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कलजुगी उपनिषद

दयानन्द वर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3702
आईएसबीएन :81-7182-373-4

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एक विचारोत्तेजक उपन्यास...

Kalyugi Upnishad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


जो जन अविद्या अर्थात भौतिकवाद की उपासना करते हैं, वे गहन अंधकार में हैं। जो जन विद्या अर्थात अध्यात्मवाद में रहकर अविद्या की परवाह नहीं करते, वे उससे अधिक गहरे अंधकार में जा पहुंचते हैं।
लेखक का यह रोचक उपन्यास अनेक ज्वलंत प्रश्नों का उत्तर देता है, और अनेक नये प्रश्न उठाता है।

पूर्व पीठिका


देवराज की अंत्येष्टि में काफी लोग थे किंतु उनमें साहित्यकार मेरे सिवा कोई न था, जिससे बातचीत करके मैं समय काटता।
अड़ोस-पड़ोस के लोग आपस में बातचीत कर रहे थे। विषय था-मुखाग्नि कौन देगा। यह प्रश्न हरेक के मन में इसलिए कुलबुला रहा था कि देवराज की कोई नर संतान न थी। भाई-भतीजे अनेक थे, किंतु उनकी संतान मात्र एक बेटी थी। बेटी के दो बच्चे, एक लड़का, एक लड़की।

कई जनों का विचार था कि देवराज के पैतृक परिवार का कोई सदस्य दाह-संस्कार करेगा। कइयों का अनुमान था कि यह काम दोहता करेगा किंतु यह देखकर सब चकित रह गये कि मुखाग्नि बेटी ने दी।
देवराज के निकटस्थ मित्र ने बताया कि ऐसा देवराज की वसीयत के अनुसार हुआ है।
परंपरा-प्रेमियों को यह संस्कार अधर्म जैसा लगा और नवीनता-प्रेमियों को एक क्रांतिकारी कदम किंतु यह क्रान्तिकारी कदम किसी समाचारपत्र के किसी कोने में स्थान न पा सका क्योंकि उपस्थित जनों में पत्रकारिता-क्षेत्र का कोई व्यक्ति न था।

देवराज अनेक पुस्तकों का रचयिता था किंतु वह साहित्यिक गतिविधियों में भाग नहीं लेता था। मैंने उसे अनेक बार कहा था कि आजकल ज़माना मेल-जोल का है। कभी-कभी कॉफी हाउस में जाया करो या प्रेस क्लब में जाकर गिलास टकराया करो पर तुम हो कि हर समय किताबों में डूबे रहते हों किंतु उस पर मेरी सलाह का कोई असर न होता था। कहने लगा ‘‘साहित्यकार कैमरे की वह रील है, जो अंधेरे में काम करती है। रील को उजाला लग जाए तो बेकार हो जाती है।’’
मैंने कहा, ‘‘उस रील के प्रिंट को प्रसिद्धि तभी मिलती है जब आर्ट गैलरी में उसका डिसप्ले होता है। वर्ना अंधेरे में अंकित उस कमाल का किसी को पता नहीं चल सकता।’’

‘‘आर्ट गैलरी में डिसप्ले, जैसे जंगल में मोर नाचा। मोर का नाच देखने के लिए दर्शक तभी जुटते हैं, जब ढोल बजाकर यह खबर फैलाई जाए कि अमुक स्थान पर, अमुक समय मोर नाचेगा। यह ढोल पाने और बजाने में जितना मानसिक और शारीरिक श्रम खर्च होता है, उस श्रम को अपनी रचना पर लगाने से रचना का स्तर सुधरता है।’’ देवराज ने जबाब दिया।
‘‘वह स्तर किस काम का जिसकी किसी को खबर न हो।’’ मैंने कहा। ऐसे अवसरों के लिए गोस्वामी तुलसीदास का यह पद्यांश मुहावरे के तौर पर देवराज ने मुझे कहा,‘‘स्वातं: सुखाय।’’

देवराज मुझसे पांच वर्ष बड़ा था। पैसठवां पार करते ही कहने लगा, ‘‘घुटनों में दर्द रहने लगा है। एड़ियों पर दबाव अधिक पड़ता है। डॉक्टर कहता है, बुढ़ापे में हड्डियां बढ़ जाती है, कैल्शियम लेते रहिए और मेरी बतायी हुई एक्सरसाईज करते रहिए और जूते के सोल में स्पंज लगवा लीजिए। इससे ठीक न होगा तो ऑपरेशन करके हड्डी को काटकर छोटा करना पड़ेगा।’’ उस दिन देवराज बहुत उदास दिखाई दिया।

