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ओशो रस बरसे

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3684
आईएसबीएन :81-288-0987-3

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इस पुस्तक में पाखंडी समाज को प्रदर्शित किया गया है...

Osho Rash Barse

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

जीवन के प्रति अति महत्वपूर्ण किन्तु उपेक्षित आयामों के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न कर विचार करने को निमन्त्रण देती है। जीवन को उल्लास से पल्लवित करने हेतु सृजनात्मक दिशाओं की ओर इंगित करती है। इसका साहित्य, समाज का यांत्रिक मूक दर्पण मात्र नहीं है, जिसमें पाखण्डी समाज प्रतिबिम्बित होता हो, उसमें जीवन की उत्कर्षणगामिनि प्रेरणाएं एवं अभीप्साएं भी हैं। उसमें मनुष्य के अभ्यंतर में निहित सत्यम् शिवम सुंदरम् को जगाने और उठाने की हृदयबेधी आत्मीय पुकार है। पुस्तक की विषय वस्तु एक नहीं है। विषयवस्तु की दृष्टि से इसकी अनुक्रमणिका को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक जिसमें सेक्स के प्रति गलत दृष्टिकोण, दूसरा ज़ेन (झेन) का प्रादुर्भाव, उसका प्रसार, ऐतिहासिक स्वरूप का निरूपण है और तीसरा जो जीवन के विविध महत्त्व के विषयों पर प्रकाश डालता है।

समर्पण


सखी ! घिर आए मेघ गगन में
लगी बरसने मेह-फुहार।
फिर तुम कैसे आज मौन हो ?
बहे तुम्हारी भी रसधार।
स्वागत,पावस मास लासमय
हर्ष और उल्लास भरो।
कली-कली में कुसुम-कुसुम में
नव मधु सरस सुवास भरो।
स्वागत,है ऋतु मेघ पधारो
ध्यान, प्रेम नव हास भरो।
वर्षा मंगल हो ग्रह-ग्रह में
प्यासों की तुम प्यास हरो।


भूमिका


जब-जब भू के टुकड़े होते
जड़ जड़ता के पापों से।
जब-जब नभ की गरिमा गिरती
अविवेकी अभिशापों से।
जब-जब आँखें अन्धी होकर
अपने पर रोया करतीं
जब-जब मन ही गल जाता है
सुलग रहे संतापों से।
तब कोई मधु गायन गाता है
असतो मा सद्गमय।

श्रद्धेय स्वामी ज्ञानभेद जी असतो मा सद्गमय के अनवरत गायक हैं। अपने अमूल्य जीवन में जिस अमूल्य ज्ञानराशि से उनका साक्षात्कार हुआ, उसे सरस, सरल, सुन्दर बनाकर उदार हृदय से वे सुधी पाठकों को समर्पित करते हैं।
आज टेलीविज़न और इन्टरनेट पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की भाँति अधिकांश साहित्य उत्तेजक एवं स्तरहीन मनोरंजन मन बहलाव के लिए छप रहा है। नाम, दाम, प्रतिष्ठा, सम्मान प्राप्त कर विशिष्ट नागरिक कहलाने की होड़ में साहित्यकार व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के ज्वलंत प्रश्नों के प्रति लापरवाह, उपेक्षित जीवन दृष्टि अपनाकर साहित्य-सृजन का श्रमपूर्वक ढोंग कर रहा है।

 वह विश्व चेतना में घटित सृजनात्मकता के महानतम मौलिक विस्फोटों-जे. कृष्णमूर्ति एवं ओशो की आग की आंच के प्रति भी चुप्पी धारण कर अद्भुत मक्कारी का स्वांग रच रहा है। साहित्य से गहरा लगाव रखने के बावजूद विचारशील पाठक ऐसे साहित्यकारों की पुस्तकों से दिन-प्रतिदिन दूर जाने लगा है। साहित्य ने निःसंदेह मनुष्य के बौद्धिक-विकास को समृद्ध किया है, किन्तु बौद्धिक मनुष्य की पाशविकता का शोधन (Sublimation) उसी साहित्याकर की कृति से होता है जिसका जीवन चैतन्य (Consciounsess) से प्रकाशित हो उठा हो।

