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ओशो साहित्य >> ओशो रस भीज्यों

ओशो रस भीज्यों

स्वामी अगेह भारती

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3729
आईएसबीएन :81-288-1031-6

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ओशो के अनुपम क्षणों का एलबम...

Oso Ras Bhijyo

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘ओशो रस भीज्यों’ आपके लिए अनूठी, रस व प्रेम भरी रचनाएं लेकर आई है जो कि ओशो के एक निकटतम शिष्य स्वामी अगेह भारती की अगाध श्रद्धा और महाभक्ति की भावभंगिमाओं से प्रस्फुटित है। जैसे मीरा कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गलियों में प्रभु-मिलन के भजन और गीत गाती, वैसे ही अगेह भारती की ये रचनाएं ओशो के साथ मिलन एवं विरह में 1967 से 2000 के बीच उनके हृदय के भावों को दर्शाती हैं। ये प्यारी रचनाएं पाठकों को खूब आनंद में डुबाती है एवं साथ ही साथ उनके हृदय में एवं ओशो के प्रति वे प्रगाढ़ भाव श्रद्धा से भर जाते हैं। एक भक्त की दृष्टि से प्रभु श्री को किन-किन कोणों से देखा गया है, पाठकों को उसका स्पष्ट-दर्शन होगा।
ये रचनाएं इन अर्थों में भी अतुलनीय है कि ओशो प्रेमियों में एक स्वामी अगेह भारती द्वारा ही ऐसी अभिव्यक्ति हुई है और शायद वे ही ऐसा कर सकते थे, इसके लिए वे बधाई एवं धन्यवाद के पात्र हैं। उनकी ये रचनाएं भक्ति-रस का स्वाद देने और उसमें डुबाने में समर्थ है।
यह पुस्तक उन अनुपम क्षणों का एलबम है जिन्हें स्वामी अगेह भारती ने प्राण-प्रण से जिया और पिया है। इस अनूठी अनुगूंज का स्वागत है।
सानुराग,
देव अनुरागी
कवि एवं लेखक
‘ओशो टाइम्स’, के पूर्व अतिथि सम्पादक

अपनी बात

ओशो मेरे लिए वही हैं जो राधा के लिए कृष्ण, आनंद के लिए बुद्ध या हनुमान के लिए राम है। ओशो में मैंने कृष्ण, बुद्ध, महावीर, जीसस, मुहम्मद, लाओत्सू, कबीर, नानक, मीरा, दरिया, सहजो सब को जिन्दा पाया है। मेरे लिए तमाम-तमाम ज्योति पुरुष जो पृथ्वी पर कभी भी चले हैं, अब पु्स्तकों व कहानियों की चीज़ नहीं रह गए हैं। वे सब साक्षात् हैं। ओशो के रूप में वे कभी मिटते नहीं, देखने वाले को दिखते हैं, सदा दिखते रहेंगे। संग्रहीत रचनाएं ओशो के निकट ओशो को जीने में ही प्रस्फुटित हुई हैं। भले कोई ‘मित्र के नाम’ हो पर केन्द्र में ओशो हैं। ओशो के लिए ही कहीं भगवान्, कहीं प्रभु, कहीं प्रभु जी संबोधन दिए हैं।
ये रचनाएं 1967 से 2000 के बीच लिखी गईं। विभिन्न कोणों से ओशो के साथ जिए गए क्षणों की अभिव्यक्ति हैं। इसमें एक महाआंदोलन की झलक भी है।
इन रचनाओं को चुनना एवं संग्रहीत करना सब मा क्रांति अपूर्वम् (नीतू शर्मा) ने किया है। यदि उन्होंने न किया होता तो ये रचनाएं कभी प्रकाशित हो पाती या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। ज्यादा संभावना है कि मुझसे अब इतना श्रम नहीं हो पाता और भगवान के प्रति एक भक्त के भाव प्रेमियों तक न पहुँच पाते। पर अपूर्वम् जी ओशो के प्रेम में इतना गहरे डूबी हैं कि उन्हें धन्यवाद देना मात्र एक शिष्टाचार होगा जो कि मैं नहीं पसंद करूंगा। वह स्वयं ओशो-भक्त हैं। अत: उन्हें नमन अवश्य करता हूँ। मा बोधि सफ़ी (डॉ.ज्योति अरोड़ा) ने संकलन के समय कुछ मूल्यवान सुझाव दिए, उनको भी नमन। साथ ही सुधी पाठकों व समस्त ओशो प्रेमियों को प्रणाम।
स्वामी अगेह भारती

गुज़र गया जमीं


गुज़र गया जमीं पे अभी कोई
के जिसकी खुशबू हर कहीं हवा में है।
इस तरह बेशर्त बांटा प्यार उसने
के हर तरफ, हर कोई उत्सव में है।
गीत गाया गद्य में, उसने किया कुछ यूं कमाल
पद्य फीके  हो गए सब, जो जहां, जहां में है।
ध्यान का स्वाद चखाया, प्रार्थना में प्राण फूंका
भक्ति रस ऐसा पिलाया कि हर कोई नशे में है।
हो रहा है कुछ हमें, इश्क में उस यार के
जिसका मुझे पता नहीं, अब वो मेरे दिल में है।