कुछ दिन बाद कहने लगा, ‘‘याद्दाश्त कमजोर होती जा रही है। फोन करने के इरादे से रिसीवर उठाता हूं और भूल जाता हूं किसे फोन करना है। परिचित चेहरे को देखकर यह याद नहीं आता कि उसे कहां और किस सिलसिले में देखा है।’’
देवराज की कमजोर याद्दाश्त को मैं उसका वहम मानता था क्योंकि मैं देखता था कि इतिहास-पुराण की दशकों पहले पढ़ी गयी कथाएं उसे भली-भांति याद थीं। उसके अंतर में कंप्यूटर जैसा कुछ लगा हुआ था, जिससे आज की हर मुख्य धार्मिक, सामाजिक या राजनैतिक घटना के समकक्ष इतिहास-पुराण की वैसी घटना उसके स्मृति-पटल पर आ जाती थी।

इसकी इस क्षमता की एक मिसाल मेरे सामने आई। इंदिरा गांधी की हत्या की खबर जिस समय रेडियो पर सुनाई दी, उस समय देवराज मेरे पास बैठा था। यह हत्या श्रीमती गांधी के अंगरक्षकों ने ऑपरेशन ब्लूस्टार के प्रतिशोध में की थी। यह खबर सुनते ही देवराज के मुंह से निकला, ‘‘तक्षक ने ब्राह्मण का वेष धरकर परीक्षित को उसके अभेद्य किले में जाकर डस लिया।’’

उसी शाम सिखों के संहार का जो सिलसिला चला तो देवराज के मुंह से निकला, ‘‘जनमेजय का नाग-यज्ञ।’’
एक बार इंग्लिश पत्रिका ‘‘फैमिना’’ के मुखपृष्ठ पर कामकाजी महिला का चतुर्भुजी काल्पनिक चित्र देवराज ने देखा, एक हाथ में रसोई की कलछी, दूसरे में कलम, तीसरे में बच्चे के दूध की बोतल और चौथे में हाथ में कंघी। यह चित्र देखकर उसके मुंह से निकला, ‘‘इसी चित्रकार ने हजारों साल पहले जन्म लेकर शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी विष्णु का चित्र बनाया होगा।’’

मैंने पूछा, ‘‘क्या मतलब ?’’
उसने कहा, ‘‘इतिहास-पुराण को निरपेक्ष भाव से पढ़ोगे, मतलब समझ में आ जाएगा।
बहुत लंबे समय तक उसके साथ रहकर मैं यह न जान पाया कि वह सनातन धर्मी था, आर्य समाजी था या नास्तिक था लेकिन मैं इतना जानता हूं कि वह सभी धर्मों, संप्रदायों का आदर करता था। वह कहता था, ‘‘आस्था मन के लिए गुरुत्वाकर्षण शक्ति जैसी है। शरीर का संतुलन धरती बनाए रखती है, मन के लिए वही काम धार्मिक आस्था करती है।’’
देवराज यह पसंद नहीं करता था कि कोई व्यक्ति अपने मत को श्रेष्ठ प्रकट करने के लिए दूसरे की आस्था का अनादर करे। ऐसा करने पर वह निरादर करने वाले को आड़े हाथों लेता।

एक उदाहरण मेरे सामने आया। राधा स्वामी मत के एक कट्टर अनुयायी ने मृतक के श्राद्ध को अंधविश्वास करार देते हुए कहा, ‘‘क्या जहालत है कि ब्राह्मण को खिलाया हुआ भोजन मृतक को मिल जाएगा।’’
जिस श्रद्धालु को यह वाक्य कहा गया था, उसे निरुत्तर पाकर देवराज ने उसका पक्ष लिया और आक्षेपकर्ता से पूछा, ‘‘अपने महाराज जी की बरसी पर तुम पिछले दिनों क्या करने ‘ब्यास’ गए थे ?’’

‘‘वहां, ज्योतिलीन महाराज जी का भंडारा (सहभोज) होना था।’’
‘‘उस भंडारे में और श्राद्ध में क्या अंतर है ? मैं इस विवाद में नहीं पड़ता कि ब्राह्मण को खिलाया भोजन मृतक की प्रेतात्मा को तृप्त करता है या नहीं किंतु वर्ष का एक दिन अगर हमने अपने पूर्वजों की याद में मना लिया तो जहालत कैसे हो गयी ?’’

