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धुआँ और चीखें

दामोदर दत्त दीक्षित

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :271
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 368
आईएसबीएन :81-263-1106-1

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इस युग में भी गोरी-प्यारी राधा ने साँवले-सलोने दामोदर को प्यार दिया उसी राधा के लिए बहुत बहुत प्यार के साथ

Dhuan Aur Cheekhein - A Hindi Book by - damodar datta dixit धुआँ और चीखें - दामोदर दत्त दीक्षित

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी के चर्चित कथाकार दामोदर दत्त दीक्षित का पाठक के मन-मस्तिष्क पर जबरदस्त प्रभाव डालने वाला उपन्यास है 'धुँआ और चीखें'। इसमें यों तो कथा-भूमि के रूप में पाकिस्तान के जन्म से लेकर बंगलादेश-युद्ध और युद्ध बंदियों की वापसी तक की कालावधि का वर्णन है, पर दरअसल इस प्रति में उन सभी सत्तालोलुप शासकों और अफसरशाहों के क्रूर एवं अधम हथखण्डों, शतरंजी चालों तथा सामन्तवाद को खाद-पानी देती व्यवस्था की धूमावृत परिदृश्य को रचने वालों का बखूबी अंकन है।

 प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष फ़ौजी हुकूमत की विडंबनापूर्ण स्थितियों में आम जनता, नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों के संघर्ष का जैसा मर्मस्पर्शी चित्रण इस उपन्यास में हुआ है वह स्वाधीनता की कामना और मानव अधिकारों को बल पहुँचाता है। कदाचित् अपने विषय के हिन्दी के इस पहले उपन्यास में कथाकार ने इस्लामी संस्कारों, मान्यताओं, स्थानीय परम्पराओं, कबीलाई संस्कृति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमियों की प्रामाणिक जानकारी देने का प्रयास किया है। कहावतों के सफल प्रयोग और मुहावरेदार भाषा से कथानक का परिवेश जीवन्त हो उठा है।

यद्यपि उपन्यास का मूल स्वर राजनीतिक है, पर वास्तव में पीड़ित मानवता के प्रति गहरी करुणा का कथ्य है। जनजीवन के हर्ष-विषाद, अग्रगामिता- प्रतिगामिता, संस्कृति-अपसंस्कृति आदि की झलकियों से एक परिवेश की समूची एवं विश्वसनीय तस्वीर उभरती है जो उपन्यास ‘धुँआ और चीखें’ को विशिष्ट कालखण्ड की प्रतिनिधि कृति बना देती है।
इस युग में भी गोरी-प्यारी राधा ने सांवले-सलोने दामोदर को प्यार दिया उसी राधा के लिए बहुत-बहुत प्यार के साथ !

 

धुआँ और चीखें
1

‘बँट के रहेगा हिन्दुस्तान....’, ‘अल्लाह-हो-अकबर...,’ ‘या अली तोड़ दे दुश्मन की नली....’, ‘मारेंगे, मर जाएँगे, पाकिस्तान बनाएँगे...’, ‘मुहम्मद अली जिन्ना....ज़िन्दाबाद’।
नारे...नारे...नारे.....। नारों की दादुर ध्वनि से सड़कें, गलियाँ, मस्जिदें, मकान, मैदान, बाग़-बग़ीचे, बाज़ार शहर को घेरती खण्डित प्राचीर और उसके दरवाज़े सभी काँप-काँप जाते थे। कोलाहल-आक्रांत आकाश की नीली आँखें किसी नन्हें बच्चे की भाँति सहमी भयातुर थीं।

शहर के दक्षिणी भाग में, खजांचियाँ चौक से आगे, नीलगरा बाज़ार के सामने जोगिया थान मुहल्ला है और मुहल्ले में सड़क से सटा बगीचा है और बग़ीचे के बीच में है नवाब इज़्ज़त ख़ाँ की भव्य हवेली। यहाँ का तापमान औसत से कई सेल्शियस ऊँचा चल रहा है। बहसें जारी हैं। कोई निश्चित समय नहीं है। चार  लोग बैठे नहीं कि शुरू हो गए और आजकल चार  लोग बैठे ही रहते हैं। लखनऊ समझौता, लाहौर अधिवेशन, पाकिस्तान प्रस्ताव, भारत छोड़ो आन्दोलन, डॉ. लतीफ स्कीम, अलीगढ़ स्कीम, रामगोपालाचारी स्कीम, कैबिनेट मिशन, कांग्रेस- मुस्लिम लीग की चीलनोचन, गाँधी, ज़िन्ना, नेहरू, आज़ादी, पाकिस्तान-बहस का दायरा काफ़ी कुशादा। हवेली की नब्ज़ राजधानी दिल्ली के साथ धड़कने लगी है। जो चर्चे दिल्ली दरबार के इर्द-गिर्द होते, वही यहां दुहराए जाते। लय, ताल, ध्वनि, तापमान सभी कुछ दिल्ली की नाभिनाल से जुड़ा हुआ-सा....।

