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शहीद भगत सिंह क्रांति में एक प्रयोग

कुलदीप नैयर

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3708
आईएसबीएन :81-7182-750-0

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शहीद भगत सिंह पर आधारित पुस्तक...

Shahid Bhagat Singh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भगत सिंह का जीवन इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विपरीत लक्षणों में से एक है। वे बम्ब और पिस्तौल के धर्म में विश्वास नहीं करते थे। तब भी उन्हें ‘सैन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली’ में बम्ब फेंकने के लिए गिरफ्तार किया गया था और उन्हें एक पुलिस अफसर की पिस्तौल से हत्या कर देने के लिए 1931 में फाँसी पर लटका दिया गया था।

वे उस समय में जिए जब आज़ादी की पुकार भारत को झकझोर रही थी। मुकद्दमे के दौरान भगत सिंह और उनके साथियों ने सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है-गीत गाया, जिससे हर भारतीय के दिल में जलती हुई आज़ादी की चाह को एक आवाज़ दी।

भगत सिंह एक सच्चे क्रान्तिकारी थे। उन्होंने ही सबसे पहले इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा दिया, जो कि बाद में भारत की आज़ादी की लड़ाई में उद्घोष बन गया। क्रांति की वेदी पर उन्होंने अपनी जवानी को फूल की तरह चढ़ा दिया। वे मरे ताकि भारत जी सके।

जब उनको फाँसी दी गई वे केवल 23 वर्ष के थे। उस वक्त तक, वे एक अपूर्व व्यक्ति बन गए थे जिस तरह बिना किसी डर के वे जिए-उसी तरह बिना किसी डर के वे मरे। जैसा कि उन्होंने खुद कहा था, वे ‘फाँसी के तख्ते पर भी ऊँचा सिर करके खड़ा होने की कोशिश कर रहे थे।’
अब बहुत से क्रान्तिकारी इतिहास की किताबों में सिर्फ एक नाम बनकर रह गये हैं मगर फाँसी के सत्तर साल बाद भी भगत सिंह की याद राष्ट्र में ताज़ी है।
कुलदीप नैयर, उनके हीरो होने पर और उनकी मानवता पर, उनके सपनों और निराशा पर एक सटीक नज़र डालते हैं।

इस पुस्तक में बहुत-सी विशिष्ट सामग्री है। पहली बार, इस पुस्तक के माध्यम से बताया गया है कि राजहंस वोहरा ने भगत सिंह और अपने साथियों के साथ विश्वासघात क्यों किया। सुखदेव, जिन्हें भगत सिंह के साथ फाँसी दी गई थी, उन पर एक नया प्रकाश डालती है।

कुलदीप नैयर देश के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक पत्रकारों और लेखकों में से एक हैं और चार दशकों से भी अधिक समय से तथ्यों की धुरी पर हैं। वे लन्दन में भारत के उच्च रहे। वर्तमान में राज्य सभा के सदस्य हैं।

भूमिका

शहीद भगत सिंह और उनके दो साथियों राजगुरु व सुखदेव को याद रखने के लिए आज पाकिस्तान में एक ईंट तक नहीं है। लाहौर सैन्ट्रल जेल जहाँ इन तीन क्रांतिकारियों को 23 मार्च सन् 1931 को फाँसी पर लटका दिया गया था, आज लगभग पूरी तरह खत्म हो चुकी है। वो कोठरियाँ जिनमें उन्हें रखा गया था, आज धूल में मिल चुकी हैं। मानो वहां की संस्थापना उनके शहीद होने की निशान भी नहीं चाहती हो। सम्बद्ध प्रशासन ने वहाँ रिहायशी कॉलोनी ‘शैडमैन’ को मंजूरी दे डाली। शहीद भगतसिंह की कोठरी के ठीक सामने एक आलीशान मस्जिद की दीवारें हैं। इस मस्जिद और जेल के बचे-खुचे अवशेषों के बीच से गुज़रने वाली सड़क एक मानसिक अस्पताल पर जाकर खत्म होती है।
मैन ‘शैडमैन’ में रहने वालों से पूछा—‘‘क्या वो जानते हैं, भगत सिंह कौन थे ?’’ उनमें से अधिकांश इस नाम से जानते थे। कुछ लोगों को शहीद भगतसिंह की फाँसी के बारे में भी कुछ-कुछ याद है। लगभग पचास साल के एक आदमी ने बताया कि, ‘जब हम यहाँ आए थे यहाँ पुलिस-क्वाटर्स के अलावा कुछ भी नहीं था, लेकिन कॉलोनी के फैलते हुए वो भी गिरा दिए गए।’’

