ओशो साहित्य >> क्रान्ति-सूत्रः साक्षी भाव क्रान्ति-सूत्रः साक्षी भावओशो
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जिसे सतत स्मरण है कि मैं साक्षी हूं, उसकी क्रांति सुनिश्चित है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शरीर से बहुत बंधने की जरूरत नहीं है, शरीर के दुश्मन होने की भी जरूरत
नहीं है। शरीर सुंदर घर है, रहो, शरीर की देशभाल करो, अपने को शरीर ही न
मान लो। मन भी प्यारा है। उसका भी उपयोग करो। उसकी भी जरूरत है। और हृदय तो और भी प्यारा है। उसमें भी जीओ। मगर, ध्यान रहे कि मैं साक्षी हूं।
और जिसे सतत स्मरण है कि मैं साक्षी हूं, उसकी क्रांति सुनिश्चित है। जिसे स्मरण है कि मैं साक्षी हूं, वह भूमा को उपलब्ध हो जाता है।
तुम सिर्फ साक्षी हो, वह तुम्हारा स्वरूप है। न तुम कर्ता हो—शरीर से कर्म हो; न तुम विचारक हो—मन से विचार होते हैं; न तुम भावुक हो—हृदय से भावनाएं होती हैं; तुम साक्षी हो—भावों के, विचारों के, कृत्यों के। ये तुम्हारी तीन अभिव्यक्तियां हैं। और इन तीनों के बीच में तुम्हारा साक्षी है। उस साक्षी के सूत्र को पकड़ लो।
साक्षी के सूत्र को पकड़ते ही संन्यास का फूल खिल जाता है। जो कली की तरह रहा है जन्मों-जन्मों से, तत्क्षण उसकी पंखुड़ियां खुल जाती हैं। और वह ऐसा फूल नहीं जो कुम्हलाए, वह फूल अमृत है। वह फूल ऐसा नहीं जो मरे, वह भूमा है, असीम है। वह फूल आनंद का फूल है। वह फूल ही मोक्ष है।
और जिसे सतत स्मरण है कि मैं साक्षी हूं, उसकी क्रांति सुनिश्चित है। जिसे स्मरण है कि मैं साक्षी हूं, वह भूमा को उपलब्ध हो जाता है।
तुम सिर्फ साक्षी हो, वह तुम्हारा स्वरूप है। न तुम कर्ता हो—शरीर से कर्म हो; न तुम विचारक हो—मन से विचार होते हैं; न तुम भावुक हो—हृदय से भावनाएं होती हैं; तुम साक्षी हो—भावों के, विचारों के, कृत्यों के। ये तुम्हारी तीन अभिव्यक्तियां हैं। और इन तीनों के बीच में तुम्हारा साक्षी है। उस साक्षी के सूत्र को पकड़ लो।
साक्षी के सूत्र को पकड़ते ही संन्यास का फूल खिल जाता है। जो कली की तरह रहा है जन्मों-जन्मों से, तत्क्षण उसकी पंखुड़ियां खुल जाती हैं। और वह ऐसा फूल नहीं जो कुम्हलाए, वह फूल अमृत है। वह फूल ऐसा नहीं जो मरे, वह भूमा है, असीम है। वह फूल आनंद का फूल है। वह फूल ही मोक्ष है।
संन्यास बोध की अवस्था
।।1।।
प्यारे ओशो !
यह श्लोक भी मुंडकोपनिषद् में है :
यह श्लोक भी मुंडकोपनिषद् में है :
वेदान्त विज्ञान सुनिश्चितार्थाः संन्यास योगाद् यतयः
शुद्ध-सत्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे।।
शुद्ध-सत्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे।।
अर्थात् वेदांत और विज्ञान (प्रकृति का ज्ञान)—
इनके द्वारा जिन्होंने
अच्छी तरह अर्थ का निश्चय कर लिया है
और साथ ही संन्यास और योग के
द्वारा जो शुद्ध स्वत्व वाले हो गये हैं,
वे प्रयत्नवान ब्रह्मपरायण लोग
मरने पर ब्रह्मलोक में पहुंचकर मुक्त हो जाते हैं।
प्यारे ओशो ! हमें इस सूत्र को समझाने की अनुकंपा करें।
सहजानंद ! यह सूत्र तो मूल्यवान है, लेकिन इसकी जो व्याख्याएं की गयी हैं अब तक, बड़ी मूल्यहीन हैं। तुमने भी हिन्दी में इसका जो अर्थ किया है, वह उन्हीं व्याख्याओं पर आधारित है जो गलत हैं। और गलत व्याख्या बहुत दिनों तक चलती रहे तो ठीक मालूम होने लगती है। पुनरुक्ति का एक सम्मोहन है, जादू है। एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मेनकेंप्फ’ में लिखा है कि झूठ को अगर बार-बार दोहराया जाए तो वह सत्य हो जाता है। और उसमें ऐसा लिखा ही नहीं, उसने बड़े-बड़े झूठों को सत्य करके दिखा भी दिया, सिर्फ पुनरुक्ति के बल पर। दोहराए गया, दोहराया गया, पहले लोग हंसे, फिर लोग सोचने लगे, फिर धीरे-धीरे लोग स्वीकार करने लगे।
विज्ञापन की सारी कला ही इस बात पर आधारित है : दोहराए जाओ। फिर चाहे हेमा मालिनी का सौन्दर्य हो, चाहे परवीन बाबी का, सबका राज़ लक्स टायलेट साबुन में है। दोहराए जाओ—अखबारों में फिल्मों में, रेडियो पर, टेलीविजन पर—और धीरे-धीरे लोग मानने लगेंगे। और एक अचेतन छाप पड़ जाती है। और फिर तुम जब बाजार में साबुन खरीदने जाओगे और दुकानदार पूछेगा, कौन-सा साबुन ? तो तुम सोचते हो कि तुम लक्स टायलेट खरीद रहे हो, लक्स टायलेट दे दो। तुम यही सोचते हो, यही मानते हो कि तुमने खरीदा, मगर तुम भ्रांति में हो। पुनरुक्ति ने तुम्हें सम्मोहित कर दिया।
नये-नये जब पहली दफा विद्युत के विज्ञापन बने तो थिर होते थे। फिर वैज्ञानिकों ने कहा कि थिर का यह परिणाम नहीं होता। जैसे लक्स टायलेट लिखा हो बिजली के अक्षरों में और थिर रहे अक्षर, तो आदमी एक ही बार पढ़ेगा। लेकिन अक्षर जलें, बुझें, जले, बुझें, तो जितनी बार जलेंगे, बुझेंगे, उतनी बार पढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। तुम चाहे कार में ही क्यों न बैठकर गुजर रहे होओ, जितनी देर तुम्हें बोर्ड के पास से गुजरने में लगेगी, उतनी देर में कम-से-कम दस-पंद्रह दफा अक्षर जलेंगे, बुझेंगे, उतनी बार पुनरुक्ति हो गयी। उतनी पुनरुक्ति तुम्हारे भीतर बैठ गयी।
