कहानी संग्रह >> जहरीली जड़ें जहरीली जड़ेंरूपनारायण सोनकर
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ग्रामीण दलितों पर आधारित कहानी-संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
युवा कवि एवं नाटककार रूपनारायण सोनकर
इलाहाबाद
विश्वविद्यालय से विधि स्नातक हैं। अब तक उनकी कई रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी
हैं। उनकी प्रकाशित रचनाओं में ‘खूबसूरत परियों का गल-बहिया
डांस’, ‘यदि गीदड़ नेता होता’ और ‘विषधर’
प्रमुख रचनाएँ हैं। कई पुरस्कारों से सम्मानित रूपनारायण सोनकर बहुआयामी
व्यक्तित्व के स्वामी हैं।
‘जहरीली जड़ें’ (कहानी संग्रह) ग्रामीण दलितों पर कुछ क्रूर गैर-दलितों द्वारा ढाए गए अत्याचारों की जीवंत गाथा है। कई बार इसी अत्याचार एवं गैर-बराबरी के कारण दलितों का विश्वास ब्राह्मणवादी देवी-देवता एवं कर्मकाण्डी व्यवस्था से उठने लगता है। लेखक ने इस कहानी संग्रह के माध्यम से समाज में फैली जातिवाद, छुआछूत, ऊँच-नीच और धार्मिक पाखंडता जैसी जहरीली जड़ों को काटने का प्रयास किया है।
‘जहरीली जड़ें’ (कहानी संग्रह) ग्रामीण दलितों पर कुछ क्रूर गैर-दलितों द्वारा ढाए गए अत्याचारों की जीवंत गाथा है। कई बार इसी अत्याचार एवं गैर-बराबरी के कारण दलितों का विश्वास ब्राह्मणवादी देवी-देवता एवं कर्मकाण्डी व्यवस्था से उठने लगता है। लेखक ने इस कहानी संग्रह के माध्यम से समाज में फैली जातिवाद, छुआछूत, ऊँच-नीच और धार्मिक पाखंडता जैसी जहरीली जड़ों को काटने का प्रयास किया है।
‘ज़हरीली जड़ें’ कहानी संग्रह ग्रामीण
दलितों पर कुछ क्रूर गैर-दलितों द्वारा ढाए गए अत्याचारों की जीवंत गाथा
है। ग्रामीण दलित जो अधिकतर मजदूर हैं; मेहनत, मजदूरी करके अपने
बाल-बच्चों का भरण-पोषण करते हैं; गांवों में मिट्टी के घरों में रहते
हैं; जाड़ों में इनके पास तन ढकने एवं ओढ़ने के लिए कपड़े व रजाइयां नहीं
होती हैं; फटे पुराने कपड़े पहनकर एवं पुवाल की रजाई बनाकर पूरी सर्दी
परिवार के साथ काट देते हैं। कुछ दबंग गैर-दलितों द्वारा इन बेचारें
दलितों से बेगार करवायी जाती है। बेगार न करने पर उनको मारा-पीटा जाता है।
मंदिरों की सफाई इन दलितों से तो करा ली जाती है; लेकिन धार्मिक
अनुष्ठानों में इनको भाग लेने से वंचित कर दिया जाता है।
भूमिका
रुपनारायण सोनकर का यह कथा संग्रह एक ताजा हवा के झोंके के समान है। ऐसी
हवा जिसमें तमाम धूल कणों के बावजूद जीवनदायनी होने का एहसास मौजूद है। इस
संग्रह की प्रत्येक कहानी परिवर्तनकारी सत्य को वहन करती है। समाज की
विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं को उद्घाटित करती है। इसमें सायास
कुछ भी आरोपित नहीं है; पुस्तक की अंतर्धारा में ही सब कुछ समाहित है।
रूपनारायण सोनकर के पास अमानवीय समाज है और उस अमानवीयता को काटने के लिए सोच की पैनी कलम। ये कहानियां किसी वाद की मोहताज नहीं। लेखक ने अपने अन्दर और बाहर के यथार्थ को जिस तरह समेटा है उसमें विकृत व्यवस्था, भ्रष्ट तंत्र, विकलांग लोकतंत्र और अमानवीय समाज के त्रासद विवरण मौजूद हैं, जो चमत्कृत नहीं करते बल्कि उदास और क्रोधित करते हैं। यह कहानियों अपने समय को विश्लेषित करने वाले एक समर्थ रचनाकार की कहानियां है।
रुपनारायण सोनकर की कहानियां रचनाशीलता के तथाकथित सांचों को भी तोड़ती है। अनगढ़ भाषा और वाक्य विन्यास से वे भाषावादी तराश और पच्चीकारी को भी नकारतें है। आज के विकृत समाज को परत दर परत खोलने का विशिष्ट साहस सोनकर की रचना में है। क्या इतना बहुत नहीं कि इस मित्र रचनाकार ने कहानी की परम्परापूरक अपेक्षाओं को नकारते हुए साहित्य का नहीं अपने समय का साथ दिया है। दलित, उत्पीड़ित उपेक्षित और त्रस्त समाज का साथ दिया है। वास्तविक अर्थों में जिसे आम आदमी कहा जाता है, उस आदमी का साथ दिया है। यह विशेषता इस संग्रह की रचनाओं को पठनीय बनाती है।
आज के दौर के अनेक समर्थ युवा कथाकार गलीज सत्य की घिनौनी परतों को बखूबी उघाड़ रहे हैं। उनकी चेष्टाओं ने समाज की कुरूपता के प्रति चिन्तन मनन के लिए आम पाठक को उद्वेलित और उत्प्रेरित किया है। ऐसे में बिना किसी आडम्बर के सहज, सरल एवं निश्चल धारा की तरह बहते हुए लेखक की रचनात्मकता प्रभावित करती है।
अंत में इतना कहा जा सकता है कि ये कहानियां विचारों की जड़ता और साहित्य की एकरसता को तोड़ते हुए आदमी की तमाम बेचैनियों को सहेज कर त्रस्त समाज के अभ्युदय की कहानियां है, जिनमें अपने को पढ़ा ले जाने की क्षमता भी है और अपने को मना ले जाने का बूता भी है।
इन्हीं शब्दों के साथ...