बहसों में बड़बोलापन हावी। तलवार। तलवार से धरती का पेट चीर देने की बातें, तीर से आकाश को घायल करने की बातें, चुल्लू से समुद्र सोख लेने की बातें...। पाकिस्तान का नाम लेते या सुनते ही देह में झुरझुरी गुदगुदाने लगती, रगों में दौड़ते ख़ून की गति अचानक तेज़ हो जाती...। पढ़े-लिखों की कौन कहे, उजाड़-झाड़-झंखाड़ क़िस्म के दिमाग़ों से भी पाकिस्तान के पक्ष में तर्क निकलते जाते-प्याज़ के छिलकों की तरह। कहा जाता अभी तक तो हम पराए देश में दोयम दर्जे की तरह रहे हैं, पाकिस्तान अपना देश होगा। अँग्रेज़ों तक तो फिर भी चल गई, काफ़िर हिन्दुओं की सरकार बनने पर हम लोगों का भुर्ता बना दिया जाएगा। कई सदियों बाद मौका मिलेगा न !

एक सोच। अंग्रेजों ने मुसलमानों से सत्ता हथियाई, वापस भी उन्हीं को होनी चाहिए जिनसे ली गई थी। पर सच तो यह था कि जिनसे ली गई थी, वे तो नीचे क़ब्रों में गड़े पड़े हैं और क़यामत से पहले उनके ऊपर आने की दूर-दूर तक संभावना नहीं ! विचार सरकाया जाता कि हिन्दू पिछली सदियों में  मुसलमानों द्वारा किए गए अत्याचारों का अब बदला लेंगे। गाँधी महात्मा, नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, अम्बेडकर जैसे क़ाफिर अभी तो सद्भाव, सह-अस्तित्व और सर्वधर्मसद्भाव का बगुलाई नाटक कर रहे हैं, पर समय आने पर कपटवेश त्याग कर क़ौम को ठेंगा दिखा देंगे। ज़िन्ना को तो मसलेंगे ही, अबुल कलाम आज़ाद को भी—जिन्हें अभी गले लगाते नहीं थकते— या तो फांसी मिलेगी या बुढ़ापे-भर चक्की पीसनी पड़ेगी। इतिहास अपने को दोहराता है। याद कीजिए, मुग़लों के कमज़ोर पड़ते ही जाट, सिक्ख, सिन्धिया और होल्कर कैसे पिल पड़े थे !

पुराने दिन हवा हो गए थे। यूनियनिस्ट पार्टी के नेता, संयुक्त पंजाब के मुख्यमंत्री सर सिकन्दर हयात ख़ाँ से किसी व्यक्ति ने पाकिस्तान की सरपरस्ती की बात की, तो उनकी आँखें लाल हो गईं, ‘‘आप कैसे कह रहे हैं ? आइन्दा ऐसी बात मेरे सामने ज़बान पर मत लाइएगा। पाकिस्तान का मतलब होगा नरसंहार, भयंकर मार-काट...।
जब तक जिंदा रहे बेचारे, पंजाब के बँटवारे के पक्ष में हवा नहीं बहने दी। सिन्ध के मुख्यमंत्री अल्लाबख़्श भी बटवारे के ख़िलाफ़ थे। बिना किसी लाग-लपेट के, साफ़ तौर पर कहते रहे, ‘सारा हिंदुस्तान हिंदुस्तानी मुसलमानों का अपना देश है। ’ पर तब से सिन्ध नदी में जाने कितना पानी बह गया...!

