निस्संदेह चेहरा मनुष्य की आन्तरिक स्थिति को दर्पण के समान दिखा देता है। आवश्यकता इस बात की है कि उसे देखने और समझने योग्य ज्योति आँखों में हो। इस पुस्तक में चेहरे के हाल, भँवें, मस्तक, कान, नाक, दाँत, ठुड्डी, मुँह तथा आँखों के सम्बन्ध में हम लिखेंगे। हस्त रेखा, छाती, हाथ, पाँव, कमर, पीठ आदि अंगों के बारे में शीघ्र ही एक अलग पुस्तक प्रकाशित करेंगे।
किसी हाट बाजार में बैठी हुई सुस्ताती हुई रूपवती नवयुवती के समीप खड़े होइए और देखते रहिए कि उधर से निकलने वाले लोगों की किस प्रकार की दृष्टि उस पर पड़ती है। स्त्री, पुरुष, बालक, वृद्ध, बालिका की दृष्टि उस युवती पर जायगी पर उनमें एक-दूसरे की अपेक्षा बहुत अन्तर होगा। किसी की दृष्टि में वासना, किसी की में कामुकता, किसी में स्नेह, किसी में भूख, किसी में लालच, किसी में कुढ़न, किसी में तिरस्कार, किसी में वैराग्य, किसी में घृणा भरी हुई भावना आपको दिखाई देगी।
यह विभिन्नताएँ बताती हैं कि उन देखने वालों में से किस-किस का कैसा स्वभाव है। विगत जीवन में इस प्रकार की किसी युवती से जिसे जैसा वास्ता पड़ा होगा उसकी वैसी ही अनुभूति जागृत होगी। जिस वृद्धा को अपनी इतनी ही बड़ी ऐसी ही पुत्री का वियोग सहना पड़ा होगा उसके नेत्रों में इस अज्ञात युवती के प्रति भी वात्सल्य भाव उमड़ आवेगा। देखने वाला जान सकता है। भूत यह कि इस वृद्धा को इस प्रकार की कोई लड़की कभी प्यारी रही है, वर्तमान यह कि अब उसका वियोग इसे सहना पड़ रहा है। यह तो एक सामयिक घटना हुई, किसी घटना का कोई जोरदार प्रभाव पड़े तेा उसके संस्कार गहरे उतर जाते हैं और वे किसी साधारण समय में भी नेत्र आदि अंगों में जमे हुए भाव अन्य लक्षणों को देखकर पहचाने जा रहे हैं।
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