रूपनारायण सोनकर के पास अमानवीय समाज है और उस अमानवीयता को काटने के लिए सोच की पैनी कलम। ये कहानियां किसी वाद की मोहताज नहीं। लेखक ने अपने अन्दर और बाहर के यथार्थ को जिस तरह समेटा है उसमें विकृत व्यवस्था, भ्रष्ट तंत्र, विकलांग लोकतंत्र और अमानवीय समाज के त्रासद विवरण मौजूद हैं, जो चमत्कृत नहीं करते बल्कि उदास और क्रोधित करते हैं। यह कहानियों अपने समय को विश्लेषित करने वाले एक समर्थ रचनाकार की कहानियां है।
रुपनारायण सोनकर की कहानियां रचनाशीलता के तथाकथित सांचों को भी तोड़ती है। अनगढ़ भाषा और वाक्य विन्यास से वे भाषावादी तराश और पच्चीकारी को भी नकारतें है। आज के विकृत समाज को परत दर परत खोलने का विशिष्ट साहस सोनकर की रचना में है। क्या इतना बहुत नहीं कि इस मित्र रचनाकार ने कहानी की परम्परापूरक अपेक्षाओं को नकारते हुए साहित्य का नहीं अपने समय का साथ दिया है। दलित, उत्पीड़ित उपेक्षित और त्रस्त समाज का साथ दिया है। वास्तविक अर्थों में जिसे आम आदमी कहा जाता है, उस आदमी का साथ दिया है। यह विशेषता इस संग्रह की रचनाओं को पठनीय बनाती है।
आज के दौर के अनेक समर्थ युवा कथाकार गलीज सत्य की घिनौनी परतों को बखूबी उघाड़ रहे हैं। उनकी चेष्टाओं ने समाज की कुरूपता के प्रति चिन्तन मनन के लिए आम पाठक को उद्वेलित और उत्प्रेरित किया है। ऐसे में बिना किसी आडम्बर के सहज, सरल एवं निश्चल धारा की तरह बहते हुए लेखक की रचनात्मकता प्रभावित करती है।
अंत में इतना कहा जा सकता है कि ये कहानियां विचारों की जड़ता और साहित्य की एकरसता को तोड़ते हुए आदमी की तमाम बेचैनियों को सहेज कर त्रस्त समाज के अभ्युदय की कहानियां है, जिनमें अपने को पढ़ा ले जाने की क्षमता भी है और अपने को मना ले जाने का बूता भी है।
इन्हीं शब्दों के साथ...
-जितेन ठाकुर
अपनी बात
‘‘जहरीली जड़े’’ कहानी संग्रह
ग्रामीण दलितों पर कुछ क्रूर गैर-दलितों द्वारा ढाए गए अत्याचारों की
जीवंत गाथा है। ग्रामीण दलित जो अधिकतर मजदूर हैं; मेहनत, मजदूरी करके
अपने बाल-बच्चों का भरण-पोषण करते हैं; गांवों में मिट्टी के घरों में
रहते हैं; जाड़ों में उनके पास तन ढकने एवं ओढ़ने के लिए कपड़े व रजाइयां
नहीं होती हैं; फटे पुराने कपड़े पहनकर एवं पुवाल की रजाई बनाकर पूरी
सर्दी पूरे परिवार के साथ काट देते हैं। कुछ दबंग गैर-दलितों द्वारा इन
बेचारें दलितों से बेगार करवायी जाती है। बेगार न करने पर उनको मारा-पीटा
जाता है। मन्दिरों की सफाई इन दलितों से करा ली जाती है; लेकिन धार्मिक
अनुष्ठानों में उनको भाग लेने से वंचित कर दिया जाता है। रामचरितमानस के
अखण्ड पाठ में भाग लेने से रामायण अखण्ड पाठ का खण्डित होने का डर रहता
है। इसलिए दलितों को पाठ करने से मना कर दिया जाता है क्योंकि शास्त्रों
में इनको धार्मिक ग्रंथ पढ़ने-छूने से मना किया गया है। ऐसी कई कहानियां
मेरे व मेरे परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है। मैंने स्वयं बचपन में कुछ
क्रूर गैर दलितों के अत्याचार व शोषण को सहा है। भोगा है। गरीबी में, मैं
स्वयं पला-बढ़ा हूँ। दलित लेखक ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ क्यों आवाज
उठाते हैं, मैं अब अच्छी तरह समझ चुका हूँ। गांवों में आज आर्थिक स्थिति
में दलित और गैर दलित में ज्यादा अन्तर नहीं है। लेकिन जो गैर-दलित गांवों
में केवल खेती पर निर्भर हैं, नौकरी नहीं करते हैं, उनकी आर्थिक स्थिति
खराब हुई है। लेकिन उनके मन-मस्तिक में अब भी ऊंच-नीच, छुआछूत की भावना
कायम है। गैर-दलितों के बच्चे जो शहरों व कस्बों में आकर पढ़ते एवं नौकरी
करते हैं। दलितों के प्रति उनका नजरिया धीरे-धीरे बदल रहा है। गांवों में
सबसे बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन यह हुआ है कि कुछ पिछड़ी जातियों के लोग