स्वामी ज्ञानभेद जी कृत ओशो रस बरसे की पांडुलिपि मुझे पढ़ने और उनके श्रीमुख से सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो उनके विचार, उनकी चेतना की प्रवाहपूर्ण सहज अभिव्यक्ति है। स्वामी ज्ञानभेद जी, अपने मन का गहन और सतत अवलोकन कर मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, भौतिक सम्पन्नता की इच्छा और प्रतिस्पर्धा से मुक्त हो चुके हैं। उनकी हृदयस्पर्शी कृति ओशो रस बरसे जीवन के अति महत्त्वपूर्ण किन्तु उपेक्षित आयामों के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न कर विचार करने को निमन्त्रण देती है।

 जीवन को उल्लास से पल्लवित करने हेतु सृजनात्मक दिशाओं की ओर इंगित करती है। उनका साहित्य, समाज का यांत्रिक मूक दर्पण मात्र नहीं है, जिसमें पाखण्डी समाज प्रतिबिम्बित होता हो, उसमें जीवन की उत्कर्षगामिनि प्रेरणाएं एवं अभीप्साएं भी हैं। उसमें मनुष्य के अभ्यंतर में निहित सत्यम् शिवम् सुंदरम् को जगाने और उठाने की हृदयबेधी आत्मीय पुकार है। श्रद्धेय स्वामी ज्ञानभेद जी वृद्धावस्थाजन्य अनेक व्यग्र करने वाली व्याधियों से ग्रसित होने के बावजूद एक जागरूक जीवनदृष्टि से साहित्य-सृजन में समर्पित हैं। उनके हृदय में ओशो प्रेम-परचम है, प्राणों में ध्यान की सुवास है और आँखों में मनुष्य के स्वर्णिम भविष्य का स्वप्न।
‘‘ओशो रस बरसे’’ पुस्तक की विषयवस्तु एक नहीं है। विषयवस्तु की दृष्टि से इसकी अनुक्रमणिका को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक जिसमें सेक्स के प्रति गलत दृष्टिकोण, दूसरा ज़ेन (झेन) का प्रादुर्भाव, उसका प्रसार, ऐतिहासिक स्वरूप आदि का निरूपण है और तीसरा जो जीवन के विविध महत्त्व के विषयों पर प्रकाश डालता है।

संदर्भवश ज़ेन के सम्बन्ध में कुछ कहना आवश्यक है, क्योंकि सम्भवतः हिन्दी में प्रथम बार ज़ेन के विषय में किसी लेखक द्वारा इतना महत्त्वपूर्ण लिख़ा गया है। समग्र विश्व के आध्यात्मिक चिन्तन और देशनाओं को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है: सांख्य और योग। सांख्य शुद्धतम ज्ञान है और योग शुद्धतम क्रिया।

 जिनको ‘न-करने’ का भरोसा है, सिर्फ जानने पर भरोसा है-वे सांख्य निष्ठाएं हैं और जिनका कर्म पर या ‘करने’ पर भरोसा है, बिना किये कुछ भी न होगा, कुछ करना पड़ेगा-ऐसी जिनकी आस्था है, वे योग निष्ठाएं हैं। सांख्य के जो मौलिक शुद्धतम सूत्र हैं, उनमें मात्र ज्ञान की प्रधानता है, उनमें कर्म और ईश्वर का किंचित भी स्थान नहीं है। अकर्म (Non-action) में व्यक्ति को चेतना अकम्प होकर विराट चेतना से एकाकार हो जाती हैं। प्रतिभावान व्यक्ति को सांख्य प्रभावित करता है। पश्चिमी देशों में बौद्धिक विकास के कारण सांख्य प्रभावी होगा और भारत में योग प्रभावी होगा। सांख्य मनुष्य की श्रेष्ठतम बुद्धि से चलता है और योग मनुष्य की निम्नतम बुद्धि से।

ज़ेन, बुद्धिज्म की शाखा है। भगवान बुद्ध कहते हैं-‘‘न कुछ पाने को है, न कुछ करने को।’’ क्योंकि जिसे पाना है, जिसे जानना है, वह सब कर्मों से पहले ही मिला हुआ है। ज़ेन भगवान बुद्ध की इसी आधारभूत देशना का प्रतिफलन है। ज़ेन कहता है-‘करने को कुछ भी नहीं है और जो करेगा, वह व्यर्थ ही भटकेगा।’ ज़ेन तो यहाँ तक कहता है कि तुमने खोजा कि तुम भटके। खोजो ही मत। खड़े हो जाओ और जान लो।

