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ओशो साहित्य >> नही जोग नहिं जाप

नही जोग नहिं जाप

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3663
आईएसबीएन :81-7182-245-2

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कबीर वाणी पर लिखी गई पुस्तक...

nahieen jog nahin jap Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘नहीं जोग नहिं जाप’ न तो कोई जप करने की जरूरत है, न कोई जोग करने की जरूरत है; न तो पुण्य करने की जरूरत है, न पाप से भयभीत होने की जरूरत है। क्योंकि उस परम की निकटता में न तो पाप बचता है, न पुण्य बचता है।
ध्यान रखो, पाप से दुःख मिलता है, पुण्य से सुख मिलता है। पाप रोग की तरह है, पुण्य स्वस्थ होने की तरह है। लेकिन भीतर जो चला गया, वह न तो दुःख में होता है, न सुख में ; वह आनन्द में जीता है। आनंद बड़ी और बात है। आनंद का मतलब होता हैः सुख भी गये, दुख भी गये। क्योंकि जब तक दुख रहते हैं, तभी तक सुख रहते हैं। और जब तक सुख रहते हैं, तब तक दुख भी छिपे रहते हैं; वे जाते नहीं। पापी के लिए नरक, पुण्यात्मा के लिए स्वर्ग; और जो भीतर पहुंच गया, उसके लिए मोक्ष। वह स्वर्ग और नरक दोनों के पार है।

नहीं जोग नहिं जाप

‘ऐसन साहब कबीर, सलोना आप है।
नहीं जोग नहिं जाप, पुन्न नहिं पाप है।’

तुम्हारे लिए न तो जोग की जरूरत है, न पाप की कोई जरूरत है। जिसने तुम्हें बनाया, वह पुण्य और पाप के बाहर है; तुम भी बाहर हो। और जिसने तुम्हें बनाया, तुम जिसकी कृति हो, उसके हस्ताक्षर तुम पर है-तुम कैसे पापी हो सकते हो ? तुम कैसे बुरे हो सकते हो ?
कहावत है, फल से वृक्ष जाना जाता है। तो तुमसे परमात्मा जाना जाएगा, क्योंकि तुम उसके श्रेष्ठतम फल हो इस पृथ्वी पर। इस सृष्टि में मनुष्य उसका श्रेष्ठतम फल है। तो तुम कैसे पापी हो सकते हो ? जिन्होंने तुम्हें कहा, तुम पापी हो, उन्होंने जीवन से परमात्मा का संबंध बिलकुल तुड़वा दिया। तो कबीर कहते हैं, ‘ऐसन साहब कबीर’-कबीर के साहब ऐसे हैं, खुद तो प्यारे, सुंदर, अनूठे, अद्वितीय हैं-उनसे तुम भी पैदा हुए हो।

बाइबिल में कहा है कि परमात्मा ने अपनी ही शक्ल में आदमी को बनाया; बनाया है, लेकिन तुम्हें अपनी शक्ति का पता ही नहीं।
‘नहीं जोग नहिं जाप’-न तो कोई जप करने की जरूरत है, न कोई जोग करने की जरूरत है, न तो पुण्य करने की जरूरत है, न पाप से भयभीत होने की जरूरत है। क्योंकि उस, परम की निकटता में न तो पाप बचता है, न पुण्य बचता है।

भगवान श्री रजनीश अब केवल ‘ओशो’ नाम से जाने जाते हैं।
ओशो के अनुसार उनका नाम विलियम जेम्स के शब्द ‘ओशनिक’ से लिया गया है, जिसका अभिप्राय है सागर में विलीन हो जाना।

‘ओशनिक’ से अनुभूति की व्याख्या तो होती है, लेकिन, वे कहते हैं कि अनुभोक्ता के संबंध में क्या ? उसके लिए हम ‘ओशो’ शब्द का प्रयोग करते हैं। बाद में भी ‘ओशो’ शब्द प्रयुक्त होता रहा है, जिसका अभिप्राय है: भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति, जिस पर आकाश फूलों की वर्षा करता है।