उन अत्याचारी गैर-दलितों (सवर्णों) के खिलाफ आवाज उठाने लगे हैं जो दलितों
के साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं।
पहले दलितों का सवर्ण धार्मिक राजनेताओं द्वारा आर्थिक आधार पर शोषण किया जाता था लेकिन अब धार्मिक आधार पर उनका बड़े पैमाने पर शोषण किया जा रहा है। दलितों में भी बहुत ऐसे दलित हैं जो भलाई के काम करने वालों को भी नहीं पहचान पाते हैं। कुछ दलित अज्ञानवश अत्याचारी गैर-दलितों का साथ देने लगते हैं।
समाज में जातिवाद, छुआछूत, ऊंच-नीच और धार्मिक पाखण्डता की जहरीली जड़ें मजबूती से फैली हुई हैं; मैंने उन ज़हरीली जड़ों को मानवता एवं समानता की कुल्हाड़ी से काटने का प्रयास किया है।
कुछ सवर्णों के अत्याचार के कारण, सामाजिक व धार्मिक गैर-बराबरी के कारण दलितों का विश्वास ब्राह्मणवादी देवी-देवताओं से उठता जा रहा है। दलित त्रिकालदर्शी व्याध ऋषि, रविदास मंदिर से लेकर अम्बेडकर टेम्पल तक का निर्माण करने लगे हैं। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर एवं उनके अनुयायी सदैव मूर्तिपूजा के खिलाफ रहे हैं। लेकिन कुछ दलितों ने पाखण्डी ब्राह्मणवादी धार्मिक व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए डॉ. अम्बेडकर की मूर्तियां जगह-जगह स्थापित कर रहे हैं। बाबा साहब के हाथ में संविधान की पुस्तक व उनकी अन्य रचनाएं यह संदेश देती हैं कि यह गीता, रामायण, वेद, पुराण और सभी धार्मिक ग्रंथों से बड़ी है। बाबा साहब की इन कृतियों में सामाजिक, आर्थिक, मानवीय, धार्मिक एवं न्याय व्यवस्था समायी हुई है। जो प्रत्येक मानव के लिए कल्याणकारी है।
पहले दलितों का सवर्ण धार्मिक राजनेताओं द्वारा आर्थिक आधार पर शोषण किया जाता था लेकिन अब धार्मिक आधार पर उनका बड़े पैमाने पर शोषण किया जा रहा है। दलितों में भी बहुत ऐसे दलित हैं जो भलाई के काम करने वालों को भी नहीं पहचान पाते हैं। कुछ दलित अज्ञानवश अत्याचारी गैर-दलितों का साथ देने लगते हैं।
समाज में जातिवाद, छुआछूत, ऊंच-नीच और धार्मिक पाखण्डता की जहरीली जड़ें मजबूती से फैली हुई हैं; मैंने उन ज़हरीली जड़ों को मानवता एवं समानता की कुल्हाड़ी से काटने का प्रयास किया है।
कुछ सवर्णों के अत्याचार के कारण, सामाजिक व धार्मिक गैर-बराबरी के कारण दलितों का विश्वास ब्राह्मणवादी देवी-देवताओं से उठता जा रहा है। दलित त्रिकालदर्शी व्याध ऋषि, रविदास मंदिर से लेकर अम्बेडकर टेम्पल तक का निर्माण करने लगे हैं। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर एवं उनके अनुयायी सदैव मूर्तिपूजा के खिलाफ रहे हैं। लेकिन कुछ दलितों ने पाखण्डी ब्राह्मणवादी धार्मिक व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए डॉ. अम्बेडकर की मूर्तियां जगह-जगह स्थापित कर रहे हैं। बाबा साहब के हाथ में संविधान की पुस्तक व उनकी अन्य रचनाएं यह संदेश देती हैं कि यह गीता, रामायण, वेद, पुराण और सभी धार्मिक ग्रंथों से बड़ी है। बाबा साहब की इन कृतियों में सामाजिक, आर्थिक, मानवीय, धार्मिक एवं न्याय व्यवस्था समायी हुई है। जो प्रत्येक मानव के लिए कल्याणकारी है।
-रुपनारायण सोनकर
कहानियों के पात्र, स्थान एवं घटनाएं काल्पनिक हैं। किसी मृत या जीवित
व्यक्ति से इनका कोई संबंध नहीं है। यदि इनमें से कोई चीज किसी से मेल
खाती है तो मात्र संयोग समझा जाए। इन कहानियों को किसी प्रकार के उपयोग से
पहले संकलनकर्त्ता श्रीमती सपना सोनकर से लिखित अनुमति लेना आवश्यक है। इस
कहानी संग्रह ‘ज़हरीली जड़े’ के समस्त अधिकार लेखक व
संकलनकर्त्ता के पास सुरक्षित हैं।
-रुपनायाण
सोनकर
ज़हरीली जड़ें
हीरालाल के पिता राजगीर थे। सभी लोग चाहे गांव के हों या बाहर के हीरालाल
के पिता को लोग दादा कहकर पुकारते थे। हीरालाल भी अपने पिता को दादा कहता