फाँसी का तख़्ता जहाँ तीनों क्रांतिकारियों को फाँसी लगाई गई थी, आज यातायात निर्देशक गोलचक्कर बन चुका है। इसके चारों तरफ गाड़ियों के धुएँ, शोर और उनसे उड़ी धूल का राज है।

इस गोलचक्कर के बारे में एक कहानी भूतपूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की मृत्यु के दो दशक बाद बार-बार सुनाई जाती है। ऐसा कहा जाता है कि अहमद रज़ा कसूरी के पिता नवाज़ मोहम्मद अहमद खान उस वक्त के पाकिस्तान नेशनल असेम्बली के सदस्य, को इस जगह गोली मारी गई थी। कसूरी की हत्या का आदेश भुट्टो ने जारी किया था। जब स्वाचलित हाथियारों से गोलियाँ चलाई जा रही थीं, कसूरी इसी गोल चक्कर पर सौदा कर रहा था। कसूरी के पिता जो उसके पास उसी जगह बैटे थे जहाँ फाँसी की तख्ता था, बुरी तरह से घायल हुए। कसूरी के दादा उन लोगों में से एक थे, जिन्होंने तीनों क्रांतिकारियों शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शरीर की शिनाख़्त की थी। पुराने लोगों का मानना है कि ‘नैमेसिस’ (बदले की देवी) ने कसूरी परिवार को इसी गोलचक्कर पर धर दबोचा। ये कहानी मेरे दिलो दिमाग पर गहरी छाप छोड़ गई और मैंने सोच लिया कि एक न एक दिन शहीद भगत सिंह के बारे में जरूर लिखूँगा।

ये किताब लिखने का विचार बाद में लाहौर में ही पनपा। अस्सी के दशक में लाहौर में विश्व पंजाबी सम्मेलन हुआ था, जिस हॉल में कान्फ्रैंस हुई उस पूरे हॉल में एक ही तस्वीर थी और वह थी शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की। मैंने आयोजकों से पूछा उन्होंने अपनी तरफ के एक मशहूर पंजाबी ‘मोहम्मद इकबाल’ को नजरअंदाज़ क्यों किया ? जबकि ‘इकबाल’ ने पाकिस्तान के आस्तित्व को एक आयाम प्रदान किया था। आयोजकों का उत्तर चौंका देने वाला था, ‘‘केवल एक एक ही पंजाबी है जिसने देश की आज़ादी के लिए प्राणों का बलिदान दिया और वो है भगत सिंह।’’

इसके बाद भी किताब लिखने का विचार मेरे अंदर ही अंदर सुलगता रहा। मेरा यही विश्वास था कि समय-समय पर भगत सिंह के विषय में कुछ न कुछ प्रयोगात्मक तौर पर लिखा जाता रहा है। परंतु इसी उधेड़-बुन के चलते मुझे हरजिन्दर सिंह और सुखजिन्दर सिंह की एक चिट्ठी मिली, ये दोनों जनरल ए.एस. वैद्य हत्याकाण्ड में पूना जेल में अपनी फाँसी का इन्तज़ार कर रहे थे। उन्होंने जो कुछ लिखा उसने मुझे किताब के बारे में गम्भीरता से विचार करने के लिए झकझोड़ डाला। उनका प्रश्न था—‘‘किस आधार पर उन्हें आतंकवादी और भगतसिंह को क्रांतिकारी कहा गया।’’
उन्होंने अपने कृत्य को उपयुक्त बताते हुए कहा—भगत सिंह ने शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय की अंग्रेजों द्वारा नृशंस हत्या का बदला लिया था और उन्होंने जनरल वैद्य द्वारा सन् 1984 में स्वर्ण मन्दिर पर की गई कार्यवाही की भूमिका तैयार करने का बदला लिया। मुझे डर बैठ गया कहीं ऐसा न हो हर आतंकवादी अपनी तुलना भगत सिंह से करने लगे। इसलिए यह आवश्यक हो गया था कि उनके (भगत सिंह के) जीवन दर्शन के साथ-साथ आतंकवाद और क्रांति के बीच अन्तर का वर्णन किया जाए।

भगत सिंह ने अपने ही शब्दों में हत्या को क्रांतिकारी इस प्रकार कहा है—‘‘मानव जीवन की पवित्रता के प्रति हमारी पूर्ण श्रद्धा है, हम मानव जीवन को पवित्र मानते हैं.....हम जल्दी ही अपना जीवन मानवता की सेवा में समर्पित कर देंगे, तभी किसी को हानि या पीड़ा पहुंचाने की सोच सकते हैं।’’

