो मामा की गृहिणीहीन गृहस्थी में यदि ऐसी कुछ उलटी-सीधी अवस्था भी उमा की होगी तो कोई भाँपने वाली भी नहीं होगी। बहन की कौमार्यावस्था में ही उसकी जननी बनने की सम्भावना उसे कभी-कभी पागल बना देती।

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