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नारी विमर्श >> रतिविलाप

रतिविलाप

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3735
आईएसबीएन :81-8361-066-8

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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास...

Rativilap

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


 ‘‘...हमारी मित्रमंडली ने कई दिनों अपनी उस रसप्रिया सखी का मातम मनाया था फिर वर्षों तक मुझे उसका कोई समाचार नहीं मिला।...’’ वही अनसूया अपनी दारुण जीवनी की पोटली लिए लेखिका से एक दिन टकरा गई। जिन पर उसने भरोसा किया, उन्हीं विषधरों ने उसे डँसकर उसके जीवन को रतिविलाप की गूँज से कैसा भर दिया था।
‘‘अचानक ही वह पगली न जाने किस गाँव से अल्मोड़ा आ गई थी, उस पर...उन्माद भी विचित्र था, कभी झील-सा शीतल, कभी अग्निज्वाला सा उग्र...उद्भ्रांत किशनुली को कारवी का ममत्वमय स्पर्श पालतू और सौम्य बना ही चला था कि अभागी अवैध सन्तान ‘करण’ को जन्म दे बैठी। सरल, ममत्वमयी कारवी और पगली किशनुली और उसके ‘ढाँट’ करण की अद्भुत गाथा कभी हँसाती है, तो कभी रुला देती है।

वस्त्र चयन ही नहीं पुस्तक चयन में भी बेजोड़ थी कृष्णवेणी। पर दूसरों का भविष्य देख सकने की उसकी दुर्लभ क्षमता ने अनजाने ही उसका भविष्य भी कहला डाला तो, एक मार्मिक प्रेमकथा !
‘‘मोहब्बत में खरे सोने की खाँटी लीक मैं कहाँ तक अछूती रख पाई हूँ, यह बताना मेरा काम नहीं है...यदि फिर भी किसी को यह लगे वह अलाँ है या फलाँ है, तो मैं कहूँगी, यह विचित्र संयोग मात्र है....।’’
सम्पन्न घर में जन्म लेकर भी परित्यक्त रहा डॉ. वैदेही बर्वे का बेटा। अभिशप्त किन्नर बिरादरी के सदस्य बने परित्यक्त मोहब्बत की हृदय मथ-देनेवाली कहानी।

रतिविलाप



अनयूसा के विवाह और वैधव्य का समाचार मुझे एक साथ ही मिला था। कभी वह मेरी अन्तरंग सहपाठिनी थी। हँसमुख, चंचल, अनसूया पटेल जब गुरुदेव के नृत्य नाट्य में कामदेव बनकर गाती, ‘कटाक्षे रबे मम पंचम शर, ताई आमी दीनू बर’ (तेरे कटाक्ष में सदा मेरा पंचम शर रहेगा, यह मैं वर देता हूँ।) तो लगता सचमुच ही गुरुदेव की कविता साकार हो उठी है। न उस भ्रूविलास में अनावश्यक खोंचखाँच करनी पड़ती न उन अधरों की स्वाभाविक लालिमा को सँवारने का ही प्रश्न उठता, इसी से जब गौरी दी अन्य पात्रों को सँवार, उसके पास आतीं, तो ठिठककर हँसने लगतीं-‘तोके आबार साजाबों की रे, सुबई तो भगवान सेरे दियेछेन।’ (तुझे अब क्या सजाऊँ री, भगवान ने सब सज्जा पूरी कर ही तुझे भेजा है)।

लड़की में सचमुच ही किसी शापभ्रष्ट गन्धर्व कन्या की ही देवदत्त प्रतिभा थी। फिर एक दिन वह अचानक ही पिता की बीमारी का तार पाकर अहमदाबाद गई और नहीं लौटी। बहुत दिनों बाद उसका एक लम्बा पत्र आया था, पिता की मृत्यु के पश्चात् अब उसका आश्रम आना असम्भव था। मातृहीन छोटे भाई का भार उसके कन्धों पर जिस आकस्मिक वेग से आ गिरा था, उसके लिए वह प्रस्तुत नहीं थी, किन्तु पिता का विस्मृत व्यापार अब उसे ही सँभालना था। अब गुरुदेव को अपनी नृत्य नाटिका के लिए दूसरा कामदेव ढूँढ़ना होगा, मैं अब शायद कभी तुम लोगों को देख भी नहीं पाऊँगी।’ उसने लिखा, तो हमारी मित्रमंडली ने कई दिनों तक अपनी उस रसप्रिया सखी का मातम मनाया था फिर वर्षों तक मुझे उसका कोई समाचार नहीं मिला। वह शायद अपने पिता के कारोबार में डूब गई थी और मैं अपनी गृहस्थी में।