था। उसके दादा राजगीर के काम के साथ-साथ ठेकेदारी भी करते थे। ठेके के
आधार पर लोगों के पक्के मकान बनवाते थे। उसके पिता को कभी कोई खास फायदा
नहीं होता था। क्योंकि वह हिसाब-किताब में बहुत कमजोर थे। दिल साफ होने के
कारण उनकी सिधाई, सज्जनता का फायदा अक्सर लोग उठाया करते थे। उसके दादा
‘हुडुक-जोरी’’ बहुत अच्छा बजाया करते थे।
खटिक-जाति का यह एक पारंपरिक वाद्य-यंत्र था। छः लोग जोरी (पीतल की झांझर)
तथा एक आदमी हुडुक (बहुत बड़े डमरु के आकार का यंत्र) बजाता था। दादाजी
हुडुक बजाया करते थे। इसीलिए लोग उन्हें
‘‘उस्ताद’’ भी कह कर पुकारते थे।
एक आदमी चौगोला या चौपाई गाता था। सारे चौगोले लोकगीत होते थे।
‘‘हुडुक जोरी’’ शादी-ब्याह,
तीज-त्योहार और लड़के के जन्म के समय ही बजायी जाती थी। दूसरी जाति के लोग
इसके बजते ही समझ जाते थे कि, खटिक के यहाँ कोई जमावड़ा है।
हीरालाल पांचवीं कक्षा में पढ़ता था। उसके घर के चबूतरे पर ‘‘हुडुक-जोरी’’ बज रही थी। उसका मन हुआ कि वह भी गाए। झांझर की छैःछैःछैः और हुडुक की दै-दै-दै की आवाज गांव के बाहर दूर तक सुनायी पड़ रही थी। सात लोग गाने बजाने में तल्लीन थे। बहुत सारे रिश्तेदार ‘‘हुडुक-जोरी’’ का मजा ले रहे थे। गांव के बहुत सारे लोग दर्शक थे। हीरालाल दादा के पास जाकर गाने की जिद करने लगा। उसकी आवाज कोई नहीं सुन रहा था। कभी वह काका, कभी अपने एक नजदीकी रिश्तेदार के पास जाता जिन्होंने उसे चौगोला गाना सिखाया था। वह दादा के पैर में लिपट गया। उसी समय झांझर की डोर टूट गयी और झांझर उसकी जांघ पर गिर कर घाव कर गयी। खून बहने लगा। वह जोर-जोर से रोने लगा। एकाएक ‘हुडुक-जोरी’’ का बजना बन्द हो गया। अफरा-तफरी मच गयी। उसकी माँ बिलख-बिलख कर रोने लगी। गांव में कोई डॉक्टर भी नहीं था। उसके पिता ने अपनी सूती साफी सिर से उतार कर आग में जलाई और उसकी राख को घाव में दबाकर भर दिया और कपड़े से बांध दिया। एक हफ्ते के अन्दर उसकी जांघ का घाव भर गया और वह कुछ सामान्य-सा हो गया।
उसके गांव के ग्राम प्रधान श्री राज सिंह ने उसके दादा को प्राइमरी पाठशाला बनाने का ठेका बहुत सस्ते में दे दिया था। उसके दादा ने यह ठेका इसलिए सस्ते में ले लिया था कि इसमें गांव के बच्चों को पढ़ाया जाएगा। दादा ने अपने दो सजातीय राजगीरों को अपने साथ स्कूल बनाने में लगा लिया। तीन माह के अन्दर स्कूल बनकर तैयार हो गया। इन तीन महीनों में दादा ने इन राजगीरों को मुफ्त में घर का खाना खिलाया था। दोनों राजगीरों को उनका पूरा मेहनताना देने के बाद केवल सौ रुपये दादाजी के पास बचा था। दोनों राजगीर इतने अहसान फरामोश निकले कि दादा को धन्यवाद तक नहीं कहा। तीन माह तक मुफ्त में खाना खाते रहे। तीन महीने का दोनों राजगीर आना-पाई तक का हिसाब लेकर गये। हीरालाल की भाभी और उसकी माँ उनको खाना बना-बना कर खिलाती रही। हीरालाल की भाभी ने माँ से कहा-‘‘समाज में ऐसे लोग होते हैं जो दूसरों के कंधों पर बंदूक रख कर चलाते हैं। दूसरों का नुकसान कर अपने लिए जीते हैं। अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के नुकसान का उनके लिए कोई गम या पश्चाताप नहीं होता है। ऐसे ही लोगों को पैरासाइट कहा जाता है।’’
इक्कीस दिन पहले की बात है, जब स्कूल की छत की लिंटर पड़ने वाली थी। स्कूल के अधिकतर दलित लड़कों को मजदूरों के साथ-साथ बाल्टियों और तसलों में मसाला छत पर डालने के लिए लगा दिया गया था। बांस की सीढियों से चढ़ कर बच्चे छत पर मसालों का तसला डालते थे। आठ-नौ कमरों वाली स्कूल की छत को एक ही दिन में बनाना जरूरी था क्योंकि सीमेंट का मसाला मजबूती से पकड़ ले। जबकि सवर्णो के लड़के इस काम को करने में अपनी तौहीन समझ रहे थे। एक या दो सवर्णों के लड़के धीरे-धीरे ऊपर चढ़ते थे और धीरे-धीरे सीढ़ी से नीचे उतरते थे। वे लोग तसला सिर पर