 क्योंकि तुम वही हो, जो तुम खोज रहे हो। ज़ेन कहता है कि जिसने प्रयास किया वह मुश्किल में पड़ेगा, क्योंकि जिसे हमें पाना है, वह प्रयास से पाने की बात ही नहीं, वह प्रयास से पाया ही नहीं जा सकता। केवल अप्रयास (Effortlessness) में जाने की बात है। ज़ेन कहता है, पा सकते हैं श्रम, साधना और कर्म से उसे, जो हममें नहीं है, हमारा स्वभाव भी नहीं है। पा सकते हैं श्रम, साधना व कर्म से उसे, जो हमें मिला हुआ नहीं है, जिससे देश-काल की दूरी है। ज़ेन कहता है जिसे हम खोज रहे हैं, वह वहीं है जहाँ हम हैं-Here and Now । इसलिए जाओगे कहाँ, खोजोगे कैसे ? श्रम, साधना, कर्म से क्या करोगे ? इनसे तो हम अन्य को पा सकते हैं, स्वयं को नहीं। स्वयं तो इन सबसे पहले ही मौजूद है।
शुद्ध ज़ेन, सांख्य के अंतर्गत है। ज़ेन और सांख्य दोनों में ही ज्ञान की प्रधानता, कर्म की व्यर्थता है। दोनों ही निरीश्वरवादी हैं।
भगवान बुद्ध ने तत्कालीन व्यवस्था स्थापकों, पंडित-पुरोहितों एवं यथास्थितवादी पुजारियों की भाषा-संस्कृत के विरुद्ध विद्रोह किया एवं जनहितार्थ अपने लोक मंगल संदेशों व उपदेशों को जनभाषा पाली में प्रसारित किया था। संस्कृत भाषा के ‘ध्यान’ शब्द के लिए उन्होंने पाली भाषा के झान (Jhan) शब्द का प्रयोग किया। बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ चीन और जापान में यह शब्द, उन देशवासियों की अपनी भाषा के उच्चारण के अनुसार क्रमशः बदलता हुआ चान (Chan)  तथा ज़ेन/झेन (Zen) में रूपान्तरित हो गया।

 संस्कृत भाषा के ध्यान शब्द के लिए अंग्रेजी भाषा में कोई उपयुक्त (Appropriate) शब्द नहीं है। अंग्रेजी भाषा का शब्द ‘Meditation’ अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Concentration’ (एकाग्रता) एवं ‘Contemplation’ (शान्त और गम्भीर चिन्तन) के मध्य किसी विषय के आंशिक (Frgament)  पर एकाग्र अवलोकनपूर्ण मानसिक दशा का द्योतक है। जब चीनी और जापानी भाषाओं की भाँति अंग्रेजी भाषा में ध्यान (Dhyana) शब्द आत्मसात नहीं किया जाता, तब तक ध्यान के लिए Meditation शब्द का ही प्रयोग करना पड़ेगा।
वस्तुतः concentration, Contemplation  और  Meditation क्रमशः वैज्ञानिकों, दार्शनिकों एवं रहस्यदर्शियों की प्रयोग विधि हैं।
ज़ेन कहता है, ध्यान अर्थात् ‘न-करना’। यह न-करना, ओशो की एक प्यारी बोध कथा से बोधगम्य हो सकता है।
तीन आदमी साथ-साथ सुबह टहलने को निकले। उन्होंने दूर पहाड़ी पर एक भिक्षु को खड़े हुआ देखा और आपस में चर्चा करते हुए कौतुहल से बोले, ‘‘बताओ वह वहाँ क्या कर रहा है ?’’
उनमें से एक आदमी बोला ‘‘जैसा कि मुझे यहाँ से दिखता है, वह किसी की प्रतीक्षा में है। शायद उसका कोई मित्र जो पीछे छूट गया है उसकी प्रतीक्षा एवं अपेक्षा कर रहा है।’’