इस तरह के बहुमूल्य सूत्र भी कूड़ा-कचरा हो गये हैं, क्योंकि उनके जो अर्थ किये गये ! एक-दो दिन की पुनरुक्ति नहीं है, हजारों वर्षों की पुनरुक्ति है। इसलिए तुम्हें मेरे साथ एक-एक शब्द को पुनः समझना होगा।
‘वेदांत’। इसका अर्थ किया गया है सदा से : वेदों की पराकाष्ठा, जो कि नितांत झूठ है। क्योंकि उपनिषद् वेदों की पराकाष्ठा नहीं है, वेदों से बगावत हैं, विद्रोह हैं। उपनिषद् यानी वेदांत। लेकिन इस झूठ को इतना देहराया गया कि उपनिषदों में वेदों की पराकाष्ठा है; जैसे फूलों की गंध होती है ऐसे वेदों के वृक्षों पर उपनिषदों के फूल लगे हैं, इन फूलों में जो गंध उठ रही है, उसकी जड़ें वेदों में है। यह बात सच नहीं है।वेदांत का अर्थ होता है: जहाँ वेद समाप्त हो गये। जहां वेदों का अंत हो गया। इसके बाद जो यात्रा है, उसके बाद जो आयाम है, शास्त्रों के पार, वेदों के पार, शब्दों के पार, सिद्धांतों के पार, वह वेदांत है।
वेद बहुत लौकिक है। कहीं-भूले-चूके कोई सूत्र आ जाता है जो प्यारा है, निन्यान्नबे प्रतिशत तो कचरा है। उपनिषद् उस कचरे की पराकाष्ठा नहीं हैं। उपनिषदों में वेदों का स्पष्ट विरोध है। कृष्ण ने भी गीता में वेदों का स्पष्ट विरोध किया है। लेकिन विरोध का ढंग और उस ढंग पर की गयी लीपा-पोती, सदियों-सदियों से पंडितों के चढ़ाए गए रंग, तुम्हें झूठ को मानने के लिए मजबूर कर दिये हैं। तुम्हारे अचेतन में झूठ बैठ गया है। कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है कि वेद लौकिक हैं, सांसारिक बुद्धि के लोग हैं, उनके लिए हैं। और जिन्हें अध्यात्म की खोज करनी है, उन्हें वेदों के पार जाना होगा।
यही बात महावीर ने कही। लेकिन बहुत साफ ढंग से कही। कृष्ण की बात को लीपा-पोता गया था। महावीर के समय तक आते-आते, बुद्ध के समय तक आते-आते समाधिस्थ व्यक्ति सजग हो गये थे कि पंडितों ने क्या दुर्व्यवहार किया है। अब दुबारा वैसा दुर्व्यवहार न हो सके, इसलिए महावीर और बुद्ध ने वेदों का स्पष्ट विरोध किया, सतत विरोध किया। परिणाम यह हुआ कि बुद्ध और महावीर को हिन्दू समाज स्वीकार न कर सका, पचा न सका, इनकार कर दिया। उनको भी पचा लिया होता, अगर उन्होंने ने भी जरा-सा अवसर दिया होता अपने शब्दों को तोड़े-मरोड़े जाने का, तो उनको भी पचा लिया होता। लेकिन वे सजग थे जो कि कृष्ण के साथ हुआ, जो उपनिषद् के ऋषियों के साथ हुआ, उनके साथ न हो जाए। उनकी सजगता का यह परिणाम था कि उन पर वेद नहीं थोपे जा सके। नहीं थोपे जा सके तो हिन्दुओं के पास एक ही उपाय था कि बुद्ध और महावीर की निंदा करें, उनको उखाड़ फेकें।
बुद्ध को तो बिलकुल उखाड़ फेंका भारत से। भारत में उनकी कोई रूपरेखा न बची, कोई नाम लेवा न बचा। महावीर को इस बुरी तरह से नहीं उखाड़ा और उसका भी कारण था, क्योंकि महावीर की बात बहुत लोगों तक पहुंच नहीं सकती थी। महावीर की बात इतनी दार्शनिक थी कि बहुत थोड़े-से लोगों तक पहुंच सकती थी—उनसे कुछ डर न था। पहुंच-पहुंचकर भी क्या होगा ? बहुत थोड़े-से लोग ही उसको समझ पायेंगे। बुद्ध की बात बड़ी सीधी थी, साफ थी। वह करोडों लोगों तक पहुंच सकती थी।। उससे खतरा था।
वेदांत का अर्थ तुम समझ लो, वेदों की पराकाष्ठा नहीं, वेदांत का अर्थ सीधा है : जहां वेदों का अंत हो जाता है। वेदों की जहां मृत्यु हो जाती है। वेदों की राख से जो उठता है वह वेदांत है। वेदों की पराकाष्ठा नहीं है, वेदों से बगावत, विद्रोह !
और होगी भी यह बगावत, क्योंकि वेद हैं क्या ? अगर तुम वेदों के पन्ने उलटाओ—कहीं से भी खोल लो वेद को—तो तुम चकित होओगे कि क्यों इन शब्दों को, इन सूत्रों को धर्म का नाम दिया गया है। साधारण आकांक्षाएं हैं। कोई मांग रहा है फसल ज्यादा हो; कोई मांग रहा है इंद्र से कि वर्षा ज्यादा हो जाए; कोई मांग रहा है धन-धान्य; कोई मांग रहा है—उसके गउओं के थनों में दूध ही दूध भर जाए। और इतना ही नहीं, उसके दुश्मन की गउओं के थन बिलकुल सूख जायें। मेरे खेत में वर्षा हो इतना ही नहीं, पड़ोसी के खेत में वर्षा ही न हो। यह, इसको भी आध्यात्म कहोगे ? यह तो बड़ी निम्न वृत्तियां हुईं। मेरे शत्रुओं को नष्ट कर दे, हे इन्द्र देवता, उन पर बिजली गिरा दे, उनको राख कर दे। इसको अध्यात्म और धर्म कहोगे ? यह तो मनुष्य की सामान्य ईर्ष्याएं, शत्रुताएं, हिंसाएं, वैमनस्य, उसके ही प्रतीक हैं। जरूर कहीं-कहीं वेद में कोई सूत्र आ जाता है जो बड़ा प्यारा है, लेकिन सौ में एक बार। निन्यान्नबे बार तो कचरा ही हाथ लगेगा। और उस कचरे में वे हीरे भी खो गये।
उपनिषद् हीरे ही हैं। वहां कचरा नहीं है।
