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ओशो साहित्य >> साधना सूत्र आत्मा का कमल

साधना सूत्र आत्मा का कमल

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3657
आईएसबीएन :81-288-0884-2

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प्रस्तुत है साधना सूत्र आत्मा का कमल...

Sadhana Sootra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ओशो की वाणी में इतनी प्रबल शक्ति है कि उनका साहित्य पढ़ते समय भी उसकी ध्वनि निरंतर आसपास मंडराती रहती है। उनके शब्द कभी बड़े प्यार से आपको अपनी बाँहों में भर लेते हैं, सहलाते हैं; कभी आवाहन करते हैं और आपके अहसास को प्रखर करते रहते हैं। यही कारण होगा कि साधना-सूत्र जैसा कठिन विषय क्यों न हो, ओशो बड़ी सहजता से उस विषय की अंतरतम की पंखुड़ियाँ खोलकर रख देते हैं।

13. मार्ग की शोध करो।

थोडा रुको और विचार करो।
तुम मार्ग पाना चाहते हो, या तुम्हारे मन में ऊंची स्थिति प्राप्त करने, ऊंचे चढ़ने और एक विशाल भविष्य निर्माण करने के स्वप्न हैं, सावधान !
मार्ग के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है—तुम्हारे ही चरण उस पर चलेंगे, इसलिए नहीं।

14. अपने भीतर लौटकर मार्ग की शोध करो।
15. बाह्य जीवन में हिम्मत से आगे बढ़कर मार्ग की शोध करो।

जो मनुष्य साधना-पथ में प्रविष्ठ होना चाहता है,
उसको अपने समस्त स्वभाव को बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग में लाना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य पूर्णरूपेण स्वयं अपना मार्ग, अपना सत्य, और अपना जीवन है।
और इस प्रकार उस मार्ग को ढूंढ़ो। उस मार्ग को जीवन और अस्तित्व के नियमों, प्रकृति के नियमों एवं पराप्राकृतिक नियमों के अध्ययन के द्वारा ढूंढ़े।
ज्यों-ज्यों तुम उसकी उपासना और उसका निरीक्षण करते जाओगे,
उसका प्रकाश स्थिर गति से बढ़ता जाएगा।
तब तुम्हें पता चलेगा कि तुमने मार्ग का प्रारंभिक छोर पा लिया है। और जब मार्ग का अंतिम छोर पा लोगे,
तो उसका प्रकाश एकाएक अनंत प्रकाश का रूप धारण कर लेगा।
उस भीतर के दृश्य से न भयभीत होओ और न आश्चर्य करो। उस धीमें प्रकाश पर अपनी दृष्टि रखो। तब वह प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ेगा

लेकिन अपने भीतर के अंधकार से सहायता लो और समझो कि जिन्होंने प्रकाश देखा ही नहीं है,
वे कितने असहाय हैं और उनकी आत्मा कितने गहन अंधकार में है !
तेरहवां सूत्र ‘मार्ग की शोध करो। थोड़ा रुको और विचार करो। तुम मार्ग पाना चाहते हो, या तुम्हारे मन में ऊंची स्थिति प्राप्त करने, ऊंचे चढ़ने और एक विशाल भविष्य निर्माण करने के स्वप्न हैं। सावधान ! मार्ग के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है—तुम्हारे ही चरण उस पर चलेंगे, इसलिए नहीं।’

इस सूत्र में बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। पहली बात, मार्ग मिला हुआ नहीं है। उसकी खोज करनी है। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति इस भ्रांति में है कि मार्ग मिला हुआ है। और सारी दुनिया में धर्म को नष्ट करने में अगर किसी बात ने सबसे ज्यादा सहायता पहुंचाई है, तो वह इस भ्रांति में है कि वह मार्ग मिला हुआ है।

जन्म के साथ मार्ग नहीं मिलता, लेकिन सभी धर्मों ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि जन्म के साथ वे धर्म भी आपको दे देते हैं ! माँ के दूध के साथ धर्म भी दे दिया जाता है ! बच्चा जब होता है अबोध, और कुछ न चिंता होती है, न कोई मनन होता है, न कोई समझ होती है, तभी गहरे अचेतन में हम मार्ग को डाल देते हैं ! मां-बाप अपने मार्ग को डाल देते हैं ! उनका भी वह मार्ग नहीं है ! वह भी उनके मां-बाप ने उनमें डाल दिया है। तो आप हिंदू की तरह पैदा होते हैं, मुसलमान की तरह, जैन की तरह, ईसाई की तरह। आप जन्म के साथ किसी मार्ग से जुड़ जाते हैं, जोड़ दिए जाते हैं।
कोई व्यक्ति न हिंदू पैदा होता है, न मुसलमान। न हो सकता है। हिंदू घर में पैदा हो सकता है, लेकिन हिंदू कोई भी पैदा नहीं हो सकता। मुसलमान घर में पैदा हो सकता है, लेकिन मुसलमान पैदा नहीं हो सकता। आदमी पैदा हो सकता है, जब उसके पास कोई धर्म, कोई मार्ग नहीं होता है। मार्ग-मां-बाप, परिवार, समाज, जाति, बच्चे के ऊपर थोप देते हैं। और वे थोपने में जल्दी करते हैं, क्योंकि अगर बच्चे होश में आ जाए, तो वह थोपने में बाधा डालेगा। इसलिए बेहोशी में थोपा जाता है।