दूसरे आदमी ने उसकी ओर उन्मुख होते हुए कहा, ‘‘मैं तुम से असहमत हूँ, क्योंकि जब कोई अपने पीछे छूट गये मित्र की प्रतीक्षा करता है तो वह कभी-कभी पीछे मुड़कर अवश्य देखता है कि वह अभी आया अथवा नहीं, और वह आखिर कब तक प्रतीक्षा करेगा। लेकिन वह तो सिर्फ यथावत खड़ा है, कभी भी पीछे मुड़कर देखता ही नहीं। मुझे नहीं लगता कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। जापान में भिक्षु, सुबह की चाय के दूध के लिए गायों को पालते हैं, जिससे उन्हें दूध माँगने जाना न पड़े। ये बौद्ध भिक्षु दिन में कम से कम पाँच-छः बार चाय अवश्य पीते हैं। मुझे लगता है कि इस बौद्ध भिक्षु की गाय कहीं खो गई है या कहीं चरने निकल गई है और वह उसी की तलाश कर रहा है।’’

तीसरे आदमी ने कहा, ‘‘मैं इन बातों से राज़ी नहीं हो सकता, क्योंकि जब कोई गाय की तलाश करता है तो उसे मूर्तिवत खड़ा होने की आवश्यकता नहीं होती। उसे चारों तरफ चलना होता है, उसे इधर-उधर जाकर देखना होता है और वह भिक्षु तो अपना चेहरा तक एक तरफ से दूसरी तरफ नहीं घुमाता है। चेहरे की कौन कहे उसकी आँखें तक अर्धउन्मीलित हैं।’’

इस प्रकार आपस में विचार-विमर्श करते हुए वे भिक्षु के निकट चलने लगे जिससे और अधिक स्पष्टता से उसे देखा जा सके। तब तीसरे आदमी ने कहा, ‘‘मैं नहीं समझता कि तुम लोगों की बातें सही हैं, मेरी समझ में वह ज़ेन है। लेकिन हम कैसे निर्णय करें कि हम में से कौन सही है ?’’
उन्होंने कहा, ‘इसमें कोई समस्या नहीं है, हम चलकर उससे पूछ सकते हैं।’’
पहले आदमी ने भिक्षु से पूछा, ‘‘क्या आप किसी मित्र की प्रतीक्षा में हैं जो पीछे छूट गया है ? क्या उसकी प्रतीक्षा में हैं आप ?
बौद्ध भिक्षु ने अपनी आँखें खोली और कहा-‘‘प्रतीक्षा ! मैं कभी किसी चीज की प्रतीक्षा नहीं करता, किसी चीज की आशा और उम्मीद करना मेरे धर्म के विरुद्ध है।’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘कृपया प्रतीक्षा भूलकर सिर्फ इतना बताइये कि, क्या आप प्रतीक्षा कर रहे हैं ?’’
भिक्षु ने कहा, ‘‘मेरे धर्म में शिक्षाओं के अनुसार आगामी एक क्षण भी सुनिश्चित नहीं है। मैं कैसे प्रतीक्षा कर सकता हूँ ? प्रतीक्षा करने को मेरे पास समय कहाँ है ? मैं प्रतीक्षा नहीं कर रहा हूँ।’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘कृपया प्रत्याशा, प्रतीक्षा भूल जाइये, मैं आपकी भाषा नहीं समझता हूँ। सिर्फ इतना बताने कि कृपा करें क्या आपका कोई मित्र पीछे छूट गया है ?’’

भिक्षु ने कहा, ‘‘पुनः उसी बात को पूछ रहे हो। मेरा संसार में न कोई मित्र है न शत्रु, क्योंकि वे दोनों साथ-साथ ही होते हैं उनमें से एक को अपनाकर दूसरे को छोड़ा नहीं जा सकता। क्या तुमको यह समझ में नहीं आता कि मैं एक बौद्ध भिक्षु हूँ। मेरा कोई दुश्मन और दोस्त नहीं है। कृपया तुम बाधा न डालो और चले जाओ।’’
दूसरे आदमी ने सोचा अब मैं अपने लिए आशा कर सकता हूँ। उसने कहा, ‘‘ये बातें मैं इसे पहले ही बता चुका हूँ कि तुम निरर्थक बातें कर रहें हो, वह तो प्रतीक्षा कर रहे हैं-न ही प्रत्याशा। वह एक बौद्ध भिक्षु हैं, उनका न कोई मित्र है न शत्रु है। आप सही हैं। मैं समझता हूँ कि आपकी गाय खो गई है।’’
भिक्षु ने कहा, ‘‘तुम पहले आदमी से भी अधिक मूर्ख हो। मेरी गाय ? बौद्ध भिक्षु का किसी पर कोई स्वामित्व और आधिपत्य नहीं होता। और किसी दूसरे की गाय को क्यों देखूँगा ? मेरे पास कोई गाय नहीं है।
यह सुनकर दूसरा आदमी घबराकर शर्मिन्दा हुआ-अब क्या करूँ ?
तीसरे आदमी ने यह सोचकर कि अब सिर्फ मैंने जो कहा था उसके ही सही होने की संभावना है, कहा-‘‘मैं समझता हूँ कि आप ज़ेन कर रहे हैं।’’