रखने के बजाय बाल्टी से सीमेंट का मसाला ऊपर चढ़ा रहे थे और थोड़ी-थोड़ी देर बाद आराम करने लगते थे। हीरालाल बिल्कुल आराम नहीं कर रहा था। तेजी से सीढ़ी चढ़ते हुए हीरालाल का पैर फिसल गया और पैर में मोच आ गयी। हेड मास्टर त्रिवेणी शंकर चौबे ने उसके दर्द को नहीं समझा और अनदेखा कर दिया। दर्द से कराहते हुए हीरालाल एक क्षण के लिए जमीन पर बैठ गया और रोने लगा। त्रिवेणी शंकर चौबे ने कहा ‘‘साला बहाना कर रहा है। अपने बाप को साला रो-रो कर सुना रहा है। साले नीच कहीं के। एक दिन काम करने में गांड फट गयी। साले, सरकार तुझे पढ़ाने की कोई फीस नहीं लेती है। वजीफा मुफ्त में देती है। हरामजादे कुछ तो लिहाज कर। भोसड़ी वाले बहाना बना रहा है। बहिन-चोद, अभी साले तेरी गांड में चार लात मारता हूं तब तेरी मोच ठीक हो जाएगी।’’ उसने कई लात जोर से हीरालाल के मोचवाले तथा पहले से जख्मी जांघ के स्थान पर मारे। हीरालाल जोर से चिल्ला पड़ा। उसको रोता देख उसका पिता-जल्दी-जल्दी सीढ़ी से उतरने लगा और पांच-छः बांस पहले ही धरती पर कूद पड़ा और अपने लड़के से जाकर लिपट गया।
उसका पिता हाथ में कन्नी लिए हुए था। हेड मास्टर की पीठ पर तीन-चार कन्नी जोर से घुमा कर मारा। ‘‘निर्दयी मास्टर। हरामी की औलाद। बच्चे को मारता है।’’ हेड मास्टर त्रिवेणी शंकर चौबे दौड़कर बन रही स्कूल की छत के नीचे छिप गया। दूसरे मास्टर ने उसके पिता को पकड़ लिया और गुस्सा थूकने को कहा ‘‘मेरा लड़का इतना अधिक काम करता है और ब्राह्मण-ठाकुर के लड़के कोई काम नहीं कर रहे हैं। बरगद की छाया के नीचे आराम कर रहे हैं। इतना बड़ा जुर्म मेरे सामने हरामी चौबे कर रहा है। इस कुत्ते को जान से मार डालूंगा। मेरे पीछे भी मेरे बच्चे के साथ यह अत्याचार करता होगा।’’
उसके पिता ने ग्राम प्रधान श्री राज सिंह से मास्टर चौबे की शिकायत की तथा दलित बच्चों के साथ भेदभाव बरतने का आरोप लगाया। ग्राम प्रधान श्री राज सिंह न्यायप्रिय थे एवं छुआछूत, ऊंच-नीच की भावना से ग्रसित नहीं थे। उन्होंने तुरन्त जिला विद्यालय निरीक्षक से चौबे की शिकायत कर दी। जिला विद्यालय निरीक्षक लतीफ अहमद ने हेड मास्टर चौबे से जवाब-तलब किया तथा एक हफ्ते के अन्दर चौबे को अपना पक्ष रखने को कहा। त्रिवेणी शंकर चौबे हीरालाल के पिता के पास आया और उससे गिड़गिड़ाने लगा। अपनी नौकरी की दुहाई दी तथा उसके छोटे-छोटे बच्चों पर तरस खाने को कहा। उसकी माँ गिड़गिड़ाते चौबे पर तरस खा गयी और अपने पति व पुत्र की तरफ से उसके विरुद्ध कोई बयान न देने हेतु चौबे को आश्वासन दिया। त्रिवेणी शंकर चौबे में दलित बच्चों के साथ गैर-दलित बच्चों की तरह व्यवहार करने की कसमें खायीं। त्रिवेणी शंकर चौबे ने कहा-‘‘मैं एक गुरु के आदर्श को भूल गया था। गुरु का कार्य समाज से सभी प्रकार का अन्धकार मिटाना होता है। गुरु द्वारा दिया गया विद्यारूपी ज्ञान प्रकाश के समान होता है। जो चारों तरफ उजाला करता है। सभी को प्रकाशित करता है। जैसे प्रकाश सभी को बिना भेदभाव के मिलता है उसी तरह मेरा अच्छा व्यवहार और मेरी शिक्षा सभी बच्चों के साथ समान होगी।’’
हीरालाल कबड्डी खेलने में सबसे अव्वल था। स्कूल का कोई भी लड़का उससे मुकाबला नहीं कर पाता था। विरोधी खिलाड़ी को छलांग मारकर पकड़ लेता था। छलांग मारकर पकड़ने में हीरालाल के दोनों पैरों के घुटने जख्मी हो जाते थे। सारे अध्यापक वाह-वाह करने लगते थे। हीरालाल का रंग गोरा, कद गठीला और छोटा था। मास्टर उसको प्यार से ‘बन्टवा’ कहकर पुकारते थे।