सभी धर्म बच्चों की गर्दन पकड़ने में बड़ी जल्दी करते हैं। जरा सी देर—और भूल हो जाएगी। और एक बार बच्चा अगर अचेतन की अवस्था से चेतन में आ गया, होश सम्हाल लिया, तो फिर आप धर्म को थोप ही न पाएंगे। फिर तो बच्चा अपनी ही खोज करेगा। और हो सकता है कि हिंदू के घर को लगे कि ईसाई मार्ग उसके लिए है। और ईसाई घर के बच्चे को लगे कि हिन्दू मार्ग उसके लिए है। बड़ी अस्तव्यस्तता हो जाएगी। वैसी अस्तव्यस्तता न हो जाए, मेरा बेटा मेरे धर्म को छोड़ कर न चला जाए, तो अचेतन में हम अपराध करते हैं, हम बच्चे की गर्दन को जकड़ देते हैं संस्कारों से। मनुष्य ने अब तक जो बड़े से बड़े पाप किए हैं, उनमें से यह सबसे बड़ा पाप है।

इसे मैं क्यों सबसे बड़ा पाप कहता हूँ ? क्योंकि इसका यह अर्थ हुआ कि हमने बच्चे को एक झूठा धर्म दे दिया है, जो उसका चुनाव नहीं है। और धर्म कुछ ऐसी बात है कि जब तक आप न चुनें, तब तक सार्थक नहीं होगा। जब आप ही चुनते हैं, अपने प्राणों की खोज से, पीड़ा से, प्यास से, तो आप ही धार्मिक होते हैं। यह दूसरों का दिया हुआ धर्म ऊपर-ऊपर रह जाता है। और इसके कारण आपकी अपनी खोज में बाधा पड़ती है।

इसलिए देखें, जब बुद्ध जीवित होते हैं, या महावीर होते हैं, या मोहम्मद जीवित होते हैं, या ईसा—तो उस सम जो धर्म का प्रकाश होता है और जो लोग उनके पास आते हैं, उनके जीवन में जैसी क्रांति घटित होती है, फिर बाद में वह गति मद्धिम होती चली जाती है। क्योंकि बुद्ध के पास जो लोग आकर दीक्षित होते हैं, वह उनका खुद का चुनाव है कि वे बौद्ध हो रहे हैं। सोच-विचार से, अनुभव से, साधना से, उन्हें लगा है कि बुद्ध का मार्ग ठीक है, तो वे बुद्ध के पीछे आ रहे हैं। यह उनका निजी चुनाव है, यह उनका अपना समर्पण है। यह प्रतिबद्दता किसी और ने नहीं दी है, उन्होंने खुद ली है। तब मजा और ही है। तब वे अपने पूरे जीवन को दांव पर लगा देते हैं। क्योंकि जो उन्हें ठीक लगता है, उस पर जीवन दांव पर लगाया जा सकता है। लेकिन उनके बच्चे पैदायशी बौद्ध होंगे। उनका चुनाव नहीं होगा। उन्होंने खुद निर्णय न लिया होगा। उन्होंने सोचा भी न होगा। बौद्ध धर्म उनकी छाती पर बिठा दिया जाएगा।

ध्यान रहे, जो आप अपनी मर्जी से चुनते हैं, अगर नर्क भी चुनें अपनी मर्जी से तो वह स्वर्ग होगा। और अगर स्वर्ग भी जबरदस्ती आपके ऊपर रख दिया जाए तो वह नर्क हो जाएगा। जबर्दस्ती में नर्क है। अगर ऊपर से कोई चीज थोप दी जाए, तो वह आनंद भी अगर हो, तो भी दुख हो जाएगा। थोपने में दुख हो जाता है। और जो चीज थोपी जाती है, वह कारागृह बन जाती है।
तो न तो आज जमीन पर हिंदू है, न मुसलमान, न बौद्ध। आज कैदी हैं। कोई हिंदू कैदखाने में है, कोई मुसलमान कैदखाने में है, कोई जैन कैदखाने में है। कैदखाना इसलिए कहता हूं कि आपने कभी सोचा ही नहीं कि आपको जैन होना है, कि हिंदू होना है, कि मुसलमान होना है। आपने चुना नहीं है। यह आपकी गुलामी है। लेकिन गुलामी इतनी सूक्ष्म है कि कि आपको पता नहीं चलता, क्योंकि आपके होश में नहीं डाली गई है। जब आप बेहोश थे, तब यह गुलामी, यह जंजीर आपके हाथ में पहना दी गई। जब आपको होश आया तो आपने जंजीर अपने हाथ में ही पाई। और इसे जंजीर भी नहीं कहा जाता है। इसे आपके मां-बाप ने, परिवार ने, समाज ने समझाया है कि आभूषण है ! आप इसको सम्हालते हैं, कोई तोड़ न दे। यह आभूषण है और बड़ा कीमती है, आप इसके लिए जान लगा देंगे।