मैं नाराज़ हूं



मैं नाराज़ हूं
मैं नाराज़ हूं इस दुनिया से
जिसने आधुनिकतम मसीहा-ओशो-
को नहीं समझा
और उनके साथ ठीक व्यवहार नहीं किया।
मैं नाराज़ हूं
हां, मैं अत्यधिक नाराज़ हूं
अमरीका की हत्यारी सरकार से
जिसने मात्र अपनी हिंसा व बेईमानी के बल पर
अब तक के सबसे कोमल मनुष्य-ओशो को
अपमानित किया और ज़हर दिया।
मैं नाराज़ हूं
हां, मैं अत्यधिक नाराज़ हूं
भारत की नपुंसक सरकार से
जिसने आज तक की इस धरती के श्रेष्ठतम बेटे
-ओशो-की तरफ अब तक ध्यान नहीं दिया !
मैं अभी भी कुछ देर ठहरा हूं
कि लोग सामने आवें,
और उस व्यक्ति को समझें
जो मात्र इनके हित जिया
और इनके हित प्राण दिया
और यदि नहीं आते तो
मैं संसार के विनाश की कामना करने लगूंगा,
और तब फिर कोई इस पृथ्वी को बचा न सकेगा !
कोई नहीं बचा सकेगा !!
यह कविता नहीं, एक भक्त की आवाज़ है !
हां, एक भक्त की आवाज़ है !!

हे मेरे परमदेव !



हे मेरे परमदेव !
चाहता हूं कि
मेरे सामने कोरा कागज हो
और हाथ में कलम
और मन में तुम्हें लिखने की उत्कटता...
और ठीक उसी क्षण
मृत्यु अपने आंचल में मुझे ढंक ले
ताकि कोई जान भी न पाये कि
मैं क्या लिखने वाला था व किसे !
बस तू जाने और मैं !

हे प्रभो !



हे प्रभो !
अब मैं जान गया हूं कि तू
मेरे अत्यन्त निकट है
और मेरी हर गतिविधि तेरे नियंत्रण में हो गई है,
हां, मैं आज आनंद की अधिकता में रो पड़ा हूं
जब ज्ञात हुआ कि
श्वास-प्रश्वास पर भी मेरा वश नहीं है
और मैं इतना स्वतंत्र हो गया हूं
कि स्वतंत्र ही नहीं रह गया....।

मेरे प्रेम!



मेरे प्रेम !
तुम्हें पुकारना चाहता हूं कई बार
समग्र चेतना से पुकारना चाहता हूं
मगर पता है कि
जिह्वा हो गई है जड़
शब्द गए हैं अटक
और कहीं कचोटने लगा है-
‘मैं कौन हूं ?’
मगर आह !
क्षण भर बाद ही
कचोट भी जाती भटक...
काश ! वह लम्बी हो जाती....
इतनी लम्बी-जितनी लम्बी डगर..!

मैं धन्य हूं कि



मैं धन्य हूं कि
मेरा मार्गदर्शक स्वयं ‘तू’ है
मगर यह ‘मैं’ और ‘तू’ की व्यथा
कितनी अधिक व अनिवर्चनीय है प्रभो !
क्या तू नहीं जानता ?
फिर क्यों नहीं खुलता पूर्णत: ?
क्या मैं ‘योग्य’ अथवा ‘अयोग्य’ हूं ?
मुझे तो कुछ नहीं पता,
...यह भी नहीं कि मैं कौन हूं!

मेरे परमदेव



मेरे परमदेव
मैं अगर कहूं कि
तुम्हें परमात्मा मानता हूं
तो यह तुम्हारे ही विरोध में होगा
क्योंकि तुम मानना नहीं-जानना सिखाते हो,
और मैं हूं कि
कुछ जान नहीं पाता
सिवा इसके कि
जीवन भर तुम्हारी स्तुति करूं
तो भी वह कम है,
अत: कुछ नहीं कहता...!
मैं कुछ नहीं करता...!!

प्यारे प्रभो



प्यारे प्रभो
आज तेरे जन्म-दिन पर
मैंने भी चाहा था कि
कुछ लाऊं
और तेरे चरणों में भेंट करूं
मगर
बहुत ढूंढ़ा...बहुत ढ़ूंढ़ा...
मुझे कुछ मिला ही नहीं
जो ‘मेरा’ हो,
आह !
धरती पर सुगंध बनकर बरसने वाले !
क्या मेरे खाली हाथ स्वीकार कर लोगे ?
और मुझे तो एक और भी हैरानी होती है नाथ!
कि क्या सचमुच ही
तेरा कोई जन्म-दिन है ?

मैं चारों तरफ



मैं चारों तरफ फैली हुई
जमीन देखता हूं
जिसका ओर-छोर नहीं सूझता,
मगर कहीं दिखती नहीं चार फीट जगह
जहां रह सकूं स्वतंत्र,
जहां मुझे हिन्दू, मुसलमान, जैन या ईसाई की
कोठरियों में होना न पड़े बन्द,
जहां मैं रह सकूं मनुष्य...
कहां है जमीन का एक भी टुकडा मेरे लिए ?
कहां हैं कोई शिक्षण-केन्द्र
जहां पूछी न जाए जात ?
कहां है ऐसा मनुष्य
जो हमें केवल मनुष्य होने के कारण
प्रेम दे ?
आह मेरे ओशो !
तुम एक जरूर मिले हो
जो मुझे केवल मनुष्य की तरह गले लगाते हो,
मगर मैं तुम्हारी छाती पर तो नहीं रह
सकता न !
रहने के लिए चाहिए जमीन...
और वह कहां हैं ?
कहां जाऊं ?
कहां रहूं ?
कैसे जिऊं?
किसे कहूं ?
-पृथ्वी मनुष्यों के लिए कब होगी ?

मैं भूल में



मैं भूल में था
प्रभो !
तुम बिलकुल भी महान नहीं हो
क्योंकि कण-कण में तुम ही तो व्याप्त हो,
फिर कौन महान् है ?
किससे महान् है ?




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