ये हत्याएँ कोई बदला या बदले की भावनाएँ नहीं हैं। उन्होंने कहा—‘‘इनकी एक राजनीतिक महत्ता है जो कि एक मानसिकता और वातावरण बनाने में सहायक होगी और यह आज़ादी की निर्णायक लड़ाई के लिए आवश्यक है।’’

मेरे शोध को लगभग सात साल का समय लगा। इस काम के लिए संभवतः पाकिस्तान के अभिलेखागार सबसे उपुक्त स्रोत थे। परंतु भारतीयों के लिए इनके दरवाज़े बन्द थे। नई दिल्ली और इलाहाबाद के बीच इस तरह का कोई करारनाम नहीं है, जिसके चलते एक दूसरे के नागरिक उनके अभिलेखागारों में आ-जा सकें। पाकिस्तानी सरकार तक मैं एक मित्र के माध्यम से पहुंचा। परंतु मुझे एक बिना सिर पैर के बहाने का सामना करना पड़ा। ‘उन्होंने’ कहा कि उन्हें कहीं डर है कि वो सिक्ख समस्या में न फंस जाएं। मैं इसे बिल्कुल भी न समझ पाया, सिवाय इसके कि सन् 1931 में हुए उस काण्ड में भगत सिंह सिक्ख थे।

उधर लंदन की ‘इण्डियन ऑफिस लाईब्रेरी’ में भी इस विषय पर प्रयोगात्मक तौर पर या प्रभावी रूप से कुछ भी नहीं है। लाइब्रेरी द्वारा इसकी अधिकांश किताबें, रिपोर्टर और दस्तावेज किसी तरह पूरे इंग्लैंड में वितरित किए गए। इसका उद्देश्य भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जो कि ब्रिटेन के उपनिवेश रह चुके हैं, उनकी इस चुनौती को फीका करना था। कि आज़ादी के बाद उन्हें क्या मिलना चाहिए। उपमहाद्वीप के बँटवारे के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों ही इस लाइब्रेरी के बंटवारे के लिए एक नतीजे पर नहीं पहुंच पाए और ब्रिटेन इसे हड़प जाने का एक बहाना मिल गया।
‘प्रिवी काऊन्सिल’ में इन तीनों क्रांतिकारियों की सज़ा के विरोध में दायर अपील के कुछ साक्ष्य ज़रूर थे और हमारे अभिलेखागारों में भी है। मेरा ऐसा अनुभव रहा कि उन प्रमाणित पत्रों को या तो नष्ट कर दिया गया या कहीं दबा दिया गया। परंतु ऐसे गुप्त तार (टेलीग्राम) और कागज़ात कहीं न कहीं ज़रूर हैं, जिनसे पता चलता है कि ब्रिटिश सरकार भगत सिंह और उनके दोनों साथियों को फांसी देकर इस क्रांतिकारी आंदोलन का गला घोंटना चाहती थी।

संभवतः भारत में इस विचार की जड़ फ्रांसीसी क्रांति, अमरीका की आज़ादी की घोषणा और रूस में बोल्शेविक की क्रांति से पड़ी। किसानों, मजदूरों, पीड़ितों, की एक सामाजिक बुराई, असमानता और सामाजिक उत्पीड़न के सामने एक साथ खड़ा हो जाना, ये आज़ादी की लड़ाई का एकीकृत भाग था। मैंने अपने शोध कार्य के दौरान ये भी पाया कि भगत सिंह ने जेल में लगभग चार किताबें लिखीं ‘हिस्ट्री ऑफ दि रेव्युल्यूशनरी मूवमेंट इन इण्डिया’, ‘दि आईडियल सोशलिज़्म’, अपनी जीवनी और ‘एट दि डोर ऑफ डेथ’। मुझे ऐसा बताया गया कि इन किताबों की हस्तलिपि क्रांतिकारियों द्वारा उनकी फांसी से पहले ही चोरी छिपे जेल से बाहर निकाल ली गई थी। इन हस्तलिपियों को क्रांतिकारियों के संरक्षण में ही रखा गया, मगर चालीस के दशक में इन्हें कुमारी लज्यावती को सौंप दिया गया, जो बाद में क्रेन्द्रीय महाविद्यालय जालंधर की प्रिंसिपल बनीं। लज्यावती जो कि अब जीवित नहीं हैं, उन्होंने ये हस्तलिपियां बंटवारे से कुछ समय पहले ही भारत भेजने के उद्देश्य से लाहौर में ‘किसी को’ सौंप दी।