देवराज था कि बोलने से रुक ही नहीं रहा था। कहे जा रहा था, ‘‘हम राम नवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, ईद-उल-नबी, क्रिस्मिस, गांधी जयंती तथा अंबेदकर जयंती मना सकते हैं, किंतु जिन मां-बाप ने हमें जन्म दिया, पाला-पोसा, उनके नाम पर कोई आयोजन करें तो जहालत !’’

देवराज में गजब की तर्क-शक्ति थी। धर्म,राजनीति, सैक्स आदि किसी भी विषय पर बात करते समय वह सामने वाले को हमखयाल बना लेता था। एक दिन मैंने उससे पूछा, ‘‘ऐसी तर्क-शक्ति का विकास तुमने कैसे किया ?’’
देवराज कुछ क्षण चुप रहा, जैसे जवाब देने के लिए शब्द टटोल रहा हो, फिर कहने लगा, ‘‘मैं महामूर्ख हूं। उतावली में अक्सर ग़लत फैसले ले लेता हूं। बाद में उन फैसलों को उचित सिद्ध करने के लिए स्पष्टीकरण ढूंढ़ता हूं। अपनी बेवकूफियों को न्यायसंगत सिद्ध करते-करते मुझमें तर्क-शक्ति का विकास हो गया है।’’

यह कहकर उसने ठहाका लगाया और मैं चकित रह गया कि हल्के-फुल्के अंदाज में वह क्या कह गया।
देवराज की जीविका का साधन पुस्तक-व्यवसाय था लेकिन वह मूलत: एक साहित्यकार था। जिस प्रकार बहुत से लेखक अध्यापन करके अपना पेट पालते हैं, कई पत्रकारिता को अपनी रोजी का जरिया बनाते हैं, कई रेडियो, टी.वी.के क्षेत्र में प्रवेश करके अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं, वैसे ही उसने पुस्तक-व्यवसाय को अपने जीवन-यापन का माध्यम बनाया हुआ था।

अपने व्यवसाय में लगा आदमी आमतौर पर रिटायर्ड नहीं होता किंतु देवराज जैसे ही आर्थिक रूप से इतना स्वावलंबी हो गया कि बिना व्यवसाय चलाए सम्मान से रह सके, उसने व्यवसाय छोड़ दिया और खुद को अध्ययन-मनन में खपा दिया।
देवराज के दिवंगत होने से कुछ अर्सा पहले मैंने उससे पूछा था, ‘‘आजकल क्या लिख रहे हो ?’’
जवाब मिला, ‘‘आत्मकथा।’’

‘‘पागल हो गये ?’’ मैंने कहा था, ‘‘गांधीजी की आत्मकथा इसलिए बिक जाती है कि राष्ट्रपिता के प्रति आदर व्यक्त करने के लिए सरकार लाईब्रेरियों से खरीदवा लेती है। बाद में पाठकों के अभाव में लाईब्रेरियां उसे सूखने के लिए डाल देती है। बैंडिड क्वीन फूलन देवी की जीवनी अदालत में विवादास्पद होने के कारण या उसकी जीवनी पर बनी फिल्म के कारण प्रसिद्धि पा लेती है। बिल क्लिंटन की प्रेमिका मोनिका लेविंस्की की आत्मकथा लोग चटख़ारा लेने के लिए उठा लेते हैं, पर तुम्हारे नाम के साथ तो कोई स्कैंडल भी नहीं लगा, कौन पढ़ेगा तुम्हारी आत्मकथा !’’

देवराज ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘मेरी आत्मकथा मात्र मेरी निज की जीवनी नहीं होगी। उसमें मेरे आसपास का राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक परिवेश शामिल होगा। मैं और मेरे आसपास का समाज संपूर्ण विश्व का एक अंश है, इसलिए इस पुस्तक में तुम विश्व के विराट रूप के अनेक अंशों को देख सकोगे।’’