उपनिषद् शब्द भी बड़ा प्यारा शब्द है। उसे समझो तो वेदांत भी समझ में आ जाएगा। उपनिषद् का अर्थ होता है : गुरु के पास बैठना है—उप-निषद्—पास बैठना। बस, इतना ही अर्थ है उपनिषद् का। गुरु के पास मौन होकर बैठना; जिसने जाना है, उसके पास शून्य होकर बैठना। और उस बैठने में ही हृदय से हृदय आंदोलित हो जाते हैं। उस बैठने में ही सत्संग फैल जाता है। जो नहीं कहा जा सकता, वह कहा जाता है। जो नहीं सुना जा सकता, वह सुना जाता है। हृदय की वीणा बज उठती है। जिसने जाना है उसकी वीणा बज रही है। जिसने नहीं जाना है, वह अगर पास सरक आए तो उसके तारों में भी टंकार हो जाती है।
संगीतज्ञों का यह अनुभव है, अगर एक ही कमरे में---खाली कमरे में—सिर्फ दो वीणाएं रखी जाएं, द्वार-दरवाजे बंद हों और एक वीणा पर वीणावादक तार छेड़ दे, संगीत उठा दे, तो दूसरी वीणा जो कोने में रखी है, जिसको उसने छुआ भी नहीं, उस वीणा के तार भी झंकृत होने लगते हैं। एक वीणा बजती है तो हवाओं में आंदोलन हो जाता है, हवाओं में संगीत-लहरी फैल जाती है, स्पंदन हो जाता है। वह स्पंदन जिस वीणा को छुआ भी नहीं है, उसके भीतर भी सोए संगीत में हलचल मचा देता है। उसके तार भी जैसे नींद से जाग आते हैं, जैसे सुबह हो गयी।
आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले एक वैज्ञानिक ने पहली दफा इस सिद्धांत को खोजा। वह इसे कोई नाम न दे सका। फिर भी कुछ वर्षों पहले, कोई चालीस वर्ष पहले कार्ल गुस्ताव जिंग नाम के एक बहुत बड़े वैज्ञानिक ने इसे नाम दिया : ‘सिंक्रानिसिटी’। जिस वैज्ञानिक ने पहली दफा यह खोज की थी, वह एक पुराने किले में मेहमान था, एक राजा के घर मेहमान था। और जिस कमरे में वह था, दो घड़ियां उस कमरे में एक ही दीवार पर लटकी हुई थीं। पुराने ढब की घड़ियां। मगर वह हैरान हुआ यह बात जानकर कि उनका पेंडुलम एक साथ घूमता है। मिनिट और सेकंड भी भिन्न नहीं। सेकंड-सेकंड वे एक साथ चलतीं। इन दो घड़ियों के बीच उसे कुछ ऐसा तालमेल दिखायी पड़ा—वैज्ञानिक था, सोच में पड़ गया ! कि इस तरह की दो घड़ियां उसने देखी नहीं जिनमें सेकंड का भी फर्क न हो। तो उसने एक काम किया, कि यह संयोग हो सकता है, उसने एक घड़ी बंद कर दी रात को। और दूसरे दिन सुबह शुरू की और दोनों के बीच कोई तीन-चार मिनिट का फासला रखा। चौबीस घंटे पूरे होते-होते दोनों घड़ियां फिर साथ-साथ डोल रही थीं। बराबर, सेकंड-सेकंड करीब आ गये थे, पेंडुलम फिर साथ-साथ लयबद्ध हो गये थे। तब तो वह चमत्कृत हो गया। राज़ क्या है ? आया था दिन-दो दिन के लिए, लेकिन सप्ताहों रुका—जब तक राज़ न खोल लिया।
राज़ यह था कि वह जिस दीवाल पर लटकी थीं, उस पर कान लगा-लगाकर वह सुनता रहा कि क्या हो रहा है, तब उसे समझ में आया कि एक घड़ी की टिक्-टिक्, जो बड़ी घड़ी थी उसकी टिक् टिक् दिवाल के द्वारा दूसरी घड़ी के पेंडुलम को भी संचालित कर रही है, उसमें एक लयबद्धता पैदा कर रही है। और बड़ी घड़ी इतनी बलशाली है कि छोटी घड़ी करे भी तो क्या करे ! वह छोटी घड़ी सहज ही उसके साथ लयबद्ध हो जाती है।
उसने इसको सिर्फ लयबद्धता कहा था। लेकिन जुंग ने इसे पूरा वैज्ञानिक आधार दिया और ‘सिंक्रानिसिटी’ कहा; और सिर्फ घड़ियों के लिए नहीं, जीवन के समस्त आयामों में इस लयबद्धता के सिद्धांत को स्वीकार किया।
रहस्यवादी तो इस सिद्धांत से हजारों वर्षों से परिचित हैं। सत्संग का यही राज है, ‘सिंक्रानिसिटी’। सद्गुरु यूं समझो कि बड़ी घड़ी, कि बड़ा सितार। शिष्य यूं समझो कि छोटी घड़ी, छोटा सितार। और शिष्य अगर राजी हो, श्रद्धा से भरा हो और बड़े सितारों के पास सिर्फ बैठ रहे—कुछ न करे, तो भी उसके तार झंकृत हो जाएंगे।
उपनिषद् का अर्थ है : लयबद्धता। उप का अर्थ होता है : पास, निषद् का अर्थ होता है : बैठना। यही उपासना का अर्थ है। उप आसन। पास बैठना। यही उपवास का अर्थ है : पास बैठना। मगर कैसे अर्थ विकृत हो गये ! उपवास का अर्थ हो गया—अनशन, भूखे मरना। उपवास का अर्थ होता है : पास वास करना—इतने निकट हो जाना गुरु के ! हां, कभी-कभी यह होगा कि गुरु की निकटता में ऐसा पेट भर जाएगा कि शायद भूख की याद भी न आए। इसी कारण अनशन की विकृति पैदा हुई। गुरु के आनंद में डूबकर अगर भोजन की याद न आए, तो उपवास; और जबर्दस्ती भोजन न किया जाए, तो अनशन। अनशन हिंसा है, उपवास प्रेम है। उनमें जमीन-आसमान का भेद है।
इधर सोहन बैठी है, उससे पूछो। मैं उससे पूछता था जब उसके घर मेहमान होता था, पूना आता था, कि तू मुझे खिलाती है—और मेरे कारण न मालूम कितने मेहमान दिनभर उसके घर आते, उन सबको खिलाती है, और तू कुछ खाती-पीती दिखायी नहीं पड़ती ! तो वह मुझसे कहने लगी, जब आप यहां होते हैं, मुझे भूख ही नहीं लगती। मैं खुद चकित हूं कि भूख कहां को जाती है ? मैं इतनी भरी-भरी हो जाती हूं कि भीतर जगह ही नहीं रहती।
प्रेम भोजन से भी बड़ा भोजन है। और जरूर भरता है, बहुत भर देता है। शायद भोजन की याद भी न आए। इस कारण एक गलत अर्थ हो गया उपवास का : अनशन।