सूर्यास्त घंटे-भर के फा़सले पर, पर शरीर में अभी से रुगरुगी सुरसुराने लगी। नोकीली, खिचड़ी मूँछों के दोनों ओर, सुर्ख़ सेब जैसे गाल धौंकनी की भाँति फूल-सिकुड़ रहे थे। सरपट दौड़ती बैलगाड़ी जैसी ध्वनि भी...। कुछ क्षण पहले ही नवाब साहब ने हुक्के की नै पर बाज की भाँति झपट्टा मारा था। धुएँ के वलय छत की ओर बढ़ रहे थे—आहिस्ता-आहिस्ता।
पिछले तीन घण्टे से वार्ता जारी थी। ‘पाकिस्तान’ जैसे प्रिय, सम्मोहक, भावनात्मक और उत्तेजक विषय होते हुए भी लोग थकने लगे थे, पर अलादाद ख़ाँ के गले के कुछ ही तन्तु आन्दोलित हुए थे। अपनी निःशेष ऊर्जा को शेष करने की चेष्टा में उन्होंने आँखें मटकायीं, ‘‘काफ़िर हिन्दू अपने मज़हब के तो हुए नहीं, हमारे क्या होंगे !’’

नवाब साहब समझ तो गए कि कथन में कुछ गूढ़ार्थ, कुछ पेंच है, पर हवा देने की पहल नहीं की।
पर ज़ियाउद्दीन का मन खुजलाने लगा, ‘‘आलू भाई, सपने की ताबीर बताओगे या यूँही बैठे रहोगे मुँह बाँधे ?’’
अलादाद ख़ाँ रहस्यमय ढंग से मुस्कुराए., ‘‘ताबीर तवारीख़ी क़िस्से की शक्ल में है...।’’
‘‘जिसके उस्ताद हम तुम्हें मानते तो हैं, पर बार-बार दुहराकर बात का वज़न कम और तुम्हारा वज़न ज़्यादा नहीं करना चाहते...। यही कहूँगा, उत्सुकता की लपटें उठ रही हैं, सब्र के बाँध में दरारें पड़ रही हैं। बस शुरू हो जाओ, आलू भाई...।
अन्तर्निहित सुलेमान की आत्मा के ग़ैर भी कायल हैं, इसे देखकर अलादाद ख़ाँ के दाएँ हाथ की उँगलियाँ सफेद दाढ़ी पर चहलक़दमी करने लगी। कुर्सी पर पहलू बदलकर उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘दूसरे क़िस्सों की तरह यह क़िस्सा ज़्यादा पुराना नहीं। बात महाराज रणजीत सिंह के समय की है। एक बार महाराज ने हिन्दुओं और मुसलमानों को खिलअत (राजअनुदान) प्रदान की।  हिन्दुओं को भेंट की गई चाँदी की गाय और मुसलमानों को नज़र किया गया चाँदी का सुअर। कुछ महीने बाद महाराज ने हिन्दुओं को तलब किया और पूछा की गाय का क्या किया ?’’
‘‘तो क्या बोले हिन्दुट्टे ?’’ जियाउद्दीन चहके।

बोले, ‘‘हज़ूर, माई-बाप, उसे तो गलवाकर चाँदी आपस में बाँट ली।’’
महाराज ने मुसलमानों को बुलवाया और चाँदी के सुअर के बारे में पूछा। ‘‘तो वे क्या बोले ?’’ नवाब साहब ने हुँकारी भरने के अंदाज़ में पूछा। ‘‘बोले उसे तो महल से निकलते ही फेंक दिया था।’’
‘‘वल्लाह, क्या बात है ! बहुत अच्छा किया।’’ न जाने कौन बोला या सभी बोल पड़े !
‘‘अभी आगे सुनो। महाराज ने मुसलमानों को मज़हबपरस्ती से प्रभावित होकर खू़ब इनाम-इकराम दिया।’’
‘‘और हिन्दुओं का क्या किया ?’’ रोमांच के घोड़े पर सवार कलन्दर ख़ाँ ने पैर उठाकर कुर्सी पर उकड़ूँनुमा रख लिए। कुर्सी डगमगायी, पर संभल गई।
‘‘ज़ाहिर है, जुर्माना।’’

‘‘जेल नहीं ?’’
‘‘नहीं।’’ कह तो दिया अलादाद ख़ाँ ने, पर निश्चय किया कि आगे से जेल भी भिजवा दिया करेंगे। सिर्फ़ जुर्माने पर क्यों छोड़ा जाए !
बहुत से लोग होंगे जो हिन्दुओं के आचरण को उचित, व्यावहारिक और बुद्धिमत्तापूर्ण मानेंगे, पर यहाँ बैठे लोगों के मत में उनका आचरण हेय था और इसी से क़िस्सा चटपटी चाट से भी ज़्यादा चटकारेदार बन गया था।
जियाउद्दीन चौख़ानेदार तहमद को ग़ुब्बारे की तरह फुलाकर उछल पड़े और अलादाद ख़ाँ को गले से लगा लिया, ‘‘सुब्हानअल्लाह ! क्या क़िस्सा सुनाया ख़ाँ साहब ! ख़ुदा जाने किसका चेहरा सुबह उठते देखा था ? ऐसा ही एक क़िस्सा रोज़ सुना दिया करो। क़सम ख़ुदा की, तबीयत हरी हो उठती है।’’
‘आलू भाई’ के स्थान पर ‘ख़ाँ साहब’ का संबोधन इस बात का सबूत था कि ज़ियाउद्दीन उस समय सचमुच उन पर क़ुर्बान थे।