तेरा जन एकाध है कोई।
काम क्रोध अरु लोभ विवर्जित, हरिपद चीन्है सोई।
राजस तामस सालिग तीन्यू, ये सब तेरी माया।
चौथे पद कौ जे जन चीन्हैं, तिनहि परमपद पाया।
अस्तुति निंदा आसा छाड़ै, तजै मान अभिमाना।
लोहा कंचन सम करि देखै, ते मूरति भगवाना।
च्यतै तो माधो च्यंतामणि, हरिपद रमै उदासा।
त्रिस्ना अरु अभिमान रहित ह्वै, कहै कबीर सो दासा।।
नहीं जोग नहिं जाप

तिब्बत के एक आश्रम में कोई हजार साल पहले एक-छोटी सी घटना घटी। उससे ही हम कबीर में प्रवेश शुरू करें। बड़ा आश्रम था यह, और इस आश्रम ने एक छोटा नया आश्रम भी दूर तिब्बत के सीमांत पर प्रारंभ किया था।
आश्रम बन गया। खबर आयी कि सब तैयारी हो गई है, अब आप एक योग्य संन्यासी को पहुंचा दें जो गुरु का पद संभाल ले।
प्रधान आश्रम के गुरु ने दस संन्यासी चुने और दसों को उस आश्रम की तरफ भेजा। पूरा आश्रम चकित हुआ। कोई हजार संन्यासी अंतः-वासी थे। उन्होंने कहा, बात समझ में न आई-एक बुलाया था; दस भेजे। उत्सुकता बहुत तीव्र हो गई। जिज्ञासा सम्हाले न सम्हली। तो कुछ संन्यासी गए और गुरु को कहा, ‘‘हम समझ न पाए। एक का ही बुलावा आया था, आपने दस क्यों भेजे ?’’

गुरु ने कहा, ‘‘रुको। जब वे पहुंच जाएं, तब तुम्हें समझा दूंगा।’’ यात्रा लंबी थी-पहाड़ी थी, पैदल यात्रा थी। तीन सप्ताह बाद खबर पहुंची कि आपने जो एक संन्यासी भेजा था, वह पहुंच गया।
अब और भी मुसीबत हो गई। अब तो पूरा आश्रम एक ही चर्चा से भर गया कि यह तो रहस्य सुलझा न, और उलझ गया। दस भेजे थे; खबर आई, एक ही पहुंचा। फिर उन्होंने गुरु से पूछा। तो गुरु ने कहा, ‘‘दस भेजो तो एक पहुंचता है।’’
फिर पूरी कहानी बाद में पता चली। दस यात्रा पर गए। पहले ही गांव में प्रवेश किया और एक आदमी ने सुबह-ही-सुबह नगर के द्वार पर, पहला जो संन्यासी था, उसके पैर पकड़ लिए और कहा, ज्योतिषी ने कहा है कि जो भी व्यक्ति कल सुबह पहला प्रवेश करे, उसी से मैं अपनी लड़की की शादी कर दूं। लड़की यह है और इतना धन मेरे पास है, और कोई मालिक नहीं। एक ही लड़की है, कोई और मेरा बेटा नहीं। ज्योतिषी ने कहा, अगर आदमी इनकार कर दे तो जो दूसरा आदमी हो, दूसरा इनकार करे तो तीसरा। तो तुम दस इकट्ठे ही हो, कोई-न-कोई स्वीकार कर ही लेगा।

पहले ने ही स्वीकार कर लिया। लड़की बहुत सुंदर थी। धन भी काफी था। उसने अपने मित्रों से कहा कि मेरा जाना न हो सकेगा आगे; परमात्मा की मर्जी यही दिखती है कि मैं इसी गांव में रुक जाऊं।
दूसरे गांव में जब वे पहुंचे तो गांव का राजा, जो पुरोहित था, वह मर गया था, और वह एक नए पुरोहित की तलाश में था। एक संन्यासी वहां रुक गया और ऐसे ही...।’
पहुंचते पहुंचते, जब सिर्फ दस मील दूर रह गया था आश्रम, वे एक गांव में एक साथ रुके। दो ही बचे थे। गांव के लोगों ने प्रवचन आयोजित किया था। उनमें से बोला। जब वह बोल रहा था तो एक नास्तिक बीच में खड़ा हो गया और उसने कहा कि यह सब वकवास है; ये बुद्ध और बुद्ध-वचन, ये सब दो कौड़ी के हैं, कचरा है, इनमें कुछ सार नहीं। जो संन्यासी बोल रहा था, उसने अपने मित्र से कहा, ‘‘अब तुम जाओ। मैं यही रुकूँगा। जब तक इस नास्तिक को बदलकर आस्तिक न कर दिया, तब तक मैं इस गांव से निकलने वाला नहीं हूं।’’
ऐसे एक पहुंचा।
दस चलते हैं तब एक पहुंचता है।