उपासना का अर्थ : पास बैठना। उसका भी गलत अर्थ हो गया। अब तुम मूर्ति की अराधना कर रहे हो। थाली सजायी हुई है, आरती बनाई हुई है, दीये जलाये हुए हैं, धूप जलायी हुई है और इसको तुम उपासना कह रहे हो। नहीं, उपासना तो केवल सद्गुरु के पास बैठना होता है। और उसके पास बैठना ही आरती है, आराधना है। उसके पास बैठना ही तुम्हारे भीतर के दीये का जलना है। उसके पास बैठते ही तुम्हारे भीतर धूप जल उठती है, सुगंध उठने लगती है।
वेदांत पैदा हुआ उपनिषद् में; गुरु-शिष्यों के अंतरंग सान्निध्य में।
वेदांत का अर्थ है : जहां शब्द नहीं हैं, जहां सिद्धांत नहीं, जहां वेदों का तो अंत हो गया, जहां सब शास्त्र बहुत पीछे छोड़ दिये गये—मन ही पीछे छोड़ दिया गया ! मन में ही शास्त्र हो सकते हैं; मन के पार तो शास्त्र नहीं हो सकते। वेदांत है : मन के पार उड़ान; अ-मनी दशा। वेदांत है : ध्यान, समाधि।
तो पहले तो वेदांत का अर्थ ठीक से समझ लो, नहीं तो भूल हो जाएगी। फिर मेरा अर्थ पकड़ में नहीं आएगा।
दूसरा शब्द है : ‘विज्ञान’। तुमने, सहजानंद, विज्ञान का अर्थ किया : प्रकृति का ज्ञान। क्योंकि अब हम साइंस के अर्थों में शब्दों का प्रयोग करते हैं। यह हमारी नयी बात है। हमारे पास साइंस के लिए कोई शब्द न था, हमने विज्ञान शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया। मगर तुम उपनिषदों पर इस अर्थ को मत थोपो ! उपनिषदों में तो विज्ञान का बहुत सीधा अर्थ है, वह है : विशेष ज्ञान। विज्ञान यानी विशेष ज्ञान। ज्ञान वह है जो दूसरों से मिलता है और विशेष ज्ञान वह है जो अपने भीतर ही आर्विभूत होता है। उसका कोई साइंस से लेना देना नहीं है। विज्ञान का अर्थ प्रकृति का ज्ञान नहीं है। विज्ञान का अर्थ है : विशेष; उधार नहीं, निज का। वही उसकी विशिष्टता है, उसकी अद्वितीयता है।
वेदांत और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हुए। वेदांत है : शास्त्र के पार जाना—वह है मार्ग—और विज्ञान ही है उपलब्धि; विशेष ज्ञान की प्रतीति, अनुभूति, साक्षात्कार—विश्वास नहीं, अपना अनुभव। और तभी जीवन का सुनिश्चचित अर्थ पता चलता है।
अब इस वचन को तुम समझो
इनके द्वारा जिन्होंने
अच्छी तरह अर्थ का निश्चय कर लिया है
और साथ ही संन्यास और योग के
द्वारा जो शुद्ध स्वत्व वाले हो गये हैं,
वे प्रयत्नवान ब्रह्मपरायण लोग
मरने पर ब्रह्मलोक में पहुंचकर मुक्त हो जाते हैं।
प्यारे ओशो ! हमें इस सूत्र को समझाने की अनुकंपा करें।
सहजानंद ! यह सूत्र तो मूल्यवान है, लेकिन इसकी जो व्याख्याएं की गयी हैं अब तक, बड़ी मूल्यहीन हैं। तुमने भी हिन्दी में इसका जो अर्थ किया है, वह उन्हीं व्याख्याओं पर आधारित है जो गलत हैं। और गलत व्याख्या बहुत दिनों तक चलती रहे तो ठीक मालूम होने लगती है। पुनरुक्ति का एक सम्मोहन है, जादू है। एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मेनकेंप्फ’ में लिखा है कि झूठ को अगर बार-बार दोहराया जाए तो वह सत्य हो जाता है। और उसमें ऐसा लिखा ही नहीं, उसने बड़े-बड़े झूठों को सत्य करके दिखा भी दिया, सिर्फ पुनरुक्ति के बल पर। दोहराए गया, दोहराया गया, पहले लोग हंसे, फिर लोग सोचने लगे, फिर धीरे-धीरे लोग स्वीकार करने लगे।
विज्ञापन की सारी कला ही इस बात पर आधारित है : दोहराए जाओ। फिर चाहे हेमा मालिनी का सौन्दर्य हो, चाहे परवीन बाबी का, सबका राज़ लक्स टायलेट साबुन में है। दोहराए जाओ—अखबारों में फिल्मों में, रेडियो पर, टेलीविजन पर—और धीरे-धीरे लोग मानने लगेंगे। और एक अचेतन छाप पड़ जाती है। और फिर तुम जब बाजार में साबुन खरीदने जाओगे और दुकानदार पूछेगा, कौन-सा साबुन ? तो तुम सोचते हो कि तुम लक्स टायलेट खरीद रहे हो, लक्स टायलेट दे दो। तुम यही सोचते हो, यही मानते हो कि तुमने खरीदा, मगर तुम भ्रांति में हो। पुनरुक्ति ने तुम्हें सम्मोहित कर दिया।
नये-नये जब पहली दफा विद्युत के विज्ञापन बने तो थिर होते थे। फिर वैज्ञानिकों ने कहा कि थिर का यह परिणाम नहीं होता। जैसे लक्स टायलेट लिखा हो बिजली के अक्षरों में और थिर रहे अक्षर, तो आदमी एक ही बार पढ़ेगा। लेकिन अक्षर जलें, बुझें, जले, बुझें, तो जितनी बार जलेंगे, बुझेंगे, उतनी बार पढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। तुम चाहे कार में ही क्यों न बैठकर गुजर रहे होओ, जितनी देर तुम्हें बोर्ड के पास से गुजरने में लगेगी, उतनी देर में कम-से-कम दस-पंद्रह दफा अक्षर जलेंगे, बुझेंगे, उतनी बार पुनरुक्ति हो गयी। उतनी पुनरुक्ति तुम्हारे भीतर बैठ गयी।
इस तरह के बहुमूल्य सूत्र भी कूड़ा-कचरा हो गये हैं, क्योंकि उनके जो अर्थ किये गये ! एक-दो दिन की पुनरुक्ति नहीं है, हजारों वर्षों की पुनरुक्ति है। इसलिए तुम्हें मेरे साथ एक-एक शब्द को पुनः समझना होगा।
