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ओशो साहित्य >> शिव दर्शन

शिव दर्शन

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3691
आईएसबीएन :81-288-0496-0

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ओशो के द्वारा शिव के ऊपर लिखी हुई पुस्तक.....

Shiv darshan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


ओशो मनुष्यता की वह विरलतम विभूति है, जो अपनी कोटि आप ही हैं। हम उनके समयुगीन हैं, यह हमारा सबसे बड़ा सौभाग्य है। लेकिन उनसे हमारी  यह सन्निधि ही हमसे उनके विराट को ओझल किये देती है। हिमालय की ऊँचाई और विस्तार देखने के लिए दूरी का परिप्रेक्ष्य चाहिए।
मनुष्य की जो चरम संभावना है, वह ओशों में वास्तव हुई है। उन्होंने स्वयं की आदिम, निष्कल, निखिल सत्ता को जाना है। वह मनुष्य में बसी भगवत्ता के गौरीशंकर हैं।

ओशो जगत और जीवन को उसकी परिपूर्णता में स्वीकारते हैं। वह पृथ्वी और स्वर्ग, चार्वाक और बुद्ध को जोड़नेवाले पहले सेतु हैं। उनके हाथों पहली बार अखंडित धर्म का, वैज्ञानिक धर्म का, जागतिक धर्म का उद्घाटन हो रहा है। यही कारण है कि जीवन-निषेध पर खड़े अतीत के सभी धर्म उनके विरोध में खड्गहस्त हैं।
ओशो स्वतंत्रता को परम मूल्य देते हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यक्ति की गरिमा के वह प्रथम प्रस्तोता हैं। धर्म नहीं, धार्मिकता उनका मौलिक दान है।

ओशो

ओशो परम दुर्लभ घटना हैं अस्तित्व की। बुद्धित्व की उपलब्धि में सदियों-सदियों, जन्मों-जन्मों का एक तूफान शांत होता है-परम समाधान को प्राप्त है और अस्तित्व उसमें नए रंग लेता है। अस्तित्व का परम सौंदर्य उसमें खिलता है, श्रेष्ठतम पुष्प विकसित होते हैं और अस्तित्वगत ऊंचाई का एक परम शिखर, एक नया गौरीशंकर, वहां उस व्यक्ति की परम शून्यता में निर्मित हो उठता है। ऐसा व्यक्ति अपने स्वभाव के अंतिम बिंदु में स्थित हो जाता है, जहाँ से बुद्घि के भीतर का बुद्ध बोल उठता है, कृष्ण के भीतर का कृष्ण बोल उठता है, क्राइस्ट के भीतर का क्राइस्ट बोल उठता है, पतंजलि के भीतर का पतंजलि बोल उठता है; लाओत्से के भीतर का लाओत्से बोल उठता है और लाखों-लाखों और तूफान परम समाधान की दिशा में मार्गदर्शन पाते हैं।

जीवन-सत्य की खोज की दिशा


पहला प्रवचन

दिनांक 11 सितंबर, 1974
प्रात:काल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

ॐ नम: श्रीशंभवे स्वात्मानंदप्रकाशवपुषे।
अथ
शिव-सूत्र:
चैतन्यमात्या
ज्ञानं बंध:।
योनिवर्ग कलाशरीरम्।
उद्यमो भैरव: ।
शक्तिचक्रसंधाने विश्वसंहार:।

ॐ स्वप्रकाश आनंदस्वरूप भगवान शिव को नमन। (अब) शिवसूत्र (प्रारंभ)
चैतन्य आत्मा है।
ज्ञान बंध है।
योनिवर्ग और कला शरीर है।
उद्यम ही भैरव है।
शक्तिचक्र के संधान से विश्व का संहार हो जाता है।
जीवन-सत्य की खोज दो मार्गों से हो सकती है। एक पुरुष का मार्ग है-आक्रमण का, हिंसा का, छीन-झपट का, प्रतिक्रमण का।
विज्ञान पुरुष का मार्ग है; विज्ञान आक्रमण है। धर्म स्त्री का मार्ग है; धर्म नमन है।
इसे बहुत ठीक से समझ लें।
इसलिए पूर्व के सभी शास्त्र परमात्मा को नमस्कार से शुरू होते हैं। वह नमस्कार केवल औपन्यासिक नहीं है। वह केवल एक परंपरा और रीति नहीं है। वह नमस्कार इंगित है कि मार्ग समर्पण का है, और जो विनम्र हैं, केवल वे ही उपलब्ध हो सकेंगे। और, जो आक्रामक है; अहंकार से भरे हैं; जो सत्य को

भी छीन-झपट कर पाना चाहते हैं; जो सत्य के भी मालिक होने की आकांक्षा रखते हैं; जो परमात्मा के द्वार पर एक सैनिक की भाँति पहुँचे हैं-विजय करने, वे हार जाएँगे। वे क्षुद्र को भला छीन-झपट लें, विराट उनका न हो सकेगा। वे व्यर्थ को भला लूटकर घर ले आएँ; लेकिन जो सार्थक है, वह उनकी लूट का हिस्सा न बनेगा।
इसलिए विज्ञान व्यर्थ को खोज लेता है, सार्थक चूक जाता है। मिट्टी, पत्थर, पदार्थ के संबंध में जानकारी मिल जाती है, लेकिन आत्मा और परमात्मा की जानकारी छूट जाती है। ऐसे ही जैसे तुम राह चलते एक स्त्री पर हमला कर दो, बलात्कार हो जाएगा, स्त्री का शरीर भी तुम कब्जा कर लोगे, लेकिन उसकी आत्मा तुम्हें नहीं मिल सकेगी। उसका प्रेम तुम न पा सकोगे।

तो जो लोग आक्रमक की तरह जाते हैं परमात्मा की तरफ, वे बलात्कारी हैं। वे परमात्मा के शरीर पर भला कब्जा कर लें-पर प्रकृति पर, जो दिखाई पड़ता है, जो दृश्य है-उसकी चीर-फाड़ कर, विश्लेषण करके, उसके कुछ राज खोल लें, लेकिन उनकी खोज वैसी ही क्षुद्र होगी, जैसे किसी पुरुष ने किसी स्त्री पर हमला किया हो, बलात्कार किया हो। स्त्री का शरीर तो उपलब्ध हो जाएगा, लेकिन वह उपलब्धि दो कौड़ी की है; क्योंकि उसकी आत्मा को तुम छू भी न पाओगे। और अगर उसकी आत्मा को न छूआ, तो उसके भीतर प्रेम की जो संभावना थी-वह जो छिपा था प्रेम बीज का-वह कभी अँकुरित न होगा। उसकी प्रेम की वर्षा तुम्हें न मिल सकेगी।

विज्ञान बलात्कार है। वह प्रकृति पर हमला है; जैसे कि प्रकृति कोई शत्रु हो; जैसे कि उसे जीतना है, पराजित करना है। इसलिए विज्ञान तोड़-फोड़ में भरोसा करता है-विश्लेषण तोड़-फोड़ है; काट-पाट में भरोसा करता है।
अगर वैज्ञानिक से पूछो कि फल सुंदर है, तो तोड़ेगा फूल को, काटेगा, जाँच-पड़ताल करेगा; लेकिन उसे पता नहीं है कि तोड़ने में ही सौन्दर्य खो जाता है। सौन्दर्य तो पूरे में था। खंड-खंड में सौंदर्य न मिलेगा। हाँ, रासायनिक तत्त्व मिल जाएगा। तुम बोतलों में अलग-अलग फूल से खंड़ों को इकट्ठा करके लेबल लगा दोगे। तुम कहोगे-ये कैमिकल्स हैं, ये पदार्थ हैं, इनसे मिलकर फूल बना था। लेकिन तुम एक भी ऐसी बोतल न भर पाओगे, जिसमें तुम कह सको कि यह सौंदर्य है, जो फूल में भरा था। सौन्दर्य तिरोहित हो जाएगा। अगर तुमने फूल पर आक्रमण किया तो फूल की आत्मा तुम्हें न मिलेगी, शरीर ही मिलेगा।

विज्ञान इसीलिए आत्मा में भरोसा नहीं करता। भरोसा करे भी कैसे ?
इतनी चेष्टा के बाद भी आत्मा की कोई झलक नहीं मिलती। झलक मिलेगी ही नहीं। इसलिए नहीं कि आत्मा नहीं है, बल्कि तुमने जो ढंग चुना है, वह आत्मा को पाने का ढंग नहीं है। तुम जिस द्वार से प्रवेश किए हो, वह क्षुद्र को पाने का ढंग है। आक्रमण से, जो बहुमूल्य है, वह नहीं मिल सकता।

जीवन का रहस्य तुम्हें मिल सकेगा, अगर नमन के द्वार से तुम गए। अगर तुम झुके, तुमने प्रार्थना की, तो तुम प्रेम के केन्द्र तक पहुँच पाओगे। परमात्मा को रिझाना करीब-करीब एक स्त्री को रिझाने जैसा है। उसके पास अति प्रेमपूर्ण, अति विनम्र, प्रार्थना से भरा हृदय चाहिए। और जल्दी वहाँ नहीं है। तुमने जल्दी की, कि तुम चूके। वहाँ बड़ा धैर्य चाहिए। तुम्हारी जल्दी और उसका हृदय बंद हो जाएगा। क्योंकि जल्दी भी आक्रमण की खबर है।

इसलिए जो परमात्मा को खोजने चलते हैं, उनके जीवन का ढंग दो शब्दों में समाया हुआ है- प्रार्थना और प्रतीक्षा। प्रार्थना से शास्त्र शुरू होते हैं और प्रतीक्षा पर पूरे होते हैं। प्रार्थना से खोज इसलिए शुरू होती है।
इस शास्त्र का पहला चरण है : ऊँ स्वप्रकाश आनन्दस्वरूप भगवान शिव को नमन !
और अब शिव-सूत्र प्रारंभ।
इस नमन को बहुत गहरे उतर जाने दें। क्योंकि अगर द्वार ही चूक गया, तो पीछे महल की जो मैं चर्चा करूँगा, वह समझ में न आएगी।


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