इस घटना के आधार पर तिब्बत में यह कहावत बन गई कि ‘दस चलते हैं तब एक पहुंचता है।’’
मार्ग कंटकाकीर्ण है, और बहुत प्रलोभन है मार्ग में। जगह-जगह रुकने की संभावना है। और प्रलोभन प्रबल है। और मार्ग कठिन है, चढ़ा़ई का है। एक एक कदम उठाना श्रम मांगता है, निष्ठा मांगता है; नीचे उतरने वाला मार्ग नहीं है, जहाँ सुविधा से कोई ढलक सकता है; चढ़ाव है, भारी चढ़ाव है। गिरने की सब तरह की संभावनाएं हैं। गिरने के सब तरह के सूक्ष्म कारण मौजूद हैं। इसलिए दस चलें और एक भी पहुंच जाए तो काफी है।
इजिप्त में वे कहते हैं कि हजार बुलाए जाते हैं और एक चुना जाता है। और मुझे लगता है, तिब्बत से उनकी कहावत ज्यादा सही है। दस चलें और एक पहुंच जाए, यह भी सम्भव नहीं मालूम होता। हजार बुलाए जाते हैं और एक चुना जाता है।
जीसस से किसी ने पूछा कि तुम्हारे प्रभु का राज्य कैसा है, तो जीसस ने कहा, मछुए के जाल की तरह।
मछुआ जाल फेंकता है, सैकड़ों मछलियां फंस जाती हैं। जो योग्य है, खाने के योग्य हैं चुन ली जाती हैं, बाकी वापस पानी में फेंक दी जाती हैं।

तो जीसस ने कहा, प्रभु का राज्य भी मछुए के जाल की तरह है। परमात्मा जाल फेंकता है, लाखों फंसते हैं; पर इने-गिने चुने जाते हैं, जो तैयार हैं। बाकी वापस पानी में फेंक दिए जाते हैं। पानी यानी संसार।
इसी तरह तो तुम बार बार फेंके गए हो। ऐसा नहीं है कि जाल में नहीं फंसे, कईबार फंसे हो; पर तुम योग्य नहीं थे कि चुने जा सको । जाल में फंस दाना काफी नहीं है; मछुए की आंख में जंचना भी जरूरी है। जाल में तो तुम फंस जाते हो-जाल के कारण; लेकिन मछुआ तो तुम्हें चुनेगा-तुम्हारे कारण। हजार बार तुम फंस गए हो-न मालूम कितनी बार संन्यास लिया होगा, न मालूम कितनी बार भिक्षु बने होओगे, न मालूम कितनी बार घर-द्वार छोड़ा होगा, आश्रम में वास कर लिया होगा, कितनी बार प्रार्थना की है, कितनी बार संकल्प किए, कितने व्रत कितने उपवास ! तुम्हारे अनंत जन्मों की अनंत कथा है। लेकिन एक बात पक्की है कि तुम जाल में कितनी ही बार फंसे होओ, बार बार वापस जल में फेंक दिए गए हो, चुने तुम नहीं जा सके।
चुने जाने के लिए पात्रता चाहिए। चुने जा सको, इसके लिए भीतरी बल चाहिए, ऊर्जा चाहिए। चुने जा सको, इसके लिए पात्रता चाहिए।