‘वेदांत’। इसका अर्थ किया गया है सदा से : वेदों की पराकाष्ठा, जो कि नितांत झूठ है। क्योंकि उपनिषद् वेदों की पराकाष्ठा नहीं है, वेदों से बगावत हैं, विद्रोह हैं। उपनिषद् यानी वेदांत। लेकिन इस झूठ को इतना देहराया गया कि उपनिषदों में वेदों की पराकाष्ठा है; जैसे फूलों की गंध होती है ऐसे वेदों के वृक्षों पर उपनिषदों के फूल लगे हैं, इन फूलों में जो गंध उठ रही है, उसकी जड़ें वेदों में है। यह बात सच नहीं है।वेदांत का अर्थ होता है: जहाँ वेद समाप्त हो गये। जहां वेदों का अंत हो गया। इसके बाद जो यात्रा है, उसके बाद जो आयाम है, शास्त्रों के पार, वेदों के पार, शब्दों के पार, सिद्धांतों के पार, वह वेदांत है।
वेद बहुत लौकिक है। कहीं-भूले-चूके कोई सूत्र आ जाता है जो प्यारा है, निन्यान्नबे प्रतिशत तो कचरा है। उपनिषद् उस कचरे की पराकाष्ठा नहीं हैं। उपनिषदों में वेदों का स्पष्ट विरोध है। कृष्ण ने भी गीता में वेदों का स्पष्ट विरोध किया है। लेकिन विरोध का ढंग और उस ढंग पर की गयी लीपा-पोती, सदियों-सदियों से पंडितों के चढ़ाए गए रंग, तुम्हें झूठ को मानने के लिए मजबूर कर दिये हैं। तुम्हारे अचेतन में झूठ बैठ गया है। कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है कि वेद लौकिक हैं, सांसारिक बुद्धि के लोग हैं, उनके लिए हैं। और जिन्हें अध्यात्म की खोज करनी है, उन्हें वेदों के पार जाना होगा।
यही बात महावीर ने कही। लेकिन बहुत साफ ढंग से कही। कृष्ण की बात को लीपा-पोता गया था। महावीर के समय तक आते-आते, बुद्ध के समय तक आते-आते समाधिस्थ व्यक्ति सजग हो गये थे कि पंडितों ने क्या दुर्व्यवहार किया है। अब दुबारा वैसा दुर्व्यवहार न हो सके, इसलिए महावीर और बुद्ध ने वेदों का स्पष्ट विरोध किया, सतत विरोध किया। परिणाम यह हुआ कि बुद्ध और महावीर को हिन्दू समाज स्वीकार न कर सका, पचा न सका, इनकार कर दिया। उनको भी पचा लिया होता, अगर उन्होंने ने भी जरा-सा अवसर दिया होता अपने शब्दों को तोड़े-मरोड़े जाने का, तो उनको भी पचा लिया होता। लेकिन वे सजग थे जो कि कृष्ण के साथ हुआ, जो उपनिषद् के ऋषियों के साथ हुआ, उनके साथ न हो जाए। उनकी सजगता का यह परिणाम था कि उन पर वेद नहीं थोपे जा सके। नहीं थोपे जा सके तो हिन्दुओं के पास एक ही उपाय था कि बुद्ध और महावीर की निंदा करें, उनको उखाड़ फेकें।
बुद्ध को तो बिलकुल उखाड़ फेंका भारत से। भारत में उनकी कोई रूपरेखा न बची, कोई नाम लेवा न बचा। महावीर को इस बुरी तरह से नहीं उखाड़ा और उसका भी कारण था, क्योंकि महावीर की बात बहुत लोगों तक पहुंच नहीं सकती थी। महावीर की बात इतनी दार्शनिक थी कि बहुत थोड़े-से लोगों तक पहुंच सकती थी—उनसे कुछ डर न था। पहुंच-पहुंचकर भी क्या होगा ? बहुत थोड़े-से लोग ही उसको समझ पायेंगे। बुद्ध की बात बड़ी सीधी थी, साफ थी। वह करोडों लोगों तक पहुंच सकती थी।। उससे खतरा था।
वेदांत का अर्थ तुम समझ लो, वेदों की पराकाष्ठा नहीं, वेदांत का अर्थ सीधा है : जहां वेदों का अंत हो जाता है। वेदों की जहां मृत्यु हो जाती है। वेदों की राख से जो उठता है वह वेदांत है। वेदों की पराकाष्ठा नहीं है, वेदों से बगावत, विद्रोह !
और होगी भी यह बगावत, क्योंकि वेद हैं क्या ? अगर तुम वेदों के पन्ने उलटाओ—कहीं से भी खोल लो वेद को—तो तुम चकित होओगे कि क्यों इन शब्दों को, इन सूत्रों को धर्म का नाम दिया गया है। साधारण आकांक्षाएं हैं। कोई मांग रहा है फसल ज्यादा हो; कोई मांग रहा है इंद्र से कि वर्षा ज्यादा हो जाए; कोई मांग रहा है धन-धान्य; कोई मांग रहा है—उसके गउओं के थनों में दूध ही दूध भर जाए। और इतना ही नहीं, उसके दुश्मन की गउओं के थन बिलकुल सूख जायें। मेरे खेत में वर्षा हो इतना ही नहीं, पड़ोसी के खेत में वर्षा ही न हो। यह, इसको भी आध्यात्म कहोगे ? यह तो बड़ी निम्न वृत्तियां हुईं। मेरे शत्रुओं को नष्ट कर दे, हे इन्द्र देवता, उन पर बिजली गिरा दे, उनको राख कर दे। इसको अध्यात्म और धर्म कहोगे ? यह तो मनुष्य की सामान्य ईर्ष्याएं, शत्रुताएं, हिंसाएं, वैमनस्य, उसके ही प्रतीक हैं। जरूर कहीं-कहीं वेद में कोई सूत्र आ जाता है जो बड़ा प्यारा है, लेकिन सौ में एक बार। निन्यान्नबे बार तो कचरा ही हाथ लगेगा। और उस कचरे में वे हीरे भी खो गये।
उपनिषद् हीरे ही हैं। वहां कचरा नहीं है।
उपनिषद् शब्द भी बड़ा प्यारा शब्द है। उसे समझो तो वेदांत भी समझ में आ जाएगा। उपनिषद् का अर्थ होता है : गुरु के पास बैठना है—उप-निषद्—पास बैठना। बस, इतना ही अर्थ है उपनिषद् का। गुरु के पास मौन होकर बैठना; जिसने जाना है, उसके पास शून्य होकर बैठना। और उस बैठने में ही हृदय से हृदय आंदोलित हो जाते हैं। उस बैठने में ही सत्संग फैल जाता है। जो नहीं कहा जा सकता, वह कहा जाता है। जो नहीं सुना जा सकता, वह सुना जाता है। हृदय की वीणा बज उठती है। जिसने जाना है उसकी वीणा बज रही है। जिसने नहीं जाना है, वह अगर पास सरक आए तो उसके तारों में भी टंकार हो जाती है।