एक बड़े मजे की घटना घटती है। अगर हिंदू धर्म पर खतरा हो तो आप अपनी जान लगा सकते हैं। आप हिंदू धर्म, मुसलमान या ईसाई, किसी भी धर्म के लिए मर सकते हैं, लेकिन जी नहीं सकते। अगर आपसे कहा जाए कि जीवन हिंदू की तरह जीओ, जीने को राजी नहीं हैं। लेकिन अगर झगड़ा-फसाद हो तो आप मरने के लिए राजी हैं ! वह आदमी हिंदू धर्म के लिए मरने को राजी है, जो हिंदू धर्म के लिए जीने के लिए कभी राजी नहीं था ! क्या मामला है ?
कहीं कोई रोग हैं, कहीं कोई बीमारी है। जीने के लिए हमारी कोई उत्सुक्ता नहीं है। मार-काट के लिए हम उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि जैसे ही कोई हमारे धर्म पर हमला करता है, हमें होश ही नहीं रह जाता। वह हमारा बेहोश हिस्सा है, जिस पर हमला किया जा रहा है।

इसलिए जब भी हिंदू-मुसलमान लड़ते हैं, तो आप यह मत समझना कि वे होश में लड़ रहे हैं। वे तो बेहोशी में लड़ रहे है। बेहोशी में वे हिंदू-मुसलमान हैं, होश में नहीं है। इसलिए कोई भी उनके अचेतन मन को चोट कर दे, तो बस पागल हो जाएंगे। न हिंदू लड़ते हैं, न मुसलमान लड़ते हैं—पागल लड़ते हैं। कोई हिंदू मार्का पागल है। कोई मुसलमान मार्का पागल है। या मार्कों का फर्क हैं, लेकिन पागल है।
और आपके भीतर धर्म उस समय डाला जाता है, जब तर्क की कोई क्षमता नहीं होती।
इसलिए मैं कहता हूं कि यह सबसे बड़ा पाप है। और जब तक यह पाप बंद नहीं होता, जब तक हम प्रत्येक व्यक्ति को अपने मार्ग की खोज की स्वतंत्रता नहीं देते, तब तक दुनिया धार्मिक नहीं हो सकेगी। क्योंकि धार्मिक होने के लिए स्वयं का निर्णय चाहिए।

इसे हम ऐसा समझें तो आसान हो जाएगा।
पुराने दिनों में, हमारे मुल्क में तो अभी भी, अभी थोड़े दिन पहले तक हम बाल-विवाह कर देते थे। न तो पति को कोई प्रयोजन था कि किससे हो रहा है विवाह, न पत्नी को कोई प्रयोजन था कि किससे हो रहा है विवाह, बच्चे इतने छोटे थे कि उन्हें अभी पता भी नहीं था कि क्या हो रहा है ! पति-पत्नी हम उन्हें बना देते थे उनकी अचेतना में, उनको होश नहीं होता था, बेहोशी में, जैसे जन्म के साथ बहन, मां-बाप मिलते हैं, ऐसी ही बेहोशी में पत्नी और पति भी मिल जाते थे।
एक सुविधा थी बाल-विवाह में कि उसको तोड़ना बहुत मुश्किल था। क्योंकि अचेतन से जुड़ जाता था, होश की बात ही नहीं था, चुनाव का कोई सवाल ही नहीं था तो तोड़ने का सवाल कहां था ? बाल विवाह जिन्होंने खोजा होगा, वे बहुत कुशल लोग थे। उसका मतलब यह था कि विवाह अब टूटेगा नहीं। क्योंकि जो कभी सचेतन रूप में जोड़ा नहीं गया, वह सचेतन रूप से तोड़ा भी नहीं जा सकता। तो विवाह चलेगा, स्थाई होगा, लेकिन उस विवाह में प्रेम की घटना नहीं घटेगी।

ध्यान रहे, पास रह कर, समीप रह कर, साथ रह कर, एक तरह का मैत्रीभाव बन जाता है, लेकिन वह प्रेम नहीं है। प्रेम तो एक पागलपन है, प्रेम तो एक उन्माद है।
बाल-विवाह में प्रेम घटता ही नहीं। असल में बाल-विवाह की तरकीब ही इसीलिए है कि प्रेम घटे न, क्योंकि प्रेम खतरनाक है, वह घटे ही न, विवाह सुरक्षित है, प्रेम खतरनाक है। प्रेम इतनी ऊंचाइयां लेता है कि खतरा है, अगर वहां से गिरे तो उतनी ही गहराइयों में गिर जाएंगे। विवाह में कभी गिर नहीं सकते आप, क्योंकि उसकी कोई ऊंचाई नहीं होती, समतल जमीन पर यात्रा है।


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