और उस पात्रता को उपलब्ध करना दुर्गम है, अति दुर्गम है। इस संसार में सभी कुछ पा लेना आसान है। तुम जैसे हो वैसे ही रहते हुए इस संसार की सब चीजें पाई जा सकती हैं। परमात्मा को पा लेना कठिन है, क्योंकि तुम जैसे हो वैसे ही रहते हुए परमात्मा को नहीं पा सकोगे। क्योंकि, तुम्हें परमात्मा जैसे होना होगा, तभी तुम परमात्मा को पा सकोगे। क्योंकि, जो परमात्मा जैसा नहीं है, वह कैसे परमात्मा को पा सकेगा ? कोई समानता चाहिए जहां से सेतु बन सके। कुछ एक किरण तो चाहिए, तुममें सूरज की, जिसके सहारे तुम सूरज तक यात्रा कर सको।
हम दूध से दही बनाते हैं तो थोड़ा सा दही उसमें डाल देते हैं, फिर सारा दूध दही हो जाता है। तो तुममें थोड़ा सा तो परमात्मा होना ही चाहिए-तभी तुम्हारा पूरा दूध दही हो सकेगा। उतना भी न हो तो यात्रा नहीं हो सकती। और वहीं कठिनाई है, क्योंकि थोड़ा-सा भी परमात्मा जैसा होना तुम्हारे सारे जीवन की व्यवस्था को बदलने के अतिरिक्त न हो सकेगा; तुम्हारी पूरी जीवन की शैली और पद्धति रूपांतरित करनी होगी।
इसलिए कबीर कहते हैं, तेरा जन एकाध है कोई।’

ऐसे करोड़-करोड़ लोग हैं। मंदिर है, मस्जिद हैं, गुरुद्वारे हैं। लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं, पूजा कर रहे हैं, अर्चना कर रहे हैं। पर, तेरा जन कोई एकाध ही है। बड़ी पृथ्वी है। करोड़ों-अरबों लोग हैं। मंदिरों की भी कोई कमी नहीं है, प्रार्थना पूजा भी खूब चल रही है। अर्चना की धूप जल रही है, दीए जल रहे हैं लेकिन अर्चना की आत्मा नहीं है। पूजा हो रही है बाहर के मंदिर में, भीतर का मंदिर बिलकुल खाली है। तो जाओ तुम कितना ही मंदिरों में, पहुंच न पाओगे; क्योंकि उसका मंदिर कोई पत्थर मिट्टी का मन्दिर नहीं। उसका मन्दिर तो परम चैतन्य का मन्दिर है। उसका मंदिर कोई आदमी के बनाए नहीं बनता। बात तो बिलकुल उलटी है-उसके बनाए आदमी बना। आदमी उसके मंदिर बनाकर किसको धोखा दे रहा है ?

तुम्हारे बनाए मंदिरों से तुम जो बनाओगे वह तुमसे बड़ा कैसा हो सकता है ? बनाने वाले से बनाई गई चीज बड़ी नहीं हो सकती। कविता कितनी ही सुंदर हो, कवि से बड़ी थोड़े ही हो पाएगी। और संगीत कितना ही मधुर हो, संगीतज्ञ से तो बड़ा न हो पाएगा। मूर्ति कितनी ही सुंदर हो, मूर्तिकार से तो सुंदर न हो पाएगी। बनानेवाला तो ऊपर ही रहेगा, क्योंकि बनाने वाले की संभावनाएं अभी शेष हैं, सब चुक नहीं गया; वह इससे भी श्रेष्ठ बना सकता है। जिसने एक सुंदर गीत गाया, वह इससे भी हजार सुंदर गीत गा सकता है। और वह कितने ही गीत गए, हर गीत के ऊपर ही वह रहेगा।

तुम्हारे बनाए मंदिर तुमसे बड़े नहीं हो सकते। तुम्हारी बनाई हुई परमात्मा की प्रतिमाएं तुमसे छोटी होगीं। तुम्हीं उनके स्रष्टा हो। तुम्हारा काम, तुम्हारा क्रोध, तुम्हारा लोभ, माया-मोह, सब तुम्हारी मूर्तियों में समाविष्ट हो जाएगा। तुम्हारे हाथ ही तो छुएंगे और निर्माण करेंगे। तुम्हारे हाथ का जहर तुम्हारी मूर्तियों में भी उतर जाएगा। तुम्हारे बनाए हुए मंदिर तुमसे बेहतर नहीं हो सकते। तुम जहाँ हो, तुम जैसे हो, तुम्हारी ही अनुकृति तो गूंजेगी। तुम्हारी ही धुन तो छूट जाएगी वहां। इसलिए तो परमात्मा के मंदिर हैं; नामभर परमात्मा के हैं, बनाए आदमी के हैं।