क़िस्से, बहुत सारे क़िस्से...। पर बन्नू में वही  क़िस्से कहे और सुने जा रहे थे जिनसे घृणा-विद्वेष-विभेद की बू आती थी। मुसलमान हिन्दुओं के क़िस्से सुना रहे थे और हिन्दू मुसलमानों के। क़िस्से जो समुदायगत वैशिष्ट्य को लेकर परिहास के लिए गढ़े गए थे, उन्हें साम्प्रदायिकता का तड़का लगाकर पेश किया जा रहा था।
अलादाद ख़ाँ दरम्याने क़द, दोहरे शरीर के–अगर कह सकें- व्यक्ति थे। कपूरी रंग, गोल मटोल चेहरा और कंचे जैसी आँखें। लम्बी सफेद दाढ़ी। वह कमीज़ और बल खाते घेर की धारीदार सलवार पहनते थे जिसका साफ़ रहना क़तई ज़रूरी न था। बायें पैर की विशिष्ट ढपकन से वह दूर से पहचान में आते थे।
     
इस क़बीलाई क्षेत्र में बहुत से लोग बंदूक चलाकर रोज़ी-रोटी कमाते थे, तो बहुत से लोग बंदूक बनाकर। अलादाद ख़ाँ की दूसरी कोटि थी। फूड़ियाँ मुहल्ले में घर के अगले हिस्से में छोटा-सा कारखाना खोल रखा था। कोई ख़ास आमदनी नहीं, पर गुज़र-बसर में कठिनाई भी नहीं। माल के ख़रीददार ज़्यादातर ग्रामीण क्षेत्र के होते थे पिस्तौल पर बंदूक को तरज़ीह देते थे।

इतिहास-ज्ञान जिसमें इतिहास-अज्ञान भी शामिल रहता था-के ज़रूरी-गैरज़रूरी प्रदर्शन के लिए अलादाद ख़ाँ ख्यात-कुख्यात थे। मदरसे से लौटते बच्चों की राह में रोड़ा बनकर किसी नामालूम से बादशाह का शज़रा पूछते और न बता पाने पर धिक्कारते, ‘‘ख़ाक आता है इतिहास तुम्हें ! मामूली-से सवाल भी झेल नहीं पाते। फ़रज़न्दों ! किताबों को लगा दो आग और मदरसा छोड़कर भेड़-बकरियाँ जाकर–जंगल में।’’
लड़के मायूस हो जाते। तय करते कि अगली बार बुड्ढ़े पर निगाह पड़ते ही रास्ता काटकर निकल जाना है, कुलक्षणी-कुटेंवी लँगूर के जाल में किसी तरह भी नहीं फंसना।
वयस्कों के बीच भी अलादाद ख़ाँ इतिहास-ज्ञान का कोई अवसर हाथ से जाने न देते थे। अन्तर सिर्फ़ इतना रहता कि वयस्क मण्डली में उनका इतिहास-ज्ञान प्रायः अनैतिक सेक्स सम्बन्धों के सरस वर्णन तक सीमित रहता। पर आज कल उनकी दिलचस्पी साम्प्रदायिक आख्यानों में थी। काश,  वह समझ पाते की सफ़ेद दाढ़ी के नीचे एक अदद सफ़ेद दिल भी चाहिए !