संगीतज्ञों का यह अनुभव है, अगर एक ही कमरे में---खाली कमरे में—सिर्फ दो वीणाएं रखी जाएं, द्वार-दरवाजे बंद हों और एक वीणा पर वीणावादक तार छेड़ दे, संगीत उठा दे, तो दूसरी वीणा जो कोने में रखी है, जिसको उसने छुआ भी नहीं, उस वीणा के तार भी झंकृत होने लगते हैं। एक वीणा बजती है तो हवाओं में आंदोलन हो जाता है, हवाओं में संगीत-लहरी फैल जाती है, स्पंदन हो जाता है। वह स्पंदन जिस वीणा को छुआ भी नहीं है, उसके भीतर भी सोए संगीत में हलचल मचा देता है। उसके तार भी जैसे नींद से जाग आते हैं, जैसे सुबह हो गयी।
आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले एक वैज्ञानिक ने पहली दफा इस सिद्धांत को खोजा। वह इसे कोई नाम न दे सका। फिर भी कुछ वर्षों पहले, कोई चालीस वर्ष पहले कार्ल गुस्ताव जिंग नाम के एक बहुत बड़े वैज्ञानिक ने इसे नाम दिया : ‘सिंक्रानिसिटी’। जिस वैज्ञानिक ने पहली दफा यह खोज की थी, वह एक पुराने किले में मेहमान था, एक राजा के घर मेहमान था। और जिस कमरे में वह था, दो घड़ियां उस कमरे में एक ही दीवार पर लटकी हुई थीं। पुराने ढब की घड़ियां। मगर वह हैरान हुआ यह बात जानकर कि उनका पेंडुलम एक साथ घूमता है। मिनिट और सेकंड भी भिन्न नहीं। सेकंड-सेकंड वे एक साथ चलतीं। इन दो घड़ियों के बीच उसे कुछ ऐसा तालमेल दिखायी पड़ा—वैज्ञानिक था, सोच में पड़ गया ! कि इस तरह की दो घड़ियां उसने देखी नहीं जिनमें सेकंड का भी फर्क न हो। तो उसने एक काम किया, कि यह संयोग हो सकता है, उसने एक घड़ी बंद कर दी रात को। और दूसरे दिन सुबह शुरू की और दोनों के बीच कोई तीन-चार मिनिट का फासला रखा। चौबीस घंटे पूरे होते-होते दोनों घड़ियां फिर साथ-साथ डोल रही थीं। बराबर, सेकंड-सेकंड करीब आ गये थे, पेंडुलम फिर साथ-साथ लयबद्ध हो गये थे। तब तो वह चमत्कृत हो गया। राज़ क्या है ? आया था दिन-दो दिन के लिए, लेकिन सप्ताहों रुका—जब तक राज़ न खोल लिया।
राज़ यह था कि वह जिस दीवाल पर लटकी थीं, उस पर कान लगा-लगाकर वह सुनता रहा कि क्या हो रहा है, तब उसे समझ में आया कि एक घड़ी की टिक्-टिक्, जो बड़ी घड़ी थी उसकी टिक् टिक् दिवाल के द्वारा दूसरी घड़ी के पेंडुलम को भी संचालित कर रही है, उसमें एक लयबद्धता पैदा कर रही है। और बड़ी घड़ी इतनी बलशाली है कि छोटी घड़ी करे भी तो क्या करे ! वह छोटी घड़ी सहज ही उसके साथ लयबद्ध हो जाती है।
उसने इसको सिर्फ लयबद्धता कहा था। लेकिन जुंग ने इसे पूरा वैज्ञानिक आधार दिया और ‘सिंक्रानिसिटी’ कहा; और सिर्फ घड़ियों के लिए नहीं, जीवन के समस्त आयामों में इस लयबद्धता के सिद्धांत को स्वीकार किया।
रहस्यवादी तो इस सिद्धांत से हजारों वर्षों से परिचित हैं। सत्संग का यही राज है, ‘सिंक्रानिसिटी’। सद्गुरु यूं समझो कि बड़ी घड़ी, कि बड़ा सितार। शिष्य यूं समझो कि छोटी घड़ी, छोटा सितार। और शिष्य अगर राजी हो, श्रद्धा से भरा हो और बड़े सितारों के पास सिर्फ बैठ रहे—कुछ न करे, तो भी उसके तार झंकृत हो जाएंगे।
उपनिषद् का अर्थ है : लयबद्धता। उप का अर्थ होता है : पास, निषद् का अर्थ होता है : बैठना। यही उपासना का अर्थ है। उप आसन। पास बैठना। यही उपवास का अर्थ है : पास बैठना। मगर कैसे अर्थ विकृत हो गये ! उपवास का अर्थ हो गया—अनशन, भूखे मरना। उपवास का अर्थ होता है : पास वास करना—इतने निकट हो जाना गुरु के ! हां, कभी-कभी यह होगा कि गुरु की निकटता में ऐसा पेट भर जाएगा कि शायद भूख की याद भी न आए। इसी कारण अनशन की विकृति पैदा हुई। गुरु के आनंद में डूबकर अगर भोजन की याद न आए, तो उपवास; और जबर्दस्ती भोजन न किया जाए, तो अनशन। अनशन हिंसा है, उपवास प्रेम है। उनमें जमीन-आसमान का भेद है।
इधर सोहन बैठी है, उससे पूछो। मैं उससे पूछता था जब उसके घर मेहमान होता था, पूना आता था, कि तू मुझे खिलाती है—और मेरे कारण न मालूम कितने मेहमान दिनभर उसके घर आते, उन सबको खिलाती है, और तू कुछ खाती-पीती दिखायी नहीं पड़ती ! तो वह मुझसे कहने लगी, जब आप यहां होते हैं, मुझे भूख ही नहीं लगती। मैं खुद चकित हूं कि भूख कहां को जाती है ? मैं इतनी भरी-भरी हो जाती हूं कि भीतर जगह ही नहीं रहती।
प्रेम भोजन से भी बड़ा भोजन है। और जरूर भरता है, बहुत भर देता है। शायद भोजन की याद भी न आए। इस कारण एक गलत अर्थ हो गया उपवास का : अनशन।
उपासना का अर्थ : पास बैठना। उसका भी गलत अर्थ हो गया। अब तुम मूर्ति की अराधना कर रहे हो। थाली सजायी हुई है, आरती बनाई हुई है, दीये जलाये हुए हैं, धूप जलायी हुई है और इसको तुम उपासना कह रहे हो। नहीं, उपासना तो केवल सद्गुरु के पास बैठना होता है। और उसके पास बैठना ही आरती है, आराधना है। उसके पास बैठना ही तुम्हारे भीतर के दीये का जलना है। उसके पास बैठते ही तुम्हारे भीतर धूप जल उठती है, सुगंध उठने लगती है।
वेदांत पैदा हुआ उपनिषद् में; गुरु-शिष्यों के अंतरंग सान्निध्य में।
वेदांत का अर्थ है : जहां शब्द नहीं हैं, जहां सिद्धांत नहीं, जहां वेदों का तो अंत हो गया, जहां सब शास्त्र बहुत पीछे छोड़ दिये गये—मन ही पीछे छोड़ दिया गया ! मन में ही शास्त्र हो सकते हैं; मन के पार तो शास्त्र नहीं हो सकते। वेदांत है : मन के पार उड़ान; अ-मनी दशा। वेदांत है : ध्यान, समाधि।