और शायद इसलिए जितना मंदिरों से नुकसान हुआ जगत का, किसी और चीज से नहीं हुआ। मंदिरों और मस्जिदों ने लोगों को लड़ाया है क्योंकि जिन्होंने बनाया था, उनकी हिंसा उनमें उतर गई। मंदिर और मस्जिद ने आदमी को जोड़ा नहीं, तोड़ा है। उनके कारण पृथ्वी पर स्वर्ग नहीं उतरा, यद्यपि नर्क की झलकें कई बार मिली हैं।
ठीक भी लगता है, साफ है बात-क्योंकि जिन्होंने बनाया है उनकी घृणा, उनकी हिंसा, उनकी आक्रमण की वृत्ति, उनकी दुष्टता, उनकी क्रूरता, सभी मंदिरों और मस्जिदों में प्रवेश कर गई है।

तुम्हारे मंदिर में तुम किसकी पूजाकर रहे हो ?-अपनी ही पूजा कर रहे हो। तुम्हारे मंदिर तुम्हारे ही दर्पण हैं, जिनमें तुम्हारी छवि ही दिखाई पड़ रही है। इसलिए तो मंदिर और मस्जिद में तुम कितने ही भटको, तुम पहुंच न पाओगे। तुम्हें अगर परमात्मा को खोजना है तो तुम्हें वह मंदिर खोजना होगा जो उसने ही बनाया है। वह मंदिर तुम्हीं हो। इसलिए कबीर कहते हैं, ‘कस्तूरी कुंडल बसै।’
तुम्हें पता होगा कस्तूरी मृग का। कस्तूरी तो पैदा होती है मृग की नाभि में। कस्तूरी का नाफा नाभि में पैदा होता है। और कस्तूरी की जो सुगंध है, वह मादा मृग को आकर्षित करने के लिए है। जब नर मृग कामातुर होता है, जब कामातुरता बढ़ती है तो उसके शरीर से एक सुगंध फैलनी शुरू हो जाती है। वह सुगंध बड़ी मादक है। कस्तूरी जैसी कोई गंध नहीं; बड़ी आकर्षक है, चुम्बक जैसा उसमें आकर्षण है। मस्ती से भर देती है वह गंध मादा को। मादा पागल हो जाती है, वह अपना होश खो देती है।

यह तो ठीक है। यह तो प्रकृति की व्यवस्था हुई। प्रकृति ने वैसी व्यवस्था की है कि मादा और नर एक दूसरे से चुम्बकीय आकर्षण से बंधे रहें।
मोर नाचता है। उसके रंग, कामातुर करते हैं। उसका नृत्य उसके नृत्य की भनक मादा को आकर्षित करती है। कोयल गाती है। उसकी ध्वनि पुकार है। उसकी ध्वनि में बंधी मादा चली जाती है। वैसे ही कस्तूरी-मृग है। उसकी नाभि में कस्तूरी पैदा होती है और उसकी गंध शराब जैसी है। उस गंध में मादा अपना होश खो देती है और समर्पण कर देती है। यहां तक तो ठीक है, लेकिन कस्तूरी-मृग की एक तकलीफ है कि उसको खुद भी बास आती है।

मोर नाचता है तो खुद तो अपने पंखों को नहीं देख सकता। पपीहा पुकारता है या कोयल गीत गाती है, तो भी कोयल को पता है कि गीत मेरा है। लेकिन कस्तूरी-मृग को गंध आनी शुरू होती है और उसकी समझ में नहीं आती कि गंध कहां से आ रही है। मादा तो पागल होती है, नर भी पागल हो जाता है, और वह भागता है मदहोशी में कि कहीं से आ रही होगी-आ तो रही है-तो वह स्रोत की तलाश करता है। वह भागा फिरता है। वह जहाँ भी जाता है, वहीं गंध को पाता है। वह करीब-करीब पागल हो जाता है, सिर लहूलुहान हो जाता है, भागते वृक्षों में, जंगल में, खोजते कि कहां से गंध आती है ? और गंध उसके भीतर से आती है-‘कस्तूरी कुंडल बसै।’