भिक्षु ने कहा-‘‘क्या अनर्गल बकवास लगा रखी है। ज़ेन कोई क्रियाशीलता नहीं है, वह कोई कर्म नहीं है, जिसे किया जा सके। ज़ेन कोई करने की वस्तु नहीं है। मैं ज़ेन नहीं करता, स्वयं ज़ेन में होता हूँ। तुम लोग और अधिक भ्रमित न हो इसलिए सच कह रहा हूँ, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ। यहाँ खड़ा होना और कुछ न-करना, क्या आपत्तिजनक है ?’’

उन लोगों ने कहा-‘‘बिल्कुल नहीं, या कतई आपत्तिजनक नहीं है। यहाँ खड़े होने कुछ न करने का सिर्फ हमें मतलब समझ में नहीं आता।
भिक्षु ने कहा, ‘‘लेकिन यही वह है, जिसे जेन कहा जाता है: अकंप खड़े रहना या बैठे रहना-शरीर और मन के द्वारा कुछ भी न करना।’’
एकाग्रता और शान्त गम्भीर चिंतन-मनन (दिशावद्ध निर्देशित तार्किक विचारना), मन की दशाएं एवं उसकी कार्य पद्धतियाँ हैं, जबकि ज़ेन अ-मन (निर्विचार चेतना) है-जो अकर्म में घटित होता है।

ज़ेन के अतिरिक्त ‘ओशो रस बरसे’ का दूसरा भाग जो विभिन्न विषयवस्तु से सम्बन्धित है, उसमें कहीं हमारी दिग्भ्राँत दशा का चित्रण है, कहीं अद्भुत अनूठे स्थापत्य शिल्प तथा विस्मय से स्तब्ध करने वाले रहस्यमय नृत्य की सजीव झलकियाँ, हमारे स्वर्णिम अतीत की स्मृतियाँ कहीं विराट की ओर उन्मुख आकांक्षा, कहीं सहअस्तित्व का सहचर, कहीं गीता का मनोविज्ञान, कहीं पिण्ड में ब्रह्माण्ड की अनुभूति, कहीं मौन का स्तब्धकारी संगीत, कहीं स्वतन्त्रता का जयगान, कहीं सौन्दर्य की उपासना, कहीं स्वर्णिम स्वप्न का आश्वासन, कहीं परम जागरण का उद्बोधन आदि। सभी अनूठे विस्मयकारी एवं संवेग उत्तेजक हैं, मनुष्य की निजता, उसके प्रेम, उसकी स्वतन्त्रता को गरिमा प्रदान करने के लिए मनुष्य के पौरुष को आत्मसृजन हेतु ललकारने वाले हैं। पुस्तक का ज़ेन सम्बन्धी भाग यदि अप्रयास से सम्बन्धित है तो उसका दूसरा भार प्रयास से सम्बन्धित है। इस प्रकार लेखक ने जाने-अनजाने प्रयास एवं अप्रयास में सन्तुलन का हृदयग्राही संगीत पाठकों को अर्पित करने का प्रयास किया है।

लेखक भावना प्रधान कवि हृदय है, उसमें भावनाओं की अभिव्यक्ति का स्वच्छन्द उद्दाम प्रवाह है जिसमें कहीं-कहीं वह स्वयं गोते खा जाता है। व्यस्ततापूर्ण जीवन में पाठकों के समय को अतिव्याप्ति एवं अतिप्रसंग से जितना बचाया जा सके उतना ही श्रेयष्कर होता है। काव्यांश रूपी अनुपम रत्नों को गद्य के मध्य लेखक ने एक कुशल जौहरी की भाँति जड़कर विचार एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति में चार चाँद लगा दिये हैं, जिसमें ‘ओशो रस बरसे’ का स्वाद अत्यधिक प्रीतिकर हो उठा है। खजुराहो की मूर्तियों के चित्रण के प्रसंग में लेखक ने जिस कविता को उद्धृत किया है उसे पढ़कर ऐसा लगता है-मानों खजुराहो अपने समस्त ऐश्वर्य, वैभव और सौन्दर्य के साथ स्वयं उस कविता में समाहित हो गया हो। इस कविता के शब्दों में खजुराहो को उत्कीर्ण करने वाले कवि कलाकार के चरणों में मैं बार-बार नमन करता हूँ-अद्भुत बेमिसाल है-कवि का कौशल।