देवराज बड़बोला नहीं था। वह जितना कहता उससे बढ़कर करता था। इसलिए उसकी आत्मकथा के प्रति यह टिप्पणी सुनकर उसमें मेरी रुचि जगी किंतु उसकी उस पुस्तक के प्रकाश में आने से पहले वह इस संसार से कूच कर गया।
देवराज के परिवार में मेरा सपत्नीक आना-जाना रहता था। सप्ताह में कम से कम एक बार हम सब अवश्य मिलते थे। कभी वह मनीषा के साथ मेरे घर आ जाता, कभी मैं विदुला सहित उसके घर चला जाता। देवराज और मैं साहित्य, समाज, राजनीति पर बातें करते, विदुला और मनीषा किटी, किचन, महंगाई आदि विषयों पर चर्चा करके अपना समय सार्थक करतीं। देवराज की मृत्यु के बाद हम दोनों परिवारों का आपस में आना-जाना कम हो गया।

एक दिन मनीषा का फोन आया, उसने पूछा, ‘‘आप घर पर हैं ना ?’’ मैंने स्वीकृति दी। ‘‘मैं अभी आती हूं’’ कहकर उसने फोन रख दिया और पंद्रह मिनिट बाद वह मेरे सामने थी।
उसके हाथ में एक लिफाफा था। लिफाफा उसने मुझे थमाया। उस पर मेरा नाम लिखा हुआ था। उसमें रखा हुआ पत्र निकाला, पढ़ा। लिखा था, ‘‘आत्मकथा पूरी नहीं कर सका। उसने नोट्स और मेरे संस्मरण एक थैले में मेरी टेबल की दराज़ में रखे हैं। इन संस्मरणों में मेरे जीवन-भर के अध्ययन-मनन का सार है। मेरा अनुरोध है, इन सबका संपादन करके उसे पुस्तक के रूप में छपवा देना। मुझे विश्वास है तुम मेरी यह अंतिम कामना अवश्य पूरी करोगे।’’

उस पत्र पर कोई तिथि नहीं लिखी थी जिससे मैं जान पाता कि मरने से कितने समय, कितने दिन पहले उसे लिखा गया था।
मैंने मनीषा से पूछा,‘‘यह पत्र आपको कहां पड़ा मिला ?’’
‘‘टेबल पर उनके पेपर्स में से।’’ मनीषा ने कहा।
उस पत्र को पाकर मैं सोच में पड़ गया कि क्या देवराज को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास था ?
मैंने अपनी याद्दाश्त पर ज़ोर देकर ऐसी कोई घटना या देवराज का कहा हुआ कोई वाक्य याद करने की कोशिश की, जिसके आधार पर मैं कह सकता कि देवराज ने अपनी मौत को आने से पहले देख लिया था।

उस समय तक के अनुमान के अनुसार देवराज के मृत्यु का कारण रात को सोने के दौरान होने वाला हार्ट अटैक समझा गया था। मैं सोचने लगा कि हार्ट अटैक के समय व्यक्ति को पत्र लिखने का समय नहीं मिलता। अगर तनिक भी अवसर मिले, वह निकटस्थ व्यक्ति को जगाता है। मनीषा उसी कमरे में, उसी के निकट बिस्तर पर सोयी हुई थी। उसे न जगाकर उसने मेरे नाम पत्र लिखा। पत्र को अपनी वर्किंग टेबल पर रखा और फिर मर गया। यह सब मुझे अजीब लगा।
अधेड़ावस्था में जैसा स्वास्थ्य होना चाहिए, उसका स्वास्थ्य उससे बुरा नहीं था। आर्थिक दृष्टि से वह खुशहाल था। पत्नी से अनबन की कोई बात उसने कभी मुझसे न कही थी। फिर अगर उसने आत्महत्या की तो क्यों की ?

अपने दिमाग को कुरेदते हुए मुझे एक दिन देवराज द्वारा सुनाई गयी बात याद आयी। उस दिन वह अपने किसी संबंधी को एक नर्सिग होम के इंसैटिव केयर यूनिट में पड़ा देखकर आया था। उस दिन वह बहुत बेचैन था। उस संबंधी ने कुछ अर्सा पहले कान का ऑपरेशन कराया था। डॉक्टर की लापरवाही से पीब पूरी तरह बाहर नहीं निकली थी बल्कि उसका कुछ अंश दिमाग में प्रवेश कर गया था जिससे वह पागलों जैसी हरकतें करने लगा था।

उसमें पहचानने की शक्ति खत्म हो गयी थी। दर्द और बेचैनी से कभी वह अपने बाल नोचता, कभी कपड़े फाड़ता। उसका खाना-पीना बंद हो गया था। इसलिए उसे ग्लूकोस की ड्रिप से आहार दिया जाने लगा था। बेचैनी में वह ड्रिप की सुई निकाल देता, इसलिए उसके हाथ बांध दिये गये। बंधे हाथों के कारण वह कुछ कर नहीं पाता था। बस पागलों की तरह सिर झटकता रहता।