हीरालाल के पिता जब राजगीरी करने उत्तर प्रदेश छोड़कर अपने सजातीय राजगीरों के साथ मध्य प्रदेश कई-कई महीनों के लिए चले जाते थे। तब घर की हालत खराब हो जाती थी। हीरालाल और उसकी मां जंगल से घास काटकर एक ब्राह्मण परिवार को देती थी। उसके बदले उसकी माँ को ब्राह्मण परिवार दो रोटी देता था। जिस दिन घास नहीं मिलती थी उस दिन भूखा ही हीरालाल और माँ सो जाया करते थे। गर्मी के दिनों में जब गेहूं और चने की फसल कट जाती थी, तब माँ और हीरालाल एक-एक दाना खेतों से बिन-बिन कर लाया करते थे। उसकी रोटी बनाकर खाया करते थे। महुवा के फूल गर्मी में इकट्ठा कर लेते थे। उनको सुखाकर बरसात में खाया करते थे।
हीरालाल गरीबी की मार झेलना बचपन से ही सीख गया था। रोटी के लिए कैसे संघर्ष किया जाता है वह जान गया था। गांव के किसान अपना गन्ना लोहे के कोल्हू (चर्खी) में पेरा करते थे। हीरालाल को रात भर चर्खी में गन्ना लगाना पड़ता था। दो बैल चर्खी को गोलाकार घेरे में चलाते थे। कभी हीरालाल बैलों को हांकता कभी चर्खी में गन्ना लगाता था। जाड़े के दिनों में ठिठुरते हुए यह काम करता था। गन्ने का रस तैयार हो जाने के बाद उसको बड़ी कड़ाह के अन्दर भट्ठी के ऊपर पकाया जाता था। रसको पकाने के लिए हीरालाल को लगाया जाता था। खोई को भट्ठी के अन्दर लगातार डालना पड़ता था। करीब छः घंटे रस निकालने एवं छः घंटे पाग बनाने में लग जाता था। तब जाकर किसान हीरालाल को शकरकन्द और आलू खोई की राख में भूनकर खाने को देते थे। वह बड़े चाव से खाता था। पाग बन जाने के बाद परथनी में पाग घोंटा जाता था। तब कहीं गुड़ की भेली बनकर तैयार होती थी। किसान हीरालाल को मजदूरी के बदले दो भेली गुड़ देते थे। लगभग तीन बजे रात्रि को ठंड से ठिठुरते हुए हीरालाल घर आता था। किसान हीरालाल को घर तक छोड़कर जाते थे। माँ हीरालाल के घर न आने तक अपनी आंखें खोलती मूंदती रहती थी। माँ अपने बच्चे को देखकर सोचती ‘‘भूखे गरीब दलित बच्चों को गर्मी सर्दी का कोई असर नहीं होता है। गरीबी उनको सर्दी-गर्मी प्रूफ बना देती है। गरीब बच्चों पर जब कोई बीमारी हमला करती है तो बीमारी भी परास्त हो जाती है। इसीलिए गरीब बच्चों की आयु महल में रहने वाले रईसजादों से ज्यादा लम्बी होती है जो ए.सी. और पंखों के नीचे रहते हैं। हलवा-पूरी खाते हैं। ऐरोप्लेन और मोटर कार में चलते हैं। टाई सूट पहनते हैं। गरीब बच्चे किसी भी काम को करने में शरमाते नहीं हैं। दूसरों की मुसीबत और परेशानी अपने ऊपर ले लेते हैं। ऐसे ही बच्चे देश का भविष्य होते हैं। यही बच्चे देश को मजबूत, वैभवशाली और गौरवशाली बनाते हैं।’’
हीरालाल पांचवीं कक्षा में पढ़ता था। उसके घर के चबूतरे पर ‘‘हुडुक-जोरी’’ बज रही थी। उसका मन हुआ कि वह भी गाए। झांझर की छैःछैःछैः और हुडुक की दै-दै-दै की आवाज गांव के बाहर दूर तक सुनायी पड़ रही थी। सात लोग गाने बजाने में तल्लीन थे। बहुत सारे रिश्तेदार ‘‘हुडुक-जोरी’’ का मजा ले रहे थे। गांव के बहुत सारे लोग दर्शक थे। हीरालाल दादा के पास जाकर गाने की जिद करने लगा। उसकी आवाज कोई नहीं सुन रहा था। कभी वह काका, कभी अपने एक नजदीकी रिश्तेदार के पास जाता जिन्होंने उसे चौगोला गाना सिखाया था। वह दादा के पैर में लिपट गया। उसी समय झांझर की डोर टूट गयी और झांझर उसकी जांघ पर गिर कर घाव कर गयी। खून बहने लगा। वह जोर-जोर से रोने लगा। एकाएक ‘हुडुक-जोरी’’ का बजना बन्द हो गया। अफरा-तफरी मच गयी। उसकी माँ बिलख-बिलख कर रोने लगी। गांव में कोई डॉक्टर भी नहीं था। उसके पिता ने अपनी सूती साफी सिर से उतार कर आग में जलाई और उसकी राख को घाव में दबाकर भर दिया और कपड़े से बांध दिया। एक हफ्ते के अन्दर उसकी जांघ का घाव भर गया और वह कुछ सामान्य-सा हो गया।
उसके गांव के ग्राम प्रधान श्री राज सिंह ने उसके दादा को प्राइमरी पाठशाला बनाने का ठेका बहुत सस्ते में दे दिया था। उसके दादा ने यह ठेका इसलिए सस्ते में ले लिया था कि इसमें गांव के बच्चों को पढ़ाया जाएगा। दादा ने अपने दो सजातीय राजगीरों को अपने साथ स्कूल बनाने में लगा लिया। तीन माह के अन्दर स्कूल बनकर तैयार हो गया। इन तीन महीनों में दादा ने इन राजगीरों को मुफ्त में घर का खाना खिलाया था। दोनों राजगीरों को उनका पूरा मेहनताना देने के बाद केवल सौ रुपये दादाजी के पास बचा था। दोनों राजगीर इतने अहसान फरामोश निकले कि दादा को धन्यवाद तक नहीं कहा। तीन माह तक मुफ्त में खाना खाते रहे। तीन महीने का दोनों राजगीर आना-पाई तक का हिसाब लेकर गये। हीरालाल की भाभी और उसकी माँ उनको खाना बना-बना कर खिलाती रही। हीरालाल की भाभी ने माँ से कहा-‘‘समाज में ऐसे लोग होते हैं जो दूसरों के कंधों पर बंदूक रख कर चलाते हैं। दूसरों का नुकसान कर अपने लिए जीते हैं। अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के नुकसान का उनके लिए कोई गम या पश्चाताप नहीं होता है। ऐसे ही लोगों को पैरासाइट कहा जाता है।’’
इक्कीस दिन पहले की बात है, जब स्कूल की छत की लिंटर पड़ने वाली थी। स्कूल के अधिकतर दलित लड़कों को मजदूरों के साथ-साथ बाल्टियों और तसलों में मसाला छत पर डालने के लिए लगा दिया गया था। बांस की सीढियों से चढ़ कर बच्चे छत पर मसालों का तसला डालते थे। आठ-नौ कमरों वाली स्कूल की छत को एक ही दिन में बनाना जरूरी था क्योंकि सीमेंट का मसाला मजबूती से पकड़ ले। जबकि सवर्णो के लड़के इस काम को करने में अपनी तौहीन समझ रहे थे। एक या दो सवर्णों के लड़के धीरे-धीरे ऊपर चढ़ते थे और धीरे-धीरे सीढ़ी से नीचे उतरते थे। वे लोग तसला सिर पर रखने के बजाय बाल्टी से सीमेंट का मसाला ऊपर चढ़ा रहे थे और थोड़ी-थोड़ी देर बाद आराम करने लगते थे। हीरालाल बिल्कुल आराम नहीं कर रहा था। तेजी से सीढ़ी चढ़ते हुए हीरालाल का पैर फिसल गया और पैर में मोच आ गयी। हेड मास्टर त्रिवेणी शंकर चौबे ने उसके दर्द को नहीं समझा और अनदेखा कर दिया। दर्द से कराहते हुए हीरालाल एक क्षण के लिए जमीन पर बैठ गया और रोने लगा। त्रिवेणी शंकर चौबे ने कहा ‘‘साला बहाना कर रहा है। अपने बाप को साला रो-रो कर सुना रहा है। साले नीच कहीं के। एक दिन काम करने में गांड फट गयी। साले, सरकार तुझे पढ़ाने की कोई फीस नहीं लेती है। वजीफा मुफ्त में देती है। हरामजादे कुछ तो लिहाज कर। भोसड़ी वाले बहाना बना रहा है। बहिन-चोद, अभी साले तेरी गांड में चार लात मारता हूं तब तेरी मोच ठीक हो जाएगी।’’ उसने कई लात जोर से हीरालाल के मोचवाले तथा पहले से जख्मी जांघ के स्थान पर मारे। हीरालाल जोर से चिल्ला पड़ा। उसको रोता देख उसका पिता-जल्दी-जल्दी सीढ़ी से उतरने लगा और पांच-छः बांस पहले ही धरती पर कूद पड़ा और अपने लड़के से जाकर लिपट गया।
उसका पिता हाथ में कन्नी लिए हुए था। हेड मास्टर की पीठ पर तीन-चार कन्नी जोर से घुमा कर मारा। ‘‘निर्दयी मास्टर। हरामी की औलाद। बच्चे को मारता है।’’ हेड मास्टर त्रिवेणी शंकर चौबे दौड़कर बन रही स्कूल की छत के नीचे छिप गया। दूसरे मास्टर ने उसके पिता को पकड़ लिया और गुस्सा थूकने को कहा ‘‘मेरा लड़का इतना अधिक काम करता है और ब्राह्मण-ठाकुर के लड़के कोई काम नहीं कर रहे हैं। बरगद की छाया के नीचे आराम कर रहे हैं। इतना बड़ा जुर्म मेरे सामने हरामी चौबे कर रहा है। इस कुत्ते को जान से मार डालूंगा। मेरे पीछे भी मेरे बच्चे के साथ यह अत्याचार करता होगा।’’
उसके पिता ने ग्राम प्रधान श्री राज सिंह से मास्टर चौबे की शिकायत की तथा दलित बच्चों के साथ भेदभाव बरतने का आरोप लगाया। ग्राम प्रधान श्री राज सिंह न्यायप्रिय थे एवं छुआछूत, ऊंच-नीच की भावना से ग्रसित नहीं थे। उन्होंने तुरन्त जिला विद्यालय निरीक्षक से चौबे की शिकायत कर दी। जिला विद्यालय निरीक्षक लतीफ अहमद ने हेड मास्टर चौबे से जवाब-तलब किया तथा एक हफ्ते के अन्दर चौबे को अपना पक्ष रखने को कहा। त्रिवेणी शंकर चौबे हीरालाल के पिता के पास आया और उससे गिड़गिड़ाने लगा। अपनी नौकरी की दुहाई दी तथा उसके छोटे-छोटे बच्चों पर तरस खाने को कहा। उसकी माँ गिड़गिड़ाते चौबे पर तरस खा गयी और अपने पति व पुत्र की तरफ से उसके विरुद्ध कोई बयान न देने हेतु चौबे को आश्वासन दिया। त्रिवेणी शंकर चौबे में दलित बच्चों के साथ गैर-दलित बच्चों की तरह व्यवहार करने की कसमें खायीं। त्रिवेणी शंकर चौबे ने कहा-‘‘मैं एक गुरु के आदर्श को भूल गया था। गुरु का कार्य समाज से सभी प्रकार का अन्धकार मिटाना होता है। गुरु द्वारा दिया गया विद्यारूपी ज्ञान प्रकाश के समान होता है। जो चारों तरफ उजाला करता है। सभी को प्रकाशित करता है। जैसे प्रकाश सभी को बिना भेदभाव के मिलता है उसी तरह मेरा अच्छा व्यवहार और मेरी शिक्षा सभी बच्चों के साथ समान होगी।’’
हीरालाल कबड्डी खेलने में सबसे अव्वल था। स्कूल का कोई भी लड़का उससे मुकाबला नहीं कर पाता था। विरोधी खिलाड़ी को छलांग मारकर पकड़ लेता था। छलांग मारकर पकड़ने में हीरालाल के दोनों पैरों के घुटने जख्मी हो जाते थे। सारे अध्यापक वाह-वाह करने लगते थे। हीरालाल का रंग गोरा, कद गठीला और छोटा था। मास्टर उसको प्यार से ‘बन्टवा’ कहकर पुकारते थे।
हीरालाल के पिता जब राजगीरी करने उत्तर प्रदेश छोड़कर अपने सजातीय राजगीरों के साथ मध्य प्रदेश कई-कई महीनों के लिए चले जाते थे। तब घर की हालत खराब हो जाती थी। हीरालाल और उसकी मां जंगल से घास काटकर एक ब्राह्मण परिवार को देती थी। उसके बदले उसकी माँ को ब्राह्मण परिवार दो रोटी देता था। जिस दिन घास नहीं मिलती थी उस दिन भूखा ही हीरालाल और माँ सो जाया करते थे। गर्मी के दिनों में जब गेहूं और चने की फसल कट जाती थी, तब माँ और हीरालाल एक-एक दाना खेतों से बिन-बिन कर लाया करते थे। उसकी रोटी बनाकर खाया करते थे। महुवा के फूल गर्मी में इकट्ठा कर लेते थे। उनको सुखाकर बरसात में खाया करते थे।
हीरालाल गरीबी की मार झेलना बचपन से ही सीख गया था। रोटी के लिए कैसे संघर्ष किया जाता है वह जान गया था। गांव के किसान अपना गन्ना लोहे के कोल्हू (चर्खी) में पेरा करते थे। हीरालाल को रात भर चर्खी में गन्ना लगाना पड़ता था। दो बैल चर्खी को गोलाकार घेरे में चलाते थे। कभी हीरालाल बैलों को हांकता कभी चर्खी में गन्ना लगाता था। जाड़े के दिनों में ठिठुरते हुए यह काम करता था। गन्ने का रस तैयार हो जाने के बाद उसको बड़ी कड़ाह के अन्दर भट्ठी के ऊपर पकाया जाता था। रसको पकाने के लिए हीरालाल को लगाया जाता था। खोई को भट्ठी के अन्दर लगातार डालना पड़ता था। करीब छः घंटे रस निकालने एवं छः घंटे पाग बनाने में लग जाता था। तब जाकर किसान हीरालाल को शकरकन्द और आलू खोई की राख में भूनकर खाने को देते थे। वह बड़े चाव से खाता था। पाग बन जाने के बाद परथनी में पाग घोंटा जाता था। तब कहीं गुड़ की भेली बनकर तैयार होती थी। किसान हीरालाल को मजदूरी के बदले दो भेली गुड़ देते थे। लगभग तीन बजे रात्रि को ठंड से ठिठुरते हुए हीरालाल घर आता था। किसान हीरालाल को घर तक छोड़कर जाते थे। माँ हीरालाल के घर न आने तक अपनी आंखें खोलती मूंदती रहती थी। माँ अपने बच्चे को देखकर सोचती ‘‘भूखे गरीब दलित बच्चों को गर्मी सर्दी का कोई असर नहीं होता है। गरीबी उनको सर्दी-गर्मी प्रूफ बना देती है। गरीब बच्चों पर जब कोई बीमारी हमला करती है तो बीमारी भी परास्त हो जाती है। इसीलिए गरीब बच्चों की आयु महल में रहने वाले रईसजादों से ज्यादा लम्बी होती है जो ए.सी. और पंखों के नीचे रहते हैं। हलवा-पूरी खाते हैं। ऐरोप्लेन और मोटर कार में चलते हैं। टाई सूट पहनते हैं। गरीब बच्चे किसी भी काम को करने में शरमाते नहीं हैं। दूसरों की मुसीबत और परेशानी अपने ऊपर ले लेते हैं। ऐसे ही बच्चे देश का भविष्य होते हैं। यही बच्चे देश को मजबूत, वैभवशाली और गौरवशाली बनाते हैं।’’
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