इस अनजान आदमी ने जिसकी कोई शिनाख्त नहीं मिली, लज्यावती को बताया कि बंटवारे के दंगों में डर के कारण उसने इन हस्तलिपियों को अगस्त 1947 में जला डाला। मैं समझता हूँ कि ये कहानी कतई प्रमाणिक और विश्वसनीय नहीं हैं। एक न एक दिन ये हस्तलिपियाँ सामने जरूर आएंगी।
इस किताब के लिए लेखन सामग्री इकट्ठा करने में मेरा सबसे पहला काम ‘भगत सिंह’ के दो भाइयों को ढूँढ़ना था। छोटे भाई कुलतार सिंह को मैंने सहारनपुर में पाया। उनसे प्राप्त भगत सिंह की निकट संबंधियों के साथ आखिरी मुलाकात की जानकारियाँ बहुत उपयोगी सिद्ध हुईं। मैंने ये भी पाया कि पूरे परिवार में एक राष्ट्रीय धारा बह रही थी। जब भगत सिंह का जन्म हुआ, उनके चाचा अजीत सिंह, लाला लाजपतराय के साथ बर्मा जेल में उन्हीं की कोठरी में थे। उनके दादा का कांग्रेस को हमेशा खुल्लमखुल्ला सहयोग रहा। मैं बड़े भाई कुलबीर सिंह तक पहुंचने में भी सफल रहा, मगर हमारी अगली मुलाकात से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई।

सन् 1992 में मुझे सुखदेव के छोटे भाई मथुरादास थापर का पता मिल गया। उसी समय मैंने उन्हें एक चिट्ठी लिखी। थापर ने इसका जवाब मार्च 1993 में दिया। उनकी दर्द भरी कहानी दिल को छू जाने वाली थी। उन्होंने लिखा, ‘वो लायल पुर (पाकिस्तान में फैसलाबाद) जा रहे हैं। यहां पंजाब पुलिस सुखदेव का भाई होने की वजह से मुझे लगातार परेशान करती है।’’
82 वर्षीय थापर की हालत दर्दनाक और मर्मभेदी थी। मेरी चिट्ठी के जवाब में उन्होंने आगे लिखा, ‘राजनैतिक कष्ट झेलने वाले अन्य व्यक्तियों के बारे में लिखने के लिए मुझे क्षमा करें, डॉ. किचलू के बेटे को 5000 रुपये माहवार और रहने के लिए मुफ्त मकान दिया गया। डॉ. किचलू के बेटे के साथ हमारे बलिदान की तुलना करें।’’

उन्होंने मेरा ध्यान ‘लाहौर षड्यंत्र’ की अदालती कार्यवाही की किताब पर आकर्षित किया, यह किताब वो लाहौर से अपने साथ लाए थे तथा बाद में राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में जमा कराई। इस अदालती कार्यवाही में सुखदेव की कुछ टिप्पणियाँ भी थीं, जो कि वो फांसी से पहले पढ़ भी सके। उर्दू में लिखी इस कार्यवाही की मूल प्रति पाकिस्तान में मौजूद है, जो मैंने पढ़ी भी है।

थापर की वो चिट्ठी आज भी मेरे पास है (देखें संदर्भ-1) इस तरह खत्म होती है। ‘‘उम्मीद करता हूँ ऐतिहासिक महत्त्व की एक उत्तम रचना करने में आपके काम आयेगी।’’ मैं नहीं जानता कि उन्होंने इस किताब का आकलन किस तरह किया। शायद मेरी ये रचना ‘उत्तम’ न हो। मगर मैंने पूरी कोशिश की है कि आपके सामने भगत सिंह को ठीक उसी तरह प्रस्तुत करूँ जैसे वो जिए, जैसे वो सोचते थे और जैसे वो शहीद हुए।
उनके परिवार के एक संग्रह से मैं थापर और हंसराज वोहरा जो बाद में सरकारी गवाह बन गया था दोनों के बीच के पत्राचार को भी पढ़ने में सफल हो सका। इस पत्राचार में विशेष रूप से वो चिट्ठियाँ थीं जिनमें वोहरा ने अपना सरकारी गवाह बनने का फैसला लिखा है। किताब के परिशिष्ठ में इस पर आप थापर की टिप्पणियाँ पाएंगे।