सहसा, पच्चीस वर्ष बाद मेरी वह खोई सखी मुझे कैसरबाग में दशहरी और लंगड़ा आमों की ढेरियों के बीच खड़ी मिल गई। पहले कुछ क्षणों तक मैं उसे अविश्वास से देखती रह गई थी। एक हाथ में पुष्ट स्वस्थ लंगड़ा आम लिए वह एक उतने ही पुष्ट बदशकल कुंजड़े से उसका मोल-तोल कर रही थी। न खरीदने वाला दब रहा था, न बेचने वाला। साँप- नेवले-से आमने-सामने तने दोनों ही शायद समझ गए थे कि सौदे के क्रय-विक्रय में कोई किसी को ठग नहीं सकता था। ‘अजी, हम क्या कैसरबाग आज पहली बार आई हैं ? ठीक दाम बोलो।’

वह परिचित होने पर भी अपरिचित लग रहा कंठस्वर मेरे विस्मृति के नासूर को कुरेद गया। रवीन्द्र संगीत में अपने कंठ का मधु घोलने वाली कोकिला को क्या क्रूर काल ने गला मरोड़कर ऐसी निर्ममता से मार दिया था ? उधर हर दिल अजीज शाही लंगड़े के मालिक ने लपककर उसके हाथ से आम छीन बड़े लाड़-दुलार से पोंछ, फिर डाली में से सजा दिया, जैसे अबोध शिशु को किसी सिरफिरे के हाथ से छीन माँ की गोद में रख रहा हो। भुनभुनाती अनयूसा पटेल दूसरे फलवाले की ओर मुड़ी, तो तुझे दूसरा धक्का लगा। कहाँ गई वह नागिन-सी भुंइ लोटती कबरी ! किसी टूटी-फूटी कब्र पर उग आई छितरी दूब सी विरल केशराशि एक रबर बैंड में बँधी थी। इससे पहले कि वह दूसरे आमवाले से उलझ एकदम ही बदल गए अपने कंठ-स्वर का भाला मुझे मारती, मैंने उसके कन्धे पर हाथ दिया और उसके हाथ के बैग सहित उसे एक कोने में खिंच ले गई।

‘‘कितनी बदल गई हो तुम अनयूसा पटेल !’’ मैंने उसका हाथ सहलाया और विस्मृति के गहन अन्धकार में उन अराल अँगुलियों को टटोलने लगी जिनसे मेरा परिचय था।
अनयूसा पटेल नहीं, अब अनयूसा कापड़िया हूँ मैं।’’ उसने हँसकर कहा, तो मैं चौंकी। फिर मेरी हतप्रभ दृष्टि को देखकर उसने स्थिति स्पष्ट की, ‘‘वैसे अब इस नाम का भी कोई महत्त्व नहीं रहा, चाहने पर भी अपने मेडेन नाम की टहनी पर फिर फुदक सकती हूँ, पर अब इन टूटे डैनों में दम नहीं है, बहन।’’
‘‘मतलब ?’’ मैंने पूछा। तेरी शादी कब हुई ? और खबर भी नहीं दी, क्यों ?’’