हवेली के बैठक बाजों में एक हज़रत ऐसे भी थे जो अलग ढंग से सोचते थे। वह थे मीर आलम ख़ाँ। उनका विचार था कि पाकिस्तान, तूरिस्तान, नूरिस्तान इन सबके पीछे कुर्सी का चक्कर है, जिससे जितना हित है, उससे कहीं ज़्यादा अहित। गाँधी, नेहरू आज़ाद जैसे महापुरुषों पर संदेह करना स्वयं अपने अस्तित्व पर संदेह करना है। अगर आतंकित करना हिन्दुओं का इष्ट होगा, तो संख्या बल के कारण पाकिस्तान बनने के बाद भी कर सकते हैं। पाकिस्तान दुनिया के दूसरे हिस्से में तो बनेगा नहीं ! हम मुसलमान आपस में लड़ते-झगड़ते हैं और फिर गले लग जाते  हैं। हिन्दुओं से छोटे-मोटे झगड़े होते हैं, तो क्या उनसे गले नहीं लग सकते ? अलग होने की क्या ज़रुरत ? मीर आलम ख़ाँ में झंझावात के सामने पैर जमाकर खड़े हो जाने, धारा के विरूद्ध तैरने का ज़ज़्बा था। हवेली की बहसों में वह अलग-अलग पड़ जाते, पर उन्हें इसकी चिन्ता नहीं थी।

16 अगस्त, 1946। सीधी कार्रवायी का दिन जो कोलकाता के इतिहास का सबसे टेढ़ा दिन साबित हुआ। बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार ने इस दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया। हुसैन शहीद सुहरावर्दी के नेतृत्व में मुसलमानों का विशाल जुलूस कोलकाता की सड़कों पर निकला। उत्तेजक नारे आग में घी का काम कर रहे थे। लूट, मारपीट, बलात्कार, हिंसा, आगजनी और बलात् धर्म परिवर्तन की अन्धी गुफा़ का महाद्वार खुल गया। सरकार और व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं रह गई। कोलकाता की समन्वित संस्कृति रात के अँधेरे में जाने कहाँ, किस कमबख्त के साथ भाग निकली। आतंक-ताडण्व चार दिन तक चला। कोलकाता की घटनाएँ द्विराष्ट्र-सिद्धान्त का पहला उपहार थीं—विषैली बेलों का उपहार !

इसके बाद शुरू हो गया एक अन्तहीन सिलसिला। द्वेष और घृणा के कीट सारी संक्रामकता में लोगों की शिराओं में उतरते चले गए। सिलहट....नोआखाली...लाहौर...रावलपिंडी...गढ़मुक्तेश्वर...कोहाट...। अफवाहों के अन्धे घोड़े पर सवार होकर दंगा-दावानल छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों तक को डसता चला गया। बजाय इसके कि दंगा कहाँ हुआ ?
जिन रहनुमाओं ने दोनों समुदायों को न लौट सकने वाले उत्तेजक चरम तक पहुँचाया और दंगे करवाए, वे दुर्भेद्य सुरक्षा-कवच से लैस, बैठकों में जाम पर बहसें ख़ाली करते रहे। न उनका ख़ून बहा, न ही संपत्ति लुटी। ख़ून की नदियाँ बहीं ग़रीब, बेसहारा, मज़लूम, और ग़ैर सियासी लोगों की। देश के बहुत से स्वानामधन्य प्रभामण्डल ख़ौफ़नाक अन्धड़ के सामने श्रीहीन हो गए, वाणी सूनी घाटी का स्वर बनकर रह गई।

नाटक, ऋषियों-मुनियों के देश में खेला जा रहा था, कुछ समय पहले दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में खेला गया था और भयंकर तबाही मची थी। पर हमने कोई सीख नहीं ली थी। बेहूदे नाटक के पुनर्मंचन की प्रक्रिया में हमें अपना हाथ आग की लपटों में देते हुए ज़रा भी हिचक नहीं हुई जबकि लपटें ख़ुद बार-बार कांप जाती थीं।