कबीर ने बड़ा प्यारा प्रतीक चुना है। जिस मंदिर की तुम खोज कर रहे हो, वह तुम्हारे कुंडल में बसा है; वह तुम्हारे भीतर है। तुम ही हो। और जिस परमात्मा की तुम मूर्ति गढ़ रहे हो, उसकी मूर्ति गढ़ने की कोई जरूरत ही नहीं; तुम ही उसकी मूर्ति हो। तुम्हारे अंतरआकाश में जलता हुआ उसका दीया, तुम्हारे भीतर उसकी ज्योतिर्मयी छवि मौजूद है। तुम मिट्टी के दीए भले हो ऊपर से, भीतर तो चिन्मय की ज्योति है। मृण्मय होगी तुम्हारी देह; चिन्मय है तुम्हारा स्वरूप। मिट्टी के दीए तुम बाहर से हो, ज्योति थोड़े ही मिट्टी की है। दीया पृथ्वी का है, ज्योति आकाश की है। दीया संसार का है; ज्योति स्थिति वही है जो कस्तूरी मृग की है। भागते फिरते हो; जन्मों-जन्मों से तलाश कर रहे हो-जिसे तुमने कभी खोया नहीं। खोजने के कारण ही तुम वंचित हो। यह कस्तूरी-मृग पागल ही हो जाएगा। यह जितना खोजेगा उतनी मुश्किल में पड़ेगा। जहाँ जाएगा, कहीं भी जाए, सारे संसार में भटके तो भी पा न सकेगा। क्योंकि बात ही शुरू से गलत हो गई-जो भीतर था उसे उसने बाहर सोच लिया, क्योंकि गंध बाहर से आ रही थी, गंध उसे बाहर से आती मालूम पड़ी थी।

तुम्हें भी आनंद की गंध पागल बनाए दे रही है। तुम भी आनंद की गंध को बाहर से आता हुआ अनुभव करते हो, कभी किसी स्त्री के संग तुम्हें लगता है, आनंद मिला; कभी बांसुरी की ध्वनि में लगता है, आनंद मिला; कभी भोजन के स्वाद में लगता है कि आनंद मिला; कभी पद की शक्ति में, अहंकार में लगता है कि आनंद मिला। बड़ा जंगल है ! हर वृक्ष से तुम सिर तोड़ चुके हो, लहूलुहान हो-कभी यहां, कभी वहां, कभी इधर कभी उधर, खोजते हो और झलक मिलती है। झलक इसलिए मिलती है कि ‘कस्तूरी-कुंडल बसै’। जहां भी जाओगे वहीं झलक मिल जाएगी।

अब यह जरा कठिन है। जब तुम किसी स्त्री में पाते हो कि आनंद मिला, तब ठीक वही दशा है जो कस्तूरी मृग की है। आनंद तुम्हें अपने ही कारण मिल रहा है-क्योंकि कल तुम्हारा ही मन बदल जाएगा और इसी स्त्री में आनंद न मिलेगा, कल इसी स्त्री से तुम बचना चाहोगे। आज सब न्योछावर करने को राजी थे, कल इसकी शक्ल देखना मुश्किल हो जाएगी। अगर आनंद स्त्री से ही मिला था तो सदा मिलता, शाश्वत मिलता। तुम्हारे भीतर से कोई गंध उठी थी और स्त्री में प्रतिफल हुआ था। तुम्हारे ही भीतर से उठी थी गंध और तुमने उसे स्त्री से आते हुए अनुभव किया था। स्त्री ने शायद तुम्हारे भीतर जो था उसकी ही प्रतिध्वनि की थी। कभी धन के संग्रह में, अहंकार की तृप्ति में, पद-प्रतिष्ठा में तुम्हें गंध आती अनुभव हुई।
मैंने सुना है, एक जंगल में ऐसा हुआ, एक लोमड़ी ने एक खरगोश को पकड़ लिया। वह उसे खाने ही जा रही थी, सुबह का नाश्ता ही करने की तैयारी थी कि खरगोश ने कहा, ‘‘रुको ! तुम लोमड़ी ही हो, इसका सबूत क्या ?’’ ऐसा कभी किसी खरगोश ने इतिहास में पूछा ही नहीं था। लोमड़ी भी सकते में आ गई। उसे भी पहली दफे विचार उठा कि बात तो ठीक है, सबूत क्या है ? उस खरगोश ने पूछा, ‘‘प्रमाण-पत्र कहां है, सर्टिफिकेट कहां है ?’’ उसने खरगोश से कहा, ‘‘तू रुक मैं अभी आती हूं।’’