कुलतार सिंह से मुझे मालूम हुआ कि भगवती चरन जो कि उस समय के बड़े क्रांतिकारी थे, उनकी पत्नी दुर्गा अपने बेटे के साथ गाजियाबाद जा रही हैं, जब चार-साल पहले मैं, दुर्गादेवी से मिला वो अक्सर अपनी याद में खो बैठती थीं, फिर भी किसी न किसी तरह से उन्होंने मुझे वो पूरा विवरण दिया जिसके चलते भगतसिंह, पुलिस सुपरिंटेंडेंट जे.पी. सॉन्डर्स की हत्या के बाद लाहौर से बच निकले थे। इसके कुछ ही महीने बाद दुर्गा देवी की मृत्यु हो गई।

भगत सिंह की ये कहानी और उनका दर्शन कह पाने में, उन पर लिखी अनेक किताबें और उनके अनेक लेखो से मुझे बहुत मदद मिली। उनको समर्पित ये शब्द उनकी चिट्ठियों भाषणों और कथनों से ही लिए गए हैं। याथार्थ से मैंने कोई छेड़-छाड़ नहीं की है। उस समय के पुलिस प्रमाणों से मुझे पता चला है कि ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों के दमन के लिए किस-किस तरह के तरीके अपनाती थी। हमारे अभिलेखागारों में मौजूद बहुत कम खूफिया रिपोर्टों से भी बहुत सहायता मिली। पश्चिम बंगाल की सरकार के पास तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान ‘टैरिरिस्म इन बंगाल’ के नाम से छः भागों वाला एक सूचना भण्डार मौजूद है, मैंने इस संग्रह से भी कुछ सूचनाओं का उपयोग किया है।

महात्मा गांधी के बहुत से लेख भी क्रांतिकारियों की स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने क्रांतिकारियों के साहस की प्रशंसा की है, परंतु हथियारों के प्रयोग की नहीं। उन्होंने क्रांतिकारियों के समर्पण भाव पर कभी सन्देह नहीं किया, मगर उनका विश्वास था कि बलपूर्वक भारत को अंग्रेजों के पन्जों से आज़ाद नहीं कराया जा सकता था।

गांधी जी और शहीद भगत सिंह मूल्यों की दृष्टि से एक दूसरे के बिलकुल विपरीत थे। भगत सिंह बल प्रयोग में विश्वास रखते थे और आज़ादी पाने के लिए इससे कभी मुंह नहीं मोड़ा। दूसरी ओर गांधी जीवन भर अपने अहिंसा के सिद्धांत से जुड़े रहे तथा किन्हीं और मूल्यों से समझौता नहीं किया। ये दोनों भारतीय स्वतंत्रता के दो अलग-अलग किनारे हैं।

पट्टाभी सीतारमैया द्वारा लिखे ‘काँग्रेस के इतिहास’ में गांधी और भगत सिंह दोनों को बराबर लोकप्रिय बताया है। भगत सिंह को ये एक बड़ी श्रद्धांजली थी। एक को उसकी सत्य के प्रति निष्ठा और दूसरे को उसकी बहादुरी के लिए माना जाता है। जब भगतसिंह पहली बार गांधी से मिले वे केवल 21 साल के थे और गांधी 59 साल के। मैंने उन दिनों के अखबारों को पढ़ा, मैंने उन लोगों में भी बात की जो भगत सिंह को जानते थे। उन लोगों में से अधिकतर अब नहीं हैं। सबसे अच्छा स्रोत उनका एक दोस्त ‘वीरेन्द्र’ जालंधर से छपने वाले ‘दि प्रताप’ का संपादक रहा। पांच साल पहले उसकी मृत्यु हो गई। जिस समय भगत सिंह और उनके साथियों पर मुकद्दमा चल रहा था, वीरेन्द्र लाहौर सेन्ट्रल जेल में थे। वीरेन्द्र के भी दोषी होने का शक था, परंतु प्रामाणिक तौर पर उसके खिलाफ कुछ न मिल पाने के कारण मजबूरी में उन्हें छोड़ दिया गया।

इस किताब को पूरा करने में बहुत से लोगों ने मेरी मदद की है। इनमें कविता मेरी छोटी बहू, जिसने मुकद्दमे पर शोध किया; आर. रामचन्द्रन, सुब्रमनयम और गोपाल जिन्होंने इसे टाइप किया और ड्राफ्ट को कम्प्यूटर में डालने से पहले दुबारा टाइप शामिल है। मैं इनका धन्यवाद करता हूँ, मैं नीलिमा राव का भी धन्यवाद करता हूँ, जिन्होंने किताब का कवर बनाया है।



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