मुसलमानों को अंधाधुंध ज़िबह किया जा रहा है, बहू-बेटियों की इज़्ज़त लूटी जा रही है, सुअर का माँस फेंककर मस्जि़दें नापाक की जा रही हैं, हिन्दू लोग मुसलमानों के लिंग काटकर अपने धर्मप्रमुखों को भेंट कर रहे हैं...। दिल्ली लाहौर की ओर से किश्त-दर-किश्त आती ख़बरें बन्नू तक पहुँचाते-पहुँचाते सड़ाँध मारने लगती थीं। ख़बरों में थोड़ी सच्चाई ज़रूर थी, पर उसे अतिश्योक्ति या झूठ का मोटा मुलम्मा चढ़ाकर, अफ़वाह की चाशनी में डुबोकर पेश किया जा रहा था। यह भी कि यहाँ मुसलमानों को उत्पीड़ित किए जाने के  समाचार आ रहे थे, हिन्दुओं के नहीं। आधी सच्चाई जो कभी-कभी पूरे झूठ से कहीं ज़्यादा भयावह, संकटपूर्ण और घातक होती है। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, उत्तेजना, तनाव, भय और आतंक का धुआँ चारों और फैला हुआ। ध्रुवीकरण और लामबन्दी-धर्म के आधार पर। कांग्रेस को हिन्दुओं की जमात बताते हुए उसमें शामिल मुसलमानों को मुस्लिम लीग में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जाता और न मानने पर हिन्दुओं का कुत्ता कहा जाता, भर्त्सना की जाती, उत्पीड़ित किया जाता। कुल मिलाकर बन्नू कण्डे की तरह सुलग रहा था—अन्दर ही अन्दर।
सूरज सफ़र के अंधियारे पर। तनाव की भयावह शंकाकुलता के बावजूद फूड़ियाँ बाज़ार खुला था। दुकान में सामान्य आवाजाही थी। तभी भरे-भरे चेहरे और हल्की दाढ़ी वाला नौजवान जूते खटखटाता पहुँचा। हल्के खख़ाँर के साथ स्वर घरघराया, ‘‘कहो लाला !’’

सुर्ख़ कोने वाली आँखों से वेल्डिंग इलेक्ट्रोड के स्फुलिंग निकल रहे हो मानो। तीरथराम आहूजा की सिट्टी-पिट्टी गुम। चेहरा ज़र्द । मुँह के अन्दर रिस आयी लार को निगलने का साहस खोकर काँपती, अटकती आवाज़ में बोले, ‘‘क्या चाहिए शेरू उस्ताद ?’’
‘‘जो चाहिए, दोगे ?’’ वह गुर्रा रहा था।
‘‘दुकान में होगी तो ज़रूर दूँगा।’’
‘‘तुम्हारी आँतें चाहिए।’’ कहने के साथ ही उसने ‘खटाक’ से स्प्रिंगदार चाकू तान दिया। ग्राहकों में भगदड़ मच गई।
‘‘शेरू भाई, पैसा चाहिए, बोला। झगड़ा-झंझट की क्या ज़रूरत ?’’
‘‘पैसे से इंकार नहीं। लोभी आदमी हूँ, ले ही लूँगा। पर इस समय तुम्हारी आँतें पैसे से ज़्यादा जरूरी हैं। क़ीमती भी ।’’
तीरथराम पिछली कोठरी की ओर भागे। शेरू ने बंदर की तरह काउण्टर की छलांग लगाई और वह कोठरी का दरवाज़ा बन्द करें, उससे पहले ही कमीज़ का निचला सिरा पकड़कर आगे खींच लिया। फिर चीते की तरह कमर जकड़कर चीनी के बोरे पर पटक दिया। चाकू लपलपाया और कहीं जाकर ठहर गया...।

‘बचाओ, बचाओ’ की डूबती आवाज़ के साथ लहू का फव्वारा फूट पड़ा। शेरू और उसके शोहदे साथियों ने छोटे-मोटे सामान और गल्ले से पैसे लूटे और फूड़ियाँ दरवाज़े की ओर निकल भागे। सिर्फ़ कुछ क्षणों में जीते-जागते, हँसते-बोलते तीरथराम लाश में तब्दील हो गए। भीड़ भरे बाज़ार में कब्रिस्तान की वीरानी छा गयी।
कहाँ नवाब साहब, कहाँ शेरू ! नवाब साहब बन्नूची क़बीले के और शेरू यानी शेर ख़ाँ मर्वात क़बीले का— दोनों क़बीलों के बीच छत्तीस का आँकड़ा। नवाब साहब की गणना बड़े लोगों में होती थी और शेरू  ठहरा शहर का सड़क छाप गुंडा। कल ही की बात-नवाब साहब शाम के समय अपनी बैठक में शेरू के कान में कुछ गुनगुना रहे थे। यह कौन-सा राग था, आज साफ़ हो गया था...।