वह गई जंगल के राजा के पास, सिंह के पास, और उसने कहा, ‘‘एक खरगोश ने मुझे मुश्किल में डाल दिया। मैं उसे खाने ही जा रही थी तो उसने कहा, ‘‘रुक सर्टिफिकेट कहां हैं ?’’
सिंह ने अपने सिर पर हाथ मार लिया और कहा कि आदमियों की बीमारी जंगल में भी आ गई। कल मैंने एक गधे को पकड़ा, वह गधा बोला कि पहले सबूत, प्रमाण-पत्र क्या ? पहले तो मैं भी सकते में आ गया कि आज तक किसी गधे ने पूछा ही नहीं। इस गधे को क्या हो गया है ? वह आदमी के सत्संग में रह चुका था।

सिंह ने कहा, मैं लिखे देता हूं। उसने लिख के दिया, सही कि यह लोमड़ी ही है। लोमड़ी गई। बड़ी प्रसन्न, लेकर सर्टिफिकेट। खरगोश बैठा था। लोमड़ी को तो शक था कि भाग जाएगा, कि सब धोखा है। लेकिन नहीं, खरगोश बैठा था। खरगोश ने सर्टिफिकेट पढ़ा लोमड़ी के हाथ में सर्टिफिकेट दिया और भाग खड़ा हुआ पास के ही बिल में, जमीन में अंतर्धान हो गया। लोमड़ी सर्टिफिकेट के लेने-देने में लग गई और उस बीच वह खिसक गया। वह बड़ी हैरान हुई। वह वापस सिंह के पास आई कि यह तो बहुत मुश्किल की बात हो गई। सर्टिफिकेट तो मिल गया, लेकिन वह खरगोश निकल गया। तुमने गधे के साथ क्या किया था ? सिंह ने कहा कि देख, जब मुझे भूख लगी होती है, तब मैं सर्टिफिकेट की चिंता नहीं करता, पहले मैं भोजन करता हूं। वही काफी सर्टिफिकेट है कि मैं सिंह हूं। और तब मैं सुनता ही नहीं। मगर यह बीमारी जोर से फैल रही है।

आदमी में यह बीमारी बड़ी पुरानी है, जानवरों में शायद अभी पहुंची होगी। बीमारी यह है कि तुम दूसरों से पूछते हो कि मैं कौन हूं। जब हजारों लोग जय-जयकार करते हैं, तब तुम्हें प्रमाण-पत्र मिलता है कि तुम कुछ हो। दूसरों से प्रमाण पत्र लेने की जरूरत है ? दूसरों से पूछना आवश्यक है कि तुम कौन हो।
लेकिन तुम सदा दूसरों से पूछ रहे हो। स्कूल से सर्टिफिकेट ले आए हो कि तुम मैट्रिकुलेट हो, कि बी.ए. हो पी-एच. डी. हो। सब तरफ से तुमने सर्टिफिकेट इकट्ठे किए हैं कि तुम कौन हो। कोई प्रमाण-पत्र तुम्हें खबर न दे सकेगा कि तुम कौन हो। क्योंकि, दूसरे तुम्हें कैसे पहचानेंगे।