‘ओशो रस बरसे’ स्तुल्य योग्य कृति है। जीवन विकास में रुचि रखने वाले बौद्ध प्रेमी पाठक इसका स्वाध्याय कर अपने स्व में प्रवाहित अस्तित्व के उल्लास का रोमांचकारी स्पंदन अनुभव करेंगे।
ओशो प्रेम में सभी का अपना।


स्वामी धर्म वेदान्त
(जगदीश प्रसाद सेठ
एम.एम.-165, सेक्टर डी-1
एल.डी.ए. कालोनी, कानपुर रोड,
लखनऊ 226012
फोन नं. 2432365

यह पुस्तक आखिर क्यों ?


मैं स्वयं के अनुभव से यह जानता हूँ कि नाचते गाते ध्यान करने में सबसे बड़ी बाधा है-यह अति चंचल मायावी मन और कामवासना। कामवासना शरीर और मन दोनों की मांग है। इसीलिए इस संग्रह की कई रचनाओं में मैंने अंग्रेजी हिन्दी की कई प्रवचन मालाओं में बिखरे ओशो के उन वचनों को उद्धृत करते हुए, इस, बाधा के बांध को तोड़कर धारा बनाने का प्रयास किया है। ओशो, कहते हैं-मन से लड़ना झगड़ना नहीं, उससे संघर्ष नहीं करना, केवल उसे समझना है। मात्र समझ ही तुम्हें मन का मालिक बना देती है। मन बहुत उपयोगी है। उसका यंत्र की तरह उपयोग करो। ओशो का नृत्य गान वाला उत्सवमय ‘नवज़ेन’ ही इस मन को समझने का एकमात्र उपाय है।

वह कहते हैं-सेक्स का अतिक्रमण किया जा सकता है-केवल तंत्र के द्वारा। सेक्स को भी ध्यान बनाया जा सकता है। खजुराहो कोणार्क के मंदिर तंत्र के मंदिर हैं जहां इन मिथुन मूर्तियों पर त्राटक ध्यान करते हुए, तंत्र की दृष्टि को बोधपूर्वक समझ कर उनका अतिक्रमण करना, उस उर्जा को ऊर्घ्वगमन करना सम्भव है। पर सबसे पहले जरूरी है-सेक्स के प्रति निंदा और अपराध बोध से मुक्त होना और यांत्रिक संभोग को कला और ध्यान पूर्ण संभोग में रूपान्तरित करना।
ओशो कहते हैं-आज के अतिभौतिकता से ऊबे बुद्धिवादी मनुष्य के लिए नवज़ेन (उत्सवपूर्ण ज़ेन) ही एकमात्र उपाय है, और यह तथा आगे आने वाला समय तंत्र का है।

नवज़ेन और तंत्र, इन दो पंखों के सहारे उड़ते हुए ही मनुष्य मन और सेक्स इन दोनों का अतिक्रमण कर सकता है।
‘चल ओशो के गाँव में’ पुस्तक द्वारा मेरा प्रयास था कि पाठक बुद्धि तल से हृदय तल पर उतरकर ध्यान के शून्याकाश में जहाँ अस्तित्वगत उत्सवपूर्ण मौन पसरा है, छलांग लगा सके। पर छलांग लगाने से पूर्व आवश्यक है-सभी संदेहों का समाधान, श्रद्धा और साहस। यह तीन ही ज़ेन साधना के तीन स्तम्भ हैं। संदेहों का पूरा समाधान तभी होता है जब ये हरामी-मनुवा जो मतमत्त हाथी की तरह निरंकुश मालिक बना बैठा है, उसको सेवक बनाया जा सके। सेक्स का अतिक्रमण किया जा सके। प्रस्तुत ग्रंथ, ‘चल ओशो के गाँव में’ पुस्तक का परिपूरक ग्रंथ है।





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