‘‘तूने ही कौन सी खबर दी !’’ इस बार स्वयं मेरी ही उपालम्भ बूमरैंग के वेग से मुझे धराशायी कर गया। बात तो ठीक ही कह रही थी। दोनों के ही पास तो एक-दूसरे का पता ठिकाना धरा था। यह भी संसार का कैसा विचित्र नियम है कि जिन मित्र- प्रतिवेशियों का नैकट्य उन्हें हमारे लिए, कभी आत्मीयों से भी अधिक आत्मीय बना देता है, बिछुड़ जाने पर हम फिर उन्हें तेजी से भुला ही बैठते हैं। नया परिवेश, नई मैत्री पाकर मानव का स्वार्थी स्वभाव उसके अतीत की सुखद से सुखद स्मृतियों को भी बड़ी निर्मम हृदयहीनता से धो-पोंछकर बहा देता है। कभी इसी अनसूया पटेल के ग्रीष्मावकाश का बिछोह भी मुझे असहृ लगता था और फिर पच्चीस वर्षों के लम्बे अन्तराल के बीच कभी भूलकर भी मैंने उसे याद नहीं किया। मैं एक पल को उसके उपालम्भ का कोई उत्तर दिए बिना ही सिर झुकाए खड़ी रह गई। फिर वहीं हँसकर मेरे प्रश्न का उत्तर देने लगी, ‘‘नये नाम का कोई महत्त्व नहीं रहा, यह इसलिए कह रही हूँ कि जिसने वह नया नाम दिया था, वह नहीं रहा। अब न मायका ही बचा है, न ससुराल। इसी से तो आजाद घूम रही हूँ।’’
‘‘क्यों तेरा भाई मगन ?’’ मैंने पूछा।

‘‘ओह, मगन ! वह तो बहुत पहले ही जर्मनी चला गया था। एक जर्मन लड़की से विवाह कर, वहीं बस गया है। सुना मेरी जर्मन भाभी दहेज में रेडीमेड तीन-तीन भतीजियाँ भी लाई है मेरे लिए।’’ वह फिर हँसी।
‘‘तू यहाँ कब से हैं ? ’’ मैं अपना कौतूहल रोक ही नहीं पा रही थी। ‘‘अरी, मैं यहाँ क्यों होने लगी ! मैं तो बम्बई में हूँ। वहाँ साड़ियों का बिजनेस करती हूँ। लखनऊ से चिकन, बनारस से बनारसी दक्षिण से टेंपल साड़ियाँ लेने प्रायः ही देश-भ्रमण करती रहती हूँ। बम्बई पहुँच, उद्योगपतियों की विराटकाय सेठानियों को इन्हीं साड़ियों को चौगुने दाम में बेच साल-भर चैन की बंसी बजाती हूँ-समझी ? वह तो आज सोचा, क्यों न चलते-चलते एक झौआ लंगड़ा आम लेती चलूँ। चलो, अच्छा ही हुआ, आज यहाँ न आती तो तू कहाँ मिलती मुझे ! सामान स्टेशन पर ही छोड़ आई हूँ।’’

‘‘तब चल, तेरा सामान ले आएँ। अब आज नहीं जाने दूँगी तुझे।’’ मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।
‘‘कैसी बातें करती है, पगली !’’ उसका स्वर अचानक ही बुझ सा गया, ‘‘मुझे आज जाना ही होगा। कुछ साड़ियाँ परसों अमरीकन इम्बेसी भेजनी हैं। उधर रूस में रामलीला हो रही है, सीता स्वयंवर के लिए एक भारी साड़ी का आर्डर मिला है। उसे भी परसों भेजना है। चल, कहीं एकान्त में बैठकर चाय पी जाए।’’
अचानक उसके क्लान्त स्वर में पच्चीस वर्ष पूर्व का वही कैशोर्य सुलभ उत्साह गूँज उठा, जब वह मुझे आश्रम के कालू की प्रसिद्ध दुकान पर चाय पीने को आमन्त्रित करती थी।

मैं उसे जहाँ ले गई, वहाँ चाय तो खूब अच्छी मिली पर एकान्त नहीं जुटा। फिर हम दोनों अमीनाबाद के शिवमन्दिर के शीतल ओसारे में बैठ गईं थीं। बारह बजे मन्दिर के पट बन्द हो जाते थे, इसी से वहाँ तब दर्शननार्थियों की भीड़ नहीं थी। आसपास खड़े लूले-लंगड़े अन्धे भिखारियों को भी असहृ तपती दुपहरी ने दूर झाड़ी झुरमुटों की छाया में खदेड़ दिया था। वहीं अनसूया पटेल ने मुझे अपनी विचित्र कहानी सुनाई थी।