दंगे ने बन्नू के दरवाज़े पर दस्तक दे दी जिसे सुनकर शहर काँप उठा। मुसलमान इस नाते कि अब हिन्दू बदला लेंगे और हिन्दू इसलिए की यह तो इब्तिदा और इन्तिहा के बीच उनके सिर भी आते हैं। हिन्दू-मुस्लिम दंगा बन्नू के लिए नया अनुभव था। विगत में दोनों समुदायों के बीच विवाद की स्थितियाँ आयीं भी, तो कभी कोई फलों की लदी डाली की तरह लच जाता, तो कभी कोई। बात वहीं दब जाती। पर इस बार कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था।
नवाब साहब की बैठक में महफ़िल जमी थी-अक्सर ही जमी रहती थी। उनके लिए यही बहुत बड़ा काम था। प्रिय भी। वह बड़े ज़मींदार थे, शहर के पास ही काश्त थी और देखभाल के लिए थी भरोसे मंद –आज़माए कारिन्दों-कारकुनों की फ़ौज। कुछ-कुछ करने की ज़रूरत ही क्या थी ? बैठक बाजी उनके अभ्यास में थी, स्वभाव में थी, ख़ून में थी...।
इस समय भी नवाब साहब आसमानी रंग की सलवार –कमीज़ में तख़्त पर बुत के मानिंद बैठे थे। पीछे गावतकिए की टेक थी। हाथ में प्लेट थी और प्लेट में थे कबाब। मुँह में रखे टुकड़े को दुश्मन के कच्चे गोश्त की तरह चबा रहे थे। सामने अर्धचन्द्राकार रखी कुर्सियों पर जमे लगुए-भगुए भी कबाब भक्षण में दत्तचित्त। चेहरे पर तृप्तिभाव, मन में मेजबान के लिए दुआ। मेजबान यानी नवाब साहब कहें, तो फ़िलवक़्त पहाड़ से कूदने को, समुद्र में छलांग लगाने को और आकाश में उड़ने को भी उद्यत।

तभी मीर ख़ाँ आलम ने प्रवेश किया।
नवाब साहब चहक उठे, ‘‘आइए ख़ाँ भाई। आपका इस्तक़बाल करने के लिए हम ही नहीं, कबाब भी बेताब है।’’
‘‘खाने का मन नहीं।’’ वह कुर्सी पर बैठते हुए बोले।
‘‘ऐसा कैसे हो सकता है !’’
नवाब साहब की आवाज़ का पीछा करतीं कुछ समर्थंनपरक आवाज़ें..।
सामूहिक आक्रमण से निरुपाय हो मीर आलम ख़ाँ ने प्लेट उठा ली।
कुछ समय बाद जब कबाब पेट में ही नहीं, मन से भी उतरने लगे, मीर आलम ख़ाँ ने महफ़िल के ख़ुशनुमापन को गर्दन से पकड़कर झिंजोड़ दिया, ‘‘नवाब साहब, सुना आपने ? शैतान की आँत शेरू ने तीरथराम भाई को मार डाला।’’
‘‘अच्छा !’’ स्वर में निर्जीव विस्मय।
‘‘बज्जात शेरू को पकड़ मँगवाइए और कर दीजिए पुलिस के हवाले जिससे बात आगे न बढ़े। बहुत चर्बी बढ़ गयी है शेरू के।’’ व्यग्र नज़रें नवाब साहब के चेहरे पर चिपकी थीं।
कुछ क्षणों तक मौन पसरा रहा।
‘‘पर क्यों...? तीरथराम से तुम्हारी रिश्तेदारी है ?’’ नवाब साहब तौलकर बोले। यद्यपि इसमें तौलकर बोलने जैसा कुछ न था।

ऐसी घटिया प्रतिक्रिया और नवाब साहब से ! इस प्रतिक्रिया पर प्रति-प्रतिक्रिया व्यक्त करना शायद ही फलदायक हो, यह जानते हुए भी स्वयं को रोक न  सके ‘‘रिश्तेदारी से भी ऊपर एक चीज़ होती है-इंसानियत। आप जैसे पढ़े और कढ़े व्यक्ति को यह भी बताना पड़ेगा ?’’
‘‘इंसानियत ? शब्द यू.पी, बिहार, दिल्ली वगैरह के हिन्दुओं के ज्ञान कोश में क्यों नहीं है ? वे क्यों मुसलमानों पर ज़ुल्म ढा रहे हैं ? इस पृष्ठभूमि में धूर्त, क़ाफिर  हिन्दुओं को सबक सिखाना भला कैसे गुनाह हो गया ?’’
मतलब साफ़। नवाब साहब की राजनीतिक बहसें सिर्फ़ बहसें नहीं रही थीं। बात बहुत आगे बढ़ चुकी थी। माथे की सलवटों, आँखों से झरती चिंगारियों और रोम-रोम से फूटते आवेश ने मीर आलम ख़ाँ को चुप नहीं रहने दिया, ‘‘नवाब साहब, सरपरस्ती आदम की करनी चाहिए, इब्लीस की नहीं। दूसरी जगह की घटनाओं में बेचारे तीरथराम का क्या दोष ? यह भी कोई बात हुई। करे कोई, भरे कोई !’’