सिंह भी कैसे प्रमाण-पत्र दे सकता है लोमड़ी को कि तू लोमड़ी ही है। अगर कोई प्रमाण है तो भीतर है। तुम कौन हो, इसकी अगर कोई भी खबर मिल सकती है तो भीतर से मिल सकती है। तुम दूसरों के दरवाजे पर मत खटखटाओ; तुम अपना ही दरवाजा खोल लो। और तुम्हें दूसरों के दरवाजे पर जो भनक भी मिलेगी, वह भी तुम्हारे भीतर की ही गंध की है। दूसरे के दरवाजे से टकराकर तुम्हारी ही गंध तुम्हारे नासापुटों में आ जाएगी, और तुम समझोगे कि दूसरे ने कुछ दिया है।
इस जगत में कोई किसी को कुछ नहीं देता दे नहीं सकता। स्त्री सुख नहीं दे सकती पुरुष को पुरुष सुख नहीं दे सकता स्त्री को लेकिन एक-दूसरे के आसपास खड़े होकर अपनी ही गंध की प्रतिध्वनि सुनने में सुविधा हो जाती है। अकेले में तुम्हें बड़ी बेचैनी होती है। अगर तुम्हें एक शून्य घर में छोड़ दिया जाए तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हो, क्योंकि वहां कोई दूसरा व्यक्ति नहीं जिसके माध्यम से तुम अपनी गंध को वापस पा सको। इसलिए आदमी भीड़ की तरफ जाता है-क्लब, समाज, समुदाय, मित्र परिवार।

तुम सदा दूसरे को खोजते हो, क्योंकि दूसरे के बिना प्रतिध्वनि कैसे पता चलेगी ? तुम भागे फिरते हो। बहुत जगह तुम्हें झलक मिलती है। वह सब झलक झूठी है-झूठी स्रोत की दृष्टि से तुम्हें लगता है, वह बाहर से आ रही है। तब तुम बाहर पर निर्भर होते जाते हो। और जितना तुम बाहर पर निर्भर होते हो, उतनी ही भीतर की सुधि खो जाती है।
पहचानो, जब स्त्री के संभोग में कभी तुम्हें सुख का कोई क्षण मिला है तो होता क्या है ? होता इतना ही कि स्त्री के संभोग के क्षण में विचार बंद हो जाते हैं भीतर के ध्यान की धुन बजने लगती है; मार्ग खुल जाता है-कस्तूरी बाहर तक आ जाती है। क्षणभर को तुम्हें सुख अनुभव होता है; क्षणभर को झरोखा खुलता है, फिर बंद हो जाता है।

जहां कहीं भी कोई सितार बजाता हो, और तुम बैठ जाते हो, लीन हो जाते हो-जैसे ही तुम लीन होते हो वैसे ही सुगंध आनी शुरू हो जाती है। वह सुगंध सितार से नहीं आ रही है वह तुम्हारी लीनता से आ रही है। तल्लीनता ही तो ध्यान है।
तुम भोजन करते हो, स्वादिष्ट भोजन है। तुम बड़े रस से भोजन लेते हो, तुम इतने तल्लीन होकर भोजन करते हो कि भोजन ही ध्यान हो जाता है। उसी क्षण में तो उपनिषद् के ऋषियों ने कहा है कि अन्न ब्रह्म है। अन्न से भी इतनी ध्वनि उठी होगी कि ब्रह्म जैसा प्रतीत हुआ।
होता क्या है ?

समझ लो कि तुम भोजन कर रहे हो-बड़ा स्वादिष्ट है, तुम बड़े तल्लीन हो, बड़ा सुख आ रहा है, स्वाद रोएं-रोएं में डूबा जा रहा है-तभी कोई खबर लेकर आता है कि बाहर पुलिस खड़ी है और मीसा के अंतर्गत तुम गिरफ्तार किए जाते हो-तत्क्षण स्वाद खो गया। भोजन अब भी वही है, लेकिन लीनता टूट गई। भोजन वही है, जीभ वही है, शरीर में अब भी वही रस काम कर रहे हैं, लेकिन लीनता टूट गई। अब भोजन में कोई स्वाद नहीं है, भोजन बेस्वाद हो गया। अब भोजन में नमक है या नहीं, तुम्हें पता न चलेगा।
अचानक क्या बदल गया ? सब तो वही है। और फिर एक आदमी भीतर आता है, वह कहता है, घबड़ाओ मत, सिर्फ मजाक की थी, कोई पुलिस नहीं आई है, कोई मीसा के अंतर्गत गिरफ्तार नहीं किए गए हो-फिर लीनता आ गई ! जो भोजन बेस्वाद हो गया था, बड़ा फासला हो गया था-वह फिर स्वादिष्ट हो गया; फिर तुम मग्न हो।


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