तो पहले तो वेदांत का अर्थ ठीक से समझ लो, नहीं तो भूल हो जाएगी। फिर मेरा अर्थ पकड़ में नहीं आएगा।
दूसरा शब्द है : ‘विज्ञान’। तुमने, सहजानंद, विज्ञान का अर्थ किया : प्रकृति का ज्ञान। क्योंकि अब हम साइंस के अर्थों में शब्दों का प्रयोग करते हैं। यह हमारी नयी बात है। हमारे पास साइंस के लिए कोई शब्द न था, हमने विज्ञान शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया। मगर तुम उपनिषदों पर इस अर्थ को मत थोपो ! उपनिषदों में तो विज्ञान का बहुत सीधा अर्थ है, वह है : विशेष ज्ञान। विज्ञान यानी विशेष ज्ञान। ज्ञान वह है जो दूसरों से मिलता है और विशेष ज्ञान वह है जो अपने भीतर ही आर्विभूत होता है। उसका कोई साइंस से लेना देना नहीं है। विज्ञान का अर्थ प्रकृति का ज्ञान नहीं है। विज्ञान का अर्थ है : विशेष; उधार नहीं, निज का। वही उसकी विशिष्टता है, उसकी अद्वितीयता है।
वेदांत और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हुए। वेदांत है : शास्त्र के पार जाना—वह है मार्ग—और विज्ञान ही है उपलब्धि; विशेष ज्ञान की प्रतीति, अनुभूति, साक्षात्कार—विश्वास नहीं, अपना अनुभव। और तभी जीवन का सुनिश्चचित अर्थ पता चलता है।
अब इस वचन को तुम समझो
‘वेदान्त विज्ञान सुनिश्चितार्थाः
जिसने वेदांत के साधन से विज्ञान को उपलब्ध किया है, उसे जीवन का अर्थ और
अभिप्राय पता चलता है। उसके बिना जीवन का अर्थ पता नहीं चलता है। मगर इस
पर कितना कचरा थोपा गया है ! ऐसी ही घटना और शब्दों के साथ भी हुई।
‘संन्यास योगाद् यतयः शुद्ध-सत्वाः
संन्यास का अर्थ पकड़ गया, जड़ हो गया; संसार को छोड़ दे जो, वह संन्यासी।
तो फिर जनक संन्यासी नहीं हैं। लेकिन जनक से ज्यादा किसने जाना ? और अगर
जनक संसार में रहकर जान सकते हैं, तो संन्यास फिर अपरिहार्य न रहा। और
संन्यास निश्चित ही अपरिहार्य है, अनिवार्य है। संन्यास के बिना कोई भी
नहीं जान सकता। तो हमें संन्यास को कुछ पुनः आविष्कार करना होगा, इसके छिप
गये अर्थ को।
संन्यास का अर्थ संसार को छोड़ देना नहीं है। संन्यास का अर्थ है : असार, व्यर्थ जो हम पकड़े हुए हैं, उसका छूट जाना—छोड़ना नहीं, छूट जाना। भेद स्पष्ट कर लेना। वही भूल हो गयी है। जैसे महावीर से तो साम्राज्य छूटा, लेकिन देखनेवालों ने समझा कि छोड़ा। देखनेवालों का भी कसूर नहीं, देखनेवालों की अपनी मुसीबत है। देखनेवालों की तकलीफ है कि वे तो पकड़े हुए हैं धन को, वे कैसे मानें कि धन अपने से छूट जाता है। उनका अपने जीवन का—एक जीवन का नहीं, अनंत जीवन का....अनुभव। यह है कि वे तो और-और पकड़ना चाहते हैं। तो जब वे देखते हैं कि कोई व्यक्ति छोड़कर चला गया, तो स्वभावतः वे सोचते हैं, धन्य है, कैसा त्याग किया ! कैसा महात्यागी ! छोड़ दिया ! हमसे तो छूटती नहीं एक कौड़ी और इसने हीरे-जवाहरात छोड़ दिये ! हमसे नहीं छूटता कुछ भी और इसने सब छोड़ दिया। साम्राज्य छोड़ दिया, लेकिन यह दर्शकों की दृष्टि है, यह महावीर की अंतरंग दृष्टि नहीं है। महावीर से पूछो। महावीर ने छोड़ा नहीं है, छूटा है।
और भेद तो बहुत बड़ा है।
छोड़ने का मतलब ही यह होता है : अभी लगाव कायम था, अभी आसक्ति बनी थी, जबरदस्ती करनी पड़ी है, जैसे कोई कच्चे फल को तोड़ता है। कच्चे फल को तोड़ना पड़ता है, पका फल अपने से गिरता है, न कोई पीड़ा होती, सिर्फ वृक्ष निर्भार होता है। और जब पका फल गिरता है तो पके फल को भी कोई पीड़ा नहीं होती। क्योंकि पक गया, अब पीड़ा का कोई सवाल नहीं था। अब यह गिरना बिलकुल नैसर्गिक है, स्वाभाविक है, आवश्यक है, प्रकृति के अनुकूल है। एस धम्मो सनंतनो। यही धर्म है। लेकिन जब कोई कच्चे फल को तोड़ता है, तो तोड़ना पड़ता है। फल को भी चोट लगती है, क्योंकि फल अभी कच्चा है, अभी पका ही नहीं, तुमने उसके पूरे जीवन को विकसित होने का अवसर न दिया; जैसे किसी ने कली को तोड़ लिया, फूल भी न होने दिया। तो निश्चित ही तुमने हिंसा की। और कच्चे फल को तुम जब तोड़ते हो, वृक्ष को भी पीड़ा होती है।
एक ज्योतिषी के जीवन में उल्लेख है, अकबर ने उसे बुलाया था, बड़ी उसकी ख्याति सुनी थी। बहुत दिन से ख्याति सुन रहा था, लेकिन बुलाने में डरता भी था। यूं अकबर ने देश के सारे के सारे रत्न इकट्ठे कर लिये थे ! तानसेन था वहां, इस देश का सबसे बड़ा संगीतज्ञ, उन दिनों का ही नहीं, सारे-सारे दिनों का; बीरबल था वहां; और तरह-तरह के रत्न थे, नौ रत्न थे—इस ज्योतिषी के लिए भी बहुत खबरें आयी थीं कि इसे भी अपने दरबार में बुला लो। लेकिन एक खतरा था कि ज्योतिषी बहुत मुंहफट है। दो और दो चार, दो और दो चार ही कहता है। मगर बात इतनी आती रही, आती रही कि अकबर उत्सुक होता गया, आखिर उसने कहा ही क्या कहेगा आखिर, बुला ही लो ! एक दफा तो देखें कि वह क्या, किस तरह का आदमी है !