पिता की मृत्यु के पश्चात् उसने मामा की सहायता से अपना कारोबार सँभाल लिया, किन्तु व्यवहारकुशल संसारी मामा ने भानजी की समृद्धि से नहर काट अपनी बगिया सींचने में भी कम तत्परता नहीं दिखाई। अनसूया कुछ-कुछ अकर्मण्य पुत्र से कर दिया। कुटिल मामा ने विवाह से पूर्व उसे उसके भावी पति की एक झलक दिखाकर ही मुग्ध कर दिया था। तब वह क्या जानती थी कि देखने में किसी ग्रीक देवता सा ही वह सुदर्शन तरुण विवाह की पहली रात्रि को ही उन्मत अट्ठास और उससे भी अधिक व्यवहार से उसे सहमाकर जीवनभर के लिए पुरुषमात्र के लिए पत्थर बनाकर छोड़ जाएगा। दूसरे दिन श्वसुर ने ही उसे एकान्त में बुलाकर उससे सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी, ‘‘बेटी, तुमने इसे जैसा कल देखा, ऐसा यह नहीं था। मिरगी के दौरे इसे बचपन से ही पड़ते थे, पर इधर दो वर्षों से वह भी बन्द थे। मैंने सोचा था, सुन्दरी सुशील लड़की को वधू रूप में पाकर यह मानसिक रूप से स्वस्थ हो उठेगा। मैंने तुम्हारे मामा को सब कुछ बता दिया था और यह भी कह दिया था कि वें तुम्हें सब कुछ बता दें। तुम्हें यदि जरा भी आपत्ति हुई, तो यह सम्बन्ध मुझे मान्य नहीं होगा...! उन्होंने निश्चय ही तुम्हें बतलाया होगा, क्यों बेटी ?’’

उत्तर में अनसूया पटेल की बड़ी-बड़ी आँखों से टपाटप आँसू की बूँदें भी गिरी थीं। बार-बार पूछे जाने पर उसने नकारात्मक मुद्रा में केवल माथा हिला दिया।
‘‘ओह, यह तो भयानक अन्याय है हरसुख का। उसने तो कहा-मेरी भानजी को कोई आपत्ति नहीं है, कहती है, स्वयं मेरे कुल में भी तो दोष है, कौन करेगा मुझसे विवाह ? बड़ी समझदार है मेरी अनसूया।’’
‘‘दोष ?’’ अनसूया चोट खाई सर्पिणी-सी ही फूत्कार उठी थी।
‘‘हाँ बेटी, दोष तो मैं स्वयं अपनी आँखों से ही देख चुका था’’, करसनदास भोगीदास कापड़िया का स्वर अनसूया के कानों में जलती सलाखें घुसा गया था, ‘‘तुम्हारी दादी को तुम्हारे दादा ने सीधे मुजरे से खींचकर अपने गृह में प्रतिष्ठित किया था। कहते हैं, मेरे अन्नप्राशन में भी उन्हें पाँच हजार बयाना देकर नाचने बुलाया गया था।’’

अनसूया के लिए यह एक ऐसी चोट थी, जो जीवन भर के लिए इसे पंगु बना गई। ‘‘तुम चिन्ता मत करो, बेटी,’’ करसनदास का स्वर और भी धीमा पड़ गया था, ‘‘अपराधी मैं हूँ, तुम्हारी सास की मृत्यु ने मुझे विक्षिप्त बना दिया था। सोचता था, संसार त्यागी बनकर निकल जाऊँगा, पर इसी पुत्र की माया ने मुझे जकड़ लिया था। अपना सारा साधनामय जीवन मैंने गृहस्थ रहकर ही बिताया। कर्म, ज्ञान और भक्तियोग के गूढ़ तत्त्वों को मैंने इसी गृहस्थाश्रम में आयत्त किया। अब सोचता हूँ, मुझसे निकृष्टतम पाप हो गया है। तुम्हारे मामा ने तुम्हें जान-बूझकर ही अन्धे कुएँ में धकेला और एक धक्का मैंने भी दे दिया। चाहने पर तो मैं तुम्हें गिरने से बचा सकता था। पर जो हो गया है, उसके लिए अब रो-पीटकर क्या लाभ ? मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ, जब तक मैं हूँ बेटी, तुम्हारा कोई भी बाल बाँका नहीं कर सकेगा। मेरी इस अटूट सम्पत्ति की एकमात्र उत्तराधिकारिणी आज से तुम हो। जहाँ चाहो घूमो, जैसे चाहो रहो, तुमसे कभी कुछ नहीं कहूँगा।’’




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