नवाब साहब हुमसे और नृत्य-मुद्रा की तरह दोनों हाथ आगे फैलाकर, पंजे तान दिए, ‘‘मीर भाई, कुछ भी कहो, पर अगर सोचते हो कि शेरू की मुख़ालफ़त करूँगा, तो यह संभव नहीं। बेशक हम बन्नूची हैं और वह मर्वात क़बीले का-हमारा पुश्तैनी दुश्मन ! पर मुझे, और तुम्हें भी, नहीं भूलना चाहिए कि वह मुसलमान है और उसने एक काफ़िर को मारा है। इस मामले में इससे ज़्यादा जानने की, इससे आगे बढ़ने की ज़रूरत ही क्या ?’’
उनके ओंठ तंज से गोल-गोल सिकुड़े, ‘‘तो बात मज़हब की है। आप तो सुशिक्षित मुसलमान हैं, नवाब साहब ! कुरान-ए-पाक के ये शब्द तो ज़रूर पढ़े होंगे—‘‘ जो लोग तुमसे दीन से नहीं लड़े, न उन्होंने तुमको तुम्हारे घर से निकाला, उनके साथ भलाई करने और इन्साफ़ का बर्ताव करने से ख़ुदा तुमको मना नहीं करता। अल्लाह इन्साफ़ पर चलने वालों को चाहता है।’’

कु़रान-ए-पाक से निकली सच्चाई को नवाब साहब ने ऐसे लिया जैसे किसी ने तमाचा मारा हो और पाँचों उँगलियों की छाप गाल पर उभर आयी हो। मानो सरे आम निश्शस्त्र ही नहीं, निर्वस्त्र भी कर दिए गए हों। तिलमिलाकर चीख पड़ना स्वाभाविक सी स्थिति बन गई, ‘‘मीर भाई, चाहे जिस चीज़ का वास्ता दो, मैं ऐलानिया शेरू के साथ हूँ। रहूँगा भी। तुम तो बिस्मिल्लाह में ही घबरा गए यार ! हुआ ही क्या है अभी ? अपनी आँखों से देखोगे कि बन्नू में एक भी काफ़िर बाक़ी न बचेगा।’’
मुँह थूक का स्प्रेयर हो रहा था।
‘‘नवाब साहब , बिस्मिल्लाह से सबाब मिलता तो है, पर जो कहो सियार के शिकार से बिस्मिल्लाह करने से, तो नहीं। सुना ही होगा बन्नू के उस सेठ के बारे में जो किसी के घर ग़मी होने पर ख़ुद न जाकर अपनी चाभी भेज देता था। एक बार स्वयं उसके घर गमी हुई, तो मातमपुर्सी के लिए कोई नहीं आया, अलबत्ता चाभियों का ढेर लग गया। हम जैसा बोते हैं, वैसा ही काटना पड़ता है ।’’

नबाब साहब समेत कई लोगों के चेहरे तमतमा उठे। नवाब साहब का बेटा अब्दुल्ला ख़ाँ-जो कुछ समय पहले ही बैठक में आया था-यह जानते हुए भी कि पिता की निगाह में मीर आलम ख़ाँ का वजन है, दीवार पर टँगी तलवार की ओर बढ़ा। फिर यकायक पलट कर चीख, पड़ा, ‘‘बहुत हुआ चचा, एक तो अब्बू के दोस्त, फिर बन्नूची वरना ख़ुदा क़सम सिर कलम कर दिया होता। बेहतर होगा कि आप बात आगे न बढ़ाएँ वरना...।’’
मीर आलम ख़ाँ आवेश के उस मुकाम पर पहुँच चुके थे जहाँ पहुँचकर आवाज़ तेज के बजाय नम हो जाती है, ‘‘खुशी से मेरा सर कलम कर सकते हो, बेटा। हाज़िर है। पर इसके बाद भी इस ज़मीनी सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। कि जो दूसरे के खलिहान में आग लगाते हैं, अक्सर आग उनके खलिहान तक पहुँच जाती है।’’
भयावह, स्तब्धता के बीच ‘ख़ुदा हाफ़िज’ कहकर वह बाहर निकल आए।
महफ़िल बर्खास्त हो गई। खु़दा जाने आत्मग्लानि, अपराधबोध या समयबोध, नवाब साहब ने ज़ानमाज़ बिछा दिया और व़जू करने के लिए भीतर चले गए।






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