ज्योतिषी आया। अकबर ने पूछा कि कुछ मेरे संबंध में कहें। ज्योतिषी ने हाथ देखा और कहा कि पहले तुम मरोगे, फिर तुम्हारे बेटे मरेंगे, फिर उनके बेटे मरेंगे। अकबर ने कहा, यह भी कोई बात हुई ! तो लोग ठीक ही कहते थे। कुछ और तुम्हें नहीं सूझता ? मैं मरूँगा, मेरे बेटे मरेंगे, उनके बेटे मरेंगे—यही कहने तुम इतनी दूर आए ! मेरे दरबार में और भी ज्योतिषी हैं, किसी ने कभी यह नहीं कहा। उसने कहा, वे ज्योतिषी भी यह कह रहे होंगे, सिर्फ लीप-पोतकर कहते होंगे। लेकिन मैं सच कह रहा हूं। और न केवल मैं यह कह रहा हूं, भविष्यवाणी है, यह मेरा आशीर्वाद भी है कि पहले तुम मरो, फिर बेटे मरें, फिर उनके बेटे मरें। क्योंकि यही प्रकृति का नियम है। बेटे तुम्हारे बाद मरें, तुमसे पहले न मर जाएं। नहीं तो कच्चे होंगे। तुम पहले मरो। बेटे पहले मर जाएं तो दुर्घटना। बाप पहले मरे तो कोई दुर्घटना नहीं है। मैं इतना ही कह रहा हूं : बाप का मरना पहले बेटों से बिलुकल ही अस्वाभाविक है; तब तक बेटे बाप हो जाएंगे, फिर वे मरेंगे, फिर उनके बेटे मरेंगे—ऐसा मरते ही रहेंगे। मैं तो सीधी-सीधी बात कह रहा हूं।
संन्यास का अर्थ संसार को छोड़ देना नहीं है। संन्यास का अर्थ है : असार, व्यर्थ जो हम पकड़े हुए हैं, उसका छूट जाना—छोड़ना नहीं, छूट जाना। भेद स्पष्ट कर लेना। वही भूल हो गयी है। जैसे महावीर से तो साम्राज्य छूटा, लेकिन देखनेवालों ने समझा कि छोड़ा। देखनेवालों का भी कसूर नहीं, देखनेवालों की अपनी मुसीबत है। देखनेवालों की तकलीफ है कि वे तो पकड़े हुए हैं धन को, वे कैसे मानें कि धन अपने से छूट जाता है। उनका अपने जीवन का—एक जीवन का नहीं, अनंत जीवन का....अनुभव। यह है कि वे तो और-और पकड़ना चाहते हैं। तो जब वे देखते हैं कि कोई व्यक्ति छोड़कर चला गया, तो स्वभावतः वे सोचते हैं, धन्य है, कैसा त्याग किया ! कैसा महात्यागी ! छोड़ दिया ! हमसे तो छूटती नहीं एक कौड़ी और इसने हीरे-जवाहरात छोड़ दिये ! हमसे नहीं छूटता कुछ भी और इसने सब छोड़ दिया। साम्राज्य छोड़ दिया, लेकिन यह दर्शकों की दृष्टि है, यह महावीर की अंतरंग दृष्टि नहीं है। महावीर से पूछो। महावीर ने छोड़ा नहीं है, छूटा है।
और भेद तो बहुत बड़ा है।
छोड़ने का मतलब ही यह होता है : अभी लगाव कायम था, अभी आसक्ति बनी थी, जबरदस्ती करनी पड़ी है, जैसे कोई कच्चे फल को तोड़ता है। कच्चे फल को तोड़ना पड़ता है, पका फल अपने से गिरता है, न कोई पीड़ा होती, सिर्फ वृक्ष निर्भार होता है। और जब पका फल गिरता है तो पके फल को भी कोई पीड़ा नहीं होती। क्योंकि पक गया, अब पीड़ा का कोई सवाल नहीं था। अब यह गिरना बिलकुल नैसर्गिक है, स्वाभाविक है, आवश्यक है, प्रकृति के अनुकूल है। एस धम्मो सनंतनो। यही धर्म है। लेकिन जब कोई कच्चे फल को तोड़ता है, तो तोड़ना पड़ता है। फल को भी चोट लगती है, क्योंकि फल अभी कच्चा है, अभी पका ही नहीं, तुमने उसके पूरे जीवन को विकसित होने का अवसर न दिया; जैसे किसी ने कली को तोड़ लिया, फूल भी न होने दिया। तो निश्चित ही तुमने हिंसा की। और कच्चे फल को तुम जब तोड़ते हो, वृक्ष को भी पीड़ा होती है।
एक ज्योतिषी के जीवन में उल्लेख है, अकबर ने उसे बुलाया था, बड़ी उसकी ख्याति सुनी थी। बहुत दिन से ख्याति सुन रहा था, लेकिन बुलाने में डरता भी था। यूं अकबर ने देश के सारे के सारे रत्न इकट्ठे कर लिये थे ! तानसेन था वहां, इस देश का सबसे बड़ा संगीतज्ञ, उन दिनों का ही नहीं, सारे-सारे दिनों का; बीरबल था वहां; और तरह-तरह के रत्न थे, नौ रत्न थे—इस ज्योतिषी के लिए भी बहुत खबरें आयी थीं कि इसे भी अपने दरबार में बुला लो। लेकिन एक खतरा था कि ज्योतिषी बहुत मुंहफट है। दो और दो चार, दो और दो चार ही कहता है। मगर बात इतनी आती रही, आती रही कि अकबर उत्सुक होता गया, आखिर उसने कहा ही क्या कहेगा आखिर, बुला ही लो ! एक दफा तो देखें कि वह क्या, किस तरह का आदमी है !
ज्योतिषी आया। अकबर ने पूछा कि कुछ मेरे संबंध में कहें। ज्योतिषी ने हाथ देखा और कहा कि पहले तुम मरोगे, फिर तुम्हारे बेटे मरेंगे, फिर उनके बेटे मरेंगे। अकबर ने कहा, यह भी कोई बात हुई ! तो लोग ठीक ही कहते थे। कुछ और तुम्हें नहीं सूझता ? मैं मरूँगा, मेरे बेटे मरेंगे, उनके बेटे मरेंगे—यही कहने तुम इतनी दूर आए ! मेरे दरबार में और भी ज्योतिषी हैं, किसी ने कभी यह नहीं कहा। उसने कहा, वे ज्योतिषी भी यह कह रहे होंगे, सिर्फ लीप-पोतकर कहते होंगे। लेकिन मैं सच कह रहा हूं। और न केवल मैं यह कह रहा हूं, भविष्यवाणी है, यह मेरा आशीर्वाद भी है कि पहले तुम मरो, फिर बेटे मरें, फिर उनके बेटे मरें। क्योंकि यही प्रकृति का नियम है। बेटे तुम्हारे बाद मरें, तुमसे पहले न मर जाएं। नहीं तो कच्चे होंगे। तुम पहले मरो। बेटे पहले मर जाएं तो दुर्घटना। बाप पहले मरे तो कोई दुर्घटना नहीं है। मैं इतना ही कह रहा हूं : बाप का मरना पहले बेटों से बिलुकल ही अस्वाभाविक है; तब तक बेटे बाप हो जाएंगे, फिर वे मरेंगे, फिर उनके बेटे मरेंगे—ऐसा मरते ही रहेंगे। मैं तो सीधी-सीधी बात कह रहा हूं।
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