उसकी यह हालत बताकर देवराज ने मुझे कहा था, ‘‘इस बदत्तर जिंदगी से तो मौत अच्छी है। मेरे हाथ में होता तो उस पर तरस खाकर मैं उसे नींद की ढेर सारी गोलियां दे देता।’’
उसका यह संवाद याद करके मैंने मनीषा से पूछा, ‘‘देवराज नींद की गोलियां लेता था क्या?’’
‘‘कभी-कभी, वैसे उनकी बैड साईड टेबल के दराज में गोलियों का पत्ता पड़ा रहता था।’’ यह कहने के साथ मनीषा ने मुझसे पूछ लिया,‘‘यह बात आपने क्यों पूछी ?’’

‘‘बस यूं ही !’’ यह कहकर मैं सोचने लगा कि उसकी जिंदगी तो बिलकुल बदत्तर नहीं थी। फिर उसने मृत्यु का वरण क्यों किया ?
न जाने मेरे दिमाग में यह बात क्यों समा गयी थी कि देवराज की मौत स्वाभाविक नहीं थी बल्कि आयोजित थी और अपने उस आयोजन के बारे में उसने मुझे भी भरोसे में नहीं लिया था। मैंने अपनी इस सोच का परिणाम यह निकाला कि मैं उसे अपनी तरफ से जितना अंतरंग मित्र समझता था, शायद मैं उसके लिए उतना अंतरंग मित्र नहीं था।
यह विचार आते ही मैं अपने आपको अपमानित अनुभव करने लगा कि कैमरे में रखी बंद रील जैसे बंद आदमी ने किस आधार पर मुझ पर यह ज़िम्मेवारी डाली कि मैं उसके अधूरे काम को पूरा करूंगा।

फिर एकदम मुझे ख़याल आया कि मैं यूं ही एकतरफा फैसला करके उस पर नाराज़ हो गया हूं। हो सकता है उसकी कोई मजबूरी रही हो। उस मजबूरी का आभास शायद मुझे उसके नोट्स और संस्मरणों से मिल सके। इस विचार ने मुझे प्रेरित किया कि उसकी दराज में रखा हुआ थैला खोलकर देखूं।
मैं तुरंत उठ खड़ा हुआ और मनीषा के साथ जाकर वह थैला ले आया।
थैला खोला। तरह-तरह के कागजों, पुर्जों पर लिखे हुए नोट्स। कुछ सुलेख में, कुछ घसीट लिखावट में। तिथि या विषय के क्रम के बगैर।

देवराज की इस आदत से मैं वाकिफ था कि वह अपने पर्स में कागज के छोटे टुकड़े और जेब में एक पैन रखता था। कोई नयी बात उसके दिमाग में कौंधती, वह झट से उसे संक्षेप में नोट कर लेता था। उसकी बैड साईट टेबल पर भी एक नोटबुक और पैन रखा रहता। उसकी और कोई चीज़ बेजगह रखी जाए, उसे इतना क्रोध न आता जितना उस नोटबुक और पैन के बेजगह रखे जाने से आता था। रात का अंधेरा भी उसकी नोटिंग में बाधक नहीं होता था। सवेरे उजाले में बैठकर अंधेरे में लिखी अपनी टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट के पढ़ने में वह सिर खपाता रहता। एक दिन मैंने उसे कहा था, ‘‘जिस लिखावट को तुम उजाले में पढ़ नहीं सकते, उसे अंधेरे में लिखते क्यों हो !’’

देवराज ने जवाब दिया,‘‘जब तक मैं दिमाग में कौंधे हुए विचार को कागज पर उतार नहीं लेता, मुझे बेचैनी रहती है। कागज़ पर लिखते ही मुझे नींद आ जाती है।’’
नींद की गोली के इस पर्याय को मैंने आजमाया तो उसके कथन को ठीक पाया।
उस थैले में मिली सामग्री से मुझ पर यह स्पष्ट हो गया कि आत्मकथा के माध्यम से देवराज अपने जीवन के समस्त चिंतन का सार देने का इरादा रखता था। उसके नोट्स तथा संस्मरणों में कुछ विवादास्पद विषयों के निष्कर्ष भी मिले जो नंदन नामी किसी व्यक्ति से हुए संवाद के दौरान निकले थे। ऐसा ही एक विषय था शिव का अर्द्धनारीश्वर स्वरूप। उस संवाद को यहां बानगी के तौर पर दे रहा हूं-

देवराज, ‘‘शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की प्रतिमा से यह प्रकट होता है कि एक समय के शिव के अधीन किए जाने वाले परीक्षणों के परिणाम में यह रहस्य खुल गया था कि प्रजा की उत्पत्ति में किसी अदृश्य शक्ति का हाथ नहीं है बल्कि यह पुरुष और प्रकृति के अधीन होने वाली जैव रासायनिक प्रक्रिया है।
‘‘शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की प्रतीक यह प्रतिमा इस जैव रासायनिक तथ्य की तरफ संकेत करती है, जिस प्रकार महात्मा गांधी के आंदोलन काल में घरेलू दस्तकारी का प्रतीक चरखा तथा साम्यवादी दलों की ओर से प्रचलित कृषक और मजदूर का प्रतीक हंसिया और हथौड़ा।’’

नंदन, ‘‘जैव रासायनिक प्रक्रिया की बात तो मैं बाद में समझूंगा, पहले यह बताइए कि आपने ‘एक समय का शिव’ कहा है, इसका क्या आशय है ?’’
देवराज, ‘‘क्या तुम समझते हो कि शिव किसी व्यक्ति का नाम है, जो रावण के कार्यकाल में उसे उसकी तपस्या का फल वरदान के रूप में देता है, अर्जुन के समय वही शिव किरात का रूप धारण करके उसका मान-मर्दन करता है। अमृत-मंथन के समय विषपान करके नीलकंठ नाम धराता है और गंगावतरण के समय गंगा के दुर्दम्य बहाव को अपनी जटाओं में धारण करता है। प्रथम वाद्य यंत्र डमरू का आविष्कारक और एक शूल वाले अस्त्रों की तुलना में अधिक विध्वंसकारी त्रिशूल बनाने वाला शिव क्या एक ही है। ललित नृत्य का नर्तन करने वाला नटराज और विध्वंसकारी तांडव नर्तन करने वाला रौद्र रूपी शिव एक व्यक्ति नहीं हो सकता।

‘‘हे नंदन, आस्तिकता और नास्तिकता की ऐनकें उतारकर तुम तटस्थ दृष्टि से देखो तो पाओगे कि गंगा को जटाओं में धारण करने की पौराणिक कथा के पीछे ऐतिहासिक तथ्य किसी प्रकार के बांध का निर्माण है। पुराणों में वर्णित अमृत-मंथन, सागर को बिलोने जैसी क्रिया नहीं है बल्कि सागर के तल में छिपे रहस्यों को खोजने की एक वैसी क्रिया है जैसी आज उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की या अंतरिक्ष की छानबीन के लिए जारी है।

‘‘उस तथाकथित समुद्र मंथन से जो उपयोगी तत्त्व निकले, उन्हें तत्कालीन राजनेताओं ने बल से या छल से बांट लिया और पर्यावरण को दूषित करने वाले अनुपयोगी तत्त्वों को ठिकाने लगाने का काम एक गैर राजनैतिक नायक के जिम्मे डाल दिया गया। उस घातक पदार्थ को ठिकाने लगाते समय उस लोकनायक की समझ में आ गया कि उसके भोलेपन का लाभ उठाया जा रहा है तो उसने अपना कार्य स्थगित कर दिया। उस बात को पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि शिव ने गरल को, हलाहल को कंठ तक रोक लिया, इसलिए वह नीलकंठ कहलाया।

‘‘पुराणों में कहा गया है कि शिव ने त्रैलोक्य की रक्षा करने के लिए विषपान किया। मैं कहता हूं, जिसने भी विषपान किया, वही शिव कहलाया।
‘‘हे नंदन ! हर युग के शिव की यह नियति है कि वह अनुसंधान करता है और राजनीति उस अनुसंधान का लाभ उठाने के लिए अनुसंधानकर्ता को मुसीबत में डाल देती है। शिव से तथाकथित वर पाने वाला भस्मासुर शिव को नष्ट करने पर उतारू हो जाता है ताकि उसके बाद के अनुसंधानों का लाभ अन्य किसी को मिल न सके। मुसीबत में पड़े तत्कालीन शिव की रक्षा अन्य भस्मासुर विरोधी राजनीति कोई मोहिनी रूप धरकर करती है।

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