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ओशो साहित्य >> मेरे तो गिरधर गोपाल

मेरे तो गिरधर गोपाल

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3685
आईएसबीएन :81-288-0397-2

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प्रस्तुत है मीरा वाणी....

Mero to girdhar gopal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘‘मीरा में जैसी सहज उद्भावना हुई है भक्ति की, कहीं भी नहीं है। भक्त और भी हुए हैं, लेकिन सब मीरा से पीछे पड़ गये, पिछड़ गये। मीरा का तारा बहुत जगमगाता हुआ तारा है। आओ इस तारे की तरफ चलें। अगर थोड़ी सी-बूँदें तुम्हारे जीवन में बरस जाएँ मीरा के रस की, तो भी तुम्हारे रेगिस्तान में फूल खिल जाएँगे। अगर तुम्हारे हृदय में थोड़े-से भी वैसे आँसू घुमण आयें, जैसे मीरा को घुमड़े, और तुम्हारे ह्रदय में भी थोड़े-से राग बजनें लगें जैसा मीरा को बजा, थोड़ा-सा सही ! एक बूँद भी तुम्हें रंग जाएगी और नया कर जाएगी।’’

ओशो


ऐसा संयोग कभी-कभी ही घटित होता है, जब अस्तित्व और भगवत्ता किसी व्यक्ति में स्वयं को पूर्णता में अभिव्यक्त कराती है। ओशो में भगवत्ता की अभिव्यक्ति इस विरल संयोग की नवीनतम कल्पना है।
‘ओशो’ आज एक उत्सव का नाम है। वे मनुष्य के सौभाग्य का पर्याय हैं। चेतनाओं के भाग्योंदय का निमित्त हैं वे। वे एक सुअवसर हैं। उनको चूकना परम दुर्भाग्य है- उन्हें उपलब्ध करना और उनको उपलब्ध होना जीवन की सार्थकता एवं परम धन्यता !

असंख्य प्रकार के सत्यान्वेषकों को अलग-अलग भिन्न-भिन्न अनुकूल बोध और मार्गदर्शन देने की क्षमता उन्हीं की प्रज्ञा में है। इतने विराट् और विशाल समूह को मुक्ति-पथ पर ले जाने का उत्तरदायित्व उन्हीं की करुणा में हैं। प्रज्ञा और करुणा का ऐसा मिलन अभूतपूर्व है- अद्वितीय है !

ओशो कहते हैं :
‘मैंने किसी से प्रेरणा नहीं ली। हाँ, जब पूर्व का अवतरण हुआ, जब मेरा अंतर-प्रकाश से भर गया, तब मैंने जाना कि ऐसा ही बुद्ध को हुआ था; तब मैं पहचाना कि ऐसा ही महावीर को हुआ था; तब कबीर में भी मुझे वहीं झलक मिली और जीसस में और जरथ्रुस्त्र में और लाओत्से में। लेकिन मैं उनका गवाह हूँ, वे मेरे प्रेरणा स्रोत्र नहीं हैं। इस बात को मैं बहुत स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। उनकी प्रेरणा पाकर मैं यहाँ नहीं पहुँचा हूँ। यहाँ पहुँचकर मैंने उनकी गवाही दी है कि हाँ वे ठीक हैं। मैंने उनको मानकर ठीक नहीं जाना है। जाना पहले है, फिर उनको ठीक कहा है। मैं उनका प्रमाण हूँ, उनका गवाह हूँ, उनका साक्षी हूँ। अब मैं कह सकता हूँ कि वे ठीक हैं।’

प्रेम की झील में नौका-विहार
1


बसौ मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनि मूरति साँवरी सूरति, नैना बने बिसाल।
मोर मुकुट मकराकृति कुंडल, अरुण तिलक सोहे भाल।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजंति माल।
छुद्र घंटिका कटितट सोभित, नुपूर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।

हरि मोरे जीवन-प्राण आधार।
और आसिरों नाहिं तुम बिन, तीनू लोक मँझार।
आप बिना मोहि कछु न सुहावै, निरखौ सब संसार।
मीरा कहै मैं दसि रावरी, दीज्यौ मति बिसार।

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर-मुकुट मेरो पति सोई।
छाड़ि दई कुल की कानि, कहा करि है कोई।
संतन ढिंग बैठि-बैठि लोकलाज खोई।
अँसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बेल बोई।
अब तो बेलि फैली गई, आनंद फल होई।
भगत देख राजी हुई, जगत देख रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब मोहि।

प्रेम की झील में नौका-विहार


आओ, प्रेम की एक झील में नौका-विहार करें। और ऐसी झील मनुष्य के इतिहास में दूसरी नहीं है, जैसी झील मीरा है। मानसरोवर भी उतना स्वच्छ नहीं है।
और हंसों की ही गति हो सकेगी मीरा की इस झील में। हंस बनो, तो ही उतर सकोगे इस झील में। हंस न बने तो न उतर पाओगे।
हंस बनने का अर्थ है : मोतियों की पहचान आँख में हो; मोती की आकांक्षा हृदय में हो। हंसा तो मोती चुगे !
कुछ और से राजी मत हो जाना। क्षुद्र से जो राजी हो गया, वह विराट् को पाने में असमर्थ हो जाता है। नदी-नालों के पानी से जो तृप्त हो गया है, वह मानसरोवरों तक नहीं पहुँच पाता; जरूरत ही नहीं रह जाती।
मीरा की इस झील में तुम्हें निमंत्रण देता हूँ। मीरा नाव बन सकती है। मीरा के शब्द तुम्हें डूबने से बचा सकते हैं। उनके सहारे पर उस पार जा सकते हो।

मीरा तीर्थंकर है। उसका शास्त्र प्रेम का शास्त्र है। शायद ‘शास्त्र’ कहना भी ठीक नहीं।
नारद ने भक्ति सूत्र कहे; वह शास्त्र है। वहाँ तर्क है, व्यवस्था है, सूत्रबद्धता है। वहाँ भक्ति का दर्शन हैं।
मीरा स्वयं भक्ति है। इसलिए तुम्हें रेखाबद्ध तर्क न पाओगे। रेखाबद्ध तर्क वहाँ नहीं है। वहां तो हृदय में कौंधती हुई बिजली है। जो अपने आशियाने जलाने को तैयार होंगे, उनका ही संबंध जुड़ पाएगा।
प्रेम से संबंध उन्हीं का जुड़ता है, जो सोच-विचार खाने को तैयार हों : जो सिर गँवाने को उत्सुक हों। उस मूल्य को जो नहीं चुका सकता, वह सोचे भक्ति के संबंध में, विचारे; लेकिन भक्त नहीं हो सकता।
तो मीरा के शास्त्र को शास्त्र कहना भी ठीक नहीं। शास्त्र कम है, संगीत ज्यादा है। लेकिन संगीत ही तो केवल भक्ति का शास्त्र हो सकता है। जैसे तर्क ज्ञान का शास्त्र बनता है, वैसे संगीत भक्ति का शास्त्र बनता है। जैसे गणित आधार है ज्ञान का, वैसे काव्य आधार है भक्ति का। जैसे सत्य की खोज ज्ञानी करता है; भक्त सत्य की खोज नहीं करता। भक्त सौंदर्य की खोज करता है। भक्त के लिए सौंदर्य ही सत्य है। ज्ञानी कहता है : सत्य सुंदर है। भक्त कहता है : सौंदर्य सत्य हैं।
रवीन्द्रनाथ ने कहा है : ब्यूटी इज़ ट्रुथ। सौंदर्य सत्य है। रवीन्द्रनाथ के पास भी वैसा ही हृदय है जैसा मीरा के पास; लेकिन रवीन्द्रनाथ पुरुष हैं। गलते-गलते पुरुष की अड़चने रह जाती है; मीरा जैसे नहीं पिघल पाते। खूब पिघले। जितना पिघल सकता है पुरुष, उतना पिघले; फिर भी मीरा जैसे नहीं पिघल पाते।

मीरा स्त्री है। स्त्री के लिए भक्ति ऐसे ही सुगम है, जैसे पुरुष के लिए तर्क और विचार।
वैज्ञानिक कहते हैं : मनुष्य का मस्तिष्क दो हिस्सों में विभाजित हैं। बाएँ तरफ जो मस्तिष्क हैं, वह सोच-विचार करता है; गणित, तर्क, नियम, वहाँ सब श्रृंखला बद्ध हैं। और दाईं तरफ जो मस्तिष्क है, वह सोच-विचार नहीं है; वहाँ भाव है; वहाँ अनुभूति है। वहाँ संगीत की चोट पड़ती है। वहाँ तर्क का कोई प्रभाव नहीं होता। वहाँ लयबद्धता पहुँचती है। वहाँ नृत्य पहुँच जाता है; सिद्धांत नहीं पहुँचते।
प्रेम में कोई विधि नहीं होती, विधान नहीं होता। प्रेम की क्या विधि और क्या विधान ! हो जाता है बिजली की कौंध की तरह। हो गया तो हो गया। नहीं हुआ तो करने का कोई उपाय नहीं है।

पुरुषों ने भी भक्ति के गीत गाए हैं, लेकिन मीरा का कोई मुकाबला नहीं है : क्योंकि मीरा के लिए, स्त्री होने के कारण जो बिलकुल सहज है, वह पुरुष के लिए थोड़ा आरोपित-सा मालूम पड़ता है। पुरुष भक्त हुए, जिन्होंने अपने को परमात्मा की प्रेयसी माना, पत्नी माना; मगर बात कुछ अड़चन भरी हो जाती है। संप्रदाय है ऐसे भक्तों का, बंगाल में आज भी जीवित पुरुष हैं, लेकिन अपने को मानते है कृष्ण की पत्नी। रात-स्त्री जैसा श्रृंगार करके, कृष्ण की मूर्ति को छाती से लगाकर सो जाते हैं। मगर बात में कुछ बेहूदापन लगता है। बात कुछ जमती नहीं। ऐसा भी बेहूदापन लगता है जैसे कि तुम, जहाँ जो नहीं होना चाहिए, उसे जबरदस्ती बिठाने की कोशिश करो, तो लगे।

पुरुष पुरुष है; उसके लिए स्त्री होना ढोंग ही होगा। भीतर तो वह जानेगा ही मैं पुरुष हूँ। ऊपर से तुम स्त्री के वस्त्र भी पहन लो और कृष्ण की मूर्ति को हृदय से भी लगा लो-तब भी तुम भीतर के पुरुष को इतनी आसानी से खो न सकोगे। यह सुगम नहीं होगा।
स्त्रियाँ भी हुई हैं, जिन्होंने ज्ञान के मार्ग से यात्रा की है, मगर वहाँ भी बात कुछ बेहूदी हो गई। जैसे ये पुरुष बेहूदे लगते हैं और थोड़ा-सा विचार पैदा होता है कि ये क्या कर रहे है ! ये पागल तो नहीं हैं;- ऐसे ही ‘लल्ला’ कश्मीर में हुई, वह महावीर जैसे विचार में पड़ गई होगी; उसने वस्त्र फेंक दिए, वह नग्न हो गई।। लल्ला में भी थोड़ा-सा कुछ अशोभन मालूम होता है। स्त्री अपने को छिपाती है। वह उसके लिए सहज है। वह उसकी गरिमा है। वह अपने को ऐसा उघाड़ती नहीं। ऐसा उघाड़ती है तो वेश्या हो जाती है।
लल्ला ने बड़ी हिम्मत की, फेंक दिए वस्त्र। असाधाराण स्त्री रही होगी; लेकिन थोड़ी-सी अस्वाभाविक मालूम होती है बात। महावीर के लिए नग्न खड़े हो जाना अस्वाभाविक नहीं लगता; बिलकुल स्वाभाविक लगता है। ऐसी